Chapter 1, Verse 31

Text

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।

Transliteration

nimittāni cha paśhyāmi viparītāni keśhava na cha śhreyo ’nupaśhyāmi hatvā sva-janam āhave

Word Meanings

nimittāni—omens; cha—and; paśhyāmi—I see; viparītāni—misfortune; keśhava—Shree Krishna, killer of the Keshi demon; na—not; cha—also; śhreyaḥ—good; anupaśhyāmi—I foresee; hatvā—from killing; sva-janam—kinsmen; āhave—in battle


Translations

In English by Swami Adidevananda

I see, Kṛṣṇa, inauspicious omens. I foresee no good in slaying my kinsmen in battle.

In English by Swami Gambirananda

Besides, I do not see any good to be derived from killing my own people in battle. O Krsna, I do not hanker after victory, nor even a kingdom, nor pleasures.

In English by Swami Sivananda

And I see ill omens, O Kesava. I do not see any good in slaying my kinsmen in battle.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O Govinda! What use is the kingdom to us? What use are its pleasures and life even?

In English by Shri Purohit Swami

The omens are unfavorable; what good can come from the slaughter of my people on this battlefield?

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.31।। हे केशव! मैं लक्षणों  - (शकुनों) को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.31।।हे केशव ! मैं शकुनों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में (आहवे) अपने स्वजनों को मारकर कोई कल्याण भी नहीं देखता हूँ।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.31 निमित्तानि omens? च and? पश्यामि I see? विपरीतानि adverse? केशव O Kesava? न not? च and? श्रेयः good? अनुपश्यामि (I) see? हत्वा killing? स्वजनम् our peope? आहवे in battle.Commentary Kesava means he who has fine or luxuriant hair.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.31।। व्याख्या--'निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव'--हे केशव! मैं शकुनोंको  (टिप्पणी प0 22.2)  भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है। परन्तु अगर कार्यके आरम्भमें ही उत्साह भङ्ग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भावसे अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीरमें अवयवोंका शिथिल होना, कम्प होना, मुखका सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं, ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं  (टिप्पणी प0 22.3)  इसके सिवाय आकाशसे उल्कापात होना, असमयमें ग्रहण लगना, भूकम्प होना, पशु-पक्षियोंका भयंकर बोली बोलना, चन्द्रमाके काले चिह्नका मिट-सा जाना, बादलोंसे रक्तकी वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं, वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभीके और पहलेके--इन दोनों शकुनोंकी ओर देखता हूँ, तो मेरेको ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्टके सूचक दीखते हैं।  'न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे'--युद्धमें अपने कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें कोई लाभ होगा--ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्धके परिणाममें हमारे लिये लोक और परलोक--दोनों ही हितकारक नहीं दीखते। कारण कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुलका नाश करनेसे हमें पाप ही लगेगा ,जिससे नरकोंकी प्राप्ति होगी। इस श्लोकमें 'निमित्तानि पश्यामि' और 'श्रेयः अनुपश्यामि'--(टिप्पणी प0 23) इन दोनों वाक्योंसे अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शुकुनोंको देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ, दोनों ही रीतिसे युद्धका आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और संसारमात्रके लिये हितकारक नहीं दीखता।  सम्बन्ध-- जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है, ऐसी अनिष्टकारक विजयको प्राप्त करनेकी अनिच्छा अर्जुन आगेके श्लोकमें प्रकट करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.31।। No commentary.

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.31।।युद्धे स्वजनहिंसया फलानुपलम्भादपि तस्मादुपरिरंसा जायत इत्याह  न चेति। 

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.31।।विपरीतनिमित्तप्रवृत्तेरपि मोहो भवतीत्याह  निमित्तानीति।  निमित्तानि च विपरीतानि वामनेत्रस्फुरणादीनि पश्यामि। तथाचास्मन्निमित्तः स्वजननाशो भविष्यति नतु केश्यादिमारणेन भवता यथा स्वजनः पालितः तथा स्वजनरक्षणमिति सूचयन्संबोधयति  हे केशवेति।  अहमनात्मवित्त्वेन दुःखित्वाच्छोकनिबन्धनं क्लेशमनुभवामि त्वं तु सदानन्दरुपत्वाच्छोकासंसर्गीति कृष्णपदेन सूचितम्। अतः स्वजनदर्शने तुल्येऽपि शोकासंसर्गित्वलक्षणाद्विशेषात्त्वं मामशोकं कुर्विति भावः। केवपदेन च तत्करणसामर्थ्यं केशौ ब्रह्मरुद्रौ वात्यनुकम्प्यतया गच्छतीति तद्य्वत्पत्तेः। भक्तदुःखकर्षित्वं वा कृष्णपदेनोक्तम्। केशवपदेन च केश्यादिदुष्टनिबर्हणेन सर्वदा भक्तान्पालयसीत्यतो मामपि शोकनिवारणेन पालयिष्यसीति सूचितमिति केचित्। इदानीं शोकमोहाविष्टचित्तः स्वधर्मेऽधर्मतां निष्प्रयोजनतां चोरोपयन्नाह  नचेति।  आहवे युद्धभूमौ स्वजनं स्वबन्धुवर्गं हत्वा अनु पश्चाच्छ्रेयो न पश्यामि। अतो निष्फलाया बन्धुहिंसाया अधर्मनिमित्ताया निवृत्तिरेव युक्तेति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.31।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।1.31।।निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.31।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

 ।।1.31।।  किंच  न चेति।  स्वजनं आहवे युद्धे हत्वा श्रेयः फलं न पश्यामि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।1.31।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.31।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.31।।केशवपदेन च केश्यादिदुष्टदैत्यनिबर्हणेन सर्वदा भक्तान्पालयसीत्यतो मामपि शोकनिवारणेन पालयिष्यसीति सूचितम्। एंव लिङ्गद्वारेण समीचीनप्रवृत्तिहेतुभूतत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकीभूतं शोकमुक्त्वा संप्रति तत्कारितां विपरीतप्रवृत्तिहेतुभूतां विपरीतबुद्धिं दर्शयति श्रेयः पुरूषार्थं दृष्टमदृष्टं वा बहुविचारणादनु पश्चादपि न पश्यामि। अस्वजनमपि युद्धे हत्वा श्रेयो न पश्यामि।द्वाविमौ पुरूषौ लोके सूर्यमण्डलमेदिनौ। परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः।। इत्यादिना हतस्यैव श्रेयोविशेषाभिधानाद्धन्तुस्तु न किंचित्सुकृतम्। एवमस्वजनवधेऽपि श्रेयसोऽभावे स्वजनवधे सुतरां तदभाव इति ज्ञापयितुं स्वजनमित्युक्तम्। एवमनाहववधे श्रेयो नास्तीति सिद्धसाधनवारणायाहव इत्युक्तम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.31।।तदेवाह न चेति। स्वजनमाहवे सङ्ग्रामे हत्वा अनु पश्चात् श्रेयो न पश्यामि। श्रेयो भगवत्कृपात्मिकां भक्तिमित्यर्थः। अत  एवं भगवतोक्तम्.   तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः। न  ज्ञानं.   न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह भाग.11।20।31 इति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.31 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.31 1.33।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.


Chapter 1, Verse 31