Chapter 1, Verse 33

Text

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।

Transliteration

yeṣhām arthe kāṅkṣhitaṁ no rājyaṁ bhogāḥ sukhāni cha ta ime ’vasthitā yuddhe prāṇāṁs tyaktvā dhanāni cha

Word Meanings

yeṣhām—for whose; arthe—sake; kāṅkṣhitam—coveted for; naḥ—by us; rājyam—kingdom; bhogāḥ—pleasures; sukhāni—happiness; cha—also; te—they; ime—these; avasthitāḥ—situated; yuddhe—for battle; prāṇān—lives; tyaktvā—giving up; dhanāni—wealth; cha—also


Translations

In English by Swami Adidevananda

Those for whose sake we desire empire, enjoyment, and pleasures, stand here in war, renouncing life and wealth.

In English by Swami Gambirananda

- O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what need of enjoyments and livelihood? Those for whom kingdom, enjoyments, and pleasures are desired by us—such as teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law, as well as relatives—those very ones stand arrayed for battle, risking their lives and wealth.

In English by Swami Sivananda

Those for whose sake we desire kingdom, enjoyments, and pleasures stand here in battle, having renounced life and wealth.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

These are our teachers, fathers, sons, paternal grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, sons' sons, wives' brothers, and other relatives.

In English by Shri Purohit Swami

When those for whose sake I desire these things stand here, about to sacrifice their property and lives:

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.33।। जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये सब अपने प्राणों की और धन की आशा का त्याग करके युद्ध में खड़े हैं।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.33।।हमें जिनके लिये राज्य,  भोग और सुखादि की इच्छा है,  वे ही लोग धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.33 येषाम् of whose? अर्थे sake? काङ्क्षितम् (is) desired? नः by us? राज्यम् kingdom? भोगाः enjoyment? सुखानि pleasures? च and? ते they? इमे these? अवस्थिताः stand? युद्धे in battle? प्राणान् life? त्यक्त्वा having abandoned? धनानि wealth? च and.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.33।। व्याख्या--'येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च'--हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुखके लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदिके लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें--इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।  'त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च'--पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाको छोड़कर युद्ध करनेके लिये हमारे सामने इस रणभूमिमें खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणोंका मोह है और न धनकी तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्धसे नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, हमें राज्य किसके लिये चाहिये? सुख किसके लिये चाहिये धन किसके लिये चाहिये? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें?  'प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च' का तात्पर्य है कि वे प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा--इस इच्छाको छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उनमें प्राणोंकी और धनकी इच्छा होती, तो वे मरनेके लिये युद्धमें क्यों खड़े होते? अतः यहाँ प्राण और धनका त्याग करनेका तात्पर्य उनकी आशाका त्याग करनेमें ही है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.33।। No commentary.

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.33।।तानेव विशिनष्टि  आचार्या इति। 

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.33।।येषां स्वीयानामर्थे नो राज्यं भोगसाधनमाकाङ्क्षितमभिलषितं भोगाः सुखसाधनानि सुखानि य येषामर्थे आकाङ्क्षितानि त इमे प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानाः प्राणान्धनानि च त्यक्त्वा युद्धेऽवस्थिताः। त्यक्तुमिति वक्तव्ये त्यक्त्वेति क्त्वाप्रत्ययेन प्राणादित्यागसाधने समरे प्रवृत्ते तत्त्यक्तुमवस्थिता अपि तत्प्रेमातिशयात्पलाय्य गमिष्यन्तीति शङ्का न कर्तव्येति सूचयति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.33।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।। 1.33निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.33।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

 ।। 1.33  विजयादिकं फलं किं न पश्यसीति चेत्तत्राह  न काङ्क्ष इति।  एतदेव प्रपञ्चयति  किं न इति  सार्धाभ्याम्। यदर्थमस्माकं राज्यादिकमपेक्षितं त एते प्राणधनानि त्यक्त्वा त्यागमङ्गीकृत्य युद्धार्थमवस्थिताः। अतः किमस्माकं राज्यादिभिः कृत्यमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 1.33।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.33।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.33।।प्राणधनशब्दौ तु तदाशालक्षकौ। स्वप्राणत्यागेऽपि स्वबन्धूनामुपभोगाय धनाशा संभवेदिति तद्वारणाय पृथग्धनग्रहणम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.33।।ननु तवैकस्य नाकांक्षा तथापि स्वकीयसम्बन्धिनां सर्वेषामर्थे शत्रून्मारयित्वा राज्यं स्वकीयं कुर्वित्याशङ्कायामाह येषामर्थ इति। येषामर्थे नः राज्यमाकाङ्क्षितं भोगाः सुखानि च कांक्षितानि ते सर्व इमे प्राणान् धनानि च त्यक्त्वा युद्धे सङ्ग्रामे  मर() णार्थमवस्थिता इत्यर्थः। तस्मादेतन्मारणेन लौकिकसिद्धिरपि नास्माकमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.33 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.31 1.33।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.


Chapter 1, Verse 33