Chapter 1, Verse 23

Text

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।1.23।।

Transliteration

yotsyamānān avekṣhe ’haṁ ya ete ’tra samāgatāḥ dhārtarāṣhṭrasya durbuddher yuddhe priya-chikīrṣhavaḥ

Word Meanings

yotsyamānān—those who have come to fight; avekṣhe aham—I desire to see; ye—who; ete—those; atra—here; samāgatāḥ—assembled; dhārtarāṣhṭrasya—of Dhritarashtra’s son; durbuddheḥ—evil-minded; yuddhe—in the fight; priya-chikīrṣhavaḥ—wishing to please


Translations

In English by Swami Adidevananda

I wish to see those gathered here ready to fight in this battle in order to please the evil-minded son of Dhrtarashtra.

In English by Swami Gambirananda

These who have assembled here and want to accomplish in the war what is dear to the perverted son of Dhrtarastra, I find them to be intent on fighting.

In English by Swami Sivananda

For I desire to observe those who are assembled here to fight, wishing to please in battle the evil-minded Duryodhana—the son of Dhritarashtra.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Sanjaya said, "O descendant of Bharata (Dhrtarastra)! Thus instructed by Gudakesa (Arjuna), Hrsikesa halted the best chariot at a place in between the two armies, in front of Bhisma and Drona and all the rulers of the earth. He then said, 'O son of Prtha! Behold these Kurus, assembled.'"

In English by Shri Purohit Swami

And gaze upon this array of soldiers, eager to please the sons of Dhritarashtra who are sinful.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.23।। दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेना में आये हुए हैं, युद्ध करने को उतावले हुए इन सबको मैं देख लूँ।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.23।।दुर्बुद्धि धार्तराष्ट्र (दुर्योधन) का युद्ध में प्रिय चाहने वाले जो ये राजा लोग यहाँ एकत्र हुए हैं, उन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.23 योत्स्यमानान् with the object of fighting? अवेक्षे observe? अहम् I? ये who? एते those? अत्र here (in this Kurukshetra)? समागताः assembled? धार्तराष्ट्रस्य of the son of Dhritarashtra? दुर्बुद्धेः of the evilminded? युद्धे in battle? प्रियचिकीर्षवः wishing to please.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.23।। व्याख्या--'धार्तराष्ट्र (टिप्पणी प0 18) दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः'--यहाँ दुर्योधनको दुष्टबुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधनने हमारा नाश करनेके लिये आजतक कई तरहके षड्यन्त्र रचे हैं। हमें अपमानित करनेके लिये कई तरहके उद्योग किये हैं। नियमके अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्यके अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजालोग युद्धमें इसका प्रिय करना चाहते हैं! वास्तवमें तो मित्रोंका यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बतायें, जिससे अपने मित्रका लोकपरलोकमें हित हो। परन्तु ये राजालोग दुर्योधनकी दुष्टबुद्धिको शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते हैं और दुर्योधनसे युद्ध कराकर, युद्धमें उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधनका हित किस बातमें है; उसको राज्य भी किस बातसे मिलेगा और उसका परलोक भी किस बातसे सुधरेगा--इन बातोंका वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजालोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम-से-कम आधा राज्य तुम रखो और पाण्डवोंका आधा राज्य पाण्डवोंको दे दो तो इससे दुर्योधनका आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता।  'योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः'--इन युद्धके लिये उतावले होनेवालोंको जरा देख तो लूँ! इन्होंने अधर्मका, अन्यायका पक्ष लिया है, इसलिये ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जायँगे।  'योत्स्यमानान्' कहनेका तात्पर्य है कि इनके मनमें युद्धकी ज्यादा आ रही है अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन?  सम्बन्ध   अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्ने क्या किया इसको सञ्जय आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.23।। पूर्व श्लोक में कही गयी बात को ही अर्जुन इस श्लोक में बल देकर कह रहा है। शत्रु सैन्य के निरीक्षण के कारण को भी वह यहाँ स्पष्ट करता है। एक कर्मशील व्यक्ति होने के कारण वह कोई अनावश्यक संकट मोल नहीं लेना चाहता। इसलिये वह देखना चाहता है कि वे कौन से दुर्मति सत्तामदोन्मत्त और प्रलोभन से प्रताड़ित लोग हैं जो कौरव सेनाओं में सम्मिलित होकर सर्वथा अन्यायी तानाशाह दुर्योधन का समर्थन कर रहे हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.23।।प्रतियोगिनामभावे कथं तव युद्धौत्सुक्यं फलवद्भवेदिति तत्राह  योत्स्यमानानिति।  ये केचिदेते राजानो नानादेशेभ्योऽत्र कुरुक्षेत्रे समवेतास्तानहं योत्स्यमानान्परिगृहीतप्रहरणोपायानतितरां संग्रामसमुत्सुकानुपलभे। तेन प्रतियोगिनां बाहुल्यमित्यर्थः। तेषामस्माभिः सह पूर्ववैराभावे कथं प्रतियोगित्वं प्रकल्प्यते तत्राह  धार्तराष्ट्रस्येति।  धृतराष्ट्रपुत्रस्य दुर्योधनस्य दुर्बुद्धेः स्वरक्षणोपायमप्रतिपद्यमानस्य युद्धाय संरम्भं कुर्वतो युद्धे युद्धभूमौ स्थित्वा प्रियं कर्तुमिच्छवो राजानः समागता दृश्यन्ते तेन तेषामौपाधिकमस्मत्प्रतियोगित्वमुपपन्नमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.23।।योद्धुकामानवस्थितानित्युक्तं विवृणोति  योत्स्यमानानिति।  योत्स्यमानानहमवेक्षे उपलभे नतु संधिकामान् नापि धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्बुद्धिनिवृत्त्यर्थमवस्थितान् प्रत्युत तस्य प्रियचिकीर्षूनित्याह। य एते योधा अत्र समरभूमौ समागताः दुर्योधनस्य दुष्टबुद्धेः प्रियं कर्तुमिच्छवो नतु समर्था इत्यर्थः। धार्तराष्ट्रस्येत्यनेन धृतराष्ट्रास्यापि दुर्बुद्धित्वं सूचयति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।1.23।।योत्स्यमानान् न तु शान्तिकामान्। यतो दुर्बुद्धेः प्रियं चिकीर्षन्ति तेन तेषामपि तत्तुल्यत्वं सूचितम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.23।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

 ।।1.23।।   योत्स्यमानानिति।  धार्तराष्ट्रस्य दुर्योधनस्य प्रियं कर्तुमिच्छन्तो य इह समागताः तान्यावद्द्रक्ष्यामि तावदुभयोः सेनयोर्मध्ये मे रथं स्थापयेत्यन्वयः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि इदानीन्तनसंरम्भादिविशेषदर्शनेन तत्तदुचितसाम्परायिकव्यापारसौकर्याय यथावद्दर्शनमिहार्जुनेनाकाङ्क्षितम्।सेनयोरुभर्योर्मध्ये

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.23।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.23।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.23।।ननु बन्धव एव एते परस्परं संधिं कारयिष्यन्तीति कुतो युद्धमित्याशङ्क्याह य एते भीष्मद्रोणादयो धार्तराष्ट्रस्य दुर्योधनस्य दुर्बुद्धेः स्वरक्षणोपायमजानतः प्रियचिकीर्षवो युद्धे नतु दुर्बुद्ध्यपनयनादौ तान् योत्स्यमानानहमवेक्षे उपलभे नतु सन्धिकामान्। अतो युद्धाय तत्प्रतियोग्यवलोकनमुचितमेवेति भावः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.23।।अवेक्ष इति। किञ्चदुर्बुद्धेः धार्तराष्ट्रस्येति भगवत्प्रतिपक्षत्वेन स्वपराजयमननुसन्दधानस्यान्धस्य पुत्रस्तस्य प्रियं चिकीर्षवस्तेप्यन्धा एव तथाभूता येऽत्र समागताः सम्यक्प्रकारेण युद्धार्थमागतास्तान् योत्स्यमानान् युद्ध्यमानानहं अवेक्षे तावन्मे रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयेति पूर्वेणैव सम्बन्धः। तत्र मध्ये रथस्थापने मम भयं तु नास्त्येव यतस्त्वमच्युतोऽसि। एवं चतुर्भिर्युद्धोपमोऽप्युक्तः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.23 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।


Chapter 1, Verse 23