येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।7.28।।
yeṣhāṁ tvanta-gataṁ pāpaṁ janānāṁ puṇya-karmaṇām te dvandva-moha-nirmuktā bhajante māṁ dṛiḍha-vratāḥ
yeṣhām—whose; tu—but; anta-gatam—completely destroyed; pāpam—sins; janānām—of persons; puṇya—pious; karmaṇām—activities; te—they; dvandva—of dualities; moha—illusion; nirmuktāḥ—free from; bhajante—worship;mām; dṛiḍha-vratāḥ—with determination
But those who have done good deeds, whose sins have come to an end, are freed from the delusion of the pairs of opposites. They steadfastly worship Me, adhering to their vows.
On the other hand, those persons who have done virtuous deeds, whose sin has come to an end, they, being free from the delusion of duality and firm in their convictions, adore Me.
But those men of virtuous deeds, whose sins have come to an end and who are freed from the delusion of the pairs of opposites, worship Me steadfastly, with their vows.
But those men of virtuous deeds, whose sin has come to an end—they, being free from the delusion of pairs [of opposites], worship Me with a firm resolve.
But those who act righteously, in whom sin has been destroyed, who are free from the infatuation of conflicting emotions, they worship Me with a firm resolve.
।।7.28।। परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
।।7.28।। परन्तु जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़वती पुरुष मुझे भजते हैं।।
7.28 येषाम् of whom? तु but? अन्तगतम् is at the end? पापम् sin? जनानाम् of men? पुण्यकर्मणाम् of men of virtuous deeds? ते they? द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः freed from the delusion of the pairs of opposites? भजन्ते worship? माम् Me? दृढव्रताः men steadfast in vows.Commentary By the performance of good deeds the heart is slowly purified Sattva increases Rajas and Tamas are gradually thinned out. The mind becomes serene and calm. The little selfarrogating personality slowly dies. You grow in spirituality. The divine flame becomes brighter and brighter. You become impersonal.Sin To forget ones identity with the Supreme Soul is the greatest sin. To see difference is sin. To take the body as the Self? to believe that this world is real is sin. Selfishness is sin. Egoism is sin. Ignorance is sin.Steadfast in vows The man steadfast in vows entertains a firm resolve I must realise the Self now I will not budge an inch from my seat till I attain Selfrealisation. He has the firm conviction that Brahman is the only Reality. This world is unreal. It is like a mirage. I can attain immortality and eternal bliss if I realise the Self only. There is not an iota of happiness in the sensual objects. Therefore the Lord says? Those persons of pure deeds worship Me steadfast in vows.
।।7.28।। व्याख्या--'येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्' द्वन्द्वमोहसे'--मोहित मनुष्य तो भजन नहीं करते और जो द्वन्द्वमोहसे मोहित नहीं हैं वे भजन करते हैं तो भजन न करनेवालोंकी अपेक्षा भजन करनेवालोंकी विलक्षणता बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।जिन मनुष्योंने अपनेको तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है इस उद्देश्यको पहचान लिया है अर्थात् जिनको उद्देश्यकी यह स्मृति आ गयी है कि यह मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये नहीं है प्रत्युत भगवान्की कृपासे केवल उनकी प्राप्तिके लिये ही मिला है ऐसा जिनका दृढ़ निश्चय हो गया है वे मनुष्य ही पुण्यकर्मा हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपने एक निश्चयसे जो शुद्धि होती है पवित्रता आती है वह यज्ञ दान तप आदि क्रियाओंसे नहीं आती। कारण कि हमें तो एक भगवान्की तरफ ही चलना है यह निश्चय स्वयंमें होता हैऔर यज्ञ दान आदि क्रियाएँ बाहरसे होती हैं।'अन्तगतं पापम्' कहनेका भाव यह है कि जब यह निश्चय हो गया कि मेरेको तो केवल भगवान्की तरफ ही चलना है तो इस निश्चयसे भगवान्की सम्मुखता होनेसे विमुखता चली गयी जिससे पापोंकी जड़ ही कट गयी क्योंकि भगवान्से विमुखता ही पापोंका खास कारण है। सन्तोंने कहा है कि डेढ़ ही पाप है और डेढ़ ही पुण्य है। भगवान्से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुणदुराचारोंमें लगना आधा पाप है। ऐसे ही भगवान्के सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सद्गुणसदाचारोंमें लगना आधा पुण्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है तब उसके पापोंका अन्त हो जाता है।दूसरा भाव यह है कि जिनका लक्ष्य केवल भगवान् हैं वे पुण्यकर्मा हैं क्योंकि भगवान्का लक्ष्य होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान्का लक्ष्य होनेपर पुराने किसी संस्कारसे पाप हो भी जायगा तो भी वह रहेगा नहीं क्योंकि हृदयमें विराजमान भगवान् उस पापको नष्ट कर देते हैं
।।7.28।। जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है इस कथन को सम्यक् प्रकार से समझना आवश्यक है। पाप मनुष्य का स्वभाव नहीं हैं वेदान्त के अनुसार वह मनुष्य द्वारा किये गये गलत निर्णय अर्थात् विपरीत ज्ञान का परिणाम है जिसने आत्मचैतन्य को आच्छादित सा कर दिया है। पाप का मुख्य कारण है बाह्य स्थूल जगत् के निम्न स्तरीय विषयोपभोग के लिए हमारे मन की तृष्णा और स्पृहा। पापी पुरुष वह है जिसका अत्यधिक समय और ध्यान केवल अपने देहसुख के लिए ही व्यक्त होता है। ऐसे पुरुष में देह स्वामी और आत्मा उसकी दासी बन जाती है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति वैषयिक सुखों की कामना मन में उठने वाली प्रत्येक निम्न कोटि की भावना का सन्तुष्टीकरण यह है पापी पुरुष की जीवन पद्धति।इस प्रकार का कामुक पाशविक जीवन अन्तकरण में वैसी ही वासनाएं उत्पन्न करता है। वासना के अनुसार ही विचार होते हैं। विचारानुसार कर्म और ये कर्म फिर वासना को ही दृढ़ करते हैं।मनुष्य की शान्ति और सन्तुष्टि को विनष्ट करने वाली वासनाविचारकर्म की श्रृंखला को तोड़ने के लिए मनुष्य को पुण्यकर्म का नया जीवन प्रारम्भ करने का उपदेश दिया जाता है। पुण्यकर्म पाप का विरोधी होने से उसके अन्तर्गत वे सब विचार भावनाएं तथा कर्म आते हैं जो ईश्वर को समर्पित होते हैं अर्थात् जिनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होता है। मैं देह हूँ के स्थान पर मैं आत्मा हूँ इस ज्ञान को दृढ़ करके कर्म करने पर वे अपना संस्कार उत्पन्न नहीं करेंगे। कुछ कालावधि में इन पुण्यसंस्कारों के दृढ़ होने पर पाप वासनाएं नष्ट हो जायेंगी।ऐसा पापयुक्त पुरुष सुख दुखादि रूप सभी प्रकार के द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त हो जाता है। तब उसमें यह योग्यता आती है कि वह एकाग्रचित तथा दृढ़वती अर्थात् दृढ़ निश्चयी होकर आत्मा का ध्यान कर सके।साधन सम्पन्न साधक किस प्रयोजन से आत्मा का ध्यान करते हैं उत्तर है
।।7.28।।यदि सर्वाणि भूतानि जन्मप्रतिपद्यमानानि संमूढानि सन्ति भगवत्तत्त्वपरिज्ञानशून्यानि भगवद्भजनपराङ्मुखानि तर्हि शास्त्रानुरोधेन भगवद्भजनमुच्यमानमधिकार्यभावादनर्थकमापद्येतेति शङ्कते के पुनरिति। अनेकेषु जन्मसु सुकृतवशादपाकृतदुरितानां द्वन्द्वप्रयुक्तमोहविरहिणां ब्रह्मचर्यादिनियमवतां भगवद्भजनाधिकारित्वान्न शास्त्रविरोधोऽस्तीति परिहरति उच्यत इति। तुशब्दद्योत्यमर्थमाह पुनरिति। उक्तार्थमात्रसिद्ध्यर्थं समाप्तप्रायमित्युक्तम्। प्रकृतोपयोगं पुण्यस्य कर्मणो दर्शयितुं विशिनष्टि सत्त्वेति। उभयविधशुद्धेर्द्वन्द्वनिमित्तमोहनिवृत्तिफलमाह ते द्वन्द्वेति। मोहनिवृत्तेर्भगवन्निष्ठापर्यन्तत्वमाह भजन्त इति। तेषां नानापरिग्रहवतां भगवद्भजनप्रतिहतिमाशङ्क्याह दृढेति।
।।7.28।।के पुनस्त्वां विदित्वा यथाशास्त्र मात्मभावेन भजन्त इत्यपेक्षायामाह। येषां तु पुनर्जनानां पुण्यकर्मणां पुण्यं कर्म पापक्षयद्वारा सत्त्वशुद्धिकरं येषां ते पुण्यकर्माणस्तेषां पापमन्तं समाप्तिं गतं प्राप्तम् ते यथोक्तद्वन्द्वमोहेन विनिर्मुक्ता वर्जिता अतएव दृढव्रताः एवमेवात्मतत्त्वं नान्यथेत्येवं सर्वपरित्यागेन निश्चितविज्ञाना मां परमात्मानं भजन्ते।
।।7.28।।विपरीताश्च केचित्सन्तीत्याह येषामिति।
।।7.28।।केषां तर्हि सार्वज्ञ्यं भवतीत्याशङ्क्याह येषां त्विति द्वाभ्याम्। येषां पुनर्जनानां पुण्यकर्मणां पापं अन्तगतं अन्तं नाशं प्राप्तं।द्वितीया श्रिता इति समासः। ते द्वन्द्वमोह उक्तलक्षणस्तेन निर्मुक्ताः सन्तः प्रथमं दृढव्रताः शमदमादिदार्ढ्य भाजो भूत्वा मां भजन्ते।
।।7.28।।येषां तु अनेकजन्मार्जितेन उत्कृष्टपुण्यसंचयेन गुणमयं द्वन्द्वेच्छाद्वेषहेतुभूतं मदौन्मुख्यविरोधि च अनादिकालप्रवृत्तं पापम् अन्तगतं क्षीणम् ते पूर्वोक्तेन सुकृततारतम्येन मां शरणम् अनुप्रपद्य गुणमयान्मोहाद् विनिर्मुक्ताः जरामरणमोक्षाय प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपदर्शनाय महते च ऐश्वर्याय मत्प्राप्त्ये च दृढव्रताः दृढसंकल्पा माम् एव भजन्ते।तत्र तेषां त्रयाणां भगवन्तं भजमानानां ज्ञातव्यविशेषान् उपादेयांश्च प्रस्तौति
।।7.28।।कुतस्तर्हि केचन त्वां भजन्तो दृश्यन्ते तत्राह येषामिति। येषां तु पुण्याचरणशीलानां सर्वं प्रतिबन्धकं पापमन्तगतं नष्टं ते द्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन निर्मुक्ताः दृढव्रता एकान्तिनः सन्तो मां भजन्ते।
।।7.28।।यद्येवं सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति तर्हि भगवदुपासनं कदाचिदपि कस्यचिदपि न स्यात् अतःचतुर्विधा भजन्ते माम् 7।16 इत्यादिनोक्तं चानुपपन्नं स्यादित्यत्रोत्तरंयेषां त्वित्यादि।पुण्यकर्मणाम् इत्येतत्पापनिवृत्तिहेतुपरम्। तथा च श्रुतिः धर्मेण पापमपनुदति म.ना.उ.16।1 इति। जनशब्दश्च जननवति वर्तमानत्वात् पुण्यप्रचयहेतुभूतानेकजन्मसूचनपर इत्यभिप्रायेणोक्तम् अनेकजन्मार्जितेनोत्कृष्टपुण्यसञ्चयेनेति। भगवज्ज्ञानप्रतिबन्धकपापनिवर्तकत्वाच्चोत्कृष्टत्वं फलितम्। गुणमयशब्देन सुखदुःखरूपभगवत्संश्लेषविश्लेषाख्यद्वन्द्वव्यवच्छेदः।द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ता मां भजन्ते इति फलद्वयदर्शनात्प्रतिबन्धकेऽपि पापे द्वन्द्वेच्छाद्वेषहेतुभूतं मदौन्मुख्यविरोधि चेति भेदो दर्शितः। अनेकजन्मार्जितोत्कृष्टपुण्यनाश्यत्वायोक्तंअनादिकालप्रवृत्तमिति। उपासनारम्भे पापस्य द्वन्द्वमोहस्य च निश्शेषविनष्टत्वाभावादन्तर्गतशब्देनाल्पावशिष्टत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तं क्षीणमिति।मामेव ये प्रपद्यन्ते 7।14चतुर्विधा भजन्ते मां इत्यादिकं च प्रायुक्तमनन्तराभिधीयमानं चजरामरणमोक्षाय 7।29 इत्यादिकमनुसन्दधान आहपूर्वोक्तेनेति। न चात्र द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्तत्ववचनादैश्वर्यार्थिनां प्रसङ्गानुपपत्तिः तेषामपि क्षुद्रतरद्वन्द्वनिरोधस्यावश्यापेक्षितत्वात्। व्रतशब्दः सङ्कल्पविशेषेषु मुख्यः तत्सम्बन्धादेव क्रियाविशेषेषु तत्प्रयोग इत्यभिप्रायेणदृढसङ्कल्पा इत्युक्तम्। दृढव्रतशब्देन देवतान्तरपरित्यागादिनियमोऽपि यथाप्रमाणं सूचित इत्यभिप्रायेणमामेव भजन्त इत्युक्तम्।मां भजन्ते इत्यनेनैव भजनाङ्गव्रतादेरपि सिद्धत्वात्मत्प्राप्तये चेत्यन्तेन दृढसङ्कल्पत्वं स्वाभिमतफलविषयतया वा व्याख्यातम्।
।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।
।।7.28।।चतुर्विधाः 7।16 इत्यनेन गतार्थमुत्तरं वाक्यमित्यत आह विपरीताश्चेति। त्वत्प्रपत्तेर्मायाकरणाकारणत्वात् स्वदोषाद्वा त्वां न प्रपद्यन्त इत्यत्र कथं निर्णयः इत्यतस्तदुक्तम्। सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति चेत् लुप्तो मुक्तिमार्ग इत्याशङ्क्याऽत्र द्वन्द्वमोहरहिताश्च केचित्सन्तीत्याहेत्यर्थः।
।।7.28।।यदि सर्वभूतानि संमोहं यान्ति कथं तर्हिचतुर्विधा भजन्ते मामित्युक्तम्। सत्यम्। सुकृतातिशयेन तेषां क्षीणपापत्वादित्याह येषां त्वितरलोकविलक्षणानां जनानां सफलजन्मनां पुण्यकर्मणामनेकजन्मसु पुण्याचरणशीलानां तैस्तैः पुण्यैः कर्मभिर्ज्ञानप्रतिबन्धकं पापमन्तगतमन्तमवसानं प्राप्तं ते पापाभावेन तन्निमित्तेन द्वन्द्वमोहेन रागद्वेषादिनिबन्धनविपर्यासेन स्वत एव निर्मुक्ताः पुनरावृत्त्ययोग्यत्वेन त्यक्ताः दृढव्रता अचाल्यसंकल्पाः सर्वथा भगवानेव भजनीयः स चैवंरुप एवेति प्रमाणजनिताप्रामाण्यशङ्काशून्यविज्ञानाः सन्तो मां परमात्मानं भजन्तेऽनन्यशरणाः सन्तः सेवन्ते। एतादृशा एव चतुर्विधा भजन्ते मामित्यत्र सुकृतिशब्देनोक्ताः। अतः सर्वभूतानि संमोहं यान्तीत्युत्सर्गः। तेषां मध्ये ये सुकृतिनस्ते संमोहशून्या मां भजन्त इत्यपवाद इति न विरोधः। अयमेवोत्सर्गः प्रागपि प्रतिपादितस्त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरित्यत्र। तस्मात्सत्त्वशोधकपुण्यकर्मसंचयाय सर्वदा यतनीयमिति भावः।
।।7.28।।ननु ये मोहयुक्तास्तन्मध्ये तत्सङ्गिन एव केचन पूर्वमभजन्तः पश्चात् त्वद्भजनप्रवृत्ताः कथं भवन्ति इत्यत आह येषामिति। येषां दुर्लभानां भाग्यवतां पुण्यकर्मणां मद्दर्शनादिना पुण्याचरणशीलानां महत्सु विनयादियुक्तानाम्। तु पुनः जनादिक्लेशयुक्तानां पापं मत्स्वरूपज्ञानप्रतिबन्धकं अन्तभावं गतं प्राप्तं नष्टमिति यावत्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः स्वसुखदुःखादिमोहनिर्मुक्ताः दृढव्रताः द़ृढसङ्कल्पाः मदेकनिष्ठाः मां भजन्ते। अत्रायं भावः पूर्वजन्मकृतं यत्किञ्चित् पुण्यकर्म तेन जन्मान्तरे प्रवृद्धमाने वाऽनेकजन्मनि वयसः परिपाके पुण्योपचितमरणभयेन तन्निवृत्त्यर्थं मद्भजनप्रवृत्ता भवन्ति। अतएवजन्मान्तरसहस्रेषु तपोज्ञानसमाधिभिः। नराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते पां.गी.40 इति भागवतैरुक्तम्।
।।7.28।। येषां तु पुनः अन्तगतं समाप्तप्रायं क्षीणं पापं जनानां पुण्यकर्मणां पुण्यं कर्म येषां सत्त्वशुद्धिकारणं विद्यते ते पुण्यकर्माणः तेषां पुण्यकर्मणाम् ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः यथोक्तेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ताः भजन्ते मां परमात्मानं दृढव्रताः। एवमेव परमार्थतत्त्वं नान्यथा इत्येवं सर्वपरित्यागव्रतेन निश्चितविज्ञानाः दृढव्रताः उच्यन्ते।।ते किमर्थं भजन्ते इत्युच्यते
।।7.28।।येषां त्विति। सुकृतिनां जनानां पापमात्रं नष्टं पापरूपं प्रतिबन्धकं वा ते मां दृढव्रताः सन्तो भजन्ते। मां भजन्तो दृश्यन्त इत्यर्थः।
Chapter 7, Verse 28