भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
bhīṣhma-droṇa-pramukhataḥ sarveṣhāṁ cha mahī-kṣhitām uvācha pārtha paśhyaitān samavetān kurūn iti
bhīṣhma—Grandsire Bheeshma; droṇa—Dronacharya; pramukhataḥ—in the presence; sarveṣhām—all; cha—and; mahī-kṣhitām—other kings; uvācha—said; pārtha—Arjun, the son of Pritha; paśhya—behold; etān—these; samavetān—gathered; kurūn—descendants of Kuru; iti—thus
Sanjaya said: Thus addressed by Arjuna, Sri Krishna drew up the best of chariots between the two armies, in full view of Bhisma, Drona, and all the other kings, O Dhrtarastra. He then said, "O Arjuna, behold these assembled Kauravas."
Sanjaya said, "O scion of the line of Bharata (Dhrtarashtra), Hrsikesa, being told so by Gudakesa (Arjuna), placed the excellent chariot between the two armies, in front of Bhisma and Drona as well as all the rulers of the earth, and said, 'O Partha (Arjuna), behold these assembled people of the Kuru dynasty.'"
In front of Bhishma and Drona, and all the rulers of the earth, he said: "O Arjuna, son of Pritha, behold these Kurus gathered together."
There in both the armies, the son of Prtha observed his fathers, paternal grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, sons' sons, and comrades, fathers-in-law, and also friends.
Where Bheeshma and Drona had led all the rulers of the earth, they spoke thus: O Arjuna! Behold, these members of the family of Kuru are assembled.
।।1.24 -- 1.25।। संजय बोले - हे भरतवंशी राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस तरह कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख'।
।।1.25।। भीष्म, द्रोण तथा पृथ्वी के समस्त शासकों के समक्ष उन्होंने कहा, "हे पार्थ यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो"।
1.25 भीष्मद्रोणप्रमुखतः in front of Bhishma and Drona? सर्वेषाम् of all? च and? महीक्षिताम् rulers of the earth? उवाच said? पार्थ O Partha? पश्य behold? एतान् these? समवेतान् gathered? कुरून् Kurus? इति thus.No Commentary.
1.25।। व्याख्या-- 'गुडाकेशेन'--'गुडाकेश' शब्दके दो अर्थ होते हैं (1) 'गुडा' नाम मुड़े हुएका है और 'केश' नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं, उसका नाम 'गुडाकेश' है। (2) 'गुडाका' नाम निद्राका है और 'ईश' नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले--ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम 'गुडाकेश' है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको 'गुडाकेश' कहा गया है। 'एवमुक्तः'-- जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान्का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया। 'हृषीकेशः'-- इन्द्रियोंका नाम 'हृषीक' है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ 'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है! 'सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्'-- दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान्ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया। 'भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्'-- उस रथको भी भगवान्ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्यमुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें। 'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति कुरु'-- पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र--ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख--ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों; चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके --इसी भावसे भगवान्ने यहाँ 'पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्' कहा है। नहीं तो भगवान् 'पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति'-- ऐसा भी कर सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको 'कुरुन् पश्य' कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे। अर्जुनने कहा था कि 'इनको मैं देख लूँ'-- 'निरीक्षे' (1। 22) 'अवेक्षे' (1। 23); अतः यहाँ भगवान्को 'पश्य' (तू देख ले)--ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान्को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही 'कुरुन् पश्य' (इन कुरुवंशियोंको देख)--ऐसा कहा है। कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम--इन दोनोंमें बहुत अन्तर है। कुटुम्बमें ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'ये मेरे हैं'--ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान्का भक्तमें विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान्का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'यह मेरा ही है'--ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें क्रिया तथा पदार्थ-(शरीरादि-) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें मूढ़ता-(मोह-) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्यपालनमें विस्मृति तो हो सकती है पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान्की प्रधानता होती है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कुरूवंशियोंको देखनेके लिये कहा। उसके बाद क्या हुया इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकोंमें करते हैं।
।।1.25।। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को भीष्म और द्रोण दोनों के सम्मुख एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। एक कर्तव्यनिष्ठ सारथि के समान वे अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ यहाँ एकत्र हुए इन कौरवों को देखो। सम्पूर्ण प्रथम अध्याय में केवल ये ही शब्द हैं जिन्हें भगवान ने कहा है। उन शब्दों ने उस चिनगारी का काम किया जिसने अर्जुन के अहंकार पर आधारित झूठे मूल्यों एवं धारणाओं के महल को जलाकर राख कर दिया। इसके पश्चात् हम देखेंगे कि इन शब्दों की अर्जुन पर क्या प्रतिक्रिया हुई और किस प्रकार उसका मन टूटकर बिखर गया।पार्थ का अर्थ है पृथापुत्र अर्जुन। पृथा कुन्ती का दूसरा नाम है। इस संस्कृत शब्द पार्थ में पार्थिव की गन्ध मिलती है जिसका अर्थ हैमृत्तिका निर्मित। यह सम्बोधन अत्यन्त अर्थपूर्ण है। इसका तात्पर्य यह है कि गीता सत्य का संदेश है जिसे अमृत स्वरूप भगवान् ने मनुष्य के सार्वकालिक प्रतिनिधि र्मत्य पुरुष अर्जुन को सुनाया है।
।।1.25।।भीष्मद्रोणादीनामन्येषां च राज्ञामन्तिके रथं स्थापयित्वा भगवान्किं कृतवानिति तदाह उवाचेति। एतानभ्याशे वर्तमानान्कुरून्कुरुवंशप्रसूतान्भवद्भिः सार्धं युद्धार्थं संगतान्पश्य। दृष्ट्वा च यैः सहात्र युयुत्सा तवोपावर्तते तैः साकं युद्धं कुरु। नो खल्वेतेषां शस्त्रास्त्रशिक्षावतां महीक्षितामुपेक्षोपपद्यते सारथ्ये तु न मनः खेदनीयमित्यर्थः।
।।1.24 1.25।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच एवमित्यादि। यत्तु एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारुपं धर्ममाश्रित्य प्रायशस्तं युद्धाह्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य संजय उवाचेति तदुपेक्ष्यम्। युद्धमेव जातमिति श्रुतवत एवमभिप्रायवर्णनस्यानुचितत्वात्। एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण गुडाकेशेनार्जुनेनोक्तो हृषीकेशो भगवान्वासुदेवः सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वोत्तमयोः सर्वेषां च महीक्षितां महीपतीनां प्रमुखतः संमुखे रथोत्तमं दिव्यं रथं स्थापयित्वोवाचोक्तवान्। पार्थ एतान्कुरुन्भीष्मादीन्समवेतान्युद्धार्थं मिलितान्पश्येति द्वयोरर्थः। तथाच यस्याज्ञामीश्वरोऽप्यङगीकरोति तस्यार्जुनस्य माहात्म्यं किं वक्तव्यमिति भावः। हे भारत भरतवंशोद्भवत्वाच्छोकं मा कुर्वित्याशयः। भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाशय इति केचित्। गुडाकेशेन जिताज्ञाननिद्रेणैवमुक्तो हृषीकेशः सर्वेन्द्रियनियन्ता लोकोद्धाराय स्वस्वरुपभूतस्यार्जुनस्यान्तःकरणे शोकमोहयोराविर्भावयिता सेनयोरुभयोंर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वेषां च राज्ञां प्रमुखतः रथोत्तमं स्थापयित्वोवाच। हे पार्थ लोकोद्धाराय स्त्रीस्वभावौ शोकमोहावङ्गीकुरु। कथमित्यपेक्षायामाह। एतान्मिलितान्कुरुन्सर्वान्स्वबान्धवान्पश्य दृष्ट्वा चैते मदीया एतानहं न हन्मीति निर्विण्णो भवेति हृषीकेशादिपदैस्तात्पर्यार्थः सूचितः। हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवान् अर्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावत्वेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वित्तोपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्या पुत्रोऽसीति। तत्संबन्धोल्लेखेनवाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं त्यक्षयसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम्। अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावदेव ब्रूयादिति केचित्।
।।1.25।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।1.25।।महीक्षितां पृथिवीश्वराणाम्।
।।1.25।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.25।।भीष्मद्रोणेति। महीक्षितां पितामहद्रोणराज्ञां च प्रमुखतः संमुखे रथं स्थापयित्वा हे पार्थ एतान्कुरून्पश्येत्युवाच।
।।1.25।।एवमुक्तः इत्यादेःमहीक्षिताम् इत्यन्तस्यार्थमाह स चेति। अर्जुनवचनरथस्थापनयोर्व्यवधायकाभावफलितमुक्तंतत्क्षणादेवेति।भीष्मद्रोणप्रमुखतः इत्यत्र प्रमुखशब्दः आदिशब्दसमानार्थः तद्गतस्तसिप्रत्ययश्च सार्वविभक्तिकत्वात् षष्ठीबहुवचनार्थ इत्यभिप्रायेणोक्तंभीष्मद्रोणादीनामिति। तथाचकारोऽवधारणार्थ इति दर्शयितुंसर्वेषामेवेत्युक्तम्। अनादरे षष्ठीति व्यञ्जनायपश्यतामिति पदाध्याहारः। यद्वा प्रमुखतः अग्रत इत्यर्थः। तदेवमहीक्षिताम् इत्यत्रापि बुद्ध्या निष्कृष्य योजनीयम् तदा चकारः समुच्चयार्थः। भाष्ये त्वेवकारोऽपि तदर्थ एव पश्यतामिति फलितार्थोक्तिः।उवाच पार्थ इत्यस्य तात्पर्यमाह ईदृशीति।एतान्समवेतान् इति जेतव्यसमुदायप्रदर्शनेन विजयस्थितिरभिप्रेतेति भावः। यद्वा धार्तराष्ट्रकर्मकविजयस्थितिरित्यर्थः। धृतराष्ट्रं प्रति सञ्जयवाक्याभिप्रायेणभवदीयानामित्युक्तम्। अथवा धार्तराष्ट्रकर्तृकविजयस्थितिरित्यमित्युपालम्भगर्भमवोचदित्यर्थः। अयमेवार्थ उचितः अर्जुनं प्रति कृष्णेन भवतामित्येतावन्मात्रस्य वक्तव्यत्वात्। धृतराष्ट्रं प्रति तुभवत्पुत्राणाम् पृ.40रा.भा. इति पूर्वोक्तवत्भवदीयान्विलोक्य पृ.46रा.भा. इति वक्ष्यमाणवच्चात्रापि भवदीयनिर्देशोपपत्तेः।किमकुर्वत 1।1 इति गूढाभिसन्धेः पृच्छतो धृतराष्ट्रस्य गूढाभिसन्धिः सञ्जयो धार्तराष्ट्रहृदयविदारणादिकमेवमकथयत्।
।।1.25।।No commentary.
।।1.25।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।। 1.25एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारूपं धर्ममाश्रित्य प्रायशो युद्धात्तं व्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य तन्निराचिकीर्षुः संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। हे भारत धृतराष्ट्र भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाभिप्रायः। गुडाकाया निद्राया ईशेन जितनिद्रतया सर्वत्र सावधानेनार्जुनेनैवमुक्तो भगवान् अयं मद्भृत्योऽपि सारथ्ये मां नियोजयतीति दोषमासज्य नाकुप्यत् नवा तं युद्धान्न्यवर्तयत् किंतु सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणप्रमुखतः तयोः प्रमुखे संमुखे सर्वेषां महीक्षितां च संमुखे। आद्यादित्वात्सार्वविभक्तिकस्तसिः। चकारेण समासनिविष्टोऽपि प्रमुखतःशब्द आकृष्यते। भीष्मद्रोणयोः पृथक्कीर्तनमतिप्राधान्यसूचनाय। रथोत्तममग्निना दत्तं दिव्यं रथं भगवता स्वयमेव सारथ्येनाधिष्ठिततया च सर्वोत्तमं स्थापयित्वा हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवानार्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच। हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वत्ता समुपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्याः पुत्रोऽसीति संबन्धोल्लेखेन चाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं लक्ष्यसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम् अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावन्मात्रं ब्रूयात्।
।।1.25।।भीष्मद्रोणौ च परमयुद्धविशारदाविति तत्प्रमुखतः रथं स्थापयित्वा सर्वेषां महीक्षितां राज्ञां च हे पार्थ समवेतान् मिलितान् कुरूनेतान् पश्येत्युवाच।
1.25 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।1.24 1.25।।एवमुक्तः स भगवान् वासुदेवः सर्वेषां भीष्मादीनां प्रमुखतश्च यथोक्तं दर्शयन् चकार।
Chapter 1, Verse 25