Chapter 5, Verse 25

Text

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।

Transliteration

labhante brahma-nirvāṇam ṛiṣhayaḥ kṣhīṇa-kalmaṣhāḥ chhinna-dvaidhā yatātmānaḥ sarva-bhūta-hite ratāḥ

Word Meanings

labhante—achieve; brahma-nirvāṇam—liberation from material existence; ṛiṣhayaḥ—holy persons; kṣhīṇa-kalmaṣhāḥ—whose sins have been purged; chhinna—annihilated; dvaidhāḥ—doubts; yata-ātmānaḥ—whose minds are disciplined; sarva-bhūta—for all living entities; hite—in welfare work; ratāḥ—rejoice


Translations

In English by Swami Adidevananda

The sages, who are free from the pairs of opposites, whose minds are well subdued, and who are devoted to the welfare of all beings, become cleansed of all impurities and attain the bliss of Brahman.

In English by Swami Gambirananda

The seers whose sins have been attenuated, who are free from doubt, whose senses are under control, who are engaged in doing good to all beings, attain absorption in Brahman.

In English by Swami Sivananda

The sages obtain absolute freedom or Moksha when their sins have been destroyed, their dualities have been torn asunder, they are self-controlled, and they are intent on the welfare of all beings.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

At all times, there is the transcendent Brahman for the ascetics who have severed their connection with desire and anger, who have controlled their minds and have realized their Self.

In English by Shri Purohit Swami

Sages whose sins have been washed away, whose sense of separateness has dissipated, who have subdued themselves, and seek only the welfare of all, come to the Eternal Spirit.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.25।। जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.25।। वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.25 लभन्ते obtain? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? ऋषयः the Rishis? क्षीणकल्मषाः those whose sins are destroyed? छिन्नद्वैधाः whose dualities are torn asunder? यतात्मानः those who are selfcontrolled? सर्वभूतहिते in the welfare of all beings? रताः rejoicing.Commentary Sins are destroyed by the performance of Agnihotra (a daily obligatoyr ritual) and other Yajnas (vide notes on verse III. 13) without expectation of their fruits and by other selfless services. The duties vanish by constant meditation on the nondual Brahman. He never hurts others in thought? word and deed? and he is devoted to the welfare of all beings as he feels that all beings are but his own Self. (Cf.XII.4)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.25।। व्याख्या--'यतात्मानः'--नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मनबुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ 'यतात्मानः' पद आया है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.25।। जितेन्द्रिय होकर जब मनुष्य ध्यानभ्यास करता है तब वह अपने मन की सभी पापपूर्ण वासनाओं को धो डालता है जिन्होनें आत्मस्वरूप को आवृत्त कर रखा है और जिसके कारण सत्य के विषय में असंख्य संशय उत्पन्न होते हैं। मन के शुद्ध होने पर आत्मानुभव भी सहजसिद्ध हो जाता है। आत्मज्ञान का उदय होने के साथ ही आवरण और विक्षेप रूप अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होकर स्वरूप में अवस्थान प्राप्त हो जाता है।विकास के सर्वोच्च शिखरआत्मस्थिति को प्राप्त करने के पश्चात् देह त्याग तक ज्ञानी पुरुष का क्या कर्तव्य होता है इस विषय में सामान्य धारणा यह है कि वह जगत् में विक्षिप्त के समान अथवा पाषाण प्रतिमा के समान रहेगा दिन में कमसेकम एक बार भोजन करेगा और घूमता रहेगा। लोग ऐसे पुरुष को समाज पर भार समझते हैं। परन्तु वेदों में मनुष्य के लिए कोई जीवित प्रेत का लक्ष्य नहीं बताया गया है और न ऋषियों ने किसी ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है।आत्मसाक्षात्कार कोई दैवनिर्धारित शवगर्त की ओर धीरेधीरे बढ़ने वाला दुखद संचलन नहीं वरन् सत्य के राजप्रासाद तक पहँचने की सुखद यात्रा है। यह सत्य जीव का स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसके अज्ञान से वह अपने से ही दूर भटक गया था। आत्मानुभव में स्थित ज्ञानी पुरुष का सम्पूर्ण जीवन मनुष्यों का आत्म अज्ञान दूर करने और आत्मवैभव को प्रकट करने में समर्पित होता है। इसका संकेत भगवान् के शब्दों में सर्वभूत हिते रता के द्वारा किया गया है।यह लोक सेवा उसका स्वनिर्धारित कार्य और मनोरंजन दोनों ही है। उपाधियों के द्वारा सब की सेवा में अपने को समर्पित करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहता है।भगवान् आगे कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.25।।मुक्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तरमाह किंचेति। यज्ञादिनित्यकर्मानुष्ठानात्पापादिलक्षणं कल्मषं क्षीयते ततश्च श्रवणाद्यावृत्तेः सम्यग्दर्शनं जायते ततो मुक्तिरप्रयत्नेन भवतीत्याह लभन्त इति। ज्ञानप्राप्त्युपायान्तरं दर्शयति छिन्नेति। श्रवणादिना संशयनिरसनं कार्यकरणनियमनं च दयालुत्वेनाहिंसकत्वमित्येतदपि सम्यग्ज्ञानप्राप्तौ कारणमित्यर्थः। अक्षरव्याख्यानं स्पष्टत्वान्न व्याख्यायते।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.25।।ब्रह्मनिर्वाणप्राप्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तराण्याह लभन्त इति। ऋषयः सूक्ष्मतत्त्वदर्शिनःदृश्यते त्वग्र्यया बुद्य्धा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति श्रुतेः। ब्रह्म निर्वाणं लभन्त इत्यन्वयः।ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः इचिवचनमनुरुध्याह। निष्कामकर्मणा ईश्वराराधनलक्षणेन क्षीणपापाःआत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः इत्यात्मदर्शनसाधनं श्रवणादिकं कथयन्तीं श्रुतिमनुरुध्याह। श्रवणेन मननेन च च्छिन्नद्वैधाः च्छिन्नसंशयाः यतात्मानः संयतानि समनस्कानीन्द्रियाणि यैस्ते। अनेन विजातीयप्रत्ययतिरस्कारपुरःसरसजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणात्मकं निदिध्यासनमुक्तम्। एतादृशानां लक्षणमाह। सर्वेषां भूतानां हिते अनुकूले रताः। अहिंसका इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.25।।पापक्षयाच्चैतद्भवतीत्याह लभन्त इति। क्षीणकल्मषा भूत्वा छिन्नद्वैधा यतात्मानः। द्वेधा भावो द्वैधम् संशयो विपर्ययो वा। तच्चोक्तम् विपर्ययः संशयो वा यद्वैधं त्वकृतात्मनाम्। ज्ञानासिना तु तच्छित्त्वा मुक्तसङ्गः परिव्रजेत् इति च। छिन्नद्वैधास्त एवायतात्मानः दीर्घमनसः सर्वज्ञा इत्यर्थः। तत एव छिन्नद्वैधाः। तच्चोक्तम् क्षीणपापा महाज्ञाना जायन्ते गतसंशयाः इति।छिन्नद्वैधा यतात्मानः इति वा।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.25।।लभन्त इति। ऋषयः सम्यग्दर्शिनः। छिन्नद्वैधाश्छिन्नसंशयाः। यतात्मानो जितचित्ताः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.25।।छिन्नद्वैधाः शीतोष्णादिद्वन्द्वैः विमुक्ताः यतात्मानः आत्मनि एव नियमितमनसः सर्वभूतहिते रताः आत्मवत् सर्वेषां भूतानां हितेषु निरताः ऋषयः द्रष्टारः आत्मावलोकनपरा ये एवंभूताः ते क्षीणाशेषात्मप्राप्तिविरोधिकल्मषाः ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते।उक्तगुणानां ब्रह्म अत्यन्तसुलभम् इत्याह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.25।।किंच लभन्त इति। ऋषयः सम्यग्दर्शिनः क्षीणं कल्मषं येषां छिन्नं द्वैधं संशयो येषां यत संयत आत्मा चित्तं येषां सर्वेषां भूतानां हिते रताः कृपालवस्ते ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षं लभन्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.25।।समदर्शित्वरूपज्ञानविपाकसिद्ध्यर्थमनुष्ठानप्रकारो हिन प्रहृष्येत् 5।20 इत्यादिनोच्यते। तत्र हर्षोद्वेगविनिवृत्तिः बाह्यविषयनिस्सङ्गत्वं तदर्थदोषदर्शनं कामक्रोधवेगनिवारणम् आत्मन्येव सर्वविधभोग्यताकल्पनं च क्रमाच्छ्लोकपञ्चकेनोक्तम्। अथ प्रागुक्तद्वन्द्वसहत्वादिस्मारणपूर्वकं सर्वभूतहितेरतत्वं नाम समदर्शित्वेऽत्यन्तान्तरङ्गं साधनमुपदिश्यतेलभन्ते इति श्लोकेन।छिन्नद्वैधाः इत्यनेन भेदस्वरूपनिषेधभ्रमव्युदासायाहशीतोष्णादिद्वन्द्वैर्विमुक्ता इति। द्वैधशब्दस्यात्र संशयाद्यर्थत्वं चानुचितमिति भावः। नियन्तव्येषु प्रधानं मन इहात्मशब्देनोच्यते। नियमनं च तस्योचितविषयव्यवस्थापनमित्यभिप्रायेणआत्मन्येव नियमितमनस इत्युक्तम्।श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् इति पञ्चमवेदद्रष्ट्रा परमर्षिणा निर्णीतोऽयमर्थं इति ज्ञापनायआत्मवदिति दृष्टान्तःहितेष्वेवेत्यवधारणं च। सर्वशब्दोऽत्र दृष्टान्तभूतं स्वात्मानमात्मान्तरं च सङ्गृह्णातीति भावः। एवमवस्थितस्य परिशुद्धान्योन्यसदृशात्मस्वरूपसाक्षात्कारवत्त्वमपिशब्देन विवक्षितमिति ज्ञापनायाहद्रष्टार इति। एवंविधसाक्षात्कारसिद्धावनिष्टनिवृत्तिरिष्टप्राप्तिसिद्धिश्चक्षीणकल्मषाः ब्रह्मनिर्वाणंलभन्ते इत्युभाभ्यामुच्यत इत्याहय एवम्भूता इति।न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 4।38 इति ज्ञानस्य कल्मषनिवर्तकत्वं प्रागेवोक्तमिह स्मारितम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.25।।लभन्ते इति। एतच्च तैः प्राप्यं येषां भेदसंशयरूपौ ग्रन्थी विनष्टौ।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.25।।उत्तरश्लोके ज्ञानिनो ब्रह्मप्राप्तिः पुनः किमर्थमुच्यते इत्यत आह पापेति। ब्रह्मभूतत्वेन सहास्य समुच्चयार्थश्चशब्दः। एतदुक्तलक्षणं ज्ञानम्। अतो लभन्त इत्यस्योपलभन्त इत्यर्थः। कथं तर्हि ज्ञानिलक्षणप्रपञ्चार्थत्वं श्लोकत्रयस्योक्तं इति। उच्यते ज्ञानप्रतिबन्धकपापक्षयाख्यमसाधारणं कारणं कार्यस्य लक्षणं भवत्येवेति। अत्र कार्यकारणभावो न प्रतीयत इत्यत आह क्षीणेति। भवन्ति ततो ब्रह्मोपलभन्त इत्यर्थः। छिन्नद्वैधशब्दार्थं ज्ञापयन् द्वैधशब्दं व्याचष्टे द्वैधेति। विषयापेक्षयाऽन्यप्रकारत्वं अयथार्थत्वमिति यावत्। तेन च तद्वज्ज्ञानमुपलक्ष्यत इति भावेनाह संशय इति। वाशब्दश्चार्थे। अत्रैव प्रमाणमाह तच्चेति। अकृतात्मनामशुद्धबुद्धीनाम्। छिन्नेत्यादेः समासत्वमभिप्रेत्य विग्रहमाह छिन्नेति। आयतशब्दस्य आत्मशब्दस्य चानेकार्थत्वात् आयतात्मान इत्येतद्व्याचष्टे दीर्घेति। अणुनो मनसः कथं दीर्घत्वमित्यत आह सर्वज्ञा इति। बहुविषयत्वमुपलक्ष्यत इति भावः। श्रवणादिना विदितवेद्या इत्यर्थः। समासेनोक्तयोरप्यर्थयोर्बुद्ध्या विविक्तयोर्हेतुहेतुमद्भावोऽस्तीति भावेनाह तत एवेति। आयतात्मत्वादेव क्षीणकल्मषत्वायतात्मत्वछिन्नद्वैधत्वानां हेतुहेतुमद्भावे प्रमाणमाह तच्चेति। व्यस्ते एवैते पदे इत्याह छिन्नेति नियतमनस इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.25।।मुक्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तराणि विवृण्वन्नाह प्रथमं यज्ञादिभिः क्षीणकल्मषाः ततोऽन्तःकरणशुद्ध्या ऋषयः सूक्ष्मवस्तुविवेचनसमर्थाः संन्यासिनः ततः श्रवणादिपरिपाकेन छिन्नद्वैधा निवृतसर्वसंशयाः ततो निदिध्यासनपरिपाकेन संयतात्मानः परमात्मन्येवैकाग्रचित्ताः एतादृशाश्च द्वैतादर्शित्वेन सर्वभूतहिते रता हिंसाशून्या ब्रह्मविदो ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते।यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।। इति श्रुतेः। बहुवचनंतद्यो यो देवानाम् इत्यादिश्रुत्युक्तनियमप्रदर्शनार्थम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.25।।ननु लीलात्मकता ऋषीणामपि दुर्लभा कथं केवलभाववतामेव सिद्ध्येत् इत्यत आह लभन्त इति। क्षीणकल्मषा भगवल्लीलानुभवफलेतरफलानभिलाषिण ऋषयः फलदर्शिनोऽग्निकुमारादितुल्याः ब्रह्मनिर्वाणं लीलात्मकत्वं लभन्ते। कीदृशाः छिन्नद्वैधाश्छिन्नसंशयाः एतत्फलेतरफलाज्ञानिनः। पुनः कीदृशाः यतात्मानः केवलं भगवदर्थैकनिष्ठात्मवन्तः। पुनः कीदृशाः सर्वभूतहिते भगवति रता अनुरागिणो ये ते लीलात्मकतां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। यद्वा भिन्नतया सर्व एव लभन्ते ऋषयः तत्र निदर्शनमग्निकुमाराः। छिन्नद्वैधाः श्रुतयो गोपीरूपाः। यतात्मानो वृन्दावने पक्ष्यादिरूपा मुनयः। सर्वभूतहिते रताः पुलिन्द्यः। एवं भाववन्तः सर्वेऽपि लभन्त इति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.25।। लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षम् ऋषयः सम्यग्दर्शिनः संन्यासिनः क्षीणकल्मषाः क्षीणपापाः निर्दोषाः छिन्नद्वैधाः छिन्नसंशयाः यतात्मानः संयतेन्द्रियाः सर्वभूतहिते रताः सर्वेषां भूतानां हिते आनुकूल्ये रताः अहिंसका इत्यर्थः।।किञ्च

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.25।।तत्र सतामाचरणं प्रमाणयति लभन्त इति। ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः सर्वज्ञा भूत्वा छिन्नसंशया यतात्मानो ब्रह्मानन्दं लभन्ते।


Chapter 5, Verse 25