Chapter 6, Verse 32

Text

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।

Transliteration

ātmaupamyena sarvatra samaṁ paśhyati yo ’rjuna sukhaṁ vā yadi vā duḥkhaṁ sa yogī paramo mataḥ

Word Meanings

ātma-aupamyena—similar to oneself; sarvatra—everywhere; samam—equally; paśhyati—see; yaḥ—who; arjuna—Arjun; sukham—joy; vā—or; yadi—if; vā—or; duḥkham—sorrow; saḥ—such; yogī—a yogi; paramaḥ—highest; mataḥ—is considered


Translations

In English by Swami Adidevananda

He who, due to the similarity of selves everywhere, sees pleasure or pain as the same everywhere—that yogi, O Arjuna, is considered the closest.

In English by Swami Gambirananda

O Arjuna, that yogi is considered the best who judges what is happiness and sorrow in all beings by the same standard as they would apply to themselves.

In English by Swami Sivananda

He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees reality everywhere, be it pleasure or pain, is regarded as the highest Yogi.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whoever finds pleasure or pain equally in all, as if it were in themselves—that person is considered to be a great man of Yoga, O Arjuna!

In English by Shri Purohit Swami

O Arjuna! He is the perfect saint who, having been taught by the likeness within himself, sees the same Self everywhere, regardless of whether the outer form be pleasurable or painful.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.32।। हे अर्जुन ! जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।6.32।। हे अर्जुन ! जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दु:ख, वह परम योगी माना गया है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

6.32 आत्मौपम्येन through the likeness of the Self? सर्वत्र everywhere? समम् eality? पश्यति sees? यः who? अर्जुन O Arjuna? सुखम् pleasure? वा and? यदि if? वा or? दुःखम् pain? सः he? योगी Yogi? परमः highest? मतः is regarded.Commentary He sees that whatever is pleasure or pain to himself is also pleasure or pain to all other beings. He does not harm anyone. He is ite harmless. He wishes good to all. He is compassionate to all creatures. He has a very soft and large heart. He sees thus eality everywhere as he is endowed with the right knowlede of the Self? as he beholds the Self only everywhere? and as he is established in the unity of the Self. Therefore he is considered as the highest among all Yogis. (Cf.VI.47)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.32।। व्याख्या--[जिसको इसी अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें 'ब्रह्मभूत' कहा है और जिसको अट्ठाईसवें श्लोकमें 'अत्यन्त सुख' की प्राप्ति होनेकी बात कही है, उस सांख्ययोगीका प्राणियोंके साथ कैसा बर्ताव होता है--इसका इस श्लोकमें वर्णन किया गया है। कारण कि गीताके ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होती है--'सर्वभूतहिते रताः'(5। 25 12। 4)]

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।6.32।। तत्त्वज्ञान और आत्मानुभव में स्थित योगीजन स्वभावत सर्वत्र व्याप्त आत्मा के दर्शन करते हैं। वे सभी कर्मों में आत्मा के वैभव को देखते हैं और जानते हैं कि उपाधियों के द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्म आत्मकृपा से ही होते हैं। बाह्य स्थूल और आन्तरिक सूक्ष्म जगत् आत्मा की ही अभिव्यक्ति है।गीता के अनुसार सर्वश्रेष्ठ योगी वह है जो अन्य के सुख एवं दुख को इस प्रकार समझता है जैसे वे उसके अपने ही हों। प्रसिद्ध नैतिक नियम है कि अन्य के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा कि उससे तुम अपेक्षा रखते हो। परन्तु यह नियम सामान्य मनुष्य को अप्रिय लगता है क्योंकि स्वार्थ के कारण वह सोचता है कि क्यों वह दूसरों को अपने ही समान समझे। अज्ञान तथा स्वार्थ के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति अनैतिकता की ओर झुक जाती है।पूर्व श्लोकों में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि क्यों हमें प्राणीमात्र से प्रेम करना चाहिए। योगी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा समस्त सृष्टि को आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में पहचानता है अत सबसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। प्रत्येक मनुष्य को अपने शरीर से तादात्म्य होने के कारण शरीर के समस्त अंगों से उसे एक समान ही प्रेम होता है। यदि अकस्मात् दांतों से जिह्वा कट जाती है तो मनुष्य कभी भी दांतों को दण्ड देने का विचार नहीं करता क्योंकि दांतों में तथा जिह्वा में समान रूप से वह स्वयं व्याप्त है। इसी प्रकार आत्मा को पहचान लेने पर सम्पूर्ण नामरूप की सृष्टि आत्मस्वरूप ही बन जाती है और समस्त कालों में सर्वत्र केवल मैं (आत्मा) ही व्याप्त रहता हूँ।आत्मैकत्व दर्शन करने वाला सिद्ध व्यक्ति ही गीता में परम योगी माना गया है जो समाज को देता अधिक है और लेता कम है। प्रेम उसका श्वास है और करुणा उसकी जीविका।श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञानी पुरुष का जो उपर्युक्त वर्णन शब्दचित्र के माध्यम से किया गया है वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है किन्तु व्यावहारिक बुद्धि का अर्जुन उक्त लक्ष्य को पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है और वह प्रश्न के रूप में अपनी शंका को व्यक्त करता है।यथोक्त सम्यग्दर्शन रूप योग का संपादन दुष्कर जानकर उसकी प्राप्ति का निश्चयात्मक उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कहता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।6.32।।स्वैराचरणस्याप्रतिबन्धकत्वकथनात्परपीडनस्य योगिनः सम्यग्दर्शनं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वप्रसक्तावुक्तं किञ्चेति। अन्यदपि किञ्चिदुच्यते परमयोगिनो निर्देशद्वारा योगमाहात्म्यमित्यर्थः। उपमैवोपम्यमात्मा च तदौपम्यं च तेन सर्वभूतेषु यः समं पश्यतीत्युक्ते तदेव समदर्शनं प्रश्नपूर्वकं विवृणोति किमित्यादिना। विकल्पार्थत्वं वारयति वाशब्द इति। उपदर्शितसमदर्शनफलमभिलषति न कस्यचिदिति। किमपेक्षया तस्य परमत्वं तत्राह सर्वेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।6.32।।ननु सर्वथा वर्तमानोऽपीत्युक्त्या कस्यचिहुःखहेतुभूतापि तस्य प्रवृत्तिः प्राप्तेति चेत्तर्हि तल्लक्षणं श्रृण्वित्याशयेनाह आत्मेति। आत्मा स्वयमेव उपमाया भाव औपम्ायं तेन यः सर्वेषु भूतेषु। वाशब्दौ चार्थे। सुथं च यच्च दुःखं समं पश्यति यथा मम सुखदुःखे अनुकूलप्रतिकूले तथा सर्वस्यापीति तुल्यतया सर्वत्र समं पश्यति। न कस्यचित्प्रतिकुल माचरति अहिंसक इत्यर्थः। स सर्वेषां योगिनां मध्ये परमः श्रेष्ठो योगी मे मम मतः अमिमतः। तथाच महता प्रय्त्नेनापि परमयोगित्वलाभाय एतलक्षणं संपादनीयमित्याशयः। यद्यपि यः सर्वप्रकारेण वर्तते सोऽपि मुच्यत एव। तथाप्यत्र निषिद्धाद्याचरणात्सकलङ्गो भवति। अयं तु तथात्वाभावादत्रापि निष्कलङ्कः शुद्ध इति सूचयन्नाह अर्जुनेति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।6.32।।साम्यं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे आत्मौपम्येनेति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।6.32।।यद्यपि निषिद्धकर्मणाप्यात्मविन्न बध्यते तथापि शीलवानेव योगी श्रेष्ठ इत्याह आत्मौपम्येनेति। यथा स्वस्य सुखमिष्टं दुःखमनिष्टं तद्वत्परस्यापीति बुद्ध्या योऽन्यस्मै दुःखं न प्रयच्छति सोऽहिंसकः परमयोगी मत इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।6.32।।आत्मनः च अन्येषां च आत्मनाम् असंकुचितज्ञानैकाकारतया औपम्येन स्वात्मनि च अन्येषु सर्वत्र वर्तमानं पुत्रजन्मादिरूपं सुखं तन्मरणादिरूपं च दुःखम् असम्बन्धसाम्यात् समं यः पश्यति परपुत्रजन्ममरणादिसमं स्वपुत्रजन्ममरणादिकं यः पश्यति इत्यर्थः। स योगी परमयोगकाष्ठं गतो मतः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।6.32।।एवंच मां भजतां योगिनां मध्ये सर्वभूतानुकम्पी श्रेष्ठ इत्याह आत्मौपम्येनेति। आत्मौपम्येन स्वसादृश्येन यथा मम सुखं प्रियं दुःखं चाप्रियं तथान्येषामपीति सर्वत्र समं पश्यन् सुखमेव सर्वेषां यो वाञ्छति नतु कस्यापि दुःखं स योगी श्रेष्ठो ममाभिमत इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।6.32।।प्रबलदुःखहेत्वागमेऽपि निर्विकारत्वापादिकां योगविपाककाष्ठाभूतां कर्मज्ञानतारतम्यप्रयुक्तसुखदुःखतारतम्यनिवृत्त्यनुसन्धानरूपां चतुर्थीं दशामाहेत्याह ततोऽपि काष्ठामाहेति।आत्मौपम्येन इत्यस्य न पश्यतिनाऽन्वयः सममित्यनेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गात्। अतः सर्वत्रात्मौपम्येनेत्यन्वयः। उपमाशब्दस्तुल्यवचनः। तस्य भाव औपम्यं सर्वेषामात्मनां पूर्वोक्तेन देहविलक्षणत्वादिसाम्येनेत्यर्थः।सर्वत्र इत्येतदेव काकाक्षिन्यायेनसमं पश्यति इत्यत्राप्यन्वितम्। सर्वेषामत्यन्तविषमतयाउपलक्ष्यमाणसुखदुःखान्वयसाम्यभ्रमव्युदासेन व्यतिरेकसाम्यानुसन्धानं दर्शयति असम्बन्धसाम्यादिति। परेष्वसम्बन्धानुसन्धानस्य निष्प्रयोजनत्वादिहाभिप्रेतमाह परेति। परंपुत्रजन्मादेः स्वात्मनि स्वपुत्रजन्मादेश्च परेषु यथा न सम्बन्धः तथा स्वात्मन्यपीत्युक्तं भवति। परमशब्दाभिप्रेतमाहपरमयोगकाष्ठां गतो मत इति। जीवात्मयोगकाष्ठेयम् परमात्मयोगस्य परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वात्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।6.32।।आत्मौपम्येनेति। सर्वस्य च सुखदुःखे आत्मतुल्यतया पश्यतीति स्वरूपमेतदनूदितम् न पुनरेषोऽपूर्वो विधिः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।6.32।।सर्वत्र समदर्शनः 5।29 इत्यस्यान्यथाव्याख्यानमितोऽप्यसदिति भावेनाह साम्यमिति। साम्यदर्शनम्। समदर्शन इत्युक्ते किं गोनवयादिवद्भवति सम्यग्दर्शनमित्याकाङ्क्षायामेकत्वमास्थित इति स्वयमेव व्याख्यातम्। इदानीं तु भगवदनुवर्तिविषयतयाऽपि व्याचष्ट इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।6.32।।एवमुत्पन्नेऽपि तत्त्वबोधे कश्चिन्मनोनाशवासनाक्षययोरभावाज्जीवन्मुक्तिसुखं नानुभवति चित्तविक्षेपेण च दृष्टदुःखमनुभवति सोऽपरमो योगी देहपाते कैवल्यभागित्वाद्देहसद्भावपर्यन्तं च दृष्टदुःखानुभवात् तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयाणां तु युगपदभ्यासाद्दृष्टदुःखनिवृत्तिपूर्वकं जीवन्मुक्तिसुखमनुभवन्प्रारब्धकर्मवशात्समाधेर्व्युत्थानकाले आत्मैवौपम्यमुपमा तेनात्मदृष्टान्तेन सर्वत्र प्राणिजाते सुखं वा यदि वा दुःखं समं तुल्यं यः पश्यति स्वस्यानिष्टं यथा न संपादयति एवं परस्याप्यनिष्टं यो न संपादयति प्रद्वेषशून्यत्वात् एवंस्वस्येष्टं यथा संपादयति तथा परस्यापीष्टं यः संपादयति रागशून्यत्वात् स निर्वासनतयोपशान्तमनाः योगी ब्रह्मवित् परमः श्रेष्ठो मतः पूर्वस्मात् हे अर्जुन अतस्तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयाणामाक्रममभ्यासाय महान्प्रयत्न आस्थेय इत्यर्थः। तत्रेदं सर्वं द्वैतजातमद्वितीये चिदानन्दात्मनि मायया कल्पितत्वान्मृषैव आत्मैवैकः परमार्थसत्यः सच्चिदानन्दाद्वयोऽहमस्मीति ज्ञानं तत्त्वज्ञानं प्रदीपज्वालासंतानवद्वृत्तिसंतानरूपेण परिणममानमन्तःकरणद्रव्यं मननात्मकत्वान्मन इत्युच्यते। तस्य नाशो नाम वृत्तिरूपपरिणामं परित्यज्य सर्ववृत्तिविरोधिना निरोधाकारेण परिणामः। पूर्वापरपरामर्शमन्तरेण सहसोत्पद्यमानस्य क्रोधादिवृत्तिविशेषस्य हेतुश्चित्तगतः संस्कारविशेषो वासना पूर्वपूर्वाभ्यासेन चित्ते वास्यमानत्वात्। तस्याः क्षयो नाम विवेकजन्यायां चित्तप्रशमवासनायां दृढायां सत्यपि बाह्ये निमित्ते क्रोधाद्यनुत्पत्तिः। तत्र तत्त्वज्ञाने सति मिथ्याभूते जगति नरविषाणादाविव धीवृत्त्यनुदयादात्मनश्च दृष्टत्वेन पुनर्वृत्त्यनुपयोगान्निरिन्धनाग्निवन्मनो नश्यति। नष्टे च मनसि संस्कारोद्बोधकस्य बाह्यस्य निमित्तस्याप्रतीतौ वासना क्षीयते। क्षीणायां वासनायां हेत्वभावेन क्रोधादिवृत्त्यनुदयान्मनो नश्यति। नष्टे च मनसि शमदमादिसंपत्त्या तत्त्वज्ञानमुदेति। एवमुत्पन्ने तत्त्वज्ञाने रागद्वेषादिरूपा वासना क्षीयते। क्षीणायां च वासनायां प्रतिबन्धाभावात्तत्त्वज्ञानोदय इति परस्परकारणत्वं दर्शनीयम्। अतएव भगवान्वसिष्ठ आहतत्त्वज्ञानं मनोनाशो वासनाक्षय एव च। मिथः करणतां गत्वा दुःसाध्यानि स्थितानि हि।।तस्माद्राघव यत्नेन पौरुषेण विवेकिना। भोगेच्छां दुरतस्त्यक्त्वा त्रयमेतत्समाश्रयेत।। इति। पौरुषो यत्नः केनाप्युपायेनावश्यं संपादयिष्यामीत्येवंविधोत्साहरूपो निर्बन्धः। विवेको नाम विविच्य निश्चयः। तत्त्वज्ञानस्य श्रवणादिकं साधनं मनोनाशस्य योगः वासनाक्षयस्य प्रतिकूलवासनोत्पादनमिति। एतादृशविवेकयुक्तेन पौरुषेण प्रयत्नेन भोगेच्छायाः स्वल्पाया अपि हविषा कृष्णवर्त्मेवेति न्यायेन वासनावृद्धिहेतुत्वाद्दूरत इत्युक्तम्। द्विविधो हि विद्याधिकारी कृतोपास्तिरकृतोपास्तिश्च। तत्र य उपास्यसाक्षात्कारपर्यन्तामुपास्तिं कृत्वा तत्त्वज्ञानाय प्रवृत्तस्तस्य वासनाक्षयमनोनाशयोर्दृढतरत्वेन ज्ञानादूर्ध्वं जीवन्मुक्तिः स्वत एव सिध्यति। इदानींतनस्तु प्रायेणाकृतोपास्तिरेव मुमुक्षुरौत्सुक्यमात्रत्वात्सहसा विद्यायां प्रवर्तते। योगं विना चिज्जडविवेकमात्रेणैव च मनोनाशवासनाक्षयौ तात्कालिकौ संपाद्य शमदमादिसंपत्त्या श्रवणमनननिदिध्यासनानि संपादयति। तैश्च दृढाभ्यस्तैः सर्वबन्धविच्छेदि तत्त्वज्ञानमुदेति। अविद्याग्रन्थिरब्रह्मत्वं हृदयग्रन्थिः संशयाः कर्माणि सर्वकामत्वं मृत्युः पुनर्जन्म चेत्यनेकविधो बन्धो ज्ञानान्निवर्तते। तथाच श्रुयतेयो वेद निहितं गुहायां सोऽविद्याग्रन्थिं विकिरतीह सोम्यब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतिभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरेसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मयो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् सोश्नुते सर्वान्कामान्सहतमेव विदित्वातिमृत्युमेतियस्तु विज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायतेय एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदँ्सर्वं भवति इत्यसर्वज्ञत्वनिवृत्तिफलमुदाहार्यम्। सेयं विदेहमुक्तिः सत्यपि देहे ज्ञानोत्पत्तिसमकालीना ज्ञेया। ब्रह्मण्यविद्याध्यारोपितानामेतेषां बन्धानामविद्यानाशे सति निवृत्तौ पुनरुत्पत्त्यसंभवात्। अतः शैथिल्यहेवभावात्तत्त्वज्ञानं तस्यानुवर्तते। मनोनाशवासनाक्षयौ तु दृढाभ्यासाभावाद्भोगप्रदेन प्रारब्धेन कर्मणा बाध्यमानत्वाच्च सवातप्रदेशप्रदीपवत्सहसा निवर्तते। अत इदानींतनस्य तत्त्वज्ञानिनः प्राक्सिद्धे तत्त्वज्ञाने न प्रयत्नापेक्षा किंतु मनोनाशवासनाक्षयौ प्रयत्नसाध्याविति। तत्र मनोनाशोऽसंप्रज्ञातसमाधिनिरूपणेन निरूपितः प्राक्। वासनाक्षयस्त्विदानीं निरूप्यते। तत्र वासनास्वरूपं वसिष्ठ आहदृढभावनया त्यक्तपूर्वापरविचारणम्। यदादानं पदार्थस्य वासना सा प्रकीर्तिता।। अत्रच स्वस्वदेशाचारकुलधर्मस्वभावभेदतद्गतापशब्दसुशब्दादिषु प्राणिनामभिनिवेशः सामान्येनोदाहरणम्। सा च वासना द्विविधा मलिना शुद्धा च। शुद्धा दैवी सम्पत् शास्त्रसंस्कारप्राबल्यात्तत्त्वज्ञानसाधनत्वेनैकरूपैव। मलिना तु त्रिविधा लोकवासना शास्त्रवासना देहवासना चेति। सर्वे जना यथा न निन्दन्ति तथैवाचरिष्यामीत्यशक्यार्थाभिनिवेशो लोकवासना। तस्याश्चको लोकमाराधयितुं समर्थः इति न्यायेन संपादयितुमशक्यत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वाच्च मलिनत्वम्। शास्त्रवासना तु त्रिविधा पाठव्यसनं बहुशास्त्रव्यसनं अनुष्ठानव्यसनं चेति क्रमेण भरद्वाजस्य दुर्वाससो निदाघस्य च प्रसिद्धा। मलिनत्वं चास्याः क्लेशावहत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वाद्दर्पहेतुत्वाज्जन्महेतुत्वाच्च। देहवासनापि त्रिविधा आत्मत्वभ्रान्तिर्गुणाधानभ्रान्तिर्दोषापनयनभ्रान्तिश्चेति। तत्रात्मत्वभ्रान्तिर्विरोचनादिषु प्रसिद्धा सार्वलौकिकी। गुणाधानं द्विविधं लौकिकं शास्त्रीयं च। समीचीनशब्दादिविषयसंपादनं लौकिकं गङ्गास्नानशालग्रामतीर्थादिसंपादनं शास्त्रीयम्। दोषापनयनमपि द्विविधं लौकिकं शास्त्रीयं च। चिकित्सकोक्तैरोषधैर्व्याध्याद्यपनयनं लौकिकम्। वैदिकस्नानाचमनादिभिरशौचाद्यपनयनं वैदिकम्। एतस्याश्च सर्वप्रकाराया मलिनत्वमप्रामाणिकत्वादशक्यत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वात्पुनर्जन्महेतुत्वाच्च शास्त्रे प्रसिद्धम्। तदेतल्लोकशास्त्रदेहवासनात्रयमविवेकिनामुपादेयत्वेन प्रतिभासमानमपि विविदिषोर्वेदनोत्पत्तिविरोधित्वाद्विदुषो ज्ञाननिष्ठाविरोधित्वाच्च विवेकिभिर्हेयम्। तदेवं बाह्यविषयवासना त्रिविधा निरूपिता। आभ्यन्तरवासना तु कामक्रोधदम्भदर्पाद्यासुरसंपद्रूपा सर्वानर्थमूलं मानसी वासनेत्युच्यते। तदेवं बाह्याभ्यन्तरवासनाचतुष्टयस्य शुद्धवासनया क्षयः संपादनीयः। तदुक्तं वसिष्ठेनमानसीर्वासनाः पूर्वं त्यक्त्वा विषयवासनाः। मैत्र्यादिवासना राम गृहाणामलवासनाः।। इति। तत्र विषयवासनाशब्देन पूर्वोक्तास्तिस्त्रो लोकशास्त्रदेहवासना विवक्षिताः। मानसवासनाशब्देनकामक्रोधदम्भदर्पाद्यासुरसंपद्विवक्षिता। यद्वा शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा विषयाः। तेषां भुज्यमानत्वदशाजन्यः संस्कारो विषयवासना। काम्यमानत्वदशाजन्यः संस्कारो मानसवासना। अस्मिन्पक्षे पूर्वोक्तानां चतसृणामनयोरेवान्तर्भावः बाह्याभ्यन्तरव्यतिरेकेण वासनान्तरासंभवात्। तासां वासनानां परित्यागो नाम तद्विरुद्धमैत्र्यादिवासनोत्पादनम्। ताश्च मैत्र्यादिवासना भगवता पतञ्जलिना सूत्रिताः प्राक् संक्षेपेण व्याख्याता अपि पुनर्व्याख्यायन्ते। चित्तं हि रागद्वेषपुण्यपापैः कलुषीक्रियते। तत्रसुखानुशयी रागः मोहादनुभूयमानं सुखमनुशेते कश्चिद्धीवृत्तिविशेषो राजसः सर्वं सुखजातीयं मे भूयादिति। तच्च दृष्टादृष्टसामग्र्यभावात्संपादयितुमशक्यम्। अतः स रागश्चित्तं कलुषीकरोति। यदा तु सुखिषु प्राणिष्वयं मैत्रीं भावयेत्सर्वेऽप्येते सुखिनो मदीया इति तदा तत्सुखं स्वकीयमेव संपन्नमिति भावयतस्तत्र रागो निवर्तते। यथा स्वस्य राज्यनिवृत्तावापि पुत्रादिराज्यमेव स्वकीयं राज्यं तद्वत्। निवृत्ते च रागे वर्षाव्यपाये जलमिव चित्तं प्रसीदति। तथादुःखानुशयी द्वेषः दुःखमनुशेते कश्चिद्धीवृत्तिविशेषस्तमोनुगतरजःपरिणाम ईदृशं सर्वं दुःखं सर्वदा मे मा भूदिति। तच्च शत्रुव्याघ्रादिषु सत्सु न निवारयितुं शक्यम्। नच सर्वे ते दुःखहेतवो हन्तुं शक्यन्ते। अतः स द्वेषः सदा हृदयं दहति। यदा तु स्वस्येव परेषां सर्वेषामपि दुःखं माभूदिति करुणां दुःखिषु भावयेत्तदा वैर्यादिद्वेषनिवृत्तौ चित्तं प्रसीदति। तथाच स्मर्यतेप्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः।। इति। एतदेवेहाप्युक्तं आत्मौपम्येन सर्वत्रेत्यादि। तथा प्राणिनः स्वभावत एव पुण्यं नानुतिष्ठन्ति पापं त्वनुतिष्ठन्ति। तदाहुःपुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। इति। ते च पुण्यपापे अक्रियमाणक्रियमाणे पश्चात्तापं जनयतः। सच श्रुत्यानूदितःकिमहं साधु नाकरवं किमहं पापमकरवम् इति। यद्यसौ पुण्यपुरुषेषु मुदितां भावयेत्तदा तद्वासनावान्स्वयमेवाप्रमत्तोऽशुक्लकृष्णे पुण्ये प्रवर्तते। तदुक्तंकर्माशुक्लकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् अयोगिनां त्रिविधं शुक्लं शुभं कृष्णमशुभं शुक्लकृष्णं शुभाशुभमिति। तथा पापपुरुषेषूपेक्षां भावयन्स्वयमपि तद्वासनावान्पापान्निवर्तते। ततश्च पुण्याकरणपापकरणनिमित्तस्य पश्चात्तापस्याभावे चित्तं प्रसीदति। एवं सुखिषु मैत्रीं भावयतो न केवलं रागो निवर्तते किंत्वसूयेर्ष्यादयोऽपि निवर्तन्ते। परगुणेषु दोषविष्करणमसूया। परगुणानामसहनमीर्ष्या। यदा मैत्रीवशात्परसुखं स्वीयमेव संपन्नं यदा परगुणेषु कथमसूयादिकं संभवेत्। तथा दुःखिषु करुणां भावयतः शत्रुवधादिकरो द्वेषो यदा निवर्तते तदा दुःखित्वप्रतियोगिकस्वसुखित्वप्रयुक्तदर्पोऽपि निवर्तते। एवं दोषान्तरनिवृत्तिरप्यूहनीया वासिष्ठरामायणादिषु। तदेवं तत्त्वज्ञानं मनोनाशो वासनाक्षयश्चेति त्रयमभ्यसनीयम्। तत्र केनापि द्वारेण पुनःपुनस्तत्त्वानुस्मरणं तत्त्वज्ञानाभ्यासः। तदुक्तं वासिष्ठेतच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्प्रबोधनम्। एतदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधाः।।सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव सर्वदा। इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदुः परम्।। इति। दृश्यावभासविरोधियोगाभ्यासो मनोनिरोधाभ्यासः। तदुक्तंअत्यन्ताभावसंपत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुनः। युक्त्या शास्त्रैर्यतन्ते ये तेऽप्यत्राभ्यासिनः स्थिताः।। इति। ज्ञातृज्ञेययोर्मिथ्यात्वधीरभावसंपत्तिः। स्वरूपेणाप्रतीतिरत्यन्ताभावसंपत्तिस्तदर्थं युक्त्या योगेनदृश्यासंभवबोधेन रागद्वेषादितानवे। रतिर्घनोदिता याऽसौ ब्रह्माभ्यासः स उच्यते।। इति रागद्वेषादिक्षीणतारूपवासनाक्षयाभ्यास उक्तः। तस्मादुपपन्नेमेतत्तत्त्वज्ञानाभ्यासेन मनोनाशाभ्यासेन वासनाक्षयाभ्यासेन च रागद्वेषशून्यतया यः स्वपरसुखदुःखादिषु समदृष्टिः स परमो योगी मतः यस्तु विषमदृष्टिः स तत्त्वज्ञानवानप्यपरमो योगीति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।6.32।।ननु सर्वत्र कथमेकात्मत्वेन वर्तते इत्यत आह आत्मौपम्येनेति। आत्मौपम्येन स्वसादृश्येन यथा स्वस्य कृपया संयोगरसाप्तौ सुखं वियोगरसाप्तौ दुःखं तथा सर्वत्र सर्वजीवेषु सुखं यदि वा दुःखं समं यः पश्यति स योगी मम परम उत्कृष्टो मतोऽभिमत इत्यर्थः। अत्रायं भावः योऽलौकिकसुखदुःखाभिनिविष्टेष्वपि जीवेषु यथा स्वस्य तदंशलेशज्ञानेन सुखदुःखरसानुभवो भवति तथैव सर्वेषामप्यस्ति एवं यस्य सर्वत्रालौकिकस्फूर्तिः स्यात् स उत्तम इति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।6.32।। आत्मौपम्येन आत्मा स्वयमेव उपमीयते अनया इत्युपमा तस्या उपमाया भावः औपम्यं तेन आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतेषु समं तुल्यं पश्यति यः अर्जुन स च किं समं पश्यति इत्युच्यते यथा मम सुखम् इष्टं तथा सर्वप्राणिनां सुखम् अनुकूलम्। वाशब्दः चार्थे। यदि वा यच्च दुःखं मम प्रतिकूलम् अनिष्टं यथा तथा सर्वप्राणिनां दुःखम् अनिष्टं प्रतिकूलं इत्येवम् आत्मौपम्येन सुखदुःखे अनुकूलप्रतिकूले तुल्यतया सर्वभूतेषु समं पश्यति न कस्यचित् प्रतिकूलमाचरति अहिंसक इत्यर्थः। यः एवमहिंसकः सम्यग्दर्शननिष्ठः स योगी परमः उत्कृष्टः मतः अभिप्रेतः सर्वयोगिनां मध्ये।।एतस्य यथोक्तस्य सम्यग्दर्शनलक्षणस्य योगस्य दुःखसंपाद्यतामालक्ष्य शुश्रूषुः ध्रुवं तत्प्राप्त्युपायम् अर्जुन उवाच

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।6.32।।अतः स एवंविधो योगी परमो मत इत्याह आत्मौपम्येनेति। स्वसादृश्येन सर्वत्र समं दुःखादिकं पश्यन् भवति स परमो योगी मतः।


Chapter 6, Verse 32