Chapter 7, Verse 12

Text

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।7.12।।

Transliteration

ye chaiva sāttvikā bhāvā rājasās tāmasāśh cha ye matta eveti tān viddhi na tvahaṁ teṣhu te mayi

Word Meanings

ye—whatever; cha—and; eva—certainly; sāttvikāḥ—in the mode of goodness; bhāvāḥ—states of material existence; rājasāḥ—in the mode of passion; tāmasāḥ—in the mode of ignorance; cha—and; ye—whatever; mattaḥ—from me; eva—certainly; iti—thus; tān—those; viddhi—know; na—not; tu—but; aham—I; teṣhu—in them; te—they; mayi—in me


Translations

In English by Swami Adidevananda

Know that all those states of Sattva, Rajas, and Tamas are from Me alone; however, I am not in them; rather, they are in Me.

In English by Swami Gambirananda

Those things that are made of the quality of sattva, and those things that are made of the quality of rajas and tamas, know them to have sprung from Me alone. However, I am not in them; they are within Me!

In English by Swami Sivananda

Whatever beings (and objects) that are pure, active, and inert, know that they proceed from Me. They are in Me, yet I am not in them.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whatever beings are there—whether they are of the Sattva, Rajas, or Tamas strands—be sure that they are from Me; I am not in them, but they are within Me.

In English by Shri Purohit Swami

Whatever be the nature of their life, whether it be pure, passionate, or ignorant, they are all derived from Me. They are in Me, but I am not in them.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।7.12।। (और तो क्या कहूँ)  जितने भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, वे सब मुझ से ही होते हैं -- ऐसा समझो। पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।7.12।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक (जड़) भाव हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि मैं उनमें नहीं हूँ, वे मुझमें हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

7.12 ये whatever? च and? एव even? सात्त्विकाः pure? भावाः natures? राजसाः active? तामसाः inert? च and? ये whatever? मत्तः from Me? एव even? इति thus? तान् them? विद्धि know? न not? तु indeed? अहम् I? तेषु in them? ते they? मयि in Me.Commentary This is a world of the three Gunas? viz.? Sattva (purity)? Rajas (passion) and Tamas (inertia). All sentient and insentient objects are the aggregate of these three alities of Nature. One ality predominates in them and the predominant ality imparts to the object its distinctive character or definite properties.In the gods? sages milk and green gram? Sattva is predominant. In Gandharvas (a class of celestials)? kings? warriors and chillies? Rajas is predominant. In demons? Sudras? garlic? onion and meat? Tamas is predominant.Though these beings and objects proceed from Me? I am not in them they are in Me. I am independent. I am the support for them they depend on Me just as the superimposed snake depends on the rope. The snake is in the rope? but the rope is never in the snake. The waves belong to the ocean but the ocean does not belong to the waves. (Cf.IX.4and6)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।7.12।। व्याख्या--'ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये'--ये जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ क्रिया) हैं, वे भी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टिमात्रमें जो कुछ हो रहा है, मूलमें सबका आश्रय, आधार और प्रकाशक भगवान् ही हैं अर्थात् सब भगवान्से ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं।सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान्से ही होते हैं, इसलिये इनमें जो कुछ विलक्षणता दीखती है, वह सब भगवान्की ही है; अतः मनुष्यकी दृष्टि भगवान्की तरफ ही जानी चाहिये, सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ नहीं। यदि उसकी दृष्टि भगवान्की तरफ जायगी तो वह मुक्त हो जायगा और यदि उसकी दृष्टि सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ जायगी तो वह बँध जायगा।सात्त्विक, राजस और तामस--इन भावोंके (गुण, पदार्थ और क्रियामात्रके) अतिरिक्त कोई भाव है ही नहीं। ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं। यहाँ शङ्का होती है कि अगर ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं तो हमलोग जो कुछ करें, वह सब भगवत्स्वरूप ही होगा, फिर ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये--यह विधि-निषेध कहाँ रहा? इसका समाधान यह है कि मनुष्यमात्र सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता। अनुकूल परिस्थिति विहित-कर्मोंका फल है और प्रतिकूल परिस्थिति निषिद्ध-कर्मोंका फल है। इसलिये कहा जाता है कि विहित-कर्म करो और निषिद्ध-कर्म मत करो। अगर निषिद्धको भगवत्स्वरूप मानकर करोगे तो भगवान् दुःखों और नरकोंके रूपमें प्रकट होंगे। जो अशुभ कर्मोंकी उपासना करता है, उसके सामने भगवान् अशुभ-रूपसे ही प्रकट होते हैं; क्योंकि दुःख और नरक भी तो भगवान्के ही स्वरूप हैं।जहाँ करने और न करनेकी बात होती है, वहीं विधि और निषेध लागू होता है। अतः वहाँ विहित ही करना चाहिये, निषिद्ध नहीं करना चाहिये। परंतु जहाँ मानने और जाननेकी बात होती है, वहाँ परमात्माको ही 'मानना' चाहिये और अपनेको अथवा संसारको 'जानना' चाहिये।जहाँ माननेकी बात है, वहाँ परमात्माको ही मानकर उनके मिलनेकी उत्कण्ठा बढ़ानी चाहिये। उनको प्राप्त और प्रसन्न करनेके लिये उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये तथा उनकी आज्ञा और सिद्धान्तोंके विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये। भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध कार्य करेंगे तो उनको प्रसन्नता कैसे होगी? और विरुद्ध कार्य करनेवालेको उनकी प्राप्ति कैसे होगी? जैसे, किसी मनुष्यके मनके विरुद्ध काम करनेसे वह राजी कैसेहोगा और प्रेमसे कैसे मिलेगा? जहाँ जाननेकी बात है, वहाँ संसारको जानना चाहिये। जो उत्पत्ति-विनाशशील है, सदा साथ रहनेवाला नहीं है, वह अपना नहीं है और अपने लिये भी नहीं है--ऐसा जानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। उसमें कामना, ममता, आसक्ति नहीं करनी चाहिये। उसका महत्त्व हृदयसे उठा देना चाहिये। इससे सत्त-त्त्व प्रत्यक्ष हो जायगा और जानना पूर्ण हो जायगा। असत् (नाशवान्) वस्तु हमारे साथ रहनेवाली नहीं है--ऐसा समझनेपर भी अगर समय-समयपर उसको महत्त्व देते रहेंगे तो वास्तविकता (सत्-वस्तु) की प्राप्ति नहीं होगी।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।7.12।। मुझमें सम्पूर्ण जगत् पिरोया हुआ है जैसे सूत्र में मणियाँ अपने इस कथन के साथ प्रारम्भ किये गये प्रकरण का उपसंहार भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में करते हैं।हमें जगत् में ज्ञान क्रिया और जड़त्व इन तीनों का अनुभव होता है। इन्हें ही क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण का कार्य कहा जाता है। वेदान्त में जिसे माया कहा गया है वह इन तीनों गुणों का संयुक्त रूप है जिसके अधीन प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भिन्नभिन्न प्रकार की दिखाई देती हैं। मनुष्य की भावनाएं और विचार इन गुणों से प्रभावित होते हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से कार्य करता है।उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से यह अर्थ स्पष्ट होता है कि इन तीन गुणों से उत्पन्न जो कोई भी वस्तु प्राणी या स्थिति है वह सब आत्मा से (मुझ से) उत्पन्न होती है। पूर्व वर्णित सिद्धांत को ही यहाँ शास्त्रीय भाषा में दोहराया गया है। पारमार्थिक सत्यस्वरूप चैतन्य आत्मा पर अपरा प्रकृति का अध्यास हुआ है यह कोई वास्तविकता नहीं। त्रिगुणजनित भावों की सत्य से उत्पत्ति उसी प्रकार की है जैसे मिट्टी से घट समुद्र से तरंग और स्वर्ण से आभूषण की।इस श्लोक का सुन्दर अन्तिम वाक्य एक पहेली के समान है। इस प्रकार का लेखन हिन्दू दार्शनिकों की विशेषता है जो अध्ययनकर्ता को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती है। ऐसे कथन विद्यार्थी को और अधिक सूक्ष्म और गहन विचार करने के लिए और उसका वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए आमन्त्रित करते हैं। मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं।केवल वाच्यार्थ की दृष्टि से उपर्युक्त कथन त्रुटिपूर्ण ही समझा जायेगा क्योंकि यदि क ख में नहीं है तो ख क में कैसे हो सकता है यदि मैं उनमें नहीं हूँ तो वे भी मुझमें नहीं हो सकते। परन्तु भगवान का कथन है मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं। इस सुन्दर एवं मधुर विरोधाभास से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष और प्रकृति का संबंध कारण और कार्य का नहीं बल्कि अधिष्ठान और अध्यस्त का है। पुरुष पर प्रकृति का आभास अध्यास के कारण होता है। खंभे में यदि प्रेत का आभास हो तो यही कहा जायेगा कि प्रेत खंभे में है परन्तु खंभा प्रेत में नहीं।श्री शंकराचार्य इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं मैं उनमें नहीं हूँ का अर्थ है मैं उन पर आश्रित नहीं हूँ जब कि उनका अस्तित्व मुझ पर आश्रित है। जैसे जल का अस्तित्व तरंग पर आश्रित नहीं है किन्तु तरंग जल पर आश्रित होती है। तरंग के होने से जल को किसी प्रकार का दोष या बन्धन नहीं प्राप्त होता। उसी प्रकार जड़ प्रकृति का अस्तित्व चेतन पुरुष के कारण सिद्ध होता है परन्तु पुरुष सब परिच्छेदों से सदा मुक्त ही रहता है।अगले श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जगत् के लोग उनके वास्तविक नित्यमुक्त स्वरूप को नहीं जानते हैं। लोगों के इस अज्ञान का क्या कारण है सुनो

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।7.12।।चिदानन्दयोरभिव्यञ्जकानां भावानामीश्वरात्मत्वाभिधानादन्येषामतदात्मत्वप्राप्तावुक्तं कि़ञ्चेति। प्राणिनां त्रैविध्ये हेतुं दर्शयन्वाक्यार्थमाह ये केचिदिति। तर्हि पितुरिव पुत्राधीनत्वं त्वत्तो जायमानात्तदधीनत्वं तवापि स्यादिति विक्रियावत्त्वदूष्यत्वप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह यद्यपीति। मम परमार्थत्वात्तेषां कल्पितत्वान्न तद्गुणदोषौ मयि स्यातामित्यर्थः। तेषामपि तद्वदेव स्वतन्त्रतासंभवात्किमिति कल्पितत्वमित्याशङ्क्याह ते पुनरिति। त्रिविधानां भावानां न स्वातन्त्र्यमीश्वरकार्यत्वेन तदधीनत्वात्तथा न कल्पितस्याधिष्ठानसत्ताप्रतीतिभ्यामेव तद्वत्त्वात्तन्मात्रत्वसिद्धिरित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।7.12।।किंच थे सात्त्विकाः सत्त्वोद्भूताः भावाः पदार्थाः राजसाः रजउद्भूताःस तामसास्तमउद्भूताश्च ये किचित्प्राणिनां स्वकर्मवशाज्जयन्ते तान्सर्वान्मत्तएव जातानिति विद्धि जानीहि। तर्हि संसारिणा मिव तवापि तदधीनत्वं स्यात्तथाच् त्वय्यपि विक्रियावत्त्वाद्दूष्यत्वप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह नत्वहं तेषु। यद्यपि मत्तस्ते जायन्ते तथाप्यहं संसारिण इव तदधीनो न भवामि। ननु तेऽपि किं स्वतन्त्राः नेत्याह ते मयि मद्वशाः। मयि कल्पितत्वान्वान्मदधीनसत्तास्फूर्तिका इत्यर्थः। तथाचाधिष्ठानस्य मम कल्पितगुणदोषासंस्पर्शित्वं कल्पितस्य च मदधीनसत्तास्फूर्तिकत्वमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।7.12।।सात्विकाः धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यादयः राजसाः लोभप्रवृत्त्यादयः तामसाः निद्रालस्यादयः तान्सर्वान्मत्त एव रसतन्मात्रादिरूपात्सूत्रात्मनो निर्गता इति विद्धि। नन्वेवं तव सर्वजगदात्मनो विकारित्वापत्त्या कौटस्थ्यहानिरित्याशङ्क्याह नत्वहं तेषु ते मयीति। येष्वबादयः प्रोतास्तेषु सूत्रावयवभूतेषु रसादिष्वनृतजडरूपेष्वबाधितात्मचिन्मात्ररूपो घटशरावोदञ्चनादाविव मृत् नास्मि। अनृतस्यास्य सत्तास्फुरणे एव स्वकीये प्रयच्छामि नत्वनृतात्मा भवामीत्यर्थः। ते तु मय्येवाध्यस्ता मदनन्याः यथा रज्ज्वामध्यस्ताः सर्पादयो रज्ज्वनन्याः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इतिन्यायात्। अनन्यत्वं व्यतिरेकेणाभावः। नखल्वनन्यत्वमित्यभेदं ब्रूमः किंतु भेदं निषेधामः। कुतः आरम्भणशब्दात्वाचारम्भणं विकारो नामधेयम् इतिविकारस्य वागालम्बनत्वेन स्वप्नमायेन्द्रजालिकविषयसाम्यश्रुतेः। नह्यात्मनो विचित्रप्रपञ्चात्मत्वे ते मयीत्यंशाविरोधेऽपि नत्वहं तेष्वित्यंशे विरोधपरिहारो युज्यते। कार्यस्य कारणात्मकत्वावश्यंभावात्। तस्माद्विवर्तवादाश्रयेणैव ब्रह्मणो जगदुपादानत्वकूटस्थत्वे निर्वहत इति साधूक्तं नत्वहं तेषु ते मयीति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।7.12।।किं विशिष्य अभिधीयते सात्त्विकाः राजसाः तामसाः च जगति भोग्यत्वेन देहत्वेन इन्द्रियत्वेन तत्तद्धेतुत्वेन च अवस्थिता ये भावाः तान् सर्वान् मत्त एव उत्पन्नान् विद्धि ते मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिता इति च। न तु अहं तेषु न अहं कदाचिद् अपि तदायत्तस्थितिः अन्यत्र आत्मायत्तस्थितित्वे अपि शरीरस्य शरीरेण आत्मनः स्थितौ अपि उपकारो विद्यते मम तु तैः न कश्चित् तथाविध उपकारः केवलं लीला एव प्रयोजनम् इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।7.12।। किंच ये चेति। ये चान्येऽपि सात्त्विका भावाः शमदमादयः राजसाश्च द्वेषदर्पादयः तामसाश्च शोकमोहादयः प्राणिनां स्वकर्मवशाज्जायन्ते तान्सर्वान्मत्त एव जातानिति विद्धि। मदीयप्रकृतिगुणत्रयकार्यत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते। जीववत्तदधीनोऽहं न भवामीत्यर्थः। ते तु मदधीनाः सन्तो मयि वर्तन्त इत्यर्थ।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।7.12।।रसोऽहम् 7।8 इत्यादेः प्रदर्शनार्थत्वंये च इत्यस्योपसंहारतां च दर्शयति किं विशिष्येति।तत्तद्धेतुत्वेनेति समष्टिदशाया अपि सङ्ग्रहः। अयं च देहत्वादिविभागोऽनुभूयमानप्रकारानुवादियच्छब्दाभिप्रेतः। सात्त्विकतादिकं देहादिषु प्रत्येकमन्वितम्। अपि चप्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता इत्यादयः सात्त्विका भावाः।अतुविष्टिः परितापश्च क्रोधो मोहस्तथा क्षमा इत्यादयो राजसाः।अविक्तस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता इत्यादयस्तामसाः। एते चान्यत्र प्रपञ्चिता इहाभिप्रेताः।मत्त एव इत्यवधारणेन निमित्तोपादानैक्यं सात्त्विकत्वादिना वैचित्र्यशक्तितत्तदुचितानेकनिमित्तत्वादिप्रतिक्षेपश्च कृतः। कारणत्वेन सह सामानाधिकरण्यनिबन्धननियमनगर्भं शरीरत्वेन तादधीन्यमपि सप्तम्या विवक्षितमिति दर्शयितुंमच्छरीरतया मय्येवावस्थिता इत्युक्तम्।नत्वहं तेषु इत्यत्र व्याप्तिप्रतिक्षेपभ्रमनिरासायाहनाहमिति। किमर्थमिदमप्रसक्तं प्रतिषिध्यत इत्याशङ्क्याहअन्यत्रेति। तुशब्दोऽत्र शङ्कानिवृत्त्यर्थः। सर्वोपकारनिषेधे तदुत्पादनादिवैयर्थ्यपरिहारायतथाविध इत्युक्तम्। अभिप्रेतमुपकारान्तरमहंशब्दाभिप्रेतपरिपूर्णत्वमुखेन दर्शयतिकेवलेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।7.12 7.13।।ये चेति। त्रिभिरिति। सत्त्वादीनि मन्मयानि न त्वहं तन्मयः। अत एव च भगवन्मयः सर्वं भगवद्भावेन संवेदयते न तु नानाविधपदार्थविज्ञाननिष्ठो भगवत्तत्त्वं प्रतिपद्यते इति सकलमानसावर्जक एष क्रमः। अनेनैव चाशयेन वक्ष्यते वासुदेवः सर्वम् इति (K adds another इति) ज्ञानेन यो बहुजन्मोपभोगजनितकर्मसमतासमनन्तरसमुत्पन्नपरशक्तिपातानुगृहीतान्तःकरण असौ प्रतिपद्यते भगवत्तत्त्वं(S omits भगवत्तत्त्वम्) ननु (K omits ननु) सर्वं वासुदेवः इति बुद्ध्या स महात्मा स च दुर्लभ इति। एवं ह्यबुद्ध्यमानं ( N हि बुद्ध्यमानम्) प्रत्युत सत्त्वादिभिर्गुणैः मोहितमिदं जगत् गुणातीतं वासुदेवतत्त्वं नैवोपलभते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुंविशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति। प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्थान्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।7.12।।किमेवं परिगणनेन ये चान्येऽपि भावाश्चित्तपरिणामाः सात्त्विकाः शमदमादयः ये च राजसा हर्षदर्पादयः ये च तामसाः शोकमोहादयः प्राणिनामविद्याकर्मादिवशाज्जायन्ते तान्मत्त एव जायमानानितिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभव इत्याद्युक्तप्रकारेण विद्धि समस्तानेव। अथवा सात्त्विका राजसास्तामसाश्च भावाः सर्वेऽपि जडवर्गा व्याख्येयाः विशेषहेत्वभावात्। एवकारश्च समस्तावधारणार्थः। एवमपि न त्वहं तेषु मत्तो जातत्वेऽपि तद्वशस्तद्विकाररूषितो रज्जुखण्ड इव कल्पितसर्पविकाररूषितोऽहं न भवामि संसारीव। ते तु भावा मयि रज्ज्वामिव सर्पादयः कल्पिता मदधीनसत्तास्फूर्तिका मदधीना इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।7.12।।किञ्च ये चैवेति। ये च पुनः सात्त्विका एव भावा मत्सम्बन्धिदर्शनेन रोमाञ्चादयः राजसात्मकविक्षेपादयः न पुनस्तामसा विप्रयोगस्वरूपस्मरणे मूर्छाभ्रमादयस्ते सर्व एव। इति अमुना प्रकारेण तान् मत्त एव विद्धि जानीहि। तेषु तत्सामर्थ्येन अहं तत्प्रकारेण न प्रकटो भवामि किन्तु ते मयि प्रकटीभवन्तीत्यर्थः। अत्रायं भावः एते गुणा रसार्थं मया प्रकटिताः स्वरसात्मकगुणसाफल्याय मत्सम्बन्धेन स्वयमुद्बुद्धरसाः सन्तः सेवां कुर्वन्तीति ते मयि सन्ति नत्वहं जीववत्तेषूत्पन्नेषु रसयुक्तो भवामीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।7.12।। ये चैव सात्त्विकाः सत्त्वनिर्वृत्ताः भावाः पदार्थाः राजसाः रजोनिर्वृत्ताः तामसाः तमोनिर्वृत्ताश्च ये केचित् प्राणिनां स्वकर्मवशात् जायन्ते भावाः तान् मत्त एव जायमानान् इति एवं विद्धि सर्वान् समस्तानेव। यद्यपि ते मत्तः जायन्ते तथापि न तु अहं तेषु तदधीनः तद्वशः यथा संसारिणः। ते पुनः मयि मद्वशाः मदधीनाः।।एवंभूतमपि परमेश्वरं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वभूतात्मानं निर्गुणं संसारदोषबीजप्रदाहकारणं मां नाभिजानाति जगत् इति अनुक्रोशं दर्शयति भगवान्। त़च्च किंनिमित्तं जगतः अज्ञानमित्युच्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।7.12।।मत्तः परतरं नान्यदिति प्रागुक्तं स्पष्टयति भगवानेकेन ये चैविति। प्राकृता अप्येते मत्त एव मत्सत्प्रकृतिगुणकार्यत्वात् मम च प्रकृत्यादिकारणत्वेन मुख्यकर्तृत्वं उपादानगोचरापरोक्षाज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते जीववत्तदायत्तो न भवामीत्यर्थः। नशब्दोऽत्रापि सम्बध्यते। तेऽपि मयि न किन्तु मदुपादेयप्रकृतावेव ते वर्तन्ते। अहं तु मूलरूपेण तत्कर्त्तैवेत्यर्थः। अथवा ते मयि इति परम्परया तेषां मदाश्रितत्वात्।


Chapter 7, Verse 12