Chapter 9, Verse 13

Text

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।

Transliteration

mahātmānas tu māṁ pārtha daivīṁ prakṛitim āśhritāḥ bhajantyananya-manaso jñātvā bhūtādim avyayam

Word Meanings

mahā-ātmānaḥ—the great souls; tu—but; mām—me; pārtha—Arjun, the son of Pritha; daivīm prakṛitim—divine energy; āśhritāḥ—take shelter of; bhajanti—engage in devotion; ananya-manasaḥ—with mind fixed exclusively; jñātvā—knowing; bhūta—all creation; ādim—the origin; avyayam—imperishable


Translations

In English by Swami Adidevananda

But the great-souled ones, O Arjuna, who are associated with My divine nature, worship Me with an unwavering mind, knowing Me to be the immutable source of all beings.

In English by Swami Gambirananda

O son of Prtha, the noble ones, being possessed of divine nature, surely adore Me with single-mindedness, knowing Me to be the immutable source of all objects.

In English by Swami Sivananda

But the great souls, O Arjuna, partaking of My divine nature, worship Me with a single-minded devotion, knowing Me as the imperishable source of all beings.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O son of Prtha! The great-souled men, however, taking hold of the divine nature and having nothing else in their minds, adore Me, viewing Me as the imperishable prime cause of beings.

In English by Shri Purohit Swami

But the great souls, O Arjuna! Filled with my divine spirit, they worship me, fix their minds on me alone, for they know that I am the imperishable source of being.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.13।। परन्तु हे पृथानन्दन ! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।9.13।। हे पार्थ ! परन्तु दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा पुरुष मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और अव्ययस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर मुझे भजते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

9.13 महात्मानः great souls? तु but? माम् Me? पार्थ O Partha? दैवीम् divine? प्रकृतिम् nature? आश्रिताः refuged (in)? भजन्ति worship? अनन्यमनसः with a mind devoted to nothing else? ज्ञात्वा having known? भूतादिम् the source of beings? अव्ययम् imperishable.Commentary Jnatva Bhutadimavyayam There is another interpretation -- knowing Me to be the source or the origin of beings and imperishable.Daivim Prakritim Divine or Sattvic nature. Those who are endowed with divine nature? and who possess selfrestraint? mercy? faith? purity? etc.Mahatmanah Or? the highsouled ones are those whose pure minds have been made by Me? as My special abode. I dwell in the pure minds of the highsouled ones. They have sincere devotion to Me. Those who possess divine Sattvic nature? who are endowed with a pure mind? and who have knowledge of the Self are Mahatmas.Bhutas All living beings? as well as the five elements.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.13।। व्याख्या--'महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः'--पूर्वश्लोकमें जिन आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभावके आश्रित मूढ़लोगोंका वर्णन किया था, उनसे दैवी-सम्पत्तिके आश्रित महात्माओंकी विलक्षणता बतानेके लिये ही यहाँ 'तु' पद आया है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।9.13।। किसी तर्क को समझाने के लिए प्राय भगवान् श्रीकृष्ण दो परस्पर विरोधी तथ्यों को एक स्थान पर ही बताने की शैली अपनाते हैं? जिससे एक दूसरे की पृष्ठभूमि में दोनों का स्पष्ट ज्ञान हो सके। प्रथम श्लोक में उन मोहित पुरुषों का वर्णन है? जो अपनी निम्न स्तर की प्रवृत्तियों का अनुकरण करते हैं। दूसरे श्लोक में उन महात्मा पुरुषों का चित्रण किया गया है? जो समस्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होते हैं। झूठी आशाओं से मोहित होकर उनकी पूर्ति के लिए व्यर्थ के निकृष्ट कर्मों से थके हुए मूढ़ लोग विचार करने में सर्वथा भ्रमित और विचलित हो जाते हैं। ऐसे लोग जगत् की ओर देखने के दैवी दृष्टिकोण को खोकर अपने कर्मों में राक्षसी बन जाते हैं? और समस्त कालों में अपने कामुक और आसुरी स्वभाव का ही प्रदर्शन करते हैं। रावण की परम्परा वाले इन लोगों को ही यहाँ राक्षस और असुर कहा गया है।वर्तमान में किये गये कर्म मनुष्य के मन में अपनी वासनाएं उत्पन्न करते हैं? जिसके अनुरूप ही उस मनुष्य की इच्छाएं और विचार होते हैं। वृथा और निषिद्ध कर्मों से नकारात्मक वासनाओं की ही वृद्धि होती है जो मन्दबुद्धि पुरुष की बुद्धि की जड़ता को और अधिक स्थूल कर देती हैं। ज्ञानी की दृष्टि में? मिथ्यात्व और अशुद्धता की इस खाई में रहने वाला मनुष्य एक दैत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।राक्षसी संस्कृति के इन लोगों के विपरीत? दैवी स्वभाव के महात्मा पुरुष होते हैं। दूसरा श्लोक हमें दर्शाता है कि इन ज्ञानी पुरुषों का अनुभव और कर्म किस प्रकार का होता है। इन दोनों के दर्शाये अन्तर से आत्मोन्नति के साधक को चाहिए कि वे कर्मों में सही भावना और जगत् की ओर देखने के सही दृष्टिकोण को अपनायें।दैवी गुणों से सम्पन्न महात्मा पुरुष अनन्यभाव से मुझ अनन्त अमृतस्वरूप का ही साक्षात्कार चाहते हैं। वे जानते हैं कि मैं भूतमात्र का आदिकारण हूँ जो लोग मिट्टी को जानते हैं? वे मिट्टी के बने सभी घटों में मिट्टी को देख पाते हैं। इसी प्रकार? हिन्दू संस्कृति ऋ़े वे सच्चे सुपुत्र जो इस चैतन्य आत्मा को जगत् के आदिकारण के रूप में जानते हैं? समाज के अन्य व्यक्तियों को अपने समान ही देखते और उनका आदर करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में इससे अधिक महान् और प्रभावशाली समाजवाद न कभी पढ़ाया गया है और न प्रचारित ही किया गया है। यदि वर्तमान पीढ़ी इस आध्यात्मिक समाजवाद को समझ नहीं पाती या पसंद नहीं करती हैं? जो कि वास्तव में विश्व की समस्त व्याधियों और बुराइयों की? एकमात्र रामबाण औषधि है? तो उसका कारण पूर्व के श्लोक में ही वर्णित है कि? लोग आसुरी और राक्षसी प्रकृति के वशात् मोहित हुए हैं।महात्मा पुरुष अनन्य भाव से आपको किस प्रकार भजते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।9.13।।के पुनर्भगवन्तं भजन्ते तानाह -- ये पुनरिति। महान्प्रकृष्टो यज्ञादिभिः शोधित आत्मा सत्त्वं येषामिति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- अक्षुद्रेति। तुशब्दोऽवधारणे। प्रकृतिं विशिनष्टि -- शमेति। अनन्यस्मिन् प्रत्यग्भूते मयि परस्मिन्नेव मनो येषामिति व्युत्पत्त्या व्याकरोति -- अनन्यचित्ता इति। अज्ञाते सेवानुपपत्तेः शास्त्रोपपत्तिभ्यामादौ ज्ञात्वा ततः सेवन्त इत्याह -- ज्ञात्वेति। अव्ययमविनाशिनम्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।9.13।।के पुनस्त्वां भजन्त इति तत्राह -- महात्मान इति। तुशब्दोऽवधारणार्थः। पूर्वेभ्योऽयन्तवैलक्षण्यद्योतनार्थ इति वा। ये पुनः श्रद्दधाना भगवद्भक्तिलक्षणे मोक्षामार्गे प्रवृत्ताः महान्प्रकृष्टोऽनेकजन्मार्जतयज्ञदानादितिः शोधित आत्मा चित्तं येषां तेऽक्षुद्रचित्ताः। अतए दैवीं प्रकृतिं शमदमदयाश्रद्धादिलक्षणामाश्रिताः सन्तो मां परमेश्वरं भूतानामाकाशादीनामादिं कारणम्। ननु यदि दधिकारणदुग्धवत् वियदातिरुपेण परिणतत्वात् भूतादिः परमेश्वरस्तर्हि परिणामी स्यादित्याशङ्क्य शुक्तिरुप्यस्य शुक्तिरिव कारणमतः परिणामशून्योऽविनाशीत्याह -- अव्यमिति। ज्ञात्वाऽनन्यमनसः अन्यस्मिन्परमेश्वराद्य्वतिरिक्ते विषयातौ न विद्यते मनो येषां ते? अनन्यस्मिन्प्रत्यगभिन्ने मनो येषामिति वा ते अनन्यमनसः सन्तो मां भजन्ति सेवन्ते। पार्थेति संबोधयन् त्वं त्वतिपुण्यशीलायाः पृथाया अपत्यत्वान्महात्मत्वादिविशेषणविशिष्टोऽसीति सूचयति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।9.13।।नेतरे द्विषन्तीति दर्शयितुं देवानाह -- महात्मान इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।9.13।।तथा ये महात्मानोऽक्षुद्रचित्ताः। तु पूर्वेभ्योऽत्यन्तं विलक्षणाः मां भजन्ति। यतो दैवीं प्रकृतिं सत्वप्रधानामाश्रिताः। अनन्यमनसः एकाग्रचेतसः। किं गतानुगतिकतया दम्भेन वा भजन्ति। न। किं तर्हि मां भूतादि सर्वभूतकारणमव्ययं ज्ञात्वा मत्वा भजन्ति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।9.13।।ये तु स्वकृतैः पुण्यसञ्चयैः मां शरणम् उपगम्य विध्वस्तसमस्तपापबन्धाः दैवीं प्रकृतिम् आश्रिताः महात्मानः ते? भूतादिम् अव्ययं वाङ्मनसागोचरनामकर्मस्वरूपं परमकारुणिकतया साधुपरित्राणाय मनुष्यत्वेन अवतीर्णं मां ज्ञात्वा अनन्यमनसः मां भजन्ते मत्प्रियत्वातिरेकेण मद्भजनेन विना मनसः च आत्मनः च बाह्यकरणानां च धारणम् अलभमानाः? मद्भजनैकप्रयोजनाः भजन्ते।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।9.13।। के तर्हि त्वामाराधयन्तीत्यत आह -- महात्मानस्त्विति। महात्मानः कामाद्यनभिभूतचित्ताः यतोऽभयं सत्त्वसंशुद्धिरित्यादिना वक्ष्यमाणां दैवीं प्रकृतिं स्वभावमाश्रिताः। अतएव मद्व्यतिरेकेण नास्त्यन्यस्मिन्मनो येषां ते भूतादिं जगत्कारणमव्ययं नित्यं च मां ज्ञात्वा भजन्ति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।9.13।। एवमवज्ञाप्रवृत्तमूढभूयिष्ठे लोके निष्फलस्तवावतार इति शङ्कायामवतारसाफल्यकारिणां महात्मनां वृत्तकथनव्याजेन भक्तिं प्रसञ्जयति -- महात्मानस्त्विति। महात्मशब्देन तुशब्देन च सिद्धं भजनौपयिकमतिशयं दर्शयन् उद्देश्योपादेयांशं च विभजतेये त्विति।जनाः सुकृतिनः [7।16]मामेव ये प्रपद्यन्ते [7।14] इत्यादि प्रागुक्तं प्रतिसन्धापयतिस्वकृतैः पुण्यसञ्चयैर्मां शरणमुपगम्येति। दैवीं सात्त्विकीम्।भूतादिं इत्यनेनाशक्यापादानपरत्वं विवक्षितमित्याहवाङ्मनसेति।माम् इत्यनेनावतारपर्यवसितं सौलभ्यं सहेतुकमाहपरमकारुणिकतयेति। अवतारस्य दयादिमूलकत्वेन कर्ममूलत्वाभावाज्ज्ञानसङ्कोचाद्यभावोऽव्ययशब्देनोच्यते। अनन्यमनस्त्वं सहेतुकं विवृणोतिमत्प्रियत्वेति। अतोऽप्यार्ताद्यधिकार्यन्तरव्यवच्छेदार्थत्वादनन्यप्रयोजनत्वविवक्षाऽत्रोचितामत्प्रियत्वेति। पार्थशब्देनेन्द्रसूनुस्त्वमपि दैवप्रकृतिरिति सूचितम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।9.13 -- 9.14।।महात्मान इत्यादि विश्वतोमुखमित्यन्तम्। दैवीं? सात्विकीम्। यजन्तः? बाह्यद्रव्यादियागैः। अन्ये तु मा ज्ञानयज्ञेनैवोपासते। अतः केचित् एकतया ज्ञानतः? केचित् बहुधा? कर्मयोगात्। मत्परा एव सर्वे।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।9.13।।ननु कुतोऽयं विवेकः इत्याकाङ्क्षायां राक्षसादिभ्य इतरे न द्विषन्तीत्येतावदव वक्तव्यम्। भजन्तीत्यादि तु व्यर्थं इत्यत आह -- नेतर इति। सत्यमेतत् तथापि देवानां स्वरूपकथनार्थमेतत्। तच्च द्वेषाभावोपपादनार्थमिति भावः। देवानित्युत्तमजीवोपलक्षणम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।9.13।।भगवद्विमुखानां फलकामनायास्तत्प्रयुक्तस्य नित्यनैमित्तिककाम्यकर्मानुष्ठानस्य तत्प्रयुक्तस्य शास्त्रीयज्ञानस्य च वैयर्थ्यात्पारलौकिकफलतत्साधनशून्यास्ते। नाप्यैहलौकिकं किंचित्फलमस्ति तेषां विवेकविज्ञानशून्यतया। विचेतसो हि ते। अतः सर्वपुरुषार्थबाह्याः शोच्या एव सर्वेषां ते वराका इत्युक्तम्। अधुना के सर्वपुरुषार्थभाजोऽशोच्याः ये भगवदेकशरणा इत्युच्यते -- महाननेकजन्मकृतसुकृतैः संस्कृतः क्षुद्रकामाद्यनभिभूत आत्मान्तःकरणं येषां ते अतएवअभयं सत्त्वसंशुद्धिः इत्यादिवक्ष्यमाणां दैवीं सात्त्विकीं प्रकृतिमाश्रिताः। अतएवान्यस्मिन्मद्व्यतिरिक्ते नास्ति मनो येषां ते। भूतादिं सर्वजगत्कारणमव्ययमविनाशिनं च,मामीश्वरं ज्ञात्वा भजन्ति सेवन्ते।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।9.13।।एवमासुराणां स्वाज्ञानमुक्त्वा देवानां स्वज्ञानमाह -- महात्मानस्त्विति। हे पार्थ भक्तस्वरूपश्रवणैकयोग्य महात्मानस्तु महान् अहमेव आत्मा येषां ते महात्मानः। तुशब्दः प्रकरणान्तरज्ञापनाय। तदेवाह -- दैवीं क्रीडात्मिकां देवरूपां वा प्रकृतिं स्वभावं आश्रिताः। अनन्यमनसः न विद्यते अन्यत्र मद्व्यतिरिक्ते मनो येषां ते मां भूतादिं सकलजगत्कारणं अव्ययं नित्यं यथार्थरूपं ज्ञात्वा भजन्ति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।9.13।। --,महात्मानस्तु अक्षुद्रचित्ताः माम् ईश्वरं पार्थ दैवीं देवानां प्रकृतिं शमदमदयाश्रद्धादिलक्षणाम् आश्रिताः सन्तः भजन्ति सेवन्ते अनन्यमनसः अनन्यचित्ताः ज्ञात्वा भूतादिं भूतानां वियदादीनां प्राणिनां च आदिं कारणम् अव्ययम्।।कथम् -- --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।9.13।।महात्मान इति। महात्मानस्तु मां भजन्ते। एते भगवदीया दैवाः प्रतीयन्तेसात्त्विका भगवद्भक्ता ये मुक्तावधिकारिणः। भवान्तसम्भवा दैवास्तेषामर्थे निरूप्यते इति भगवन्मुखोक्त्याशयात्। तथाहिदैवीं प्रकृतिमाश्रिताः इतिअभयं सत्त्वसंशुद्धिः [16।1] इत्यादिना वक्ष्यमाणां दैवस्वभावरूपां समन्तात् श्रिताः दैवाः जन्मजन्मान्तरकृतानेकसुकृतसञ्चयैर्मां शरणमुपागम्य विध्वस्तपापा अन्तिमजन्मनि सम्भूता महात्मशब्देनोच्यन्तेऽतएव मुक्तावधिकारिणः येषां सत्त्वसंशुद्धिरिति सात्विका मां भजन्ति? न कदाचिदवजानन्ति सर्वभूतादिमव्ययं सर्वकारणभूतमविकृतमानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिं ज्ञात्वा भगवन्मार्गीयाचार्यचरणोपदेशानुसारेण भजन्ति पुरुषोत्तमं मामेव। नान्यस्मिन्नक्षरादौ मनो येषामित्यनन्यभावेन भजनमुक्तम्।


Chapter 9, Verse 13