Chapter 1, Verse 30

Text

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते। न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।

Transliteration

gāṇḍīvaṁ sraṁsate hastāt tvak chaiva paridahyate na cha śhaknomy avasthātuṁ bhramatīva cha me manaḥ

Word Meanings

gāṇḍīvam—Arjun’s bow; sraṁsate—is slipping; hastāt—from (my) hand; tvak—skin; cha—and; eva—indeed; paridahyate—is burning all over; na—not; cha—and; śhaknomi—am able; avasthātum—remain steady; bhramati iva—whirling like; cha—and; me—my; manaḥ—mind;


Translations

In English by Swami Adidevananda

The bow Gandiva slips from my hand and my skin is burning. I can no longer stand. My mind seems to be reeling.

In English by Swami Gambirananda

Moreover, O Kesava (Krishna), I am not able to stand firmly, and my mind seems to be whirling. And I observe the omens to be adverse.

In English by Swami Sivananda

The Gandiva slips from my hand, and my skin burns all over; I am unable to stand, and my mind is reeling, as it were.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

I do not foresee any good in killing my own kinsmen in the battle. O Krsna! I neither wish for victory, nor kingdom, nor the pleasures thereof.

In English by Shri Purohit Swami

The bow Gandiva slips from my hand, and my skin burns. I cannot remain still, for my mind is in tumult.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.28 -- 1.30।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.30।।मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है,  और मैं खड़े रहने में असमर्थ हूँ।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.30 गाण्डीवम् Gandiva? स्रंसते slips? हस्तात् from (my) hand? त्वक् (my) skin? च and? एव also? परिदह्यते burns all over? न not? च and? शक्नोमि (I) am able? अवस्थातुम्? to stand? भ्रमति इव seems whirling? च and? मे my? मनः mind.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.30।। व्याख्या--'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्'--अर्जुनको  कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  'पार्थ'  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें 'कृष्ण' और 'पार्थ' नामका उल्लेख किया है 'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः'  (18। 78)। धृतराष्ट्रने पहले 'समवेता युयुत्सवः' कहा था और यहाँ अर्जुनने भी 'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं--ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  'मामकाः' और  'पाण्डवाः'  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ  'स्वजनम्'  कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है 'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (1। 2) 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (1। 20) और यहाँ दृष्ट्वेमं स्वजनम् (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।  'सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः'-- अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें--सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.30।। यहाँ अर्जुन अपने रोग के कुछ और लक्षण बताता है। इसके पहले उसने अपने स्थूल शरीर में व्यक्त होने वाले लक्षण बताये थे और अब वह अपनी मन की असंतुलित स्थिति का भी वर्णन करता है।उसका मन अस्थिर क्षुब्ध और भ्रमित होने के साथसाथ समस्त धैर्य भी खो बैठा है। वह इस सीमा तक नीचे गिर गया है कि सब विवेक खोकर वह अंधविश्वास जनित उन अनेक अपशकुनों को देखने लग जाता है जो युद्ध में पराजय और नाश के सूचक समझे जाते हैं।अगले श्लोक न केवल उसके मनसंभ्रम को बताते हैं अपितु यह भी स्पष्ट करते हैं कि किस सीमा तक उसका विवेक और नैतिक साहस विनष्ट हो चुका था।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.30।।किं चाधैर्यमपि संवृत्तमित्याह  न चेति।  मोहोऽपि महान्भवतीत्याह  भ्रमतीवेति।  विपरीतनिमित्तप्रतीतेरपि मोहो भवतीत्याह  निमित्तानीति।  तानि विपरीतानि निमित्तानि यानि वामनेत्रस्फुरणादीनि।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.30।।हस्ताद्गाण्डीवं स्त्रंसते पतति। स्वक्चैव परि समन्ताद्दह्यते। धैर्याभावादवस्थातुं च न शक्नोमि। मे मनो भ्रमतीव च। मम मनो मोहं प्राप्नोतीवेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.30।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।। 1.30सीदन्ति निश्चेष्टानि भवन्ति। रोमहर्षो रोमाञ्चः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.30।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

 ।।1.30।।   अन्यच्च न चेति।  विपरीतानि निमित्तान्यनिष्टसूचकानि शकुनानि पश्यामि।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 1.30।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.30।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.30।।अवस्थातुं शरीरं धारयितुं च न शक्रोमीत्यनेन मूर्च्छा सूच्यते। तत्र हेतुः मम मनो भ्रमतीवेति भ्रमणकर्तृसादृश्यं नाम मनसः कश्चिद्विकारविशेषो मूर्च्छायाः पूर्वावस्था। चौ हेतौ। यतएवमतो नावस्थातुं शक्नोमीत्यर्थः। पुनरप्यवस्थानासामर्थ्ये कारणमाह निमित्तानि च सूचकतया आसन्नदुःखस्य विपरीतानि वामनेत्रस्फुरणादीनि पश्याम्यनुभवामि। अतोऽपि नावस्थातुं शक्नोमीत्यर्थः। अहमनात्मवित्त्वेन दुःखित्वाच्छोकनिबन्धनं क्लेशमनुभवामि त्वंतु सदानन्दरूपत्वाच्छोकासंसर्गीति कृष्णपदेन सूचितम्। अतः स्वजनदर्शने तुल्येऽपि शोकासंसर्गित्वलक्षणाद्विशेषात्त्वं मामशोकं कुर्विति भावः। केशवपदेन च तत्करणसामथ्र्यम्। को ब्रह्मा सृष्टिकर्ता ईशो रूद्रः संहर्ता तौ वात्यनुकम्प्यतया गच्छतीति तद्व्युत्पत्तेः। भक्तदुःखकर्षित्वं वा कृष्णापदेनोक्तम्।।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.30।।शक्नोमीति। अवस्थातुं न च समर्थोऽस्मीति भावः। किञ्च हे केशव दुष्टगुणव्याप्तयोरपि मोक्षदायक विपरीतानि निमित्तानि पश्यामि। असमर्थः युद्धं कृत्वा राज्यादिकरणरूपाणि तानि तथाभूतानि सर्वाणि पश्यामि। भगवदीयस्य तथात्वमनुचितमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.30 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.28 1.30।।सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।


Chapter 1, Verse 30