Chapter 9, Verse 8

Text

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।

Transliteration

prakṛitiṁ svām avaṣhṭabhya visṛijāmi punaḥ punaḥ bhūta-grāmam imaṁ kṛitsnam avaśhaṁ prakṛiter vaśhāt

Word Meanings

prakṛitim—the material energy; svām—my own; avaṣhṭabhya—presiding over; visṛijāmi—generate; punaḥ punaḥ—again and again; bhūta-grāmam—myriad forms; imam—these; kṛitsnam—all; avaśham—beyond their control; prakṛiteḥ—nature; vaśhāt—force


Translations

In English by Swami Adidevananda

Controlling the Prakṛti, which is My own, I send forth again and again this multitude of beings, helpless under the sway of Prakṛti.

In English by Swami Gambirananda

Keeping My own prakṛti under control, I project forth again and again this multitude of beings, which are powerless due to the influence of their own nature.

In English by Swami Sivananda

Animating My Nature, I again and again send forth all this multitude of beings, helpless under the force of Nature.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Taking hold of My own nature, I again and again send forth this entire host of beings, which is powerless under the control of My nature.

In English by Shri Purohit Swami

With the help of Nature, I again and again pour forth the whole multitude of beings, whether they will or not, for they are ruled by My will.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.8।। प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायको मैं (कल्पोंके आदिमें) अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचता हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।9.8।। प्रकृति को अपने वश में करके (अर्थात् उसे चेतनता प्रदान कर) स्वभाव के वश से परतन्त्र (अवश) हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को मैं पुन:-पुन: रचता हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

9.8 प्रकृतिम् Nature? स्वाम् My own? अवष्टभ्य having animated? विसृजामि (I) send forth? पुनः again? पुनः again? भूतग्रामम् multitude of beings? इमम् this? कृत्स्नम् all? अवशम् helpless? प्रकृतेः of Nature? वशात् by force.Commentary The Lord leans on? presses or embraces Nature. He invigorates and fertilises Nature which had gone to sleep at the end of the Mahakalpa or universal dissolution and projects again and again this whole multitude of beings. He gazes at each level and plane after plane comes into being.The term Prakriti denotes or indicates the five Kleshas or afflictions? viz.? Avidya (ignorance)? Asmita (egoism)? Raga (likes)? Dvesha (dislikes) and Abhinivesa (clinging to earthly life). (Cf.IV.6)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.8।। व्याख्या--'भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्'-- यहाँ प्रकृति शब्द व्यष्टि प्रकृतिका वाचक है। महाप्रलयके समय सभी प्राणी अपनी व्यष्टि प्रकृति-(कारणशरीर) में लीन हो जाते हैं, व्यष्टि प्रकृति समष्टि प्रकृतिमें लीन होती है और समष्टि प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है। परन्तु जब महासर्गका समय आता है, तब जीवोंके कर्मफल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं। उस उन्मुखताके कारण भगवान्में 'बहु स्यां प्रजायेय' (छान्दोग्य0 6। 2। 3) -- यह संकल्प होता है, जिससे समष्टि प्रकृतिमें क्षोभ (हलचल) पैदा हो जाता है। जैसे, दहीको बिलोया जाय तो उसमें मक्खन और छाछ --ये दो चीजें पैदा हो जाती हैं। मक्खन तो ऊपर आ जाता है और छाछ नीचे रह जाती है। यहाँ मक्खन सात्त्विक है, छाछ तामस है और बिलोनारूप क्रिया राजस है। ऐसे ही भगवान्के संकल्पसे प्रकृतिमें क्षोभ हुआ तो प्रकृतिसे सात्त्विक, राजस और तामस --ये तीनों गुण पैदा हो गये। उन तीनों गुणोंसे स्वर्ग, मृत्यु और पाताल --ये तीनों लोक पैदा हुए। उन तीनों लोकोंमें भी अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावसे सात्त्विक, राजस और तामस जीव पैदा हुए अर्थात् कोई सत्त्व-प्रधान हैं, कोई रजःप्रधान हैं और कोई तमःप्रधान हैं।इसी महासर्गका वर्णन चौदहवें अध्यायके तीसरे-चौथे श्लोकोंमें भी किया गया है। वहाँ परमात्माकी प्रकृतिको 'महद्ब्रह्म' कहा गया है और परमात्माके अंश जीवोंका अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावके अनुसार प्रकृतिके साथ विशेष सम्बन्ध करा देनेको बीज-स्थापन करना कहा गया है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।9.8।। समष्टि सूक्ष्म शरीर (मनबुद्धि) में व्यक्त हो रहे चैतन्य ब्रह्म को ईश्वर सृष्टिकर्ता कहते हैं एक व्यष्टि सूक्ष्म शरीर को उपाधि से विशिष्ट वही ब्रह्म? संसारी जीव कहलाता है। एक ही सूर्य विशाल? स्वच्छ और शान्त सरोवर में तथा मटमैले जल से भरे कुण्ड में भी प्रतिबिम्बित होता है। तथापि दोनों के प्रतिबिम्बों में जो अन्तर होता है उसका कारण दोनों जलांे का अन्तर है। यह उदाहरण जीव और ईश्वर के भेद को स्पष्ट करता है। जिस प्रकार आकाश में स्थित सूर्य का यह कथन उपयुक्त होगा कि सरोवर के निश्चल और तेजस्वी प्रतिबिम्ब तथा जलकुण्ड के चंचल और मन्द प्रतिबिम्ब का कारण मैं हूँ? उसी प्रकार ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि सृष्टिकर्ता और सृष्टप्रणियों की चेतन आत्मा मैं हूँ।समष्टि सूक्ष्म शरीर रूपी उपाधि ब्रह्म की अपरा प्रकृति है। कल्प के आदि में? अपरा प्रकृति में विद्यमान वासनायें व्यक्त होती हैं और? कल्प की समाप्ति पर सब भूत मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं।प्रकृति को चेतना प्रदान करने की क्रिया ब्रह्म की कृपा है? जिससे प्रकृति वृद्धि को प्राप्त होकर संसार वृक्ष का रूप धारण करती है। यदि परम चैतन्यस्वरूप ब्रह्म प्रकृति (माया) से तादात्म्य न करे अथवा उसमें व्यक्त न हो? तो वह प्रकृति स्वयं जड़ होने के कारण? किसी भी जीव की सृष्टि नहीं कर सकती। वासनारूपी इस सम्पूर्ण भूतसमुदाय को? मैं पुनपुन रचता हूँ। आत्मा की चेतनता प्राप्त होने के पश्चात् भूतमात्र व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकते? क्योंकि वे प्रकृति के वश में हैं? स्वतन्त्र नहीं।प्राय वेदान्त दर्शन में? ऋषिगण विश्व की उत्पत्ति का वर्णन समष्टि के दृष्टिकोण से करते हैं? जिसके कारण वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को कुछ कठिनाई होती है। परन्तु जो विद्यार्थी? उसके आशय को व्यक्तिगत (व्यष्टि) दृष्टि से समझने का प्रयत्न करता है? वह इस सृष्टि की रचना को सरलता से समझ सकता है। इस प्रकार व्यष्टि का दृष्टि से विचार करने पर भगवान् श्रीकृष्ण का कथन सत्य प्रमाणित होगा। अपरा प्रकृति के अंश रूप मन और बुद्धि से आत्मचैतन्य का तादात्म्य हुए बिना हममें एक विशिष्ट गुणधर्मी जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती? जो अपने संसारी जीवन के दुखों को भोगता रहता है।हम पहले भी देख चुके हैं कि निद्रावस्था में मनबुद्धि के साथ तादात्म्य अभाव में एक अत्यन्त दुष्ट पुरुष और एक महात्मा पुरुष दोनों एक समान होते हैं। परन्तु जाग्रत अवस्था में दोनों अपनेअपने स्वभाव को व्यक्त करते हैं? जबकि दोनों में वही एक आत्मचैतन्य व्यक्त होता है। दुष्ट मनुष्य साधु के समान क्षणमात्र भी व्यवहार नहीं कर सकता और न वह साधु ही उस दुष्ट के समान व्यवहार करेगा? क्योंकि दोनों ही अपनी प्रकृति के वशात् अन्यथा व्यवहार करने में असमर्थ हैं। भूत समुदाय की सृष्टि और प्रलय का यह सम्पूर्ण नाटक अपरिवर्तनशील? अक्षर नित्य आत्मतत्त्व के रंगमंच पर खेला जाता है मैं पुनपुन उसको रचता हूँ।कर्म का सिद्धांत विवादातीत है। जैसा कर्म वैसा फल। यदि आत्मा भूतमात्र की सृष्टि और प्रलय के कर्म का कर्ता हो? तो क्या उसे भी धर्मअधर्म रूप बन्धन होता है इस पर भगवान् कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।9.8।।तर्हि कीदृशी प्रकृतिः सा च कथं सृष्टावुपयुक्तेत्याशङ्क्याह -- एवमिति। संसारस्यानादित्वद्योतनार्थं पुनःपुनरित्युक्तम्। भूतसमुदायस्याविद्यास्मितादिदोषपरवशत्वे हेतुमाह -- स्वभाववशादिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।9.8।।ननु सृजाभ्यहमित्युक्त्या किं प्रकृतिं स्वामनधिष्ठायैव सृजसि नेत्याह -- प्रकृतिमविद्यालक्षणां त्रिगुणात्मिकां मायं स्वां स्वाधीनामवष्टभ्याधिष्टायेमं प्रत्क्षादिसन्नधापितं भूतानां ग्रामं समुदायं निखिलं प्रकृतेः स्वभावस्य वशादवशं अविद्यादिदोषैः परवशीकृतं पुनः पुनः सृजामि। अनेन संसारस्यानादित्वं सूचितम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।9.8।।प्रकृत्यवष्टम्भस्तु यथा कश्चित्समर्थोऽपि पादेन गन्तुं लीलया दण्डमवष्टभ्य गच्छति।सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि [म.भा.12।339।46] इतिसर्वभूतगुणैर्युक्तं दैवं मां ज्ञातुर्महसि इति च मोक्षधर्मे।विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं च महेश्वरम्। प्रधानविनियोगस्थः परं ब्रह्माधिगच्छति इति च।नकुत्रचिच्छक्तिरनन्तरूपा विहन्यते तस्य महेश्वरस्य। तथापि मायामधिरुह्य देवः प्रवर्तते सृष्टिविलापनेषु इति ऋग्वेदखिलेषु।मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे इति भागवते [6।4।28] अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्मेति [बृहद्बृहत्या] बृंहति बृंहयति इति चाथर्वणे [अथर्वशिर उप.4] पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते [श्वे.उ.6।8] इति च। विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। [ऋक्सं.2।2।24।1] न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमं तमाप [ऋक्सं.5।6।24।2] इत्यादेश्च। प्रकृतेर्वशादवशम्। त्वमेवैतत्सर्जने सर्वकर्मण्यनन्तशक्तोऽपि स्वमाययैव। मायावशं चावशं लोकमेतत्तस्मात्स्रक्ष्यस्यत्सि पासीश विष्णो इति गौतमखिलेषु।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।9.8।।एतदेवाह -- प्रकृतिमिति। एवमविद्यालक्षणां स्वां प्रकृतिमवष्टभ्य आश्रित्य तां विना केवलस्य स्रष्टृत्वासंभवात्। इमं भूतग्रामं पुनःपुनर्विविधं सृजामि। किंभूतम्। प्रकृतेर्वशात्स्वभाववशात्। अवशं रागद्वेषाद्यधीनम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।9.8।।स्वकीयां विचित्रपरिणामिनीं प्रकृतिम् अवष्टभ्य अष्टधा परिणमय्य इमं चतुर्विधं देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मकं भूतग्रामं मदीयाया मोहिन्याः गुणमय्याः प्रकृतेः वशात् अवशं पुनः पुनः काले काले विसृजामि।एवं तर्हि विषमसृष्ट्यादीनि कर्माणि नैर्घृण्याद्यापादनेन भगवन्तं बध्नन्ति इति? अत्र आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।9.8।।नन्वसङ्गो निर्विकारश्च त्वं कथं सृजसीत्यपेक्षायामाह -- प्रकृतिमिति द्वाभ्याम्। स्वां स्वाधीनां प्रकृतिमवष्टभ्याधिष्ठाय प्रलये लीनं सन्तं चतुर्विधमिमं सर्वं भूतग्रामं कर्मादिपरवशं पुनःपुनर्विविधं सृजामि विशेषेण सृजामीति वा। कथम्। प्रकृतेर्वशात्प्राचीनकर्मनिमित्ततत्स्वभावबलात्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।9.8।।विसृजामि इत्युक्तायाः समष्टिव्यष्टिरूपायाः सृष्टेः प्रकारः प्रदर्श्यते -- प्रकृतिं स्वाम् इति श्लोकेन। विकारजननीमज्ञामष्टरूपामजां ध्रुवाम्। ध्यायतेऽध्यासिता तेन तन्यते प्रेर्यते पुनः।।सूयते पुरुषार्थं च तेनैवाधिष्ठितं जगत्। गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी [मन्त्रिको.35] इत्यादिश्रुत्यनुसारेणास्य श्लोकस्यार्थमाहस्वकीयामिति। उपादानद्रव्यस्य कर्त्रावष्टम्भो ह्यधिष्ठानम्? तच्चाभिमतकार्यविशेषानुगुणमध्यमावस्थाप्रापणमेवेत्यभिप्रायेणोक्तम्अष्टधा परिणमय्येति।भूमिरापः [7।4] इत्यादिना प्रागुक्तमष्टविधत्वम्। एवमर्थसिद्धः समष्टिसृष्टिप्रकार उक्तः भूतग्रामशब्दोऽत्र देवतादिजात्यवच्छिन्नव्यष्टिजीवस्तोमपरः? अचेतनपरत्वेप्रकृतेर्वशादवशम् इत्यनेनानन्वयात्। तस्य चतुर्विधस्य सावान्तरभेदस्य सङ्ग्रहार्थः कृत्स्नशब्दः। एवंविधकार्यत्वे प्रकृतिपरवशत्वे च योग्यताप्रदर्शनार्थम्इमम् इति निर्देशइत्यभिप्रायेणोक्तमिमं चतुर्विधमित्यादि। चातुर्विध्यमेव विवृणोति -- देवेति।प्रकृतेर्वशात् इत्यनेनाभिप्रेतःप्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः [9।12] इत्यत्र च कण्ठोक्तोऽवशत्वहेतुःमोहिन्या इत्युक्तः। तत्रापि हेतुर्गुणमयत्वंत्रिभिर्गुणमयैः [7।13] इत्यादिनोक्तम्।पुनः पुनः इत्यनेन तदुत्पत्तिप्रलयोचितद्विपरार्धसहस्रयुगादिप्रतिनियतानाद्यनन्तप्रवाहकालावच्छेदकविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- काले काल इति।विसृजामि -- विविधं सृजामि? विचित्रनामरूपदेशकालभोगादियुक्तं करोमीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।9.8।।प्रकृतिमिति। स्वां प्रकृतिमवष्टभ्य इत्येतावता जडोऽपि स्वतोऽयं भाव (भूत) ग्रामः परप्रकृत्यन्वयात् प्रकाशतां प्राप्तः [इति प्रतिपादितम्]।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।9.8।।तद्विकलस्य भगवतो न सामर्थ्यमिति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- प्रकृतीति। तथा लीलयैव? न तु केवलस्य सामर्थ्याभावादिति शेषः। कुत एतत् भगवतः सर्वसामर्थ्यसम्पूर्णस्य प्रमितत्वादित्याह -- सर्वेति। सर्ववस्तुसामर्थ्यैः। एवंभूतवत् पारतन्त्र्याद्युपेतं किन्तु दैवं देवोत्तमम्। पञ्चमहाभूतानि महदहङ्कारौ च सप्त सूक्ष्माणि।सर्वज्ञता तृप्तिः इत्युक्तप्रकारेण षडङ्गम्। प्रधानस्य मूलप्रकृतेर्विनियोगः कार्येषु यो व्यापारस्तत्स्थस्तज्ज्ञानी। मायामधिरुह्य प्रकृतिमवष्टभ्य। कं कः प्रवोचं प्रावोचत्। प्रकृतेर्वशाद्विसृजामीत्याविद्यकमेवेश्वरस्य कर्तृत्वं वस्तुतस्तु निष्क्रियत्वमित्युच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायान्यथाऽन्वयमाह -- प्रकृतेरिति। कुत एतदित्यतः पूर्वोक्तार्थसहितेत्यत्र प्रमाणमाह -- त्वमेवेति। एतत्सर्जने एतस्य लोकस्य सृष्ट्याम्। अन्यस्मिन्नपि पालनादौ सर्वकर्मणि। तस्मान्मायावशत्वादेवावशम्? एतदेतं स्रक्ष्यसि सृजसि।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।9.8।।किंनिमित्ता परमेश्वरस्येयं सृष्टिर्न तावत्स्वभोगार्था तस्य सर्वसाक्षिभूतचैतन्यमात्रस्य भोक्तृत्वाभावात्तथात्वे वा संसारित्वेनेश्वरत्वव्याघातात्। नाप्यन्यो भोक्ता यदर्थेयं सृष्टिश्चेतनान्तराभावात्। ईश्वरस्यैव सर्वत्र जीवरूपेण स्थितत्वात्। अचेतनस्य चाभोक्तृत्वात्। अतएव नापवर्गार्थापि सृष्टिः बन्धाभावादपवर्गाविरोधित्वाच्चेत्याद्यनुपपत्तिः। सृष्टेर्मायामयत्वं साधयन्ती नास्माकं प्रतिकूलेति न,परिहर्तव्येत्यभिप्रेत्य मायामयत्वान्मिथ्यात्वं प्रपञ्चस्य वक्तुमारभते त्रिभिः -- प्रकृतिं मायाख्यामनिर्वचनीयां स्वां स्वस्मिन्कल्पितामवष्टभ्य स्वसत्तास्फूर्तिभ्यां दृढीकृत्य तस्याः प्रकृतेर्मायाया वशादविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशकारणावरणविक्षेपात्मकशक्तिप्रभावाज्जायमानमिमं सर्वप्रमाणसंधापितं भूतग्राममाकाशादिभूतग्रामसमुदायमहं मायावीव पुनः पुनर्विसृजामि विविधं सृजामि। कल्पनामात्रेण स्वप्नदृगिव च स्वप्नप्रपञ्चम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।9.8।।ननु त्वयि लीनानामानन्दनिमग्नानां पुनः सृष्टौ किं तात्पर्यं इत्याशङ्क्याह -- प्रकृतिमिति। स्वां प्रकृतिं असाधारणीं रमणात्मिकामवष्टभ्याधिष्ठाय रमणभावमङ्गीकृत्य पुनःपुनः वारंवारं मम क्रीडायोग्यं मद्दर्शनयोग्यं च भूतग्रामं चतुर्विधं कृत्स्नं पूर्णं अवशं मदिच्छाधीनं प्रकृतेर्वशात् क्रीडात्मकस्वरूपवशात् सृजामि। अन्यथा सृष्टानां पूर्वोक्तदूषणं स्यात् स्वक्रीडार्थं सृष्टानामत्राप्यानन्दरूपतैवेति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।9.8।। --,प्रकृतिं स्वां स्वीयाम् अवष्टभ्य वशीकृत्य विसृजामि पुनः पुनः प्रकृतितो जातं भूतग्रामं भूतसमुदायम् इमं वर्तमानं कृत्स्नं समग्रम् अवशम् अस्वतन्त्रम्? अविद्यादिदोषैः परवशीकृतम्? प्रकृतेः वशात् स्वभाववशात्।।तर्हि तस्य ते परमेश्वरस्य? भूतग्रामम् इमं विषमं विदधतः? तन्निमित्ताभ्यां धर्माधर्माभ्यां संबन्धः स्यादिति? इदम् आह भगवान् --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।9.8।।विसर्जनप्रकारमाह -- प्रकृतिमिति। भगवतो मम सदंशभूतेयं प्रकृतिर्योगशक्तिः गुणैर्मोहयतीति मायेत्युच्यते। प्रकृष्टा कृतिर्यया साऽष्टधा परिणममाना स्वाधीना तामवष्टभ्य पुरुषरूपः सन् भार्यामिवोपादाय प्रेक्षयाऽभ्युपेत्य अथवा इमं प्रलीनं सर्वभूतग्रामं वियदादिकं कृत्स्नं भूतं चतुर्विधं च पुनः पुनस्तत्तत्प्रजापतिद्वारा च विसृजामि। प्रकृत्या विसर्जनात्तद्वशादवशम्। अनेन मयैव स्वेच्छया कृतोऽयं प्रकृतिद्वारात्मविभागः नान्येन कृत इति सूच्यते। प्राचीनकर्मनिमित्ततत्तत्स्वभावोऽपि प्राकृत एवेति कारणमेव प्रकृतिरुक्ता।


Chapter 9, Verse 8