Chapter 6, Verse 34

Text

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।

Transliteration

chañchalaṁ hi manaḥ kṛiṣhṇa pramāthi balavad dṛiḍham tasyāhaṁ nigrahaṁ manye vāyor iva su-duṣhkaram

Word Meanings

chañchalam—restless; hi—certainly; manaḥ—mind; kṛiṣhṇa—Shree Krishna; pramāthi—turbulent; bala-vat—strong; dṛiḍham—obstinate; tasya—its; aham—I; nigraham—control; manye—think; vāyoḥ—of the wind; iva—like; su-duṣhkaram—difficult to perform


Translations

In English by Swami Adidevananda

For the mind is fickle, O Krsna, impetuous, powerful, and stubborn; I think that restraining it is as difficult as restraining the wind.

In English by Swami Gambirananda

For, O Kṛṣṇa, the mind is unsteady, turbulent, strong, and obstinate; I consider its control to be as difficult as that of the wind.

In English by Swami Sivananda

The mind is indeed restless, turbulent, strong, and unyielding, O Krishna; I consider it as difficult to control as controlling the wind.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

O Krsna! The mind is indeed unsteady, destructive, strong, and obstinate; I believe it is very difficult to control it, just as it is to control the wind.

In English by Shri Purohit Swami

My Lord! Verily, the mind is fickle and turbulent, obstinate, and strong; indeed, it is extremely difficult to control, like the wind.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.34।। क्योंकि हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।6.34।। क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है; उसका निग्रह करना मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ ।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

6.34 चञ्चलम् restless? हि verily? मनः the mind? कृष्ण O Krishna? प्रमाथि turbulent? बलवत् strong? दृढम् unyielding? तस्य of it? अहम् I? निग्रहम् control? मन्ये think? वायोः of the wind? इव as? सुदुष्करम् difficult to do.Commentary The mind constantly changes its objects and so it is ever restless.Krishna is derived from Krish which means to scrape. He scrapes all the sins? evils? and the causes of evil from the hearts of His devotees. Therefore He is called Krishna.The mind is not only restless but also turbulent or impetuous? strong and obstinate. It produces violent agitation in the body and the senses. The mind is drawn by the objects in all directions. It works always in conjunction with the five senses. It is drawn by them to the five kinds of objects. Therefore it is ever restless. It enjoys the five kinds of sensobjects with the help of these senses and the body. Therefore it makes them subject to external influences. It is even more difficult to control it than to control the wind. The mind is born of Vayutanmatra (wind rootelement). That is the reason why it is as restless as the wind.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.34।। व्याख्या--'चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्'--यहाँ भगवान्को 'कृष्ण' सम्बोधन देकर अर्जुन मानो यह कहे रहे हैं कि हे नाथ! आप ही कृपा करके इस मनको खींचकर अपनेमें लगा लें, तो यह मन लग सकता है। मेरेसे तो इसका वशमें होना बड़ा कठिन है! क्योंकि यह मन बड़ा ही चञ्चल है। चञ्चलताके साथ-साथ यह 'प्रमाथि' भी है अर्थात् यह साधकको अपनी स्थितिसे विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है। भगवान्ने 'काम'-(कामना-) के रहनेके पाँच स्थान बताये हैं--इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि विषय और स्वयं (गीता 3। 40 3। 34 2। 59)। वास्तवमें काम स्वयंमें अर्थात् चिज्जड़ग्रन्थिमें रहता है और इन्द्रियाँ मन बुद्धि तथा विषयोंमें इसकी प्रतीति होती है। काम जबतक स्वयंसे निवृत्त नहीं होता, तबतक यह काम समय-समयपर इन्द्रियों आदिमें प्रतीत होता रहता है। पर जब यह स्वयंसे निवृत्त हो जाता है, तब इन्द्रियों आदिमें भी यह नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि जबतक स्वयंमें काम रहता है, तबतक मन साधकको व्यथित करता रहता है। अतः यहाँ मनको 'प्रमाथि' बताया गया है। ऐसे ही स्वयंमें काम रहनेके कारण इन्द्रियाँ साधकके मनको व्यथित करती रहती हैं। इसलिये दूसरे अध्यायके साठवें श्लोकमें इन्द्रियोंको भी प्रमाथि बताया गया है--'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः'। तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इन्द्रियोंमें आती है, तब वह साधकको महान् व्यथित कर देती है, जिससे साधक अपनी स्थितिपर नहीं रह पाता।उस कामके स्वयंमें रहनेके कारण मनका पदार्थोंके प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है। इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जानेको छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मनको दृढ़ कहा है। मनकी यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है; अतः मनको 'बलवत्' कहा है। तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान् है, जो कि साधकको जबर्दस्ती विषयोंमें ले जाता है। शास्त्रोंने तो यहाँतक कह दिया है कि मन ही मनष्योंके मोक्ष और बन्धनमें कारण है--'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।'परन्तु मनमें यह प्रमथनशीलता, दृढ़ता और बलवत्ता तभीतक रहती है, जबतक साधक अपनेमेंसे कामको सर्वथा निकाल नहीं देता। जब साधक स्वयं कामरहित हो जाता है, तब पदार्थोंका, विषयोंका कितना ही संसर्ग होनेपर साधकपर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। फिर मनकी प्रमथनशीलता आदि नष्ट हो जाती है।मनकी चञ्चलता भी तभीतक बाधक होती है, जबतक स्वयंमें कुछ भी कामका अंश रहता है। कामका अंश सर्वथा निवृत्त होनेपर मनकी चञ्चलता किञ्चिन्मात्र भी बाधक नहीं होती। शास्त्रकारोंने कहा है-- 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।6.34।। आधुनिक विचारधारा का मनुष्य सभी पवित्र शास्त्रों की केवल निन्दा करता है जबकि एक जिज्ञासु साधक भी प्रत्येक शास्त्रोक्त कथन को अन्धविश्वास से स्वीकार नहीं कर लेता वरन् वह प्रश्न भी पूछता है। परन्तु आधुनिक व्यक्ति की निन्दा और जिज्ञासु द्वारा किये गये प्रश्न में जमीन आसमान का अन्तर है। जिज्ञासु का प्रयत्न होता है कि शास्त्र के तात्पर्य को पूर्ण रूप से समझे। अर्जुन अपने मन को सम्यक् प्रकार से जानता है कि वह अति चंचल प्रमथनधर्मी बलवान् और दृढ़ है।प्रमाथि बलवान् और दृढ़ ये तीन शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण और अर्थ गर्भित हैं। प्रमाथि शब्द से वृत्तिप्रवाह की द्रुत गति तथा उसके द्वारा उत्पन्न विक्षेपों की लहराती लहरें भी दर्शायी गयी हैं। अर्जुन कहता है कि यह मन प्रमाथि होने के साथसाथ बलवान् भी है। द्रुत गति का वृत्तिप्रवाह इष्ट विषय की ओर अग्रसर होते हुए उसे प्राप्त होने पर उस विषय के साथ दृढ़ आसक्ति से बंधकर इतना बलवान् हो जाता है कि उसे उस विषय से विलग करना दुष्कर कार्य हो जाता है। उसका तीसरा लक्षण है दृढ़ता अर्थात् एक बार यह स्वेच्छाचारी मन किसी विषय का चिन्तन प्रारम्भ कर दे तो उसे उससे परावृत्त करना सरल कार्य नहीं होता। इन लक्षणों से युक्त मन को किस प्रकार विषय पराङ्मुख करके आत्मा में स्थिर कर सकते हैं जैसा कि ध्यान विधि में बताया गया हैमन की शक्ति और गति भेदकता और व्यापकता को यहाँ प्रयुक्त वायु की उपमा से अधिक सुन्दर तथा प्रभावशाली शैली में व्यक्त नहीं किया जा सकता था। अर्जुन यहाँ श्रीकृष्ण से उन उपायों को जानना चाहता है जिनके द्वारा प्रचण्ड वायु के समान वेग वाले मन को पूर्णतया वश में किया जा सकता है। अर्जुन भगवान् को उनके अत्यन्त सुपरिचित नाम कृष्ण के द्वारा सम्बोधित करता है जो अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि कृष् धातु से कृष्ण शब्द बनता है जिसका अर्थ है जो आत्मानुभवी भक्तों के समस्त दोषों अर्थात् वासनाओं का कर्षण कर लेता है नष्ट कर देता है।स्वप्न में किसी की हत्या करने वाला स्वप्नद्रष्टा जैसे ही जाग्रत् अवस्था में आता है उसके रक्तरंजित हाथ और कलंक की कालिमा तत्काल ही स्वच्छ हो जाती हैं। इसी प्रकार जब आत्मा के वास्तविक रूप की पहचान हो जाती है तब मन और उसकी आक्रामक प्रवृत्तियाँ वासनाएं और उनकी दुष्टता बुद्धि और उसकी खोज की प्रवृत्ति शरीर और उसके भोग ये सभी नष्ट हो जाते हैं। इसके लिए दार्शनिक कवि महर्षि व्यासजी ने महाभारत में इस अन्तरात्मा का चित्रण वृन्दावन के मुरली मनोहर श्याम कृष्ण के रूप में किया है। प्रकरण के सन्दर्भ में किसी विशेष गुण को दर्शाने के लिए व्यक्ति को एक विशेष संज्ञा प्रदान करने की कला संस्कृत भाषा की अपनी विशेषता है जो विश्व की अन्य भाषाओं में नहीं मिलती।अर्जुन के तर्क को स्वीकार करते हुए भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।6.34।।कृष्णपदपरिनिष्पत्तिप्रकारं सूचयति कृष्णेतीति। कथं कर्षकत्वमाप्तकामस्य भगवतः संभवतीत्याशङ्क्याह भक्तेति। ऐहिकामुष्मिकसर्वसंपदामाकर्षणशीलत्वाच्चेति द्रष्टव्यम्। प्रमथ्नाति क्षोभयति। तदेव क्षोभकत्वं प्रकटयति विक्षिपतीति। दुर्निवारत्वमभिप्रेताद्विषयादाक्रष्टुमशक्यत्वं विशेषणान्तरमाह किञ्चेति। अच्छेद्यत्वं विशेषणान्तरमाह किञ्चदृढमिति। तन्तुनागो वरुणपाशशब्दितो जलचारी पदार्थोऽत्यन्तदृढतया छेत्तुमशक्यत्वेन प्रसिद्धो विवक्षितः। वायोरित्युक्तं व्यनक्ति यथेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।6.34।।मनसश्चञ्चलत्वं प्रसिद्धमित्याह। चञ्चलमं प्रसिद्धं मनः भक्तजनमायाकर्षणात्कृष्णं कूर्विति सूचयति। न केवलमत्यन्तचञ्चलमे वापि तु प्रमाथि च प्रमथाति विक्षिपति परवशीकरोति देहेन्द्रियादीनीति प्रमाथि प्रमथनशीलम्। किंच बलवत्तरं केनचिन्नियन्तु मशक्यम्। किंच दृढं नागापाशवदच्छेद्यं तस्यैवंभूतस्य मनसो निग्रहं वायुनिग्रहमिव सुदुष्करमतिकष्टरमहं मन्ये स्वबुद्य्धा जानामि। चञ्चलमितिविशेषणेन साम्यरुपस्य योगस्य स्थिरां स्थितिं कर्तुमयोग्यमित्युक्तम्। इन्द्रियानिग्रहेण तस्याचञ्चलत्वं संपादनीयमित्याशङ्का प्रमाथीत्युक्तम्। बलवदित्यनेन प्रमथनसामर्थ्यं मनसः प्रदर्शितम्। दृढमिति विषलाम्बट्यात् विच्छेत्तुमशक्यमिति विवेकः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।6.34।।उक्तं च मनसश्चञ्चलत्वाद्धि स्थितिर्योगस्य वै स्थिरा। विनाऽभ्यासान्न शक्या स्याद्वैराग्याद्वा न संशयः इति व्यासयोगे।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।6.34।।एतदेवोपपादयति चञ्चलं हीति। प्रमाथि बहुदस्युवदेकस्य प्रमथनशीलम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।6.34।।तथा हि अनवरताभ्यस्तविषयेषु अपि स्वत एव चञ्चलं पुरुषेण एकत्र स्थापयितुम् अशक्यं मनः पुरुषं बलात् प्रमथ्य दृढम् अन्यत्र चरति। तस्य स्वाभ्यस्तविषयेषु अपि चञ्चलस्वभावस्य मनसः तद्विपरीताकारात्मनि स्थापयितुं निग्रहं प्रतिकूलगतेः महावातस्य व्यजनादिना इव सुदुष्करम् अहं मन्ये। मनोनिग्रहोपायो वक्तव्य इत्यभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।6.34।।एतत्स्फुटयति चञ्चलमिति। चञ्चलं स्वभावेनैव चपलम्। किंच प्रमाथि प्रमथनशीलं देहेन्द्रियक्षोभकमित्यर्थः। किंच बलवद्विचारेणापि जेतुमशक्यम्। किंच दृढं विषयवासनानुबद्धतया दुर्भेद्यम्। अतो यथाकाशे दोधूयमानस्य वायोः कुम्भादिषु निरोधनमशक्यं तथा तस्य मनसोऽपि निग्रहं निरोधं सुदुष्करं सर्वथा कर्तुमशक्यं मन्ये।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 6.34 एवं ज्ञानैकाकारतया निर्दोषतया ब्रह्मतद्गुणसम्बन्धेनेतरासम्बन्धेन च साम्यं श्लोकचतुष्टयेनोक्तम् अत्र श्लोकद्वयेन साम्यानुसन्धानोक्तिस्तृतीयचतुर्थश्लोकाभ्यां तु दृढतरदृढतमसाम्यानुसन्धानफलपर्बद्वयोक्तिरित्येके। योगाभ्यासविधिश्चतुर्धा योगी चोक्तः। अथ प्रागुक्तमेव योगसाधनं विशदं ज्ञातुं पुनरर्जुन उवाच योऽयमिति।देवेत्यारभ्य अनुभूतेष्वित्यन्तमनाद्युपचितसुदृढविपरीतवासनया साम्यानुसन्धानस्याशक्यत्वप्रदर्शनार्थम्। परस्परवैषम्यंदेवमनुष्यादिभेदेनेति। जीवेश्वरभेदेन कर्मवश्यत्वाकर्मवश्यत्वादिभेदेनेत्यर्थः।अत्यन्तभिन्नतयेति नह्यत्र खण्डमुण्डादिवत् भेदकधर्ममात्रं किन्तु विरुद्धस्वभावत्वमेव हि दृश्यत इति भावः।एतावन्तं कालमिति।कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे अष्टा.2।3।5 द्वितीया।अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येनेति चः साम्यद्वयसमुच्चयार्थः। अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येन चेति कश्चित्पाठः। तदा पूर्वश्चकार ईश्वरसाम्येऽपि ज्ञानैकाकारत्वसङ्ग्रहार्थः। द्वितीयस्तु पूर्ववत्। ज्ञानपुरुषार्थवैषम्ययोः कर्मवैषम्यफलत्वात् अकर्मवश्यतयेत्यनेनैव तयोरपि निवृत्तिसङ्ग्रहः फलित इति तयोरनुपादानम्।त्वया प्रोक्तः स्वतः सर्वज्ञेन त्वयैव ह्येतदनुसन्धातुं प्रवक्तुं च शक्यमिति भावःअहं न पश्यामि इति अनादिभेदानुसन्धानवानजितचित्तश्चाहं न पश्यामीति भावः।स्थिरां स्थितिं चिरानुवृत्तिमित्यर्थः।मधुसूदन रजस्तमोमयप्रबलविरोधिनिरसनशीलस्त्वमेव मनोनिग्रहोपायमुपदिशेति भावः।चञ्चलं हि मनः इत्युत्तरवाक्यानुसन्धानेनमनस इत्यध्याहृतम्।हीति निपातस्य यादवप्रकाशोक्तादचिद्विशेषणार्थत्वादपि स्फुटमुचितं चात्र हेत्वर्थत्वमाह तथा हीति। हेतुभूतं च चलत्वं सम्प्रतिपन्नस्थले प्रदर्शनीयम्। अतश्चलस्वभावत्वमत्र चञ्चलशब्दार्थ इति दर्शयितुंअनवरतेत्यादिकम्। चञ्चलत्वफलमाह पुरुषेणेति। प्रमाथि प्रमथनशीलम्।प्रमथ्य व्याकुलीकृत्येत्यर्थः। बलवच्छब्दः प्रमथनक्रियाविशेषणं वा बलवत्त्वात्प्रमाथीति हेतुपरो वेत्यभिप्रायेणबलात्प्रमथ्येत्युक्तम्। वैपरीत्ये दार्ढ्यमित्याहदृढमन्यत्रेति।तस्य इति परामर्शाभिप्रेतमाहस्वाभ्यस्तेति।तद्विपरीताकारेति अनभ्यस्तपूर्व इत्यर्थः।स्थापयितुं स्थापनार्थम्। दार्ष्टान्तिके मनसि प्रदर्शितस्य चञ्चलत्वादेः दृष्टान्ते विवक्षितत्त्वप्रदर्शनायप्रतिकूलेत्यादिकमुक्तम्। मनोनिग्रहोपायदुर्बलत्वज्ञापनाय वायोर्मन्दैर्निग्रहासम्भावनार्थं चव्यजनादिनेवेत्युक्तम्। एवं दुष्करत्ववचनं न प्रतिक्षेपार्थम्। किन्तूपायपरिप्रश्नार्थमित्याहमन इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।6.33 6.34।।योऽयमिति। चञ्चलमिति। यः अयम् इति परोक्षप्रत्यक्षवाचकाभ्यामेवं सूच्यते भगवदभिहितानन्तरोपायपरम्परया स्पुटमपि प्रत्यक्षनिर्दिष्टमपि ब्रह्म मनसः चाञ्चल्यदौरात्म्यात् सुदूरे वर्तते(N. सुदूरीक्रियते) इति परोक्षायमाणम्। प्रमथ्नाति दृष्टादृष्टे बलवत् शक्तम्। दृढं दुष्टव्यापारात्(N द्रष्ट्व्यापारात्) वारयितुम् अशक्यम्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।6.34।।अत्रागमं चाह उक्तं चेति। एतेनअसंशयं 6।35 इति परिहारवाक्यमपि व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।6.34।।सर्वलोकप्रसिद्धत्वेन तदेव चञ्चलत्वमुपपादयति चञ्चलं अत्यर्थं चलं सदा चलनस्वभावं मनः हि प्रसिद्धमेवैतत्। भक्तानां पापादिदोषान्सर्वथा निवारयितुमशक्यानपि कृषति निवारयति तेषामेव सर्वथा प्राप्तुमशक्यानपि पुरुषार्थानाकर्षति प्रापयतीति वा कृष्णः तेन रूपेण संबोधयन् दुर्निवारमपि चित्तचाञ्चल्यं निवार्य दुष्प्रापमपि समाधिसुखं त्वमेव प्रापयितुं शक्नोषीति सूचयति। न केवलमत्यर्थं चञ्चलं किंतु प्रमाथि शरीरमिन्द्रियाणि च प्रमथितुं क्षोभयितुं शीलं यस्य तत्। क्षोभकतया शरीरेन्द्रियसंघातस्य विवशताहेतुरित्यर्थः। किंच बलवत् अभिप्रेताद्विषयात्केनाप्युपायेन निवारयितुमशक्यम्। किंच दृढं विषयवासनासहस्त्रानुस्यूततया भेत्तुमशक्यम्। तन्तुनागवदच्छेद्यमिति भाष्ये। तन्तुनागो नागपाशः।तांतनी इति गुर्जरादौ प्रसिद्धो महाह्रदनिवासी जन्तुविशेषो वा। तस्यादिदृढतया बलवतो बलवत्तया प्रमाथिनः प्रमाथितयाऽतिचञ्चलस्य महामत्तवनगजस्येव मनोनिग्रहं निरोधं निर्वृत्तिकतयावस्थानं सुदुष्करं सर्वथा कर्तुमशक्यमहं मन्ये वायोरिव। यथाकाशे दोधूयमानस्य वायोर्निश्चलत्वं संपाद्य निरोधनमशक्यं तद्वदित्यर्थः। अयं भावः जातेऽपि तत्त्वज्ञाने प्रारब्धकर्मभोगाय जीवतः पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखदुःखरागद्वेषादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशहेतुत्वाद्बाधितानुवृत्त्यापि बन्धो भवति। चित्तवृत्तिनिरोधरूपेणतु योगेन तस्य निवारणं जीवन्मुक्तिरित्युच्यते। यस्याः संपादनेन स योगी परमो मत इत्युक्तम् तत्रेदमुच्यते बन्धः किं साक्षिणो निवार्यते किं वा चित्तात्। नाद्यः। तत्त्वज्ञानेनैव साक्षिणो बन्धस्य निवारितत्वात्। न द्वितीयः। स्वभावविपर्ययायोगात् विरोधिसद्भावाच्च। नहि जलादार्द्रत्वमग्नेर्वोष्णत्वं निवारयितुं शक्यतेप्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्तेः इति न्यायेन प्रतिक्षणपरिणामस्वभावत्वाच्चित्तस्य प्रारब्धभोगेन च कर्मणा कृत्स्नाऽविद्यातत्कार्यनाशने प्रवृत्तस्य तत्त्वज्ञानस्यापि प्रतिबन्धं कृत्वा स्वफलदानाय देहेन्द्रियादिकमवस्थापितम्। नच कर्मणा स्वफलसुखदुःखादिभोगश्चित्तवृत्तिभिर्विना संपादयितुं शक्यते। तस्माद्यद्यपि स्वाभाविकानामपि चित्तपरिणामानां कथंचिद्योगेनाभिभवः शक्येत कर्तुं तथापि तत्त्वज्ञानादिव योगादपि प्रारब्धफलस्य कर्मणः प्राबल्यादवश्यंभाविनि चित्तस्य चाञ्चल्ये योगेन तन्निवारणमशक्यमहं स्वबोधादेव मन्ये। तस्मादनुपपन्नमेतदात्मौपम्येन सर्वत्र समदर्शी परमो योगी मत इत्यर्जुनस्याक्षेपः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।6.34।।मनसश्चाञ्चल्यमेवाह चञ्चलं हीति। हे कृष्ण सदानन्द मनो हीति निश्चयेन चञ्चलं स्वभावत एव चपलम् अन्यथा सदानन्दोक्तौ कथं पुनः प्रश्नार्थमहमुद्युक्तः इति कृष्णेति सम्बोधनेन ज्ञापितम्। किञ्च प्रमाथि प्रकर्षेण मथनशीलं इन्द्रियक्षोभकम्। किञ्च बलवत् अतिप्रबलं ज्ञानादिवचनासाध्यम्। किञ्च दृढं स्वविषयानुरागाऽत्यागस्वभावम्। तस्य मनसो निग्रहं वशीकरणं आकाशे दोधूयमानस्य स्वसुखार्थं तापनिवारणाय गृहादिषु वायोरिव निरोधनं सुदुष्करं सर्वथा कर्त्तुमशक्यमहं मन्ये। यद्वा वायोः प्राणवायोर्गच्छतो निरोधमशक्यं मन्य इति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।6.34।। चञ्चलं हि मनः कृष्ण इति कृष्यतेः विलेखनार्थस्य रूपम्। भक्तजनपापादिदोषाकर्षणात् कृष्णः तस्य संबुद्धिः हे कृष्ण। हि यस्मात् मनः चञ्चलं न केवलमत्यर्थं चञ्चलम् प्रमाथि च प्रमथनशीलम् प्रमथ्नाति शरीरम् इन्द्रियाणि च विक्षिपत् सत् परवशीकरोति। किञ्च बलवत् प्रबलम् न केनचित् नियन्तुं शक्यम् दुर्निवारत्वात्। किञ्च दृढं तन्तुनागवत् अच्छेद्यम्। तस्य एवंभूतस्य मनसः अहं निग्रहं निरोधं मन्ये वायोरिव यथा वायोः दुष्करो निग्रहः ततोऽपि दुष्करं मन्ये इत्यभिप्रायः।।श्रीभगवानुवाच एवम् एतत् यथा ब्रवीषि श्रीभगवानुवाच

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।6.33 6.34।।उक्तलक्षणयोगस्यासम्भवं मन्वानोऽर्जुन उवाच द्वाभ्यां योऽयं योग इति। निरोधः चित्तस्य येन साम्येनोक्तः तदेव दुष्करतरं यतः चञ्चलं मन इति। हीत्याग्नीध्रसौभरिप्रभृतीनां तथानाशस्य दृष्टत्वात् प्रसिद्धिरुक्ता। यथाऽऽकाशे दोधूयमानस्य वायोर्घटादिषु निरोधो दुष्करस्तद्वत्।


Chapter 6, Verse 34