यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।6.26।।
yato yato niśhcharati manaśh chañchalam asthiram tatas tato niyamyaitad ātmanyeva vaśhaṁ nayet
yataḥ yataḥ—whenever and wherever; niśhcharati—wanders; manaḥ—the mind; chañchalam—restless; asthiram—unsteady; tataḥ tataḥ—from there; niyamya—having restrained; etat—this; ātmani—on God; eva—certainly; vaśham—control; nayet—should bring
Wherever the fickle and unsteady mind wanders, one should subdue it and then bring it back under the control of the self alone.
The yogi should bring this mind under the subjugation of the Self itself, restraining it from all those causes that cause the restless, unsteady mind to wander away.
From whatever cause the restless and unsteady mind wanders away, let him restrain it from that and bring it under the control of the Self alone.
By whatever things the shaky and unsteady mind strays, let him restrain it from those things and bring it back under the control of the Self alone.
When the volatile and wavering mind wanders, let him restrain it and bring it back to its allegiance to the Self.
।।6.26।। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँसे हटाकर इसको एक परमात्मामें ही लगाये।
।।6.26।। यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।
6.26 यतःयतः from whatever cause? निश्चरति wanders away? मनः mind? चञ्चलम् restless? अस्थिरम् unsteady? ततःततः from that? नियम्य having restrained? एतत् this? आत्मनि in the Self? एव alone? वशम् (under) control? नयेत् let (him) bring.Commentary In this verse the Lord gives the method to control the mind. Just as you drag the bull again and again to your house when it runs out? so also you will have to drag the mind to your point or centre or Lakshya again and again when it runs towards the external objects. If you give good cotton seed extract? sugar? plantains? etc.? to the bull? it will not turn away but will remain in your house. Even so if you make the mind taste the eternal bliss of the Self within little by little by the practice of concentration? it will gradually abide in the Self only and will not run towards the external objects of the senses. Sound and the other objects only make the mind restless and unsteady. By knowing the defects of the objects of sensual pleasure? by understanding their illusory nature? by the cultivation of discrimination between the Real and the unreal and also dispassion? and by making the mind understand the glory and the splendour of the Self you can wean the mind entirely away from sensual objects and fix it firmly on the Self.
।।6.26।। व्याख्या--'यतो यतो निश्चरति ৷৷. आत्मन्येव वशं नयेत्'--साधकने जो ध्येय बनाया है, उसमें यह मन टिकता नहीं, ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरहके सांसारिक भोगोंका, पदार्थोंका चिन्तन करता है। अतः इसको 'चञ्चल' कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मामें स्थिर होता है और न संसारको ही छोड़ता है। इसलिये साधकको चाहिये कि यह मन जहाँ-जहाँ जाय, जिस-जिस कारणसे जाय, जैसे-जैसे जाय और जब-जब जाय, इसको वहाँ-वहाँसे, उस-उस कारणसे वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मामें लगाये। इस अस्थिर और चञ्चल मनका नियमन करनेमें सावधानी रखे, ढिलाई न करे।मनको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थोंका चिन्तन कर रहा है, तभी ऐसा विचार करे कि चिन्तनकी वृत्ति और उसके विषयका आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मामें मन लगाना है।
।।6.26।। पूर्व दो श्लोकों से साधकों के मन में उत्साह आता है परन्तु जब वे अभ्यास में प्रवृत्त होते हैं तब जो कठिनाई आती है उससे उन्हें कुछ निराशा होने लगती है। प्रत्येक साधक यह अनुभव करता है कि उसका मन समस्त विरोधों को तोड़ता हुआ ध्येय विषय से हटकर पुन विषयों का चिन्तन करने लगता है। कारण यह है कि मन का स्वभाव ही है चंचलता और अस्थिरता। न वह किसी एक विषय का सतत अनुसन्धान कर पाता है और न विभिन्न विषयों का। चंचल और अस्थिर इन दो विशेषणों के द्वारा भगवान् ने मन का सुस्पष्ट और वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है जो सभी साधकों का अपना स्वयं का अनुभव है। ये दो शब्द इतने प्रभावशाली हैं कि आगे हम देखेंगे कि अर्जुन अपनी एक शंका को पूछते हुये इन्हीं शब्दों का प्रयोग करता है।यद्यपि ध्यान के समय साधक अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तथापि मन पूर्व अनुभवों की स्मृति से विचलित होकर पुन विषयों का चिन्तन प्रारंभ करने लगता है ये क्षण एक सच्चे साधक के लिए घोर निराशा के क्षण होते हैं। मन का यह भटकाव अनेक कारणों से हो सकता है जैसे भूतकाल की स्मृतियां किसी आकर्षक वस्तु का सामीप्य किसी से राग या द्वेष और यहाँ तक कि आध्यात्मिक विकास के लिए अधीरता भी। भगवान् का उपदेश हैं कि मन के विचरण का कोई भी कारण हो साधक को निराश और अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। उसको यह समझना चाहिए कि अस्थिरता तो मन का स्वभाव ही है और ध्यान का प्रयोजन ही मन के इस विचरण को शांत करना है।साधक को उपदेश दिया गया है कि जबजब यह मन ध्येय को छोड़कर विषयों की ओर जाय तबतब उसे वहाँ से परावृत्त करके ध्येय में स्थिर करे। दृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा कुछ सीमा तक मन को विषयों से निवृत्त किया जा सकता है परन्तु वह पुन उनकी ही ओर जायेगा। साधकगण भूल जाते हैं कि वृत्तिप्रवाह ही मन है और इसलिए वृत्तिशून्य होने पर मन रहेगा ही नहीं अत विषयों से मन को निवृत्त करने के पश्चात् साधक को यह आवश्यक है कि उस समाहित मन को आत्मानुसंधान में प्रवृत्त करे। भगवान् इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि मन को पुन आत्मा के ही वश में लावे।अगले कुछ श्लोकों में योगी पर इस योग का क्या प्रभाव होता है उसे बताया गया है
।।6.26।।ननु मनसः शब्दादिनिमित्तानुरोधेन रागद्वेषवशादत्यन्तचञ्चलस्यास्थिरस्य तत्र तत्र स्वभावेन प्रवृत्तस्य कुतो नैश्चल्यं नैश्चिन्त्यं चेति तत्राह तत्रेति। योगप्रारम्भः सप्तम्यर्थः। एवंशब्देन मनसैवेत्यादिरुक्तप्रकारो गृह्यते। स्वाभाविको दोषो मिथ्याज्ञानाधीनो रागादिः। शब्दादेर्मनसो नियमनं कथमित्याशङ्क्याह तत्तन्निमित्तमिति। याथात्म्यनिरूपणं क्षयिष्णुत्वदुःखसंमिश्रत्वाद्यालोचनं तेन तत्र तत्र वैराग्यभावनया तत्तदाभासीकृत्य ततस्ततो नियम्यैतन्मन इति संबन्धः। मनोवशीकरणेनोपशमे किं स्यादित्याशङ्क्याह एवमिति। योगाभ्यासो विषयविवेकद्वारा मनोनिग्रहाद्यावृत्तिः। प्रशान्तमात्मन्येव प्रलीनमिति यावत्।
।।6.26।।ननु मनसः शब्दादिनिमित्तानुरोधेन रागद्वेषवशादतिच्चलस्यास्थिरस्य स्वभावादेव तत्रतत्र विषये प्रवृत्त्स्य नैश्चल्यं नैश्चिन्त्यं वा कुत इत्याशङ्क्याह यत इति। एवमात्मसंस्थं मनः कर्तुं प्रवृत्तो योगी यतो यतो यस्माद्यस्मान्निमित्ताच्छब्दादेर्निःसरति निर्गच्छति स्वभावदोषान्मनश्चञ्चलमतएवास्थिरं लयाभिमुखं। ततस्ततस्तस्मात्त्स्माच्छब्दादेर्निमित्तान्नियम्य तत्तच्छब्दादिनिमित्तं क्षयिष्णुत्वदुःखसंमिश्रत्वाद्यालोचनेन तत्रतत्र वैराग्यभावनयाऽभावीकृत्यात्मन्येवैतन्मनो वशं नयेदात्मवशतामापादयेत्।
।।6.26।।यतो यतो यत्र यत्रयतो यतो धावति भाग.10।1।42 इत्यादिप्रयोगात्। आत्मन्येव वशं नयेत् आत्मविषय एव वशीकुर्यादित्यर्थः।
।।6.26।।शनैः शनैरित्येतं श्लोकं व्याचष्टे यतो यत इति त्रिभिः। यतो यतो हेतोर्यं यं विषयं ग्रहीतुं मनो निश्चरति बहिर्गच्छति ततस्ततस्तत्रतत्र दोषदर्शनेन ततस्ततो विषयादेतन्मनो नियम्य प्रत्याहृत्य आत्मनि स्वरूपे एव वशं नयेत्पर्यवस्थापयेत्। एतेन पूर्वार्धं व्याख्यातम्।
।।6.26।।चलस्वभावतया आत्मनि अस्थिरं मनः यतो यतो विषयप्रावण्यहेतोः बहिः निश्चरति ततः ततो यत्नेन मनो नियम्य आत्मनि एव अतिशयितसुखभावनया वशं नयेत्।
।।6.26।।एवमपि रजोगुणवशाद्यदि मनः प्रचलेत्तर्हि पुनः प्रत्याहारेण वशीकुर्यादित्याह यत इति। स्वभावतश्चञ्चलं धार्यमाणमप्यस्थिरं मनो यं यं विषयं प्रति निर्गच्छति ततस्ततः प्रत्याहृत्यात्म्यन्येव स्थिरं कुर्यात्।
।।6.26।।पूर्वोक्तमेव दुर्ग्रहत्वद्योतनाय अवधानविधानाय च प्रपञ्चयति यतो यत इति।चञ्चलं अस्थिरम् इत्यनयोः पौनरुक्त्यनिरासायोक्तंचलस्वभावतयात्मन्यस्थिरमिति। सामान्यविशेषविषयत्वादपुनरुक्तिः।चञ्चलम् इति स्वभावातिरिक्तहेतुनिवृत्तिपरं वा। यतो यतो निश्चरति येन येनेन्द्रियद्वारेण निश्चरतीत्यर्थः। यद्वा यं यं विषयमभिमुखीकृत्वेत्यर्थः। प्रयोजनतया वा हेतौ पञ्चमी। तद्व्यञ्जनायाहविषयप्रावण्यहेतोरिति। विषयसम्बन्धार्थमित्यर्थः। विषयप्रावण्यस्य हेतोरिति वा। सम्भवन्ति ह्यतर्कितोपनता विषयसन्निधानतत्कीर्तनादयो विषयप्रावण्यहेतवः। सुखभावनया वशीकरणं शक्यमित्युच्यतेअतिशयितसुखभावनयेति।
।।6.26 6.28।।न च विषयव्युपरममात्रमेव प्राप्यमित्युच्यते यत इत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। यतो यतो मनो निवर्तते तन्निवर्तनसमनन्तरमेव आत्मनि शमयेत्। अन्यथा अप्रतिष्ठं चित्तं पुनरपि विषयानेवावलम्बते। तत्र आत्मनि शान्तचित्तं योगिनं कर्मभूतं सुखं कर्तृभूतम् उपैति। अनेनैव क्रमेण योगिनां सुखेन ब्रह्मावाप्तिः न तु कष्टयोगादिनेति तात्पर्यम्।
।।6.26।।यतो यतः श्रोत्रादेरिति प्रतीतिनिरासायाह यत इति। शब्दादावित्यर्थः। कुतः सप्तम्यर्थे तसिर्लभ्यते इत्यत आह यत इति। तथा चोक्तंआद्यादिभ्य उपसंख्यानं वार्ति. इति। अन्यथा द्वारमात्रनियमे स्मरणस्य को निवारयिता षष्ठ्या ह्यत्र भाव्यं सप्तमी तु कथं इत्यत आह आत्मनीति।
।।6.26।।एवं निरोधसमाधिं कुर्वन्योगी शब्दादीनां चित्तविक्षेपहेतूनां मध्ये यतो यस्माद्यस्मान्निमित्ताच्छब्दादेर्विषयाद्रागद्वेषादेश्च चञ्चलं विक्षेपाभिमुखं सन्मनो निश्चरति विक्षिप्तं सद्विषयाभिमुखीं प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतीनामन्यतमामपि समाधिविरोधिनींवृत्तिमुत्पादयति तथा लयहेतूनां निद्राशेषबह्वशनश्रमादीनां मध्ये यतो यतो निमित्तादस्थिरं लयाभिमुखं सन्मनो निश्चरति लीनं सत्समाधिविरोधिनीं निद्राख्यां वृत्तिमुत्पादयति ततस्ततो विक्षेपनिमित्ताल्लयनिमित्ताच्च नियम्यैतन्मनो निर्वृत्तिकं कृत्वात्मन्येव स्वप्रकाशपरमानन्दघने वशं नयेन्निरुन्ध्यात्। यथा न विक्षिप्येत न वा लीयेतेति। एवकारो नात्मगोचरत्वं समाधेर्वारयति। एतच्च विवृतं गौडाचार्यपादैःउपायेन निगृह्णीयाद्विक्षिप्तं कामभोगयोः। सुप्रसन्नं लये चैव यथा कामो लयस्तथा।।दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगान्निवर्तयेत्। अजं सर्वमनुस्मृत्य जातं नैव तु पश्यति।।लये संबोधयेच्चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्पुनः। सकषायं विजानीयात्समप्राप्तं न चालयेत्।।नास्वादयेत्सुखं तत्र निःसङ्गः प्रज्ञया भवेत्। निश्चलं निश्चरच्चित्तमेकीकुर्यात्प्रयत्नतः।।यदा न लीयते चित्तं नच विक्षिप्यते पुनः। अनिङ्गनमनाभासं निष्पन्नं ब्रह्म तत्तदा।। इति पञ्चभिः श्लोकैः। उपायेन वक्ष्यमाणेन वैराग्याभ्यासेन कामभोगयोर्विक्षिप्तं प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतीनामन्यतमयापि वृत्त्या परिणतं मनो निगृह्णीयान्निरुन्ध्यात्। आत्मन्येवेत्यर्थः। कामभोगयोरिति चिन्त्यमानावस्थाभुज्यमानावस्थाभेदेन द्विवचनम्। तथा लीयतेऽस्मिन्निति लयः सुषुप्तं तस्मिन्सुप्रसन्नमायासवर्जितमपि मनो निगृह्णीयादेव। सुप्रसन्नं चेत्कुतो निगृह्यते तत्राह यथा कामो विषयगोचरप्रमाणादिवृत्त्युत्पादनेन समाधिविरोधी तथा लयोऽपि निद्राख्यवृत्त्युत्पादनेन समाधिविरोधी। सर्ववृत्तिनिरोधो हि समाधिः। अतः कामादिकृतविक्षेपादिव श्रमादिकृतलयादपि मनो निरोद्धव्यमित्यर्थः। उपायेन निगृह्णीयात्केनेत्युच्यते। सर्वं द्वैतमविद्याविजृम्भितमल्पं दुःखमेवेत्यनुसृत्ययो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति। अथ यदल्पं तन्मर्त्यं तद्दुःखम् इति श्रुत्यर्थं गुरूपदेशादनु पश्चात्पर्यालोच्य कामांश्चिन्त्यमानावस्थान्विषयान्भोगान्भुज्यमानावस्थांश्च विषयान्निवर्तयेत्। मनसः सकाशादिति शेषः। कामश्च भोगश्च कामभोगं तस्मान्मनो निवर्तयेदिति वा। एंव द्वैतस्मरणकाले वैराग्यभावनोपाय इत्यर्थः। द्वैतविस्मरणं तु परमोपाय इत्याह अजं ब्रह्म सर्वं न ततोऽतिरिक्तं किंचिदस्तीति शास्त्राचार्योपदेशादनन्तरमनुस्मृत्य तद्विपरीतं द्वैतजातं न पश्यत्येव। अधिष्ठाने ज्ञाते कल्पितस्याभावात्। पूर्वोपायापेक्षया वैलक्षण्यसूचनार्थस्तुशब्दः। एवं वैराग्यभावनातत्त्वदर्शनाभ्यां विषयेभ्यो निवर्त्यमानं चित्तं यदि दैनंदिनलयाभ्यासवशाल्लयाभिमुखं भवेत्तदा निद्राशेषाजीर्णबह्वशनश्रमाणां लयकारणानां निरोधेन चित्तं सम्यक् प्रबोधयेदुत्थानप्रयत्नेन। यदि पुनरेवं प्रबोध्यमानं दैनंदिनप्रबोधाभ्यासवशात्कामभोगयोर्विक्षिप्तं स्यात्तदा वैराग्यभावनया तत्त्वसाक्षात्कारेण च पुनः शमयेत्। एवं पुनःपुनरभ्यस्यतो लयात्संबोधितं विषयेभ्यश्च व्यावर्तितं नापि समप्राप्तमन्तरालावस्थं चित्तं स्तब्धीभूतं सकषायं रागद्वेषादिप्रबलवासनावशेन स्तब्धीभावाख्येन कषायेण दोषेण युक्तं विजानीयात्समाहिताच्चित्ताद्विवेकेन जानीयात्। ततश्च नेदं समाहितमित्यवगम्य लयविक्षेपाभ्यामिव कषायादपि चित्तं निरुन्ध्यात्। ततश्च लयविक्षेपकषायेषु परिहृतेषु परिशेषाच्चित्तेन समं ब्रह्म प्राप्यते। तच्च समप्राप्तं चित्तं कषालयभ्रान्त्या न चालयेद्विषयाभिमुखं न कुर्यात् किंतु धृतिगृहीतया बुद्ध्या लयकषायप्राप्तेर्विविच्य तस्यामेव समप्राप्तावतियत्नेन स्थापयेत्। तत्र समाधौ परमसुखव्यञ्जकेऽपि सुखं नास्वादयेत्। एतावन्तं कालमहं सुखीति सुखास्वादरूपां वृत्तिं न कुर्यात् समाधिभङ्गप्रसङ्गादिति प्रागेव कृतव्याख्यानम्। प्रज्ञया यदुपलभ्यते सुखं तदप्यविद्यापरिकल्पितं मृषैवेत्येवं भावनया निःसङ्गो निःस्पृहः सर्वसुखेषु भवेत्। अथवा प्रज्ञया सविकल्पसुखाकारवृत्तिरूपया सह सङ्गं परित्यजेन्नतु स्वरूपसुखमपि निर्वृत्तिकेन चित्तेन नानुभवेत्। स्वभावप्राप्तस्य तस्य वारयितुमशक्यत्वात्। एवं सर्वतो निवर्त्य निश्चलं प्रयत्नवशेन कृतं चित्तं स्वभावचाञ्चल्याद्विषयाभिमुखतया निश्चरद्बहिर्निर्गच्छत् एकीकुर्यात्। प्रयत्नतः निरोधप्रयत्नेन समे ब्रह्मण्येकतां नयेत्। समप्राप्तं चित्तं कीदृशमुच्यते यदा न लीयते नापि स्तब्धीभवति तामसत्वसाम्येन लयशब्देनैव स्तब्धीभावस्योपलक्षणात्। नच विक्षिप्यते पुनः न शब्दाद्याकारवृत्तिमनुभवति। नापि सुखमास्वादयति राजसत्वसाम्येन सुखास्वादस्यापि विक्षेपशब्देनोपलक्षणात्। पूर्वं भेदनिर्देशस्तु पृथक्प्रयत्नकरणाय। एंव लयकषायाभ्यां विक्षेपसुखास्वादाभ्यां च रहितमनिङ्गमिङ्गनं चलनं सवातप्रदीपवल्लयाभिमुखरूपं तद्रहितं निवातप्रदीपकल्पम्। अनाभासं न केनचिद्विषयाकारेणाभासत इत्येतत्। कषायसुखास्वादयोरुभयान्तर्भाव उक्त एव। यदैवं दोषचतुष्टयरहितं चित्तं भवति तदा तच्चित्तं ब्रह्म निष्पन्नं समं ब्रह्मप्राप्तं भवतीत्यर्थः। एतादृशश्च योगः श्रुत्या प्रतिपादितःयदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्। अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। इति। एतन्मूलकमेव चयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति सूत्रम्। तस्माद्युक्तं ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेदिति।
।।6.26।।शनैरित्युक्तेः स्वरूपमाह यत इति। मनो यतो यतः स्वभावतश्चञ्चलं अस्थिरं यं यं प्रति निश्चलति ततस्ततो नियम्य वशीकृत्य एतन्मन आत्मन्येव भावात्मके भगवत्येव वशं नयेत् प्रापयेत्। अत्रायं भावः पूर्वं यत्र स्थितं मनस्ततोऽन्यत्र वैशिष्ट्यबुद्ध्या ततो निर्गत्याऽपगच्छति। तत्राऽपि स्वचाञ्चल्यधर्मेण न स्थिरीभविष्यति तस्माद्भगवत्स्वरूपतोऽन्यत्रोत्तमत्वाभावान्नाग्रे चलिष्यत्यतोऽन्यतो वशीकृत्य भगवति स्थापयेत्।
।।6.26।। यतो यतः यस्माद्यस्मात् निमित्तात् शब्दादेः निश्चरति निर्गच्छति स्वभावदोषात् मनः चञ्चलम् अत्यर्थं चलम् अत एव अस्थिरम् ततस्ततः तस्मात्तस्मात् शब्दादेः निमित्तात् नियम्य तत्तन्निमित्तं याथात्म्यनिरूपणेन आभासीकृत्य वैराग्यभावनया च एतत् मनः आत्मन्येव वशं नयेत् आत्मवश्यतामापादयेत्। एवं योगाभ्यासबलात् योगिनः आत्मन्येव प्रशाम्यति मनः।।
।।6.26।।सङ्कल्पेति। आत्मन्येव वशं नयेत् प्रत्याहारेण स्थिरं कुर्यादिति निर्बीजत्वमुक्तम्।
Chapter 6, Verse 26