Chapter 8, Verse 11

Text

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।

Transliteration

yad akṣharaṁ veda-vido vadanti viśhanti yad yatayo vīta-rāgāḥ yad ichchhanto brahmacharyaṁ charanti tat te padaṁ saṅgraheṇa pravakṣhye

Word Meanings

yat—which; akṣharam—Imperishable; veda-vidaḥ—scholars of the Vedas; vadanti—describe; viśhanti—enter; yat—which; yatayaḥ—great ascetics; vīta-rāgāḥ—free from attachment; yat—which; ichchhantaḥ—desiring; brahmacharyam—celibacy; charanti—practice; tat—that; te—to you; padam—goal; saṅgraheṇa—briefly; pravakṣhye—I shall explain


Translations

In English by Swami Adidevananda

I will briefly speak to you of that immutable Goal, which the knowers of the Vedas declare; into which diligent ones, free from attachment, enter, and for which people practice celibacy, aspiring.

In English by Swami Gambirananda

I will briefly tell you about that immutable Goal which the knowers of the Vedas declare; those who are diligent, free from attachment, and aspire for it, enter into it. People practice celibacy for it.

In English by Swami Sivananda

That which is declared to be Imperishable by those who know the Vedas, that which the self-controlled (ascetics or Sannyasins) and passion-free enter, that goal, desiring which celibacy is practised, I will declare to thee in brief.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

That Unchanging One which the Vedic knowers speak of; which the passion-free ascetics enter into, seeking which they practice celibacy (or spiritual life); that Goal together with the means [to reach it] I shall tell you.

In English by Shri Purohit Swami

Now, I will briefly speak of the imperishable goal, proclaimed by those who are versed in the scriptures, which the mystic attains when free from passion, and for which they are content to undergo the vow of continence.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।8.11।। वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।8.11।। वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

8.11 यत् which? अक्षरम् imperishable? वेदविदः knowers of the Vedas? वदन्ति declare? विशन्ति enter? यत् which? यतयः the selfcontrolled (ascetics or Sannyasins)? वीतरागाः freed from attachment? यत् which? इच्छन्तः desiring? ब्रह्मचर्यम् celibacy? चरन्ति practise? तत् that? ते to thee? पदम् goal? संग्रहेण in brief? प्रवक्ष्ये (I) will declare.Commentary The Supreme Being which is symbolised by the sacred monosyllable Om or the Pranava is the highest step or the supreme goal of man.The same ideas are expressed in the Kathopanishad. Yama (the God of Death) said to Nachiketas? The goal which all the Vedas speak of? which all penances proclaim and wishing for which they lead the life of celibacy? that goal (world) I will briefly tell thee. It is Om. Satyakama the son of Sibi estioned Pippalada? O Bhagavan? if some one among men meditates here until death on the syllable Om? what world does he obtain by that Pippalada replied? O Satyakama? the syllable Om is indeed the higher and the lower Brahman. He who meditates on the higher Purusha with this syllable Om of three Matras (units) is led up by the Samaverses to the Brahmaloka or the world of Brahma. (Prasnopanishad)Pranava or Om is considered either as an expression of the Supreme Self or Its symbol like anidol (Pratika). It serves persons of dull and middling intellects as a means for realising the Supreme Self.Chant Om three times at the commencement of your meditation you will find concentration of mind easier.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।8.11।। व्याख्या--[सातवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें जो निर्गुण-निराकार परमात्माका वर्णन हुआ था, उसीको यहाँ ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।8.11।। इस श्लोक में जो कि एक प्रसिद्ध उपनिषद् के मन्त्र का स्मरण कराता है भगवान् श्रीकृष्ण लक्ष्य की स्तुति करते हुए वचन देते हैं कि वे अगले श्लोकों में पूर्णत्व के परम लक्ष्य तथा तत्प्राप्ति के उपायों का वर्णन करेंगे।ध्यानसाधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मन की योग्यता अत्यावश्यक होती है। इस योग्यता के सम्पादन के लिए प्रायः सभी उपनिषदों में प्रणवोपासना (ओंकारोपासना) का अनेक स्थानों पर उपदेश दिया गया है। पौराणिक युग से इस उपासना का स्थान श्रद्धाभक्तिपूर्वक किये जाने वाले ईश्वर के साकार रूप या अवतारों के ध्यान पूजा आदि ने ले लिया है। इस प्रकार के ध्यान का प्रयोजन और उपयोगिता वही है जो वैदिक उपासनाओं की है।यहाँ साधक को अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों की सूचनाओं और आवश्यक सावधानियों का निर्देश दिया गया है जिससे उसकी आध्यात्मिक तीर्थयात्रा अधिक सरल और आनन्दप्रद हो सके। साधारणतः जिन विघ्नों की शिकायत साधक करते हैं वे सब विघ्न अनात्म उपाधियों से हुए तादात्म्य के कारण ही आते हैं। इन उपाधियों के तादात्म्य से मन को परावृत्त करने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। आत्मोन्नति के शास्त्र के रूप में वेदान्त के लिए आवश्यक है कि यह साधक को ध्यान की विधि बताने के साथसाथ सम्भावित विघ्नों का भी संकेत देकर उनसे सुरक्षित रहने के उपायों का भी वर्णन करे। यदि साधक को इनका सम्पूर्ण ज्ञान हो तो शीघ्र ही वह अपनी सुरक्षा कर सकता है। यह श्लोक यह इंगित करता है कि आत्मसंयम और वैराग्य के द्वारा किस प्रकार इस मार्ग पर सुखपूर्वक अग्रसर हुआ जा सकता है।इसी अध्याय में ब्रह्म की लाक्षणिक परिभाषा देते हुए उसे अक्षर कहा गया था। भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि जो वीतराग यति हैं वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इसी अक्षर ब्रह्म में प्रवेश करते हैं।वीतरागा सम्पूर्ण गीता संन्यास का गीत हैं परन्तु यह मन्दबुद्धि पुरुष का अरचनात्मक संन्यास नहीं वरन् विवेक जनित वैराग्य है जो सर्वत्र एवं समस्त प्रगति और विकास का अग्रदूत है कामनाओं का संन्यास बुद्धि की स्वाभाविक परिपक्वता का फल है मन की प्रवृत्तियों का दमन नहीं। नईनई खिली हुई कलियाँ कुछ समय पश्चात् अपनी कोमलसुन्दर पंखुड़ियों के परिधान को त्यागकर शोभनीयता का संन्यास व्यक्त करके नग्नावस्था में खड़ी रहती हैं। परन्तु प्रकृति में यह तभी होता है जब फूलों पर सेचन क्रिया सम्पन्न होकर फल सृजन की क्रिया प्रारम्भ हो गई हो। इन फूलों पर दृष्टिपात करने वाले एक सामान्य पुरुष की दृष्टि से पंखुड़ियों का इस प्रकार बिखर जाना फूल का महान त्याग अथवा संन्यास हो सकता है किन्तु एक कृषक जानता है कि फूलों का यह त्याग उन्हें सद्यः प्राप्त परिपक्वता का परिणाम है जिसके कारण ये सुन्दर पंखुड़ियाँ स्वतः ही बिखर गई हैं।इसी प्रकार भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत निःसन्देह ही संन्यास अथवा वैराग्य की आवश्यकता पर बल दिया गया है परन्तु उसका अर्थ उदास और विषादपूर्ण आत्मत्याग अथवा स्वयं को दण्डित करना नहीं है। किन्हींकिन्हीं धर्मों में अवश्य ही इस प्रकार के त्याग का प्रचार एवं अभ्यास किया जाता है। उपनिषदों के ऋषियों ने सदा सम्यक् विवेक जनित वैराग्य का ही उपदेश दिया है तथा उसका आग्रह किया है। इसलिए वीतरागाः शब्द से उन साधकों को समझना चाहिए जो विषयों की तुच्छता एवं जीवन के परम लक्ष्य की श्रेष्ठता समझकर विषयासक्ति से सर्वथा मुक्त हो गये हैं।यह भी सर्वविदित तथ्य है कि इच्छाओं की संख्या जितनी अधिक होगी मन में विक्षेप भी उतना ही अधिक होगा। विक्षेपों की अधिकता का अर्थ मानसिक क्षमता की न्यूनता है। साधक की ध्यान में सफलता मन की शक्ति पर निर्भर करती है और मनः शान्ति ही वह धन है जिसके द्वारा इस यात्रा की कठिनाइयाँ और कष्ट कम हो सकते हैं। अतः एक नियम के रूप में कहा जा सकता है कि ज्ञान मार्ग में उन पुरुषों को सफलता का अधिक अवसर है जिनमें कामनाओं की संख्या न्यूनतम है।उपासना का क्रम तथा फल बताने के लिए भगवान् कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।8.11।।येन केनचिन्मन्त्रादिना ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्ते सत्यभिधानत्वे नियन्तुं स्मर्तव्यत्वेन प्रकृतपरमपुरुषस्य त्रैविद्यवृद्धप्रसिद्ध्या प्रामाणिकत्वमाह -- पुनरपीति। उपायो वक्ष्यमाण ओङ्कारः। अविषये प्रतीचि ब्रह्मणि वेदार्थविदामपि कथं वचनमित्याशङ्क्याविषयत्वमत्यक्त्वैवेति मत्वा श्रुतिमुदाहरति -- तद्वेति। तथापि तस्मिन्नविषये सर्वविशेषशून्ये वचनमनुचितमित्याशङ्क्याह -- सर्वेति। न केवलं विद्वदनुभवसिद्धं यथोक्तं ब्रह्म किंतु मुक्तोपसृप्यतया मुक्तानामपि प्रसिद्धमित्याह -- किञ्चेति। केषां पुनः संन्यासित्वं तदाह -- वीतरागा इति। ज्ञानार्थं ब्रह्मचर्यविधानादपि ब्रह्म ज्ञेयत्वेन प्रसिद्धमित्याह -- यच्चेति। कथं तर्हि यथोक्तं ब्रह्म मम ज्ञातुं शक्यमित्याकुलितचेतसमर्जुनं प्रत्याह -- तत्ते पदमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।8.11।।इदानीं येन केचचिन्मन्त्रादिना ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्तेस यो ह वैतद्भगवन्मुष्येष्वाप्रायणं तमोंकारमभिध्यायीत कतमं वा स तेन लोकं जयति तस्मै सहोवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्ययः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीतप्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्इतचोपक्रम्यसर्वे वेदा यत्पदभामन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इत्यादिवचनैः परस्य ब्रह्मणो वाचरुपेण प्रतिभावत्प्रतीकरुपेण च परब्रह्मप्राप्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्योंकारोपासनस्य परस्य ब्रह्मणो वाचकरुपेण प्रतिभावत्प्रतीकरुपेण च परब्रह्मप्राप्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्योकारोपासनस्य कालान्तरमुक्तफलं यदुक्तं तदेवेहापीत्योंकारेण भगवान्स्मर्तव्य इत्याशयेनाह -- यदित्यादिना। यदक्षरं न क्षरतीत्यक्षरं अविनाशि वेदविदो वेदार्थज्ञा वदन्ति।तद्वा एतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति इति श्रुतेः।अस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घम्अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययम् इत्यादिना सर्वविशेषनिवृत्तत्वेनाभिवदनतीत्यर्थः। न केवलमाभिवदन्त्येवापि तु सभ्यग्दर्शनप्राप्तौ यतयो यत्नशीलाः संन्यासिनो वीतः अपगतो राग इत उपलक्षणं रागादिर्येभ्यस्ते वीतरागाः। रागस्यैवोपादानं तु द्वेषादीनां मूलभूतो रागग एवेत्यभिप्रायेण। यद्विशन्ति प्रविशन्ति सभ्यग्ज्ञानप्राप्तौ सत्यां यदिच्छन्तो ज्ञातुमिति शेषः। ब्रह्मचर्यं गुरौ चरन्तितदेतद्वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति इतिश्रुतेः तत्पदं ते संक्षेपेण प्रवक्ष्ये कथयिष्यामि।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।8.11।।तदेव ध्येयं प्रपञ्चयति -- यदक्षरमित्यादिना। प्राप्यते मुमुक्षुभिरिति पदम्। पद गतौ [4।63] इति धातोः। तद्विष्णोः परमं पदम् [ऋक्सं.1।2।6।5कठो.3।9] इति श्रुतेश्च।गीयसे पदमित्येव मुनिभिः पद्यसे यतः इति वचनान्नारदीये।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।8.11।।भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येत्युक्तं तत्किं कृत्वा कर्तव्यं तत्कृत्वा च किं कर्तव्यमित्येतद्वयं वदिष्यंस्तत्र प्रतीकत्वेन चिन्त्यं प्रणवं तावद्वाच्यवाचकयोरभेदविवक्षया स्तौति -- यदक्षरं प्रणवाख्यं वाचकं वेदविदो वेदादौ वदन्ति। यद्वा यदक्षरं ब्रह्म तद्वाच्यंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्येवंलक्षणं वा वेदविद उपनिषद्विदो वदन्ति यच्च यतयो विशन्ति ब्रह्मप्रतीकत्वेन शरणीकुर्वन्ति पक्षे सम्यग्दर्शने सति सरित्सागरन्यायेन यत्प्रविशन्ति यतयः। यत् अक्षरमिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्तीति पक्षद्वयेऽपि समानम्। तत्ते पदं वर्णत्रयात्मकं पदनीयं वा स्थानं विष्णोः परमं पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये। अयं च वाच्यवाचकयोरभेदः श्रुतिच्छायया गम्यते।अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात् इति सर्वधर्मातीतं ब्रह्म प्रकृत्यसर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्। इत्योंकारेणोपसंहारात्। तत्फलं च प्रतीकभावात्। ओंकारं प्रतीकत्वेन प्रकल्प्य तद्वारा शुद्धं शबलं वा ब्रह्म प्रतिपत्तव्यम्। तथा च श्रुत्यन्तरेएतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्यतस्मादेवंविद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति इति दृष्टम्। आयतनं शालग्रामवत्प्रतीकं तेन।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।8.11।।यद् अक्षरम् अस्थूलत्वादिगुणकं वेदविदो वदन्ति वीतरागाः च यतयो यद् अक्षरं विशन्ति यद् अक्षरं प्राप्तुम् इच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।पद्यते गम्यते अनेन इति पदं तद् निखिलवेदान्तवेद्यं मत्स्वरूपम् अक्षरं यथा उपास्यं तथा संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।8.11।।केवलादभ्यासयोगादपि प्रणवाधारमभ्यासमन्तरङ्गं विधित्सुः प्रतिजानीते -- यदक्षरमिति। यदक्षरं वेदान्तज्ञा वदन्तिएतस्य वाक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः इति श्रुतेः। वीतो रागो येभ्यस्ते वीतरागा यतयः प्रयत्नवन्तो यद्विशन्ति। यच्च ज्ञातुमिच्छन्तो गुरुकुले ब्रह्मचर्यं चरन्ति। तत्ते तुभ्यं पदं पद्यते गम्यत इति पदं प्राप्यं संग्रहरेण संक्षेपेण प्रवक्ष्ये। तत्प्राप्त्युपायं कथयिष्यामीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।8.11।।अथ मन्दप्रयोजनोक्तपरव्याख्यातिक्षेपाययदक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयस्यार्थमाह -- अथेति। स्मरणशब्दोऽत्रोपासनस्यान्तिमप्रत्ययस्य च सङ्ग्राहकः उभयोरपि स्मृतिविशेषत्वात्। नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् [यजुःका.3।55।7] इत्युक्तप्रमाणान्तरागोचरत्वपरेणवेदविदो वदन्ति इत्यनेन सूचितंवेदोक्तप्रकारकथनम् -- अस्थूलत्वादिगुणकमिति। अस्थूलमनण्वह्रस्वम् [बृ.उ.3।8।8] इत्यादिश्रुतिरिह विवक्षिता।ब्रह्मचर्यं ऊर्ध्वरेतस्त्वादिकम्। यद्वा अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तत् ৷৷. अथ यत्सत्रायणमित्याचक्षते ৷৷. अथ यन्मौनमित्याचक्षते ৷৷. अथ यदरण्यायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तत् [छां.उ.8।5।123] इति श्रुतेः ब्रह्मप्राप्त्यर्था या काचिदपि चर्या ब्रह्मचर्यम्। वीतरागा यतय एव यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति [कठो.2।15] इत्यत्रापि कर्तारः। एतेन फलोपाययोः प्रदर्शनम्। पदशब्दस्यात्र रूढार्थानुपपत्तेरुपपन्नं योगमाह -- पद्यत इति। अत्र पदशब्देन ज्ञानविषयत्वमुखेन उपास्यत्वादिकमभिप्रेतमित्याह -- गम्यते चेतसेति। यत्तच्छब्दाभिप्रेतां प्रसिद्धिमाह -- तन्निखिलेति। अक्षरशब्दस्यात्र विकारादिदोषरहितपरमात्मविषयत्वात्मत्स्वरूपमित्युक्तम्। स्वासाधारणं रूपमित्यर्थः। अक्षररूपपरमात्मोपासनमत्राक्षरस्वरूपजीवात्मप्राप्त्यर्थम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।8.11।।यदक्षरमिति। सम्यक् गृह्यते निश्चीयते अनेनेति संग्रहः उपायः। तेन उपायेन तत् (S उपायेनैतत) पदमभिधास्ये उपायमत्र सतताभ्यासाय वक्ष्ये।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।8.11।।क्रममुक्त्यर्थं ओङकारोपासनमुच्यत इत्यन्यथाव्याख्यानमपाकर्तुमाह -- तदेवेति। वायुजययुतानां मरणकाले कर्तव्यमेवमामनुस्मरन् [8।13] इत्यादिविरोधादिति भावः। ननु पदत्वं शब्दस्यैवोंकारस्य सम्भवति न विष्णोरित्यत आह -- प्राप्यत इति। कर्मण्यकारप्रत्ययः। पदं स्वरूपमिति प्रयोगप्रदर्शनम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।8.11।।इदानीं येनकेनचिदभिधानेन ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्तेसर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इत्यादिश्रुतिप्रतिपादितत्वेन प्रणवेनैवाभिधानेन तदनुस्मरणं कर्तव्यं नान्येन मन्त्रादिनेति नियन्तुमुपक्रमते -- यदक्षरमविनाशि ओंकाराख्यं ब्रह्म वेदविदो वदन्तिएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्यादिवचनैः सर्वविशेषनिवर्तनेन प्रतिपादयन्ति। न केवलं प्रमाणकुशलैरेव प्रतिपन्नं किंतु मुक्तोपसृप्यतया तैरप्यनुभूतमित्याह -- विशन्ति स्वरूपतया सम्यग्दर्शनेन यदक्षरं यतयो यत्नशीलाः संन्यासिनो वीतरागा निस्पृहाः। न केवलं सिद्धैरनुभूतं साधकानामपि सर्वोऽपि प्रयासस्तदर्थ इत्याह -- यदिच्छन्तो ज्ञातुं नैष्ठिका ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्यं गुरुकुलवासादि तपश्चरन्ति यावज्जीवं तदक्षराख्यं पदं पदनीयं ते तुभ्यं संग्रहेण संक्षेपेणाहं प्रवक्ष्ये प्रकर्षेण कथयिष्यामि यथा तव बोधो भवति तथा। अतस्तदक्षरं कथं मया ज्ञेयमित्याकुलो माभूरित्यभिप्रायः। अत्र च परस्य ब्रह्मणो वाचकरूपेण प्रतिमावत्प्रतीकरूपेण चयः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्यनेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तमधिगच्छति इत्यादिवचनैर्मन्दमध्यमबुद्धीनां क्रममुक्तिफलकमुपासनमुक्तं तदेवेहापि विवक्षितं भगवता। अतो योगधारणासहितमोंकारोपासनं तत्फलं स्वस्वरूपं ततोऽपुनरावृत्तिस्तन्मार्गश्चेत्यर्थजातमुच्यते यावदध्यायसमाप्ति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।8.11।।ननु भक्तियुक्ता अपि तदेव प्राप्नुवन्ति योगयुक्ता अपि च तदा तयोः को विशेषः इत्याकाङ्क्षायां तयोः प्राप्यरूपमाह -- यदक्षरमिति। वेदविदो वेदान्तज्ञा यदक्षरं वदन्ति यत् वीतरागो विरागिणो यतयः सर्वत्यागादिप्रयत्नवन्तो विशन्ति यत्रैक्यं प्राप्नुवन्ति यदिच्छन्तो यत्स्वरूपज्ञानेन प्राप्तीच्छवः ब्रह्मचर्यमिन्द्रियनिग्रहं गुरुकुले चरन्ति तत्पदं तेषां प्राप्यं ते तुभ्यं सङ्ग्रहेण सङ्क्षेपेण ज्ञानार्थं प्रवक्ष्ये कथयिष्यामीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।8.11।। -- यत् अक्षरं न क्षरतीति अक्षरम् अविनाशि वेदविदः वेदार्थज्ञाः वदन्ति तद्वा एतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति (बृ0 उ0 3।8।8) इति श्रुतेः सर्वविशेषनिवर्तकत्वेन अभिवदन्ति अस्थूलमनणु (बृ0 उ0 3।8।8) इत्यादि। किञ्च -- विशन्ति प्रविशन्ति सम्यग्दर्शनप्राप्तौ सत्यां यत् यतयः यतनशीलाः संन्यासिनः वीतरागाः वीतः विगतः रागः येभ्यः ते वीतरागाः। यच्च अक्षरमिच्छन्तः -- ज्ञातुम् इति वाक्यशेषः -- ब्रह्मचर्यं गुरौ चरन्ति आचरन्ति तत् ते पदं तत् अक्षराख्यं पदं पदनीयं ते तव संग्रहेण संग्रहः संक्षेपः तेन संक्षेपेण प्रवक्ष्ये कथयिष्यामि।।स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोंकारमभिध्यायीत कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति। तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्य यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत (प्र0 उ0 5।1।2।5।। -- स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम् इत्यादिना वचनेन अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात् इति च उपक्रम्य सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति। तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् (क0 उ0 1।2।14.15) इत्यादिभिश्च वचनैः परस्य ब्रह्मणो वाचकरूपेण प्रतिमावत् प्रतीकरूपेण वा परब्रह्मप्रतिपत्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्य ओंकारस्य उपासनं कालान्तरे मुक्तिफलम् उक्तं यत् तदेव इहापि कविं पुराणमनुशासितारम् (गीता 8।9) यदक्षरं वेदविदो वदन्ति (गीता 8।11) इति च उपन्यस्तस्य परस्य ब्रह्मणः पूर्वोक्तरूपेण प्रतिपत्त्युपायभूतस्य ओंकारस्य कालान्तरमुक्तिफलम् उपासनं योगधारणासहितं वक्तव्यम् प्रसक्तानुप्रसक्तं च यत्किञ्चित् इत्येवमर्थः उत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते --

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।8.11।।इयं त्वधियज्ञप्राप्तिरुक्तयोगिनस्त्रिधोक्ता अक्षरब्रह्मात्मचिन्तकानां ज्ञानिनां तु स एव च लभ्यो भवतीति प्रतिजानंस्तदुपासकानाह -- यदक्षरमिति। वेदविदो ब्राह्मणाः एतद्वै तदक्षरं गार्गि इत्यभिवदन्ति [बृ.उ.3।8।8]। प्रायो वेदविदां वादोऽक्षरपर्यवसायीति गम्यते। यतयो वीतरागाः परमहंसाः यत् विशन्ति एकत्वमाप्नुवन्तीति सन्न्यासिनां प्राप्यतयोक्तम्।यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति इति ब्रह्मचारिणां तदक्षरस्वरूपं मत्पदस्वरूपत्वात्पदम्चैद्ये च सात्त्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे इति वाक्यात्अन्तर्याम्यवतारादिरूपे पादत्वमस्य हि इति निबन्धाच्चरणरूपमेतत् ते सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये तेषां गम्यमिति वक्ष्यामीत्यर्थः।


Chapter 8, Verse 11