Chapter 9, Verse 6

Text

यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।

Transliteration

yathākāśha-sthito nityaṁ vāyuḥ sarvatra-go mahān tathā sarvāṇi bhūtāni mat-sthānītyupadhāraya

Word Meanings

yathā—as; ākāśha-sthitaḥ—rests in the sky; nityam—always; vāyuḥ—the wind; sarvatra-gaḥ—blowing everywhere; mahān—mighty; tathā—likewise; sarvāṇi bhūtāni—all living beings; mat-sthāni—rest in me; iti—thus; upadhāraya—know


Translations

In English by Swami Adidevananda

As the powerful element air, moving everywhere, ever remains in the ether, know that so too all beings abide in Me.

In English by Swami Gambirananda

Understand thus that just as the voluminous wind, moving everywhere, is ever present in space, similarly all beings abide in Me.

In English by Swami Sivananda

As the mighty wind, moving everywhere, always rests in the ether, so too, know that all beings rest in Me.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Just as the mighty wind exists in the ether, always moving therein everywhere, in the same manner all beings exist in Me. Be sure of it.

In English by Shri Purohit Swami

As the mighty wind, though moving everywhere, has no resting place except in space, so all these beings have no home except in Me.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.6।। जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।9.6।। जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम जानो।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

9.6 यथा as? आकाशस्थितः rests in the Akasa? नित्यम् always? वायुः the air? सर्वत्रगः moving everywhere? महान् great? तथा so? सर्वाणि all? भूतानि beings? मत्स्थानि rest in Me? इति thus? उपधारय know.Commentary The Lord gives a beautiful illustration or simile in this verse to explain what He has said in the previous two verses. Just as the wind ever rests in the ether (space) without any contact or attachment? so also all beings and objects rest in Brahman without any attachment or contact at all. These objects cannot produce any effect on It.What sort of relationship is there between Brahman and the objects of this universe Is it Samyoga? Samavaya or Tadatmya Sambandha The relationship of the stick with the drum is Samyaoga Sambandha. Let us assume that there is such a Sambandha (relationship or connection). There cannot be connection between all the parts because Brahman is infinite and the elements are finite. You may say that there is connection of the Ekadesa type. This is also not possible? because there can be such relationship only between objects which possess members or parts like the tree and monkey. (Ekadesa is partial). Brahman has no parts.If you say that there is Samavaya Sambandha between Brahman and the objects or the elements? this is also not possible. The relationship between the attribute and the possessors of that attribute is called Samavaya Sambandha. The relationship between an individual Brahmin and the whole Brahmin caste is also Samavaya Sambandha. The relationship between hand and man? between the leg and the man is also Samavaya Sambandha. Such relationship does not exist between Brahman and the objects or the elements.The third kind of relationship? viz.? Tadatmya Sambandha is seen to exist between milk and water? fire and the iron ball. Milk shares its alities of sweetness and whiteness with water. Fire shares its alities of brilliance? heat and redness with the hot iron ball. This too is not possible between Brahman and the objects or the elements? because Brahman is ExistenceKnowledgeBliss Absolute and allfull and perfect whereas the elements are insentient? finite and painful. How can they with ite contrary alities have Tadatmya Sambandha with BrahmanTherefore it can be admitted that the elemtns have only got Kalpita Sambandha (superimposition) with Brahman. That object which is superimposed on the substratum or support exists in name only. It does not exist in reality. Brahman is the support or the substratum for this world of names and forms. World here includes all beings and their three kinds of bodies (physical? mental and causal). Therefore? the elements or the beings in this world are not really rooted in Brahman. They do not really dwell in Brahman. It is all in name only.Vayu also means Sutratman or Hiranyagarbha. Bhuta also means the individual consciousness. Just as the ether in the pot is not distinct from the universal ether before the origin and after the destruction of the pot and even when the pot exists? and it is of the nature of the universal soul is of the nature of Brahman during the three periods of time? past? present and future.Just as all efects exist in a state of nondifference in their material cause before they appear? during their period of existence and after their destruction? so also the individual souls are not different from Brahman before the origin of the various limiting adjuncts like mind? intellect? etc.?,during the period of their existence and after their destruction.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।9.6।। व्याख्या--'यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्'-- जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है अर्थात् वह कहीं निःस्पन्दरूपसे रहती है, कहीं सामान्यरूपसे क्रियाशील रहती है, कहीं बड़े वेगसे चलती है आदि, पर किसी भी रूपसे चलनेवाली वायु आकाशसे अलग नहीं हो सकती। वह वायु कहीं रुकी हुई मालूम देगी और कहीं चलती हुई मालूम देगी, तो भी वह आकाशमें ही रहेगी। आकाशको छोड़कर वह कहीं रह ही नहीं सकती। ऐसे ही तीनों लोकों और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले स्थावरजङ्गम सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित रहते हैं -- तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि।भगवान्ने चौथे श्लोकसे छठे श्लोकतक तीन बार 'मत्स्थानि' शब्दका प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित हैं। मेरेको छोड़कर ये कहीं जा सकते ही नहीं। ये प्राणी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ कितना ही घनिष्ठ सम्बन्ध मान लें, तो भी वे प्रकृति और उसके कार्यसे एक हो सकते ही नहीं और अपनेको मेरेसे कितना ही अलग मान लें, तो भी वे मेरेसे अलग हो सकते ही नहीं।वायुको आकाशमें नित्य स्थित बतानेका तात्पर्य यह है कि वायु आकाशसे कभी अलग हो ही नहीं सकती। वायुमें यह किञ्चिन्मात्र भी शक्ति नहीं है कि वह आकाशसे अलग हो जाय क्योंकि आकाशके साथ उसका नित्यनिरन्तर घनिष्ठ सम्बन्ध अर्थात् अभिन्नता है। वायु आकाशका कार्य है और कार्यकी कारणके साथ अभिन्नता होती है। कार्य केवल कार्यकी दृष्टिसे देखनेपर कारणसे भिन्न दीखता है परन्तु कारणसे कार्यकी अलग सत्ता नहीं होती। जिस समय कार्य कारणमें लीन रहता है, उस समय कार्य कारणमें प्रागभावरूपसे अर्थात् अप्रकटरूपसे रहता है, उत्पन्न होनेपर कार्य भावरूपसे अर्थात् प्रकटरूपसे रहता है और लीन होनेपर कार्य प्रध्वंसाभावरूपसे अर्थात् कारणरूपसे रहता है। कार्यका प्रध्वंसाभाव नित्य रहता है, उसका कभी अभाव नहीं होता क्योंकि वह कारणरूप ही हो जाता है। इस रीतिसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही स्थित रहती है और आकाशमें ही लीन हो जाती है अर्थात् वायुकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर आकाश ही रह जाता है। ऐसे ही यह जीवात्मा परमात्मासे ही प्रकट होता है, परमात्मामें ही स्थित रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है अर्थात् जीवात्माकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर केवल परमात्मा ही रह जाते हैं।जैसे वायु गतिशील होती है अर्थात् सब जगह घूमती है, ऐसे यह जीवात्मा गतिशील नहीं होता। परन्तु जब यह गतिशील प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ अपनापन (मैंमेरापन) कर लेता है, तब शरीरकी गति इसको अपनी गति देखने लग जाती है। गतिशीलता दीखनेपर भी यह नित्यनिरन्तर परमात्मामें ही स्थित रहता है। इसलिये दूसरे अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भगवान्ने जीवात्माको नित्य, सर्वगत,अचल, स्थाणु और सनातन बताया है। यहाँ शरीरोंकी गतिशीलताके कारण इसको सर्वगत बताया है। अर्थात् यह सब जगह विचरनेवाला दीखता हुआ भी अचल और स्थाणु है। यह स्थिर स्वभाववाला है। इसमें हिलनेडुलनेकी क्रिया नहीं है। इसलिये भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सब प्राणी अटलरूपसे नित्यनिरन्तर मेरीमें ही स्थित हैं।तात्पर्य हुआ कि तीनों लोक और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले जीवोंकी परमात्मासे भिन्न किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और हो सकती भी नहीं अर्थात् सब योनियोंमें घूमते रहनेपर भी वे नित्यनिरन्तर परमात्माके सच्चिदानन्दघनस्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। परन्तु प्रकृतिके कार्यके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर ये मनुष्यशरीरमें अपनापन न करें, मैंमेरापन न करें तो इनको असीम आनन्दका अनुभव हो जाय। इसलिये मनुष्यमात्रको चेतावनी देनेके लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि तुम मेरेमें नित्यनिरन्तर स्थित हो, फिर मेरी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी किस बातकी मेरेमें अपनी स्थिति न माननेसे और न जाननेसे ही मेरेसे दूरी प्रतीत हो रही है।'इति उपधारय' --यह बात तुम विशेषतासे धारण कर लो, मान लो कि चाहे सर्ग(सृष्टि) का समय हो, चाहे प्रलयका समय हो, अनन्त ब्रह्माण्डोंके सम्पूर्ण प्राणी सर्वथा मेरेमें ही रहते हैं मेरेसे अलग उनकी स्थिति कभी हो ही नहीं सकती। ऐसा दृढ़तासे मान लेनेपर प्रकृतिके कार्यसे विमुखता हो जायगी और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा।इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव करनेके लिये साधक दृढ़तासे ऐसा मान ले कि जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें सर्वथा परिपूर्ण हैं, वे परमात्मा ही मेरे हैं। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि कोई भी मेरा नहीं है और मैं उनका नहीं हूँ। विशेष बात सम्पूर्ण जीव भगवान्में ही स्थित रहते हैं। भगवान्में स्थित रहते हुए भी जीवोंके शरीरोंमें उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका क्रम चलता रहता है क्योंकि सभी शरीर परिवर्तनशील हैं और यह जीव स्वयं अपरिवर्तनशील है। इस जीवकी परमात्माके साथ तात्त्विक एकता है। परन्तु जब यह जीव परमात्मासे विमुख होकर शरीरके साथ,अपनी एकता मान लेता है, तब इसे मैंपनकी स्वतन्त्र सत्ताका भान होने लगता है कि मैं शरीर हूँ। इस मैंपनमें एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है -- यह जीवका स्वरूप हुआ। जीव अंश तो है परमात्माका, पर पकड़ लेता है प्रकृतिके अंशको।इस मैंपनमें जो प्रकृतिका अंश है, वह स्वतः ही प्रकृतिकी तरफ खिंचता है। परन्तु प्रकृतिके अंशके साथ तादात्म्य होनेसे परमात्माका अंश जीव उस खिंचावको अपना खिंचाव मान लेता है और मुझे सुख मिल जाय, धन मिल जाय,भोग मिल जाय -- ऐसा भाव कर लेता है। ऐसा भाव करनेसे वह परमात्मासे विशेष विमुख हो जाता है। उसमें संसारका सुख हरदम रहे पदार्थोंका संयोग हरदम रहे यह शरीर मेरे साथ और मैं शरीरके साथ सदा रहूँ -- ऐसी जो इच्छा रहती है, यह इच्छा वास्तवमें परमात्माके साथ रहनेकी है क्योंकि उसका नित्य सम्बन्ध तो परमात्माके साथ ही है।जीव शरीरोंके साथ कितना ही घुलमिल जाय, पर परमात्माकी तरफ उसका खिंचाव कभी मिटता नहीं, मिटनेकी सम्भावना ही नहीं। मैं नित्यनिरन्तर रहूँ, सदा रहूँ, सदा सुखी रहूँ तथा मुझे सर्वोपरि सुख मिले -- इस रूपमें परमात्माका खिंचाव रहता ही है। परन्तु उससे भूल यह होती है कि वह (जडअंशकी मुख्यतासे) इस सर्वोपरि सुखको जडके द्वारा ही प्राप्त करनेकी इच्छा करता है। वह भूलसे उस सुखको चाहने लगता है, जिस सुखपर उसका अधिकार नहीं है। अगर वह सजग, सावधान हो जाय और भोगोंमें कोई सुख नहीं है, आजतक कोईसा भी संयोग नहीं रहा, रहना सम्भव ही नहीं -- ऐसा समझ ले, तो सांसारिक संयोगजन्य सुखकी इच्छा मिट जायगी और वास्तविक, सर्वोपरि, नित्य रहनेवाले सुखकी इच्छा (जो कि आवश्यकता है) जाग्रत् हो जायगी। यह आवश्यकता ज्योंज्यों जाग्रत् होगी, त्योंहीत्यों नाशवान् पदार्थोंसे विमुखता होती चली जायगी। नाशवान् पदार्थोंसे सर्वथा विमुखता होनेपर मेरी स्थिति तो अनादिकालसे परमात्मामें ही है -- इसका अनुभव हो जायगा।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंकी स्थिति अपनेमें बतायी, पर उनके महासर्ग और महाप्रलयका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः उसका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।9.6।। इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे भ्रमित राजकुमार अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण एक सुन्दर एवं स्पष्ट दृष्टान्त देकर उसकी सहायता करते हैं। किसी ऐसी वस्तु की कल्पना कर सकना अत्यन्त कठिन है जो सर्वत्र विद्यमान है? जिसमें सबकी स्थिति है और फिर भी? वह स्वयं उन सब वस्तुओं के दोषों से लिप्त या बद्ध नहीं होती। सामान्य मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान की ऊँचाई तक सरलता से उड़ान नहीं भर सकती। शिष्य की ऐसी बुद्धि के लिये एक टेक या आश्रय के रूप में यहाँ एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है? जिसकी सहायता से स्वयं को ऊँचा उठाकर वह अपने ही परिच्छेदों के परे दृष्टिपात करके अनन्त तत्त्व के विस्तार का दर्शन कर सके।स्थूल कभी सूक्ष्म को सीमित नहीं कर सकता। जैसे किसी कवि ने गाया है? पाषाण की दीवारें कारागृह नहीं बनातीं? क्योंकि एक बन्दी के शरीर को वहाँ बन्दी बना लेने पर भी उसके विचार अपने मित्र और बन्धुओं के पास पहुँचने में नित्य मुक्त हैं? स्वतन्त्र हैं। स्थूल पाषाण की दीवारें उसके सूक्ष्म विचारों की उड़ान पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकतीं। यदि एक बार इस सिद्धांत को भली भांति समझ लें? तो यह दृष्टान्त अत्यन्त भाव व्यंजक बनकर अपने गूढ़ अभिप्रायों को प्रदर्शित कर देता है।वायु का बहना? घूर्णन करना और भंवर के रूप में वेग से घूमना यह सब कुछ एक आकाश में होता है। आकाश उन सबको आश्रय देकर उन्हें सर्वत्र व्याप्त किये रहता है? किन्तु वे किसी भी प्रकार से आकाश को सीमित नहीं करते। सामान्य बौद्धिक क्षमता का साधक भी यदि इस दृष्टान्त का मनन करे? तो वह आत्मा और अनात्मा के बीच के वास्तविक संबंध को समझ सकता है? उसे परिभाषित कर सकता है। सत्य वस्तु मिथ्या का आधार है मिथ्या तादात्म्य से उत्पन्न असंख्य जीव नित्य और सत्य वस्तु में ही रहते हुए सुखदुख? कष्ट और पीड़ा का जीवन जीते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु मिथ्या वस्तु कभी सत्य को सीमित या दोषलिप्त नहीं कर सकती। वायु के विचरण से आकाश में कोई गति नहीं आती आकाश वायु के सब गुण धर्मों से मुक्त रहता है। सर्वव्यापक आकाश की तुलना में? जिसमें कि असंख्य ग्रह नक्षत्र? तारामण्डल अमाप गति से घूम रहे हैं? यह वायुमण्डल और उसके विकार तो पृथ्वी की सतह से कुछ मील की ऊँचाई तक ही होते हैं। अनन्त सत्य की व्यापक विशालता में? अविद्याजनित मिथ्या जगत् के परिवर्तन की रंगभूमि मात्र एक नगण्य क्षेत्र है৷৷. और वहाँ भी सत्य और मिथ्या के बीच संबंध वही है? जो चंचल वायु और अनन्त आकाश में है।यह श्लोक केवल शब्दों के द्वारा सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। व्याख्याकारों का वर्णन कितना ही सत्य क्यों न हो प्रत्येक जिज्ञासु साधक को इनके अर्थ पर स्वयं चिन्तनमनन करना होगा।तब पूर्वाध्याय में आपके बताये हुए पुनर्जन्म के सिद्धांत और ब्रह्माजी के दिन और रात में होने वाली सृष्टि और प्रलय की कथा की स्थिति क्या होगी इस पर कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।9.6।।सृष्टिस्थितिसंहाराणामसङ्गात्माधारत्वंमया ततमिदम् इत्यादिश्लोकद्वयेनोक्तोऽर्थस्तं दृष्टान्तेनोपपादयन्नादौ दृष्टान्तमाहेति योजना। सदेत्युत्पत्तिस्थितिसंहारकालो गृह्यते। आकाशादेर्महतोऽन्याधारत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- महानिति। यथा सर्वगामित्वात्परिमाणतो महान्वायुराकाशे सदा तिष्ठति तथाकाशादीनि महान्त्यपि सर्वाणि भूतान्याकाशकल्पे पूर्णे प्रतीच्यसङ्गे परस्मिन्नात्मनि संश्लेषमन्तरेण स्थितानीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।9.6।।सर्वसङ्गिविवर्जितेऽपि सर्वाणि भूतानि स्थितानीत्युक्तं श्लोकद्वयेन तत्र दृष्टान्तमाह। यथा लोके वायुः सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः परिमाणतो महान्। एवंभूतोऽपि नित्यं सदा आकाशोऽसङ्गिनि तिष्ठतीति आकाशस्थः। तथा सर्वाणि महान्ति सूक्ष्माणि च मयि असङ्गिनि स्थितानीत्युपधारय निश्चयेन जानिहि। युत्तु किंतद्ब्रह्मेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं? अक्षरं परमं ब्रह्मैत्यक्षरसंज्ञः शुद्धस्त्वंपदार्थ एव निरुपाधिकं ब्रह्मेत्युक्तं? तत्रानिरुपपाधिकं सर्वत्रगः। महानित्यनेन बाह्यवायोर्व्यावृत्तिः। स यथा नित्यं कालत्रयेऽप्युत्पत्तेः प्राक्? नाशादूर्ध्वं मध्ये च स्वकारणे आकाशोऽव्याकृते अभेदेन तिष्ठति तथा सर्वाणि भूतानि उपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरुपी चेतनवर्गः। बहुत्वं लोकाभिप्रायेण। एतेन जीवब्रह्माभेदकथनेन स्वभावोऽध्यात्ममुच्यत इति प्रागुक्तं ब्रह्मैव जीव इति विवृतमित्यन्ये। तत्रेदं वक्तव्यं निरुपाधिकस्याक्षरस्य परब्रह्मणस्तत्त्वंपदलक्ष्यत्वेनोभयपदलक्ष्त्वात् त्वंपदलक्ष्यत्वबोधकोपपदादेरभावच्च शुद्धः त्वंपदार्थ एवेत्याद्यसंगतं तत्रेत्यादिना विभागोऽप्यनुपपन्नः। मत्स्थानि सर्वभूतानीत्यस्य पूर्वमपि विद्यमानत्वात्। सर्वाणि भूतानीत्यस्योपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरूपी चेतनवर्ग इति व्याख्यानमप्यसंगतम्। पूर्वोत्तरश्लोकेषु सर्वभूतानीत्यस्य स्थावरजंगमपरत्वेनात्रैवंपरत्वेऽसङ्गततायाः स्पष्टत्वात्। एवं सर्वोऽपि जीववर्ग इत स्वग्रन्थविरोधाच्च। एतेन नन्वेवं जीवस्य उपाधिरहतिस्यैव ब्रह्माणि लयश्चेदुपाधेः का गतिरित्याशङ्क्याह सर्वेतीति प्रत्युक्तमिति दिक्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।9.6।।मत्स्थानि न च मत्स्थानीत्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथाऽऽकाशस्थित इति। न ह्याकाशस्थितो वायुः स्पर्शाद्याप्नोति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।9.6।।श्लोकद्वयोक्तेऽर्थे दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा लोके आकाशे स्थितो नित्यं सदा वायुः सर्वत्रगः परिमाणतश्च महान्? तथा सर्वाणि भूतानि सर्वगते मयि असंश्लेषेणैव स्थितानीत्येवमुपधारयेति प्राञ्चः। किंतद्ब्रह्मेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं अक्षरं परमं ब्रह्मेति। अक्षरसंज्ञं शुद्धस्त्वंपदार्थएव निरुपाधिकं ब्रह्मेत्युक्तम्। तत्र निरुपाधिकं ब्रह्म श्लोकद्वयेन व्याख्यातम्। इदानीं तस्याक्षराख्येन जीवेनाभेदं सदृष्टान्तमाह -- यथेति। वायुः सूत्रात्मावायुर्वै गोतम तत्सूत्रम् इतिश्रुतेः। सर्वत्रगतिसमष्टिलिङ्गत्वात्तस्य सर्वगतत्वम्। महानिति बाह्यवायुव्यावृत्त्यर्थम्। स यथा आकाशस्थितः अव्याकृताकाशे स्वकारणे स्थितः। नित्यमिति कालत्रयेऽपि तस्याकाशसंबन्ध उक्तः। सर्वाणि भूतान्युपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरूपी चेतनवर्गः। बहुत्वं लोकाभिप्रायेण। यथा कार्यं सर्वमुत्पत्तेः प्राक् नाशादूर्ध्वं मध्ये च स्वकारण एवाभेदेन तिष्ठति? एवं सर्वोऽपि जीववर्ग उपाध्युत्पत्तेः प्राक् तन्नाशादूर्ध्वं मध्ये वा घटाकाशो महाकाशादिव परस्माद्ब्रह्मणः कालत्रयेऽपि नातिरिच्यत इत्यर्थः। एतेन जीवब्रह्माभेदकथनेनस्वभावोऽध्यात्ममुच्यते इति यत्प्रागुक्तं ब्रह्मैव जीव इति तद्विवृतम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।9.6।।यथा आकाशे अनालम्बने महान् वायुः स्थितः सर्वत्र गच्छति। स तु वायुः निरालम्बनो मदायत्तस्थितिः इति अवश्याभ्युपगमनीयो मया एव धृत इति विज्ञायते तथा एव सर्वाणि भूतानि तैः अदृष्टे मयि स्थितानि मया एव धृतानि इति उपधारय।यथा आहुः वेदविदःमेघोदयः सागरसन्निवृत्तिरिन्दोर्विभागः स्फुरितानि वायोः। विद्युद्विभङ्गो गतिरुष्णरश्मेर्विष्णोर्विचित्राः प्रभवन्ति मायाः।।इति विष्णोः अनन्यसाधारणानि महाश्चर्याणि इत्यर्थः। श्रुतिः अपि -- एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः (बृ0 उ0 3।8।9)भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः (तै0 उ0 2।8।1) इत्यादिका।सकलेतरनिरपेक्षस्य भगवतः संकल्पात् सर्वेषां स्थितिः प्रवृत्तिः च उक्ताः तथा तत्संकल्पाद् एव सर्वेषाम् उत्पत्तिप्रलयौ अपि? इति आह --

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथेति। अवकाशं विनाऽवस्थानानुपपत्तेर्नित्यमाकाशस्थितो वायुः सर्वत्रगोऽपि महानपि नाकाशेन संश्लिष्यते निरवयवत्वेन संश्लेषायोगात्तथा सर्वाणि भूतानि मयि स्थितानीति जानीहि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।9.6।।यथाकाशस्थितः इति श्लोके स्वस्मिन् सर्वभूतस्थितेराकाशे वायुस्थितिर्दृष्टान्त इति केचिदाहुः? तदयुक्तम्? आकाशस्य वाय्वपेक्षया नियमनधारणयोरभावात्तथाविधस्थितेरिह प्रकृतत्वेन तन्निदर्शनार्थत्वस्यैवौचित्याच्चेत्यभिप्रायेणाहसर्वस्येति।आकाशस्थितः सर्वत्रगः इत्याभ्यामीश्वरैकधार्यत्वं तदेकप्रेर्यत्वं च विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहयथाकाशेऽनालम्बन इति। महत्त्वं चान्याशक्यत्वायोक्तम्। अभिप्रेतं निदर्शनप्रकारं विशदयतिस त्विति। यथा निरालम्बने विहायसि विहङ्गमशरीरादेश्चेतनविशेषाधिष्ठेयत्वं? एवमेव वाय्वादेरपीति भावः।तैरदृष्ट इत्यनेन अनुपलम्भबाधनिरासाय पूर्वोक्तश्रुत्यादिसिद्धायोग्यत्वप्रदर्शनम्। ईश्वरानुमानमनभ्युपगच्छतां कथमिदं निदर्शनमित्यत्राहयथाऽऽहुर्वेदविद इति। आगममूलसम्भावनातर्कपरमिति भावः।वेदविद इत्यनेनाधीयमानवेदोपबृंहणरूपता द्योतिता। अस्मदाद्यगोचरोपादानोपकरणसम्प्रदानादिकानां तत्क्षणादेव सकलदिङ्मुखव्यापिनां धाराधराणामुत्पत्तिः? सकलभुवनाप्लावनलम्पटस्यैव जलनिधेरम्बरालम्बिनां तरङ्गाणां वेलातले निवृत्तिः? प्रतिनियतकलावृद्धिक्षयशृङ्गोन्नमनादिरूपश्चन्द्रमसो विभागः? अशङ्कितागमानामनियतदिग्विशेषाणां तृणगिरितरुषण्डलुण्ठाकानां चण्डमारुतादीनां विस्फूर्तयः? प्रशान्तदहनमिहिरहिमकरादिमहसि प्रावृषि निशीथेऽप्यविदितपूर्वोत्तरक्षणानां क्षणरुचीनां विभङ्गः? निरालम्बने विहायसि महीयसो मिहिरमण्डलस्य प्रतिनियतदिनरजनिमासायनसंवत्सरादिदेशिकः सञ्चारः? एवंविधान्यन्यानि च परिवेषोपरागेन्द्रचापकरकास्तनिताशनिभूकम्पप्रभञ्जनभ्रमणादयोऽत्यद्भुतप्रकाराः सर्वे सर्वव्यापिनः सर्वशक्तेर्विष्णोरेव विचित्रसृष्टिशक्तिमूला भवितुमर्हन्तीति श्लोकार्थः। मायाशब्दस्य मिथ्यार्थत्वनिरसनायाहविष्णोरिति। सम्बन्धसामान्यस्य नियाम्यत्वधार्यत्वादिविशेषपर्यवसानाययथाहुर्वेदविदः इत्यनेनाभिप्रेतं विवृणोति -- श्रुतिरपीति। प्रशासनमत्र सङ्कल्पविशेषःभीषेति -- भयादित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।9.6।।यथेति। एवमिति। यद्वदाकाशवाय्वोरविनाभाविन्यपि संबन्धे न जातु (S जातुचित्) नभः स्पृश्यता श्रूयते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।9.6।।एकमेकत्राश्रितमित्यत्रासम्भावनाभावात्? किं दृष्टान्तोक्त्या इत्यत आह -- मत्स्थानीति। तत्र स्थितत्वेऽप्यन्योन्यधर्मासंक्रान्त्यादावित्यर्थः। तदत्र न प्रतीयत इत्यतो व्याचष्टे -- न हीति। स्पर्शादीति तद्धर्मोपलक्षणम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथैवासङ्गस्वभाव आकाशे स्थितो नित्यं सर्वदोत्पत्तिस्थितिसंहारकालेषु वातीति वायुः सर्वदा चलनस्वभावः। अतएव सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः। महान् परिमाणतः एतादृशोऽपि न कदाप्याकाशेन सह संसृज्यते। तथैवासङ्गस्वभावे मयि संश्लेषमन्तरेणैव सर्वाणि भूतान्याकाशादीनि महान्ति सर्वत्रगाणि च स्थितानीत्युपधारय विमृश्यावधारय।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।9.6।।तर्हि भवतो व्यापकत्वज्जीवस्याणुत्वादव्यापकत्वाच्च मत्स्थानीत्याधाराधेयभावः। कथं इत्यत आह सदृष्टान्तम् -- यथेति। यथा सर्वगो महानपि वायुर्नित्यमाकाशस्थितो भवति आकाशेन च न स्पृश्यते। नित्यपदेनाकाश एव सर्वत्र गतियुक्तो भवतीति व्यञ्जितम्। तथा सर्वाणि भूतानि सर्वत्रगतियुक्तानि मत्क्रीडेच्छयैव मत्स्थानीत्युपधारय जानीहि। उप समीपे मत्समीपे धारय पश्येत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।9.6।। --,यथा लोके आकाशस्थितः आकाशे स्थितः नित्यं सदा वायुः सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः महान् परिमाणतः? तथा आकाशवत् सर्वगते मयि असंश्लेषेणैव स्थितानि इत्येवम् उपधारय विजानीहि।।एवं वायुः आकाशे इव मयि स्थितानि सर्वभूतानि स्थितिकाले तानि --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथाकाशस्थित इति। अवकाशं विनाऽवस्थानानुपपत्तेर्नित्यमाकाशाधारो वा वायुरभ्युपेयते? स च नाकाशेन संश्लिष्यते? निरवयवत्वेन संश्लेषायोगात् तथा सर्वभूतानि मयि जानीहि। वस्तुतस्तु महाभूतान्यपि सर्वाणि मदाधारशक्त्यैवोपष्टब्धानि। मयैव विधृतान्याकाशादीनि। अक्षरमूर्तिना मयैव सर्वं विधृतमित्यर्थः। तथा च श्रूयतेएतस्यैवाक्षरस्य प्रशासने गार्गि [द्यावापृथिवी] सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः ৷৷. द्यावापृथिव्यौ विधृते (अव) तिष्ठतः [बृ.उ.3।8।9] इत्यादि।


Chapter 9, Verse 6