Chapter 8, Verse 8

Text

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8.8।।

Transliteration

abhyāsa-yoga-yuktena chetasā nānya-gāminā paramaṁ puruṣhaṁ divyaṁ yāti pārthānuchintayan

Word Meanings

abhyāsa-yoga—by practice of yog; yuktena—being constantly engaged in remembrance; chetasā—by the mind; na anya-gāminā—without deviating; paramam puruṣham—the Supreme Divine Personality; divyam—divine; yāti—one attains; pārtha—Arjun, the son of Pritha; anuchintayan—constant remembrance


Translations

In English by Swami Adidevananda

O son of Prtha, by meditating with a mind engaged in the yoga of practice and not straying away to anything else, one reaches the supreme Person existing in the effulgent region.

In English by Swami Gambirananda

O son of Prtha, by meditating with a mind engaged in the yoga of practice and not straying away to anything else, one reaches the supreme Person existing in the effulgent region.

In English by Swami Sivananda

With the mind not moving towards any other thing, made steadfast through the practice of habitual meditation, and constantly meditating, one goes to the Supreme Person, the Resplendent, O Arjuna.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

He who is engaged in reflecting on the Supreme Divine Soul with his mind, remaining fixed in the practice of yoga and not focusing on any other object, that person attains the Supreme, O son of Prtha!

In English by Shri Purohit Swami

He whose mind does not wander, and who is engaged in constant meditation, attains the Supreme Spirit.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।8.8।। हे पृथानन्दन ! अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।8.8।। हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

8.8 अभ्यासयोगयुक्तेन (with the mind made) steadfast by the method of habitual meditation? चेतसा with the mind? न not? अन्यगामिना moving towards any other thing? परमम् Supreme? पुरुषम् Purusha? दिव्यम् the resplendent? याति goes? पार्थ O Partha? अनुचिन्तयन् meditating.Commentary Abhyasa means practice. Practice is the constant repetition of one idea of God. In the practice of meditation Vijatiya Vrittis (worldly thoughts or thoughts of a type different from the object of meditation) are shut out and there is Sajatiya Vrittipravaha (continous flow of thoughts of the Self or the Absolute alone). This is Abhyasa. Abhyasa is Yoga. This will terminate in Nirvikalpa Samadhi. The Yogi with Samahita Chitta (eanimity of mind) attains Paramatman or the Supreme Soul. Just as the rivers abandoning their names and forms because one with the ocean? so also the sage or the Vidvan? being liberated from names and forms? and virtue and vice? becomes identical with the Supreme Self.The most vital factor in this practice is regularity. Be regular in your meditation. You will soon reach the goal.Purusham Divyam The resplendent? transcendental Being or the Inner Ruler (Antaryamin) in the solar orb.He who meditates constantly without allowing the mind to wander among the sensual objects? in accordance with the instructions of the scriptures and the perceptor reaches the Supreme Purusha.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।8.8।। व्याख्या --[सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें जो सगुणनिराकार परमात्माका वर्णन हुआ था उसीको यहाँ आठवें नवें और दसवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।] 'अभ्यासयोगयुक्तेन'-- इस पदमें अभ्यास और योग -- ये दो शब्द आये हैं। संसारसे मन हटाकर परमात्मामें बारबार मन लगानेका नाम अभ्यास है और समताका नाम योग है-- 'समत्वं योग उच्यते' (गीता 2। 48)। अभ्यासमें मन लगनेसे प्रसन्नता होती है और मन न लगनेसे खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है पर अभ्यासयोग नहीं है। अभ्यासयोग तभी होगा जब प्रसन्नता और खिन्नता -- दोनों ही न हों। अगर चित्तमें प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जायँ तो भी उनको महत्त्व न दे केवल अपने लक्ष्यको ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहना भी योग है। ऐसे योगसे युक्त चित्त हो।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।8.8।। इस श्लोक में प्रयुक्त याति क्रियापद का अर्थ है जाता है। परन्तु यह परम पुरुष को जाना या प्राप्त होना मृत्यु के पश्चात् ही नहीं समझना चाहिए। मृत्यु से तात्पर्य अहंकार के नाश से है जिसका उपाय है ध्यानाभ्यास। इस श्लोक का प्रयोजन यह दर्शाना है कि परिच्छिन्न अहंकार के लुप्त होने पर कोई भी साधक मुक्त पुरुष के रूप में इसी जीवन में सदा स्वस्वरूप में स्थित रहकर जी सकता है।जो व्यक्ति जगत् में अस्थायी यात्री के रूप में और न कि स्थायी निवासी बनकर उपर्युक्त जीवन पद्धति के अनुसार जीता है और नित्यनिरन्तर आत्मचिन्तन का अभ्यास करता है वह निश्चय ही ध्यान में एकाग्र हो जाता है। वास्तव में यह वेदोपदिष्ट प्रार्थना और उपासना का तथा पुराणों में वर्णित भक्ति और प्रपत्ति (शरणागति) की साधनाओं का ही स्पष्टीकरण है जबकि पूर्व श्लोक में जो उपदेश है वह धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का है अर्थात् अपने कार्यक्षेत्र में ही संन्यास के स्वरूप का है।इस अभ्यासयोग के फलस्वरूप भक्त को चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है जो बुद्धि को सुगठित करने में उपयोगी होती है। ऐसे अन्तःकरण के आत्म साक्षात्कार के योग्य हो जाने पर आत्मा की अनुभूति सहज सिद्ध हो जाती है। निरन्तर चिन्तन से हे पार्थ साधक परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। यह नियम न केवल परम पुरुष की प्राप्ति के विषय में सत्य प्रमाणित है वरन् किसी भी वस्तु के लिए यह समान रूप से लागू होता है। इससे इस श्लोक का गूढ़ार्थ स्पष्ट हो जाता है। यदि साधक सर्वसाधन सम्पन्न हो तो आत्मा का अनुभव तथा उसमें दृढ़ निष्ठा इसी वर्तमान जीवन में ही प्राप्त की जा सकती है।यहाँ प्रयुक्त अनुचिन्तयन् शब्द साभिप्राय है। ध्येयविषयक सजातीय वृत्ति प्रवाह को चिन्तन या ध्यान कहते हैं। अनु उपसर्ग का अर्थ है निरन्तर। अत यहाँ दिव्य पुरुष को निरन्तर चिन्तन करने का उपदेश दिया गया है।वह ध्येय पुरुष किन गुणों से विशिष्ट है भगवान् कहते हैं --

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।8.8।।इतश्च पूर्वश्लोकोक्तार्थानुष्ठायी भगवन्तमन्तकाले प्राप्नोतीत्याह -- किञ्चेति। अभ्यासं विभजते -- मयीति। नहि चित्तसमर्पणस्य विषयभूतं भगवतोऽर्थान्तरं वस्तु सदस्तीति मन्वानो विशनष्टि -- चित्तेति। अन्तरालकालेऽपि विजातीयप्रत्ययेषु विच्छिद्य विच्छिद्य जायमानेष्वपि सजातीयप्रत्ययावृत्तिरयोगिनोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह -- विलक्षणेति। अभ्यासाख्येन योगेन युक्तत्वं चेतसो विवृणोति -- तत्रैवेति। तृतीयया परामृष्टोऽभ्यासयोगः सप्तम्यापि परामृश्यते। ननु (तु) प्राकृतानां चेतस्तथेत्याशङ्क्य विशिनष्टि -- योगिन इति।,तच्चेच्चेतो विषयान्तरं परामृशेन्न तर्हि परमपुरुषार्थप्राप्तिहेतुः स्यादित्याशङ्क्याह -- नान्यगामिनेति। प्रामादिकं विषयान्तरपारवश्यमभ्यनुज्ञातुं ताच्छील्यप्रत्ययस्तेन तात्पर्यादपरामृष्टार्थान्तरेण परमपुरुषनिष्ठेनेत्यर्थः। तदेव पुरुषस्य निरतिशयत्वं यदपरामृष्टाखिलानर्थत्वमनतिशयानन्दत्वं तच्च प्रागेव व्याख्यातं नेह व्याख्यानमपेक्षते।यश्चासावादित्ये इत्यादिश्रुतिमनुसृत्याह -- दिवीति। तत्र विशेषतोऽभिव्यक्तिरेव भवनम्। पूर्वोक्तेन चेतसा यथोक्तं पुरुषमनुचिन्तयन्याति तमेवेति संबन्धः। अनुचिन्तयन्नित्यत्रानुशब्दार्थं व्याचष्टे -- शास्त्रेति। चिन्तयन्निति व्याकरोति -- ध्यायन्निति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।8.8।।किंच चित्तादिसमर्पणविषयभूते एकस्मिन्मयि वासुदेवे विजातीयप्रत्ययानन्तरितः सजातीयप्रत्ययावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः सचासौ योगः समाधिस्तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतम्। प्रत्ययावृत्तिव्यापाराविष्टमितियावत्। तेन योगिनश्चेतसाऽनन्यगामिना नान्यस्मिन्विषये गन्तुं शीलमस्य तेन अभ्यासयोगादनन्यगामितां तत्फलभूतां प्राप्तेनेत्याशयः। परमं निरतिशयं पुरुषं पूर्ण दिव्यं द्योतमाने सूर्ये भवं यथा शास्त्राचार्योपदेशमनुध्यायन् याति गच्छिति मत्प्राप्त्यर्थं मय्यभ्यासयोगयुक्तेनानन्यगामिना चेतसा परमं दिव्यं पुरुषं वासुदेवं मामनुचिन्तय मच्चिन्तनं हि तव सलभमिति ध्वनयन्नाह -- हे पार्थेति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।8.8।।सदा तद्भावभावितत्वं स्पष्टयति -- अभ्यासेति। अभ्यास एव योगोऽभ्यासयोगः। दिव्यं पुरुषं पुरिशयं पूर्णं च स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किञ्चनानावृतं नैनेन किञ्चनासंवृतम् [बृ.उ.2।5।18] इति श्रुतेः। दिव्यं सृष्ट्यादिक्रीडायुक्तम्। दिवु क्रीडा -- [धा.पा.4।1] इति धातोः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।8.8।।एतदेव श्लोकत्रयेण विवृणोति -- अभ्यासेति। अभ्यासयोगयुक्तेनतत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः इति सूत्रितोभ्यासः तत्र ध्येये वस्तुनि चित्तस्य स्थिरीकरणार्थो यतः। सच विजातीयप्रत्ययानन्तरितसजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणरूपः सोऽत्राभ्यासः। तत्र भाव्यो विषयः सिद्धः विष्णुप्रतिमादिर्विराडादिर्वा। असिद्धस्तु मानसप्रतिमादिः। तत्रासिद्धे मनसः प्रतिमाकारतासंपादने तत्र स्थैर्यसंपादने चेति विषयभेदाद्विगुणो यत्नः कर्तव्यो भवति। सिद्धे तु चित्तस्थिरीकरणार्थ एक एव यत्नः। तत्र यथा स्वतः स्वच्छः स्फटिको जपाकुसुमोपरागाल्लोहितः स्फटिक इति तत्र लौहित्याध्यासः तत्प्राबल्यात्तत्रैव स्फटिकधीप्रमोषे पद्मरागत्वाध्यासः पद्मरागेऽपि चन्द्रिकायामिन्द्रनीलत्वाध्यासस्तत्रैव तदानीमेव किंचिद्दूरस्थे निहीनोपलत्वाध्यास इत्युत्तरोत्तराध्यासक्रमेण शुद्ध एक एव स्फटिकः पञ्चविधो भवति। एवं स्वतःशुद्धं चैतन्यं मायोपरागात्तदेवेश्वरः मायाप्राबल्ये तस्यैवेश्वरत्वांशप्रमोषे तत्रैव सूत्रात्माध्यासः सूत्रेऽप्यज्ञानदार्ढ्याद्विराडध्यासः ततएव विराडेकदेशेषु शरीरादिषु आत्मत्वभ्रमः तत्र यथा घटान्तर्गतः प्रदीपो घटमात्रं भासयति घटच्छिद्राद्बहिर्गतः किंचित्स्वप्रभया संसृष्टं विषयमवभासयति सर्वात्मना घटाद्बहिर्गतस्तु कृत्स्नं भवनोदरवर्ति पदार्थजातं प्रकाशयति तद्वद्देहान्तर्गता चितिर्देहमात्रं भासयति देहच्छिद्राच्चक्षुरादेर्बहिर्गता सती तत्संनिकृष्टं कंचिद्विषंय रूपादिकमवभासयति सर्वात्मना गुरूक्तयुक्त्या देहकृतपरिच्छेदाभिमाने त्यक्ते त्वपरिच्छिन्ना सती कृत्स्नं विराडात्मानमवभासयति। यथोक्तं बाह्यग्रन्थेष्वपिमणिहुतवहतारासोमसूर्यादयोऽपि क्षितिविषयमिहाल्पं बाह्यमुद्योतयन्ति। सहजलयसमुत्थं द्योतयेज्ज्योतिरन्तस्त्रिभुवनमपि सूक्ष्मस्थूलभेदक्रमेण। इति। सहजलयसमुत्थं सहजः स्वाभाविको देहकृतपरिच्छेदाभिमानस्तस्य लयमात्रादेव उत्थितं क्रमेण संकल्पक्रमेण सदीक्षणमात्राभिनिर्वृत्तत्वात्सर्वस्य प्राक्संकल्पादसत्त्वात्। तथा च श्रुतिःस यदि पितृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति इति।दोषनिमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः इत्यक्षपादसूत्राच्च। दोषा रागादयः। तदेवं प्रकाशमाने विराजिअहमेवेदं सर्वोऽस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकः इति शास्त्रप्रामाण्यादुपासकेन गृहीतोऽहंग्रहो यद्यपि वस्तुतत्त्वापेक्षया भ्रान्तिरूपस्तथापि स्वाभाविकाद्देहाहंग्रहात्सत्यरूपः यथा स्फटिके हीनोपलत्वग्रहापेक्षया इन्द्रनीलत्वग्रहस्तद्वत्। यथाच स्फटिके प्रणिधीयमानं चक्षुरुत्तरोत्तरपाटवविवृद्धान्विद्रनीलत्वं बाधित्वा पद्मरागत्वं तद्बाधेन लोहितस्फटिकत्वं तद्बाधेन शुद्धत्वं चावगच्छति एवं गुरूक्तयुक्त्या प्रत्यगात्मनि प्रणिधीयमानं मनोऽस्य बाह्यं बाह्यं रूपमपोह्य आन्तरे आन्तरे अवतिष्ठते। चरमं विशुद्धं रूपं प्राप्य तु स्वयमेव विलीयते। यथोक्तंयेन त्यजसि तत्त्यज इति। येन,मनसा त्यजसि विराडादिभावं तदपि मनस्त्यजेत्यर्थः। तदेवं व्यवहारापेक्षया सिद्धेषु विराट्सूत्रान्तर्यामिषु मनसः स्थिरीकरणार्थो यत्नोऽभ्यासस्तत्फलभूतो योगः समाधिर्ध्येयवस्तुन्येव चेतसः स्थैर्यं तेन गुणेन युक्तं यच्चेतस्तेन। नान्यगामिना अनन्यगामिना। नैकधेतिवत्समासः। तेन चेतसा परमं सर्वोत्कृष्टं पुरुषं निरस्ताशेषदोषम्।यत्सर्वेषां पुरस्तात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुषः इति निर्वचनात्। दिव्यं द्योतमानमनुचिन्तयन्नहमेव भगवान्सर्वात्मा वासुदेव इति सततमाचार्योपदेशमनुध्यायन् तमेव नदीसमुद्रन्यायेन याति हे पार्थ। तथा च श्रुतिःयथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथा विद्वान्पुण्यपापे विधूय परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् इति। परात्सूत्रात् परमन्तर्यामिणम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।8.8।।अहरहः अभ्यासयोगाभ्यां युक्ततया नान्यगामिना चेतसा अन्तकाले परमं पुरुषं दिव्यं मां वक्ष्यमाणप्रकारं चिन्तयन् माम् एव याति आदिभरतमृगत्वप्राप्तिवत् ऐश्वर्यविशिष्टतया मत्समानाकारो भवति।अभ्यासो नित्यनैमित्तिकाविरुद्वेषु सर्वेषु कालेषु मनसा उपास्यसंशीलनम् योगः तु अहरहः योगकाले अनुष्ठीयमानं यथोक्तलक्षणम् उपासनम्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।8.8।।संततस्मरणस्य चाभ्यासोऽन्तरङ्गसाधनमिति दर्शयन्नाह -- अभ्यासेति। अभ्यासः सजातीयप्रत्ययप्रवाहः स एव योग उपायस्तेन युक्तेनैकाग्रेण अतएव नान्यं विषयं गन्तुं शीलं यस्य तेन चेतसा दिव्यं द्योतनात्मकं परमं पुरुषं परमेश्वरमनुचिन्तयन् हे पार्थ तमेव यातीति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।8.8।।अन्तिमप्रत्ययप्रसङ्गात्तद्धेतुतयाअनुस्मर [8।7] इत्युपासनं प्रस्तुतम् तत्प्रकारभेदोऽनन्तरप्रघट्टकार्थ इत्यभिप्रायेणाहएवमिति। गतिभेदोऽपि वक्ष्यमाणोऽनेनोपलक्षणीयः।अभ्यास -- इत्यादिश्लोकत्रयार्थमाहतत्रेति। योगशब्दस्य सम्बन्धमात्रपरत्वे नैरर्थक्यादत्र ध्यानपरत्वं वक्तुं युक्तं तत्पुरुषाच्च द्वन्द्वस्योभयपदार्थप्रधानत्वात्परिग्राह्यत्वमस्तीति तदाह -- अभ्यासयोगाभ्यामिति।नान्यगामिना इत्येतन्नैकादिशब्दवत् अनन्यगामिनेत्यर्थः। अन्यत्र विषयान्तरे गन्तुं शीलं नास्येति नान्यगामि। अभ्यासयोगशब्देन प्राचीनचिन्तनस्योक्तत्वात्अनुचिन्तयन् इत्येतदन्तिमस्मृतिपरमिति प्रदर्शनायअन्तकाल इत्युक्तम्। चिन्तनस्य ध्यानस्य च पुरुष एवात्र कर्म स च परमशब्देन विशेषितत्वादीश्वर एवेत्यभिप्रायेणमामित्यादि पदद्वयम्।दिव्यम् इत्यस्य सूर्यमण्डले स्थितमितिशङ्करोक्तं निर्मूलम्आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [8।9] इति वक्ष्यमाणविरुद्धं चेत्यभिप्रायेणाह -- वक्ष्यमाणप्रकारमिति। अनन्तरश्लोकद्वयेनेति शेषः। कथमैश्वर्यार्थिनोऽनपेक्षितपरमपुरुषप्राप्तिः फलतयोच्यते इत्यत्राह -- आदिभरतेति। अन्तकाले स्मर्यमाणभोगप्रदानोपयुक्ताकारविशिष्टपरमपुरुषसमानैश्वर्यप्राप्तिरिह परमपुरुषप्राप्तिः। तत्साम्यापत्तिरेव हि तत्प्राप्तितयायं यम् [8।6] इति श्लोकेनोदाहृतेति भावः।आरम्भणसंशीलनं पुनः पुनरभ्यासः इति वाक्यकारवचनानुरोधेनाभ्यासशब्दार्थमाह -- अभ्यास इति। पुनःपुनरिति वचनान्मध्येऽवश्यम्भाविभिः कैश्चिद्व्यवधानं सूचितमित्यभिप्रायेणोक्तंनित्यनैमित्तिकाविरुद्धेष्विति।सर्वेषु कालेष्विति न केवलं योगकाले तदातनस्य शीलनस्य योगशब्देनोपात्तत्वादिति भावः। आरम्भणमालम्बनम् तच्चात्रोपास्यशब्देन व्याख्यातम्। योगशब्देनात्राङ्गिस्वरूपमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- योगस्त्विति।यथोक्तमिति अत्यर्थप्रियविशदतमप्रत्यक्षतापन्नमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।8.8।।अभ्यासेति। अनुचिन्तयन् इति -- शरीरभेदानन्तरं निवृत्तकलेवरकृतव्यथः पश्चाद्भगवन्तं चिन्तयन्निति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।8.8।।कुतोऽयमर्थः इत्यत उत्तरत्रैवमेव व्याख्यानादिति भावेनाह -- सदेति। द्वन्द्वादिशङ्काव्युदासार्थमाह -- अभ्यास एवेति। अभ्यासातिरिक्तस्य योगत्य प्रकृतोपयोगिनोऽभावादिति भावः।पुरुषश्चाधिदैवतम् [8।4] इति प्रकृतो हिरण्यगर्भोऽत्रोच्यत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह दिव्यमिति। दिव्यत्वेन विशेषणात् ईश्वर एवायमित्यथः।पृ़ पालनपूरणयोः [धा.पा.3।4] इत्यतःविदिपूरोश्च इति कुषन्प्रत्ययविधानात् पूर्णं चेति सिध्यति। सर्वासु पूर्षु वर्तमान इति स्वरूपानुवादेन पुरुष इति विधेयम्। तस्य व्याख्यानं पुरिशय इत्यादि। आवरणमन्तर्व्याप्तिः। संवरणं बहिराच्छादनम्। ननु दिवि भवो दिव्यः स च सूर्यमण्डलस्थत्वाद्धिरण्यगर्भोऽपि भवतीति कश्चित् (शं.) अत आह -- दिव्यमिति। औणादिको यक्प्रत्ययः। परममिति विशेषणादिति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।8.8।।तदेवं सप्तानामपि प्रश्नानामुत्तरमुक्त्वा प्रयाणकाले भगवदनुस्मरणस्य भगवत्प्राप्तिलक्षणं फलं विवरीतुमारभते -- अभ्यासः सजातीयप्रत्ययप्रवाहो मयि विजातीयप्रत्ययानन्तरितः षष्ठे प्राग्व्याख्यातः स एव योगः समाधिस्तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतमात्माकारवृत्तीतरवृत्तिशून्यं यच्चेतस्तेन चेतसाऽभ्यासपाटवेन नान्यगामिना नान्यत्र विषयान्तरे निरोधप्रयत्नं विनापि गन्तुं शीलमस्येति परमं निरतिशयं पुरुषं पूर्णं दिव्यं दिवि द्योतनात्मन्यादित्ये भवंयश्चासावादित्ये इति श्रुतेः याति गच्छति। हे,पार्थ अनुचिन्तयन् शास्त्राचार्योपदेशमनुध्यायन्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।8.8।।अथ तव तु मत्प्राप्तिर्निस्सन्दिग्धा साक्षान्मयोपदिष्टत्वात् किन्तु मदाज्ञाव्यतिरेकेणापि येऽनन्यभावेन स्मरन्ति तेऽपि मां प्राप्नुवन्तीत्याह -- अभ्यासेति। हे पार्थ मद्भक्त अभ्यासो भगवत्सङ्गानुशीलनं स एव योग उपायः तद्युक्तेन नान्यगामिना अन्यत्रोत्तमत्वज्ञानजचाञ्चल्यदोषरहितेन चेतसा दिव्यं क्री़डात्मकं परमं पुरुषं पुरुषोत्तमभावं निर्जितचेतसा अनुचिन्तयन् भगवत्कृतस्मरणानन्तरं चिन्तयन् स्मरन् हे पार्थ तमेव याति प्राप्नोतीत्यर्थः। पार्थेति सम्बोधनेन पृथासम्बन्धान्मत्कृतस्मरणानन्तरस्मरणेन यथा त्वं मामाप्नोषीति बोध्यते।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।8.8।। --,अभ्यासयोगयुक्तेन मयि चित्तसमर्पणविषयभूते एकस्मिन् तुल्यप्रत्ययावृत्तिलक्षणः विलक्षणप्रत्ययानन्तरितः अभ्यासः स,चाभ्यासो योगः तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतं योगिनः चेतः तेन चेतसा नान्यगामिना न अन्यत्र विषयान्तरे गन्तुं शीलम् अस्येति नान्यगामि तेन नान्यगामिना परमं निरतिशयं पुरुषं दिव्यं दिवि सूर्यमण्डले भवं याति गच्छति हे पार्थ अनुचिन्तयन् शास्त्राचार्योपदेशम् अनुध्यायन् इत्येतत्।।किं विशिष्टं च पुरुषं याति इति उच्यते --,

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।8.8 -- 8.9।।एवं सप्तप्रश्नानामुत्तरं निरूप्य प्रयाणकाले योगिनां ज्ञानिनां भक्तानां च तत्तत्स्वरूपप्राप्त्यात्मकं फलमाह -- अभ्यासयोगेति। नान्यगामिना विषयाद्यगामिना(अक्षराद्यगामिना)ऽनुचिन्तयन्परमं पुरुषं नारायणं दिव्यं सूर्यस्थं याति तमेव विशिनष्टि --,कविमिति। यो योगी सर्गमर्यादाधिदेवं परमात्मानं अणोरणीयांसं समनुस्मरेत् अणोर्जीवादप्यणुतरम्अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् इति वाक्यात्। आदित्यवर्णं स्वप्रकाशस्वरूपं तदन्तर्वर्त्तिरूपं वायुरूपं पुरुषसूक्तप्रतिपाद्यस्वरूपं वा तमसः प्रकृतेः परस्तात्परतरम्।


Chapter 8, Verse 8