Chapter 7, Verse 6

Text

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।

Transliteration

etad-yonīni bhūtāni sarvāṇītyupadhāraya ahaṁ kṛitsnasya jagataḥ prabhavaḥ pralayas tathā

Word Meanings

etat yonīni—these two (energies) are the source of; bhūtāni—living beings; sarvāṇi—all; iti—that; upadhāraya—know; aham—I; kṛitsnasya—entire; jagataḥ—creation; prabhavaḥ—the source; pralayaḥ—dissolution; tathā—and


Translations

In English by Swami Adidevananda

Know that all beings have these two as the source of their birth. Therefore, I am the origin and the dissolver of the whole universe.

In English by Swami Gambirananda

Understand thus that all things—sentient and insentient—have these as their source. I am the origin as well as the end of the entire universe.

In English by Swami Sivananda

Know that these two are the womb of all beings; thus, I am the source and dissolution of the whole universe.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

All beings are born from this womb; hence, keep them close. I am the origin and dissolution of the entire world.

In English by Shri Purohit Swami

It is the womb of all beings; for I am He by Whom the worlds were created and shall be dissolved.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।7.6।। अपरा और परा -- इन दोनों प्रकृतियोंके संयोगसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।7.6।। यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

7.6 एतद्योनीनि those of which these two (Prakritis) are the womb? भूतानि beings? सर्वाणि all? इति thus? उपधारय know? अहम् I? कृत्स्नस्य of the whole? जगतः of the world? प्रभवः source? प्रलयः dissolution? तथा also.Commentary These two Natures? the inferior and the superior? are the womb of all beings. As I am the source of these two Prakritis or Natures also? I am the cause of this universe. The whole universe originates from Me and dissolves in Me.In the Brahma Sutras (chapter 1? section 1? aphorism 2) it is said? Janmadyasya yatah meaning that Brahman is that omniscient and omnipotent cause from which proceed the origin? subsistence and dissolution of this world.Just as the mind is the material cause and also the seer (Drashta) for the objects seen in a dream? so also Isvara is the material cause of this world (UpadanaKarana) and also the seer (Drashta). He is also the efficient or the instrumental cause (NimittaKarana). (Cf.XIV.3)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।7.6।। व्याख्या--'एतद्योनीनि भूतानि' (टिप्पणी प0 401.1) जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब-के-सब मेरी अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं। तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीतिसे चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी बतायी है कि स्थावर, जङ्गम योनियोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृतिके हैं, और उन शरीरोंमें जो बीज अर्थात् जीवात्मा है, वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्माको भगवान्ने 'परा प्रकृति' (7। 5) और 'अपना अंश' (15। 7) कहा है। 'सर्वाणीत्युपधारय'--स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकोंके जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृतिके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृतिने अपराको अपना मान लिया है, (टिप्पणी प0 401.2) उसका सङ्ग कर लिया है, इसीसे सब प्राणी पैदा होते हैं--इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरहसे समझ लो अथवा मान लो।'अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा'--मात्र वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति परमात्मासे ही मिलती है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव (उत्पन्न करनेवाला) और प्रलय (लीन करनेवाला) हूँ। 'प्रभवः'का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत्का निमित्तकारण हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पसे (टिप्पणी प0 401.3) पैदा हुई है--'सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति' (छान्दोग्य0 6। 2। 3)।जैसे घड़ा बनानेमें कुम्हार और सोनेके आभूषण बनानेमें सुनार ही निमित्तकारण है ऐसे ही संसारमात्रकी उत्पत्तिमें भगवान् ही निमित्तकारण हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।7.6।। उपर्युक्त अपरा एवं परा प्रकृतियों के परस्पर संबंध से यह नानाविध वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। जड़ प्रकृति के बिना चैतन्य की सार्मथ्य व्यक्त नहीं हो सकती और न ही उसके बिना जड़ उपाधियों में चेनवत् व्यवहार की संभावना ही रहती है। बल्ब में स्थित तार में स्वयं विद्युत् ही प्रकाश के रूप मे व्यक्त होती है। प्रकाश की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् और बल्ब दोनों का संबंध होना आवश्यक है। इसी प्रकार सृष्टि के लिए परा और अपरा जड़ और चेतन के संबंध की अपेक्षा होती है।इसी दृष्टि से भगवान् कहते हैं ये दोनों प्रकृतियां भूतमात्र की कारण हैं। एक मेधावी विद्यार्थी को इस कथन का अभिप्राय समझना कठिन नहीं है। बाह्य विषय भावनाएं तथा विचारों के जगत् की न केवल उत्पत्ति और स्थिति बल्कि लय भी चेतन पुरुष में ही होता है। इस प्रकार अपरा प्रकृति पारमार्थिक स्वरूप में पराप्रकृति से भिन्न नहीं है। आत्मा मानो अपने स्वरूप को भूलकर अपरा प्रकृति के साथ तादात्म्य करके जीवभाव के दुखों को प्राप्त होता है। परन्तु उसका यह दुख मिथ्या है वास्तविक नहीं। स्वस्वरूप की पहचान ही अनात्मबन्धन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। परा से अपरा की उत्पत्ति उसी प्रकार होती है जैसे मिट्टी के बने घटों की मिट्टी से। स्ाभी घटों में एक मिट्टी ही सत्य है उसी प्रकार विषय इन्द्रियां मन तथा बुद्धि इन अपरा प्रकृति के कार्यों का वास्तविक स्वरूप चेतन तत्त्व ही है।इसलिये

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।7.6।।उक्तप्रकृतिद्वये कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयति एतद्योनीनीति। प्रकृतिद्वयस्य जगत्कारणत्वे कथमीश्वस्य जगत्कारणत्वं तदुपगतमित्याशङ्क्याह अहमिति। एतद्योनीनीत्युक्ते समनन्तरप्रकृतजीवभूतप्रकृतावेतच्छब्दस्याव्यवधानात्प्रवृत्तिमाशङ्क्य व्याकरोति एतदिति। सर्वाणि चेतनाचेतनानि जनिमन्तीत्यर्थः। सर्वभूतकारणत्वेन प्रकृतिद्वयमङ्गीकृतं चेत्कथमहमित्याद्युक्तमित्याशङ्क्याह यस्मादिति। मम प्रकृती परमेश्वरस्योपाधितया स्थिते इत्यर्थः। तर्हि प्रकृतिद्वयं कारणमीश्वरश्चेति जगतोऽनेकविधकारणाङ्गीकरणं स्यादित्याशङ्क्याह प्रकृतीति। अपरप्रकृतेरचेतनत्वात्परप्रकृतेश्चेतनत्वेऽपि किंचिज्ज्ञत्वादीश्वरस्यैव सर्वकारणत्वं युक्तमित्याह सर्वज्ञ इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।7.6।।न केवलं ते जगत्प्रकृती मद्वशे इत्येतावन्मदैश्वर्यमित्याह अहमिति। प्रभवादेः सत्ताप्रतीत्यादेः कारणत्वात्तद्भोक्तृत्वाच्च प्रभव इत्यादि। तथा च श्रुतिः सर्वकामः सर्वकर्मा सर्वगन्धो सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः छां.उ.3।14।2 इति। आह च स्रष्टा पाता च संहर्ता नियन्ता च प्रकाशिता। यतः सर्वस्य तेनाहं सर्वोऽस्मीत्यषिभिः स्तुतः। सुखरूपस्य भोक्तृत्वान्न तु सर्वस्वरूपतः। आगमिष्यत्सुखं चापि तच्चास्त्येव सदाऽपि तु। तथाप्यचिन्त्यशक्तित्वाज्जातं सुखमतीव च। इति नारदीये।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।7.6।।न केवलं ते जगत्प्रकृती मद्वशे इत्येतावन्मदैश्वर्यमित्याह अहमिति। प्रभवादेः सत्ताप्रतीत्यादेः कारणत्वात्तद्भोक्तृत्वाच्च प्रभव इत्यादि। तथा च श्रुतिः सर्वकामः सर्वकर्मा सर्वगन्धो सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः छां.उ.3।14।2 इति। आह च स्रष्टा पाता च संहर्ता नियन्ता च प्रकाशिता। यतः सर्वस्य तेनाहं सर्वोऽस्मीत्यषिभिः स्तुतः। सुखरूपस्य भोक्तृत्वान्न तु सर्वस्वरूपतः। आगमिष्यत्सुखं चापि तच्चास्त्येव सदाऽपि तु। तथाप्यचिन्त्यशक्तित्वाज्जातं सुखमतीव च। इति नारदीये।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।7.6।।एतदिति। एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपे प्रकृती योनिरुत्पत्तिलयस्थानं येषां भूतानां तानि एतद्योनीनि भूतानि चतुर्विधानि इत्येतदुपधारय सम्यग्जानीहि। किं पातञ्जलानामिव एते प्रकृती ईश्वरादन्ये इत्याशङ्क्याह अहमिति। कृत्स्नस्य स्वस्वप्रकृतिसहितस्य जगतो जडाजडरूपस्य प्रभवः प्रभवत्यस्मादिति प्रभव उत्पत्तिकारणं तथा प्रलीयतेऽस्मिन्निति प्रलयो लयस्थानं च। अतस्ते उभे अपि प्रकृती मत्तो नातिरिच्येते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।7.6।।एतच्चेतनाचेतनसमष्टिरूपमदीयप्रकृतिद्वययोनीनि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानि उच्चावचभावेन अवस्थितानि चिदचिन्मिश्राणि सर्वाणि भूतानि मदीयानि इति उपधारय मदीयप्रकृतिद्वययोनीनि हि तानि मदीयानि एव। तथा प्रकृतिद्वययोनित्वेन कृत्स्नस्य जगतः तयोः द्वयोः अपि मद्योनित्वेन मदीयत्वेन च कृत्स्नस्य जगतः अहम् एव प्रभवः अहम् एव प्रलयः अहम् एव च शेषी इति उपधारय।तयोः चिदचित्समष्टिभूतयोः प्रकृतिपुरुषयोः अपि परमपुरुषयोनित्वं श्रुतिस्मृतिसिद्धम्।महानव्यक्ते लीयते अव्यक्तमक्षरे अक्षरं तमसि लीयते तमः परे देवे एकीभवति (सु0 उ0 2)विष्णोः स्वरूपात्परतोदिते द्वे रूपे प्रधानं पुरुषश्च (वि0 पु0 1।2।24)प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी। पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि।।परमात्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः। विष्णुनामा स वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते।। (वि0 पु0 6।4।38 39) इत्यादिका हि श्रुतिस्मृतयः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।7.6।।अनयोः प्रकृतित्वं दर्शयन्स्वस्य तद्द्वारा सृष्ट्यादिकारणत्वमाह एतदिति। एते क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपे प्रकृती योनी कारणभूते येषां तान्येतद्योनीनि स्थावरजंगमात्मकानि सर्वाणि भूतानीत्युपधारय बुध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहरूपेण परिणमते। चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन देहेषु प्रविश्य स्वकर्मणा तानि धारयति। ते च मदीये प्रकृती मत्तः संभूते। अतोऽहमेव कृत्स्नस्य सप्रकृतिकस्य जगतः प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति प्रभवः। परं कारणमहमित्यर्थः। तथा प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ताप्यहमेवेति भावः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।7.6।।एवं समष्टिदशोक्ताएतद्योनीनि इत्यर्धेन तु व्यष्टिरुच्यते।अहं कृत्स्नस्य इति तु समष्टिव्यष्ट्योः सङ्कलितयोः कार्यत्वादिकथनम्सर्वाणि भूतानि इति चिदचिन्मयकार्यनिर्देशात्। एतच्छब्दः प्रस्तुतप्रकारप्रकृतिपुरुषपरामर्शी न तु प्रकृतिमात्रपर इति दर्शयति एतच्चेतनेत्यादिना। एतेन स्वरूपतो निर्विकारस्यापि चेतनस्य देवादिशरीरेन्द्रियतदधीनज्ञानक्रियाभोगादिविशिष्टवेषापेक्षया तत्पूर्वाचित्कल्पावस्थस्य प्रकृतित्वमुपपन्नमिति सूचितम्। व्याख्येये मदीयानीत्येतन्न दृश्यते तत्कथमत्र निर्दिश्यते इत्यत्राह मदीयप्रकृतिद्वययोनीनीति। शब्दाप्रयोगेऽपि वाक्यार्थसिद्धावितिशब्दः स्वकीयत्वपरामर्शार्थ इति भावः। भगवदभिप्रायस्थवचनरूपत्वादत्र मदीयशब्दोक्तिः।तथेत्यस्य तथासतीत्यर्थः। तस्यैव विवरणंप्रकृतिद्वयेत्यादि। पूर्वोक्तशेषित्वादिसमुच्चयार्थो वा तथाशब्दः। प्रभवप्रलयशब्दावत्रोत्पत्तिलयस्थानपरौ। ननु अजामेकां श्वे.उ.4।5 नित्यो नित्यानां श्वे.उ.6।13प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि 13।19 इत्यादिषु सत्सु कार्यविषये कृत्स्नशब्देन प्रकृतिद्वयस्यापि सङ्ग्रहः कथमवगम्यते इत्यत्राह चिदचित्समष्टीति। प्रकृतिपुरुषयोः परमात्मनि प्रलयश्रुतिबलात्तयोस्तस्मादुत्पत्तिरपि श्रुतिसिद्धैव स्यादित्यभिप्रायेणोपादत्ते महानिति। प्रकृतिपुरुषयोः परमात्मनि लयो नाम क्षीरे नीरस्येव विभागानर्हः संश्लेषविशेषः। तेन द्रव्यस्वरूपस्य नित्यत्वात्अजां इत्यादेरविरोधः। उक्तार्थे स्मृतिमुदाहरति विष्णोरिति। परतोदिते परत उदित इत्यर्थः। आर्षः सन्धिभेदः यद्वा स्मृतिरपीयं प्रलयपरैव तत्प्रकरणस्थत्वात्।दो अवखण्डने इत्यत्र दिते इति निष्ठान्तं पदम् पृथग्भूते इत्यर्थः। तेन प्रलयदशायामपि प्रधानपुरुषेश्वराणां मिथः स्वरूपभेदोऽस्त्येवेत्युक्तं भवति। अदिते वा इति पदच्छेदः अपृथग्भूते इत्यर्थः। तेन विभागानर्हः संश्लेष उक्तो भवति प्रलयप्रकरणस्थत्वादत्रापि पूर्वोत्तरोपादीयमानस्मृतिसमानार्थत्वाभिप्रायाच्च। स्वाभिमतार्थे स्फुटार्थं वचनमुदाहरति प्रकृतिरिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।7.6 7.7।।एतद्योनीनि इति। मत्तः इति। उपधारय अभ्यासाहितानुभवक्रमेण ( अभ्यासानुभव ) आत्मसमीपे कुरु। एवं च त्वमेवोपधारय यत् अहं वासुदेवो भूतः (S K वासुदेवीभूतः) सर्वस्य प्रभवः प्रलयश्च। अहम् ( N omit the sentence अहं प्रदर्शितम्) इत्यनेन प्रकृतिपुरुषपुरुषोत्तमेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपि ईश्वरः सर्वथा सर्वानुगतत्वेन स्थित इति सांख्ययोगयोर्नास्ति भेदवादः इति प्रदर्शितम्। सूत्रे मणिगणा इव यथा तन्तुरनवध्रियमाणरूपोऽपि अन्तर्लीनतया स्थितः एवमहं सर्वत्र।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।7.6।।नन्वत्रापरपरनिरूपणपूर्वकं भगवतो यत्परतरत्वं वक्तुमभिप्रेतं तत्र शरीरेन्द्रियविषयलक्षणाख्यकार्यस्य जीवानां च तयोरेवान्तर्भाव इति दर्शयितुंएतद्योनीनि इत्युक्तम् इदानीमहं परतर इति वक्तव्यं इदं तुकिमर्थमुच्यते इत्यत आह न केवलमिति। पूर्वं वाक्यभेदेन प्रकृत्योरवरत्वं परत्वंमे इति स्ववशत्वं चोक्त्वाययेदं धार्यते जगत्एतद्योनीनि इति जगदाधारत्वकारणत्वे कथिते तत्रप्रकृती एव भगवद्वशे जगज्जन्मस्थितिलयास्तु प्रकृत्यधीना एव न भगवदधीनाः इति प्रतीतं तन्निरासार्थमेतदित्यर्थः।जगत्प्रतिममैश्वर्यं इत्येतावत् प्रकृतिद्वारकमुपचरितमिति यावत्। प्रकृत्योः कारणत्वादिकं मदायत्तमिति भावः। जगद्धर्मयोः प्रभवप्रलययोः साक्षाद्भगवदैक्यमुच्यत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह प्रभवादेरिति। यथा पुत्रादिप्रभवो रिपुप्रलयश्चोपलब्धः सुखहेतुरित्युपलब्धः पित्रादेस्तद्भोक्तृत्वं तथा तद्भोक्तृत्वात्।भगवतः सर्वभोक्तृत्वं कुतः इत्यत आह तथा चेति।सर्वकामः इत्यादेर्द्विरुक्तत्वात् एकं भोगविषयमिति ज्ञायते। काम्यन्त इति कामा द्रव्याणि। गन्धरसशब्दौ गुणान्तरस्याप्युपलक्षकौ। सर्वमिदमभि अभितः आत्तो धृतः स्थित इत्यर्थः। न विद्यते वाक्यमनुग्रहमन्तरेण यस्यासाववाक्यः। न विद्यते आदरः आश्चर्यबुद्धिर्यस्यासौ नादरः अवाक्यश्चासौ नादरश्चेत्यवाक्यनादरः। कारणत्वादिनैवैक्यव्यपदेश इत्येतत्कुतः इत्यत आह आह चेति। सुखरूपस्य सुखकारणस्य। ननुस्रष्टा पाता इत्यादिकमयुक्तं कादाचित्कक्रियावेशे विकारित्वप्रसङ्गात्। भोगेन यद्भाव्यं सुखं तस्य पूर्वमभावेनापूर्णत्वप्रसङ्गाच्चेत्यत आह आगमिष्यदिति। यद्भोगेनागमिष्यत्सुखं तच्च सदाऽप्यस्त्येव। क्रियाश्च शक्तिरूपेण चेति चार्थः। तर्हि कथं भोगेन जातमित्युच्यते इति भावेन पृच्छति अपि त्विति। उत्तरमाह तथापीति। सदा सद्भावेऽपि यद्यपिप्रभवत्यस्मादिति प्रभवः प्रलीयतेऽस्मिन्निति प्रलयः इति शक्यते व्याख्यातुं तथापि महिमातिशयलाभायैवं व्याख्यातम्। एतेनयस्मान्मम प्रकृती योनी सर्वभूतानां ततोऽहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा शां. इति व्याख्यानमपहसितं भवति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।7.6।।उक्तप्रकृतिद्वये कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयन्स्वस्य तद्द्वारा जगत्सृष्ट्यादिकारणत्वं दर्शयति एते अपरत्वेन परत्वेन च प्रागुक्ते क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे प्रकृती योनिर्येषां तान्येतद्योनीनि भूतानि भवनधर्मकाणि सर्वाणि चेतनाचेतनात्मकानिजनिमन्ति निखिलानीत्येवमुपधारय जानीहि। कार्याणां चिदचिद्ग्रन्थिरूपत्वात्तकारणमपि चिदचिद्ग्रन्थिरूपमनुमिन्वित्यर्थः। एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे ममोपाधिभूते यतः प्रकृती भवतस्ततस्तद्द्वाराहं सर्वज्ञः सर्वेश्वरोऽनन्तशक्तिर्मायोपाधिः कृत्स्नस्य चराचरात्मकस्य जगतः सर्वस्य कार्यवर्गस्य प्रभव उत्पत्तिकारणं प्रलयस्तथा विनाशकारणम् स्वाप्निकस्येव प्रपञ्चस्य मायिकस्य मायाश्रयत्वविषयत्वाभ्यां मायाव्यहमेवोपादानं द्रष्टा चेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।7.6।।एतज्ज्ञानेन किं स्यादित्यत आह एतदिति। सर्वाणि भूतानि स्थावरजङ्गमात्मकानि एतद्योनीनि एते प्रकृती योनी कारणरूपे येषां तथा तदुपधारय उप समीपे हृदये पोषय। एतद्योनिज्ञानेन मत्क्रीडौपयिकत्वं सर्वेषु भविष्यतीति भावः। यतस्तद्योनीनि सर्वाणि ते च मदंशे अतः कृत्स्नस्य सम्पूर्णस्य जगतोऽहं प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति प्रभव उत्पत्तिस्थानं मूलकारणमित्यर्थः। तथा प्रकर्षेण लीयते अनेनेति लयस्थानं प्रलयकर्ताऽप्यहमेवेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।7.6) एतद्योनीनि एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे प्रकृती योनिः येषां भूतानां तानि एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणि इति एवम् उपधारय जानीहि। यस्मात् मम प्रकृती योनिः कारणं सर्वभूतानाम् अतः अहं कृत्स्नस्य समस्तस्य जगतः प्रभवः उत्पत्तिः प्रलयः विनाशः तथा। प्रकृतिद्वयद्वारेण अहं सर्वज्ञः ईश्वरः जगतः कारणमित्यर्थः।।यतः तस्मात्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।7.6।।अनयोरेव प्रकृतित्वं निर्वचनेन ज्ञापयन् स्वस्य तद्वाराऽसाधारणकार्यकारणत्वमाह एतद्योनीनीति। यत एव प्रकृष्टा कृतिरित्यत एतद्योनी एते एव जनिके येषां तानि स्थावरजङ्गमातमकान्युपधारय बुदध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहादिरूपेण परिणमते चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन क्षेत्रज्ञरूपेण तत्राविश्य व्यामोहिकया तां धारयति इति ते यतो मत्तः कारणभूतात् प्रयोजकाद्वा सम्भूते मद्रूपे अतोऽहमेव जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा घटपटादेर्भूरिव। प्रकृतिपुरुषद्वारा कारणमित्यर्थः।


Chapter 7, Verse 6