Chapter 6, Verse 31

Text

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।6.31।।

Transliteration

sarva-bhūta-sthitaṁ yo māṁ bhajatyekatvam āsthitaḥ sarvathā vartamāno ’pi sa yogī mayi vartate

Word Meanings

sarva-bhūta-sthitam—situated in all beings; yaḥ—who; mām—me; bhajati—worships; ekatvam—in unity; āsthitaḥ—established; sarvathā—in all kinds of; varta-mānaḥ—remain; api—although; saḥ—he; yogī—a yogi; mayi—in me; vartate—dwells


Translations

In English by Swami Adidevananda

The yogi who, fixed in oneness, worships Me dwelling in all beings—he abides in Me, no matter how he may live.

In English by Swami Gambirananda

That yogi, who, being established in unity, adores Me as existing in all things, exists in Me—in whatever condition he may be.

In English by Swami Sivananda

He who, being established in unity, worships Me, who dwells in all beings, that yogi abides in Me, whatever their mode of living may be.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

He who is firmly established in the oneness of Me, experiences Me immanent in all beings—that man of Yoga is never stained, no matter what stage he may be in.

In English by Shri Purohit Swami

The sage who realizes the unity of life and who worships Me in all beings, lives in Me, no matter what their lot may be.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.31।। मेरेमें एकीभावसे स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मेरेमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह सर्वथा मेरेमें ही स्थित है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।6.31।। जो पुरुष एकत्वभाव मंे स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

6.31 सर्वभूतस्थितम् abiding in all beings? यः who? माम् Me? भजति worships? एकत्वम् unity? आस्थितः established? सर्वथा in every way? वर्तमानः remaining? अपि also? सः that? योगी Yogi? मयि in Me? वर्तते abides.Commentary He who has dissolved all duality in the underlying unity? who is thus established in unity? who worships Me? i.e.? who has realised Me as the Self of all? dwells always in Me? whatever his mode of living may be. He is ever liberated.Sadana lived in God though he was a butcher because his mind was ever fixed at the lotus feet of the Lord.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।6.31।। व्याख्या--'एकत्वमास्थितः' पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया था कि जो मेरेको सबमें और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। अदृश्य क्यों नहीं होता? कारण कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरे साथ उसकी अभिन्नता हो गयी है अर्थात् मेरे साथ उसका अत्यधिक प्रेम हो गया है। अद्वैत-सिद्धान्तमें तो स्वरूपसे एकता होती है, पर यहाँ वैसी एकता नहीं है। यहाँ द्वैत होते हुए भी अभिन्नता है अर्थात् भगवान् और भक्त दीखनेमें तो दो हैं, पर वास्तवमें एक ही हैं (टिप्पणी प0 365)। जैसे पति और पत्नी दो शरीर होते हुए भी अपनेको अभिन्न मानते हैं, दो मित्र अपनेको एक ही मानते हैं; क्योंकि अत्यन्त स्नेह होनेके कारण वहाँ द्वैतपना नहीं रहता। ऐसे ही जो भक्तियोगका साधक भगवान्को प्राप्त हो जाता है, भगवान्में अत्यन्त स्नेह होनेके कारण उसकी भगवान्से अभिन्नता हो जाती है। इसी अभिन्नताको यहाँ 'एकत्वमास्थितः' पदसे बताया गया है। 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजति'--सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवत्स्वरूप ही है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)--यही उसका भजन है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।6.31।। समाहित चित्त का योगी निरन्तर मेरा अनुसंधान करता है (भजता है)। फलत बाह्य जगत् में सब प्रकार के व्यवहार करता हुआ भी वह मुझमें ही स्थित रहता है। इस श्लोक का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है कि कोई आवश्यक नहीं कि एक आत्मानुभवी पुरुष हिमालय की किसी अज्ञात गुफा में जाकर निवृत्ति का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् कहते हैं कि जीवन के समस्त सामान्य व्यवहार करता हुआ सभी परिस्थितियों में वह अपने स्वरूप के ज्ञान में स्थित रह सकता है। जब मनुष्य रोगी हो जाता है तब उसे नित्य के कार्यों से निवृत्त होकर चिकित्सालय में रहने की आवश्यकता होती है परन्तु पूर्ण स्वस्थ हो जाने के पश्चात् नहीं। स्वस्थ होकर तो वह पुन अधिक उत्साह के साथ अपना कार्य करने लगता है।इसी प्रकार विघटित व्यक्तित्व के पुरुष के लिए ध्यानसाघना का उपचार बताया जाता है। उसके अभ्यास से जब वह स्वस्वरूप को पहचान कर दैवी सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है तब वह निश्चय ही अपने पूर्व के कार्य क्षेत्र में जाकर कर्म करते हुए भी पूर्णत्व के ज्ञान को सुदृढ़ बनाये रख सकता है।वास्तव में देखा जाय तो चिरस्थायी फलदायी कर्म कुशलतापूर्वक तभी किये जा सकते हैं जब कर्ता आत्मस्वरूप के ज्ञान में स्थित हो। गीता का यही संदेश है कि समर्पण की भावना से किये गये कर्म आत्मोन्नति के साधन हैंयहाँ ध्यान देने की बात है कि श्रीकृष्ण संभवत अर्जुन की अपेक्षा स्वयं को ही युद्ध की विपत्तियों में अधिक डाल रहे थे। रथ में बैठे योद्धा तक पहुँचने के पूर्व प्रतिपक्षी के बाण सारथि पर पहले प्रहार करते हैं। केवल समस्त संसार को मुग्ध कर देने वाली मन्द स्मिति के अतिरिक्त किसी अन्य शस्त्र को न लेकर श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में प्रवेश किया था। तत्पश्चात् वे ही सम्पूर्ण युद्ध के स्वामी और केन्द्र बिन्दु बने रहे और सम्पूर्ण महायुद्ध का घटनाचक्र उनके ही चारों तरफ घूमता रहा। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मज्ञानी पुरुष किसी भी कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप का भान रख सकता है।इस व्याख्या का अध्ययन करते समय हो सकता है कोई पाठक यह समझे कि अत्याधिक उत्साह के कारण हम इस श्लोक में कुछ अधिक अर्थ देख रहे हैं। परन्तु उन्हें सर्वथा वर्तमानोऽपि इस शब्द पर ध्यान देते हुए अधिक विचार करना चाहिए।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।6.31।।पूर्वार्धेनानूद्योत्तरार्धेन फलविधिरिति मत्वाह इत्येतदिति। रागादिरहितस्य यमनियमादिसंस्कारवतः स्वैरप्रवृत्त्यसंभवेऽपि तामङ्गीकृत्य ज्ञानं स्तौति सर्वथेति। प्रतिभासतोऽपि यथेष्टचेष्टाङ्गीकारे कुतो ज्ञानवतो नित्यमुक्तत्वं प्रातीतिकदुराचारप्रतिबन्धादित्याशङ्क्याह न मोक्षमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।6.31।।पूर्वश्लोकार्थं सम्यग्दर्शनं पूर्वोर्धेनामूद्य तत्फलं मोक्षमाह सर्वेति। पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वेषु ब्रह्मादिभूतेषु प्रत्यग्रूपेण स्थितं मां परमात्मानं वासुदेवं य एकत्वमहमेव वासुदेव इत्येवंरुपमास्थितः सभ्यगपोक्षीकृतवान् स योगी सम्यगदर्शी सर्वथा सर्वप्रकारेण विधिप्रतिषेधार्कैकर्येण वर्तमानोऽपि। अपिशब्देन तस्य रागादिरहितस्य यमनियमादिसंस्कारवतः स्वैरवृत्त्यसंभवेऽपि ज्ञानस्तुत्यर्थं तामङ्गीकरोतीति द्योत्यते मयि वैष्णवे परमे पदे वर्तते स नित्यमुक्त एव मोक्षं प्रति न केनचित्प्रतिबुध्यत इत्यर्थः। यत्तु तदेवं भाक्तानि सुखान्यभिधायार्जुनोपदेशच्छलेन ज्ञानमार्गे लोकानां प्रवृत्तिसिद्धये भाक्तान् ज्ञानयोगिनोऽप्युत्तरोत्तरादिशयेनाह सर्वेति। यत्संन्यासात्प्रागेव गृहस्थः सन् सर्वभूतस्थं सर्वाणि भूतानि कार्यकारणाकारेण परिणतानि तत्स्थं तत्तादात्म्यभ्रमविषय इत्यात्मानं प्रत्यञ्चमीक्षते शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयतीत्येवं सर्वभूतान्यात्मतदात्म्यं भ्रमविषयाणीति शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयति सोऽन्योन्याध्यामज्ञानी अयोगयुक्तोऽपि कर्मयोगज्ञानयोगाभ्यामसंस्पृष्टोऽपि योगिनमभिधाय ततोऽघिकं तमाह य इति। मां सर्वज्ञं सर्वशक्तिकं सर्वत्र पश्यति सर्वभूतोष्वीश्वरो जीवकलया प्रविष्ट इति शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयति तस्यापातत एव ऐकात्म्यज्ञानसंपन्नस्याहं न प्रणश्यामि नान्तःकरणादपयामि स च मे मम संबन्धी सन् मत्प्रसादादेव न प्रणश्यति नानर्थ प्राप्तोतीत्यर्थः। अतः सोऽपि भाक्तो ज्ञानयोगी ज्ञेय इति भावः। ततोऽपि किंचिदधिकं तमाह सर्वेति। एतत्वामास्थिति इति जीवब्रह्मणोरौपाधिको भेद उपाधीनामसत्त्वादित्यापातज्ञानवानित्यर्थः। एवंभूतः सन् यो मां सर्वभूतेषु सेवते स सर्वथा आवर्तमानोऽपि संसारयात्रामनुवर्तनशीलोऽपि योगी ज्ञेयः। यतो मामनुवर्तते मां भजति पूर्वोक्तप्रकारएणेति ज्ञेयम्। तद्यदोरध्याहारेण योज्यमितीतरैः कल्पितं तदसत्। एतादृशकल्पनाया बह्वध्याहारग्रस्ताया अस्वारसिकायाः प्रकरणविरुद्धाया व्यर्थत्वात्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।6.31।।एतदेव स्पष्टयति सर्वभूतस्थितमिति। एकत्वमास्थितः सर्वत्र एक एवेश्वर इति स्थितः सर्वप्रकारेण वर्तमानोऽपि मय्येव वर्तते। एवमपरोक्षं पश्यतो ज्ञानफलं नियतमित्यर्थः। तथापि प्रायो नाधर्मं करोति कुर्वतस्तु महच्चेद्दुःखसूचकं भवतीत्युक्तं पुरस्तात्। आह चकदाचिदपि नाधर्मे बुद्दिर्विष्णुदृशां भवेत्। प्रमादात्तु कृतं पापं स्वल्पं भस्मीभविष्यति। आदिराजैस्तथा देर्वैः ऋषिभिः क्रियते कियत्। बाहुल्यात्कर्मणस्तेषां दुःखसूचकमेव तत् इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।6.31।।यस्मात्सर्वात्मैकत्वदर्शी अहमेव अतो नास्य मोक्षः प्रतिबध्यत इत्याह सर्वभूतेति। सर्वोपादानतया सर्वेषु भूतेषु सत्तारूपेण स्फुरणरूपेण च स्थितं मां परमात्मानं एकत्वं जीवब्रह्मणोरैक्यमास्थितः सन् भजति निर्विकल्पेन समाधिना सेवते स योगी व्युत्थानदशायां प्रारब्धकर्मवशाद्बाधितानुवृत्त्या देहमारूढः सर्वथा सर्वप्रकारेण याज्ञवल्क्यादिवत्कर्मत्यागेन वा वसिष्ठजनकादिवद्विहितकर्मणा वा दत्तात्रेयादिवन्निषिद्धकर्मणा वा वर्तमानोऽपि व्यवहरन्नपि मय्येव वर्तते न मत्तश्च्युतो भवति। यतो देवेभ्योऽपि नास्य भयमिति श्रूयतेतस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति च। नेत्यव्ययमप्यर्थे। देवा अपि तस्य ब्रह्मविदः अभूत्यै अनैश्चर्याय न ईशते न समर्था भवन्ति। यतोऽयमेषामात्मा इति श्रुत्यर्थः। स न पुनः संसारी पूर्ववद्भवतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।6.31।।योगदशायां सर्वभूतस्थितं माम् असंकुचितज्ञानैकाकारतया एकत्वम् आस्थितः प्राकृतभेदपरित्यागेन सुदृढं यो भजते स योगी व्युत्थानकाले अपि यथा तथा वर्तमानः स्वात्मानं सर्वभूतानि च पश्यन् मयि वर्तते माम् एव पश्यति। स्वात्मनि सर्वभूतेषु च सर्वदा मत्साम्यम् एव पश्यति इत्यर्थः।ततोऽपि काष्ठाम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।6.31।।न चैवंभूतो विधिकिंकरः स्यादित्याह सर्वभूतस्थितमिति। सर्वेषु भूतेषु स्थितं मामभेदमास्थित आश्रितो यो भजति स योगी ज्ञानी सन्सर्वथा कर्मत्यागेनापि वर्तमानो मय्येव वर्तते मुच्यते न तु भ्रश्यतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।6.31।।तृतीयां विपाकदशामाहेत्याह तत इति। अकर्मवश्यत्वाकारेणेश्वरसाम्यदर्शनं पूर्वश्लोकोक्तम्सर्वभूतस्थितं इत्यनेन तु कर्मरूपाविद्यावेष्टनविधुरत्वात् असङ्कुचितज्ञानाकारतया साम्यानुसन्धानम् तत्संस्कारप्रभावेन च व्युत्थानकालेऽपि स्वरसतस्तथाविधानुसन्धानानुवृत्तिश्चेत्येतदुच्यते।यो भजति ৷৷. स सर्वथा वर्तमानोऽपि इत्यनेन कालभेदः सिद्धः न च समाधिदशायामेव यथातथा वर्तमानत्वमुपपद्यते। सर्वभूतस्थितेन परमात्मनैकत्वानुसन्धानं नाम स्वस्यापि सर्वभूतस्थितत्वेन तदेकप्रकारत्वानुसन्धानं तच्चाणोरात्मनः स्वरूपेण न सम्भवति। धर्मतश्च परिशुद्धात्मनो व्याप्तिः वालाग्रः इत्यारभ्य स चानन्त्याय कल्पते श्वे.उ.5।9 इति श्रुतिसिद्धा। सूत्रञ्चप्रदीपवदावेशस्तथाहि दर्शयति ब्र.सू.4।4।15 इति अतोऽत्रापि साम्यं विवक्षितमिति दर्शयितुंअसंकुचितज्ञानकारतयैकत्वमास्थित इत्युक्तम्।प्राकृतभेदपरित्यागेन कर्मोपाधिकप्रकृतिविशेषसंसर्गकृतज्ञानतारतम्यरूपभेदपरित्यागेनेत्यर्थः। अनेनैकत्वोक्तेः स्वरूपभेदनिरासार्थत्वं परिहृतम्। सर्वात्मनां ब्रह्मापृथक्सिद्धत्वविवक्षयाऽप्येकत्वोक्तिश्च घटते। आस्थितशब्दस्य तात्पर्यार्थःसुदृढमिति। ततश्च व्युत्थानकालेऽपि तथाविधानुसन्धानप्रवाहहेतुभूतसंस्कारप्राबल्यं सूचितम्।मां भजति मत्समात्मावलोकनमपि हि मद्भजनमित्यभिप्रायः।सर्वथा इत्यस्य लौकिकक्रियाव्यापृतोऽपीत्यभिप्रायः।मयि वर्तते इत्यस्य परमात्मनि स्थितिर्नार्थः तस्य योग्ययोगिसा धारणत्वात्। अतो वृत्तिरत्र बुद्धिर्वृत्तिरित्यभिप्रायेणाहमामेव पश्यतीति। जीवदर्शनमात्रेण कथं परमात्मदर्शनं इत्यत्राह स्वात्मनीति। व्युत्थानकाले स्वात्मसाक्षात्काराभावेऽपि विशदपरोक्षानुसन्धाने परेषामपि तथात्वसिद्धेः फलितत्वोक्तिरियम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।6.31।।सर्वेति। यस्त्वेवं ज्ञानाविष्टः सोऽवश्यमेव (N ज्ञानाविष्टोऽसाववश्यमेव S वश्यमेकतया) एकतया भगवन्तं सर्वगतं विदन् सर्वावस्थागतोऽपि न लिप्यते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।6.31।।यो मां 30 इत्युक्तमेव पुनः किमर्थमुच्यते इत्यत आह एतदेवेति।एकत्वमास्थितः इत्यस्यान्यथाप्रतीतिनिरासार्थमर्थमाह एकत्वमिति।मयि वा मद्विकारे वा वर्तमानोऽपि इत्यपव्याख्याननिरासार्थमाह सर्वेति। न्यायेन वाऽन्यायेन वेत्यर्थः। अपव्याख्याने थाल्प्रत्ययो न युक्त इति भावः। भगवन्तं भजतो धर्माचरणं सर्वथाऽप्यकिञ्चित्करमिति प्रतीतिनिरासायाह एवमिति। अधर्माचरणेऽपीति शेषः। ज्ञानफलं मोक्षः। आनन्दह्रासादिकं तु विद्यत एवेति भावः। ननु ज्ञानिनो मोक्ष एवापेक्षितः सोऽधर्माचरणेऽपि न प्रतिबध्यते चेत् तत्किमधर्मं करोति इत्यत आह तथापीति। सर्वथाऽप्यकरणे सर्वथा वर्तमानोऽपीत्युक्तमयुक्तमित्यत उक्तम् प्राय इति। एतेननहीदृशस्य यथेष्टचेष्टता सम्भवति इति परकीयमस्मद्व्याख्यानदूषणमपि निरस्तं भवति प्रारब्धवशेन कदाचित्तथाभावदर्शनात्। कुतो न करोति इत्यत आह कुर्वतस्त्विति। अत्र प्रमाणमाह आह चेति। कियन्महदिति शेषः। कर्मणः प्रारब्धस्य बाहुल्यात् प्राबल्यात्। लोके प्रवृत्तिकर्मणो बाहुल्येन चित्तविक्षेपादिति वा।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।6.31।।एवं त्वंपदार्थं त्पदार्थं च शुद्धं निरूप्य तत्त्वमसीति वाक्यार्थं निरूपयति सर्वेषु भूतेष्वधिष्ठानतया स्थितं सर्वानुस्यूतसन्मात्रं मामीश्वरं तत्पदलक्ष्यं स्वेन त्वंपदलक्ष्येण सहैकत्वमत्यन्ताभेदमास्थितो घटाकाशो महाकाश इत्यत्रेवोपाधिभेदनिराकरणेन निश्चिन्वन् यो भजति अहं ब्रह्मास्मीति वेदान्तवाक्यजेन तत्त्वसाक्षात्कारेणापरोक्षीकरोति सोऽविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या जीवन्मुक्तः कृतकृत्य एव भवति। यावत्तु तस्य बाधितानुवृत्त्या शरीरादिदर्शनमनुवर्तते तावत्प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्सर्वकर्मत्यागेन वा याज्ञवल्क्यादिवद् विहितेन कर्मणा वा जनकादिवत् प्रतिषिद्धेन कर्मणा वा दत्तात्रेयादिवत् सर्वथा येन केनापि रूपेण वर्तमानोऽपि व्यवहरन्नपि स योगी ब्रह्माहमस्मीति विद्वान्मयि परमात्मन्येवाभेदेन वर्तते। सर्वथा तस्य मोक्षंप्रति नास्ति प्रतिबन्धशङ्का।तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति श्रुतेः। देवा महाप्रभावा अपि तस्य मोक्षाभवनाय नेशते किमुतान्ये क्षुद्रा इत्यर्थः। ब्रह्मविदो निषिद्धकर्मणि प्रवर्तकयो रागद्वेषयोरसंभवेन निषिद्धकर्मासंभवेऽपि तदङ्गीकृत्य ज्ञानस्तुत्यर्थमिदमुक्तं सर्वथा वर्तमानोऽपीतिहत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते इतिवत्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।6.31।।किञ्च यः सर्वभूतस्थितं सर्वजीवेषु रसभोगार्थं वाऽलौकिकेषु निरोधार्थं स्थितं एकत्वं भगवदीयत्वेन सजातीयत्वमास्थितं मां भजति स योगी उच्यते। अथवा सर्वथा तेषु दास्यादिभावशिक्षणार्थं वर्त्तमानो यः स मयि च वर्तते मत्स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।6.31।। सर्वथा सर्वप्रकारैः वर्तमानोऽपि सम्यग्दर्शी योगी मयि वैष्णवे परमे पदे वर्तते नित्यमुक्त एव सः न मोक्षं प्रति केनचित् प्रतिबध्यते इत्यर्थः।।किञ्च अन्यत्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।6.31।।यश्चैवमेकत्वमास्थितोऽपि मां वासुदेवं भजति सेवते मत्प्रवणं चेतः करोति स योगी मयि मदाधारो भवति। मत्किङ्करः शुक इव उद्धव इव भवतीत्यर्थः।ज्ञानी चेद्भजते कृष्णं तस्मान्नास्त्यधिकः परः इति वाक्यात्।


Chapter 6, Verse 31