Chapter 5, Verse 22

Text

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।

Transliteration

ye hi sansparśha-jā bhogā duḥkha-yonaya eva te ādyantavantaḥ kaunteya na teṣhu ramate budhaḥ

Word Meanings

ye—which; hi—verily; sansparśha-jāḥ—born of contact with the sense objects; bhogāḥ—pleasures; duḥkha—misery; yonayaḥ—source of; eva—verily; te—they are; ādya-antavantaḥ—having beginning and end; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; na—never; teṣhu—in those; ramate—takes delight; budhaḥ—the wise


Translations

In English by Swami Adidevananda

For those pleasures that are born of contact are wombs of pain. They have a beginning and an end, O Arjuna; the wise do not rejoice in them.

In English by Swami Gambirananda

Since enjoyments that result from contact with objects are indeed the sources of sorrow, having a beginning and an end, O son of Kunti, the wise one does not delight in them.

In English by Swami Sivananda

The enjoyments that arise from contact are only sources of pain, for they have a beginning and an end, O Arjuna; the wise do not rejoice in them.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whosoever, right here, before abandoning the body, is capable of bearing the force sprung from desire and wrath—he is considered to be a man of Yoga and a happy man.

In English by Shri Purohit Swami

The joys that spring from external associations bring pain; they have their beginnings and their endings. The wise person does not rejoice in them.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.22।। क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.22।। हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.22 ये which? हि verily? संस्पर्शजाः contactborn? भोगाः enjoyments? दुःखयोनयः generators of pain? एव only? ते they? आद्यन्तवन्तः having beginning and end? कौन्तेय O Kaunteya? न not? तेषु in those? रमते rejoices? बुधः the wise.Commentary Man goes in est of joy and searches in the external perishable objects for his happiness. He fails to get it but instead he carries a load of sorrow on his head.You should withdraw the senses from the senseobjects as there is no trace of happiness in them and fix the min on the immortal? blissful Self within. The senseobjects have a beginning and an end. Separation from the senseobjects gives you a lot of pain. During the interval between the origin and the end you experience a hollow? momentary? illusory pleasure. This fleeting pleasure is due to Avidya or ignorance. Even in the other world you will have the same experience. He who is endowed with discrimination or the knowledge of the Self will never rejoice in these sensual objects. Only ignorant persons who are passionate will rejoice in the senseobjects. (Cf.II.14?XVIII.38)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.22।। व्याख्या--'ये हि संस्पर्शजा भोगाः'--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। सम्बन्ध-जन्य अर्थात् इन्द्रिय-जन्य भोगमें मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होतीहै, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृति-जन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्र-विहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होनेसे त्याज्य ही हैं। कारण कि जडताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है। 'आद्यन्तवन्तः'--सम्पूर्ण भोग आने-जानेवाले हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं (गीता 2। 14)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगोंकी स्वयंके साथ किसी भी अंशमें एकता नहीं है। भोग आने-जानेवाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्तवाले हैं और स्वयं आदि-अन्तसे रहित है। इसलिये स्वयंको भोगोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता। जीव परमात्माका अंश है--'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7), इसलिये उसे परमात्मासे ही अक्षय सुख मिल सकता है--'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते' (गीता 5। 21)।भोग आने-जानेवाले हैं--इस तरफ ध्यान जाते ही सुख-दुःखका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये 'आद्यन्तवन्तः' पद भोगोंके प्रभावको मिटानेके लिये औषधरूप है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.22।। आत्मा के अनन्त आनन्द का अनुभव करने के लिए हम साधक लोग भी विषयासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। एक सामान्य स्तर का बुद्धिमान् पुरुष भी यदि जीवन के अनुभवों पर विचार करे तो वह समझ सकता है कि अनित्य विषयों में सुख की खोज करना कोई लाभदायक व्यापार नहीं है। हमारे सभी अनुभवों में उपयोगिता के ह्रास का नियम समान रूप से कार्य करता है। जो वस्तु प्रारम्भ में सुख देती है वही कुछ समय पश्चात् अत्यन्त दुखदायी भी बन जाती है। भूखे होने पर पहले और पच्चीसवें लड्डू को खाते समय हमारे क्या अनुभव होगें इसका प्रत्यक्ष प्रयोग करके देखा जा सकता है जो इस मूलभूत सत्य को प्रमाणित करेगा कि वैषयिक उपभोग सदा ही दुख के कारण होते हैं।इन्द्रियोपभोग की वस्तुएँ उतनी ही सुन्दर एवं सुखदायक हो सकती हैं जितनी कि कुष्ठ रोगिणी कोई वेश्या जो सौन्दर्य़ प्रसाधनों से सजधज कर किसी व्यापारिक नगरी की अंधेरी संकरी गली में स्थित अपने कोठेमें अनजाने लोगों को लुभाने का प्रयत्न करती खड़ी रहती है। श्रीकृष्ण इस तथ्य को सुन्दर शैली में समझाते हुए कहते हैं कि वैषयिक सुख अनित्य होने के कारण विवेकी पुरुष को मोहित नहीं कर सकते।बुद्धिमान् पुरुष पूर्णत्व प्राप्ति से ही सन्तुष्ट होता है। हम भौतिक परिच्छिन्न वस्तुओं के पीछे अधिक सन्तोष और आनन्द पाने की आशा में दौड़दौड़ कर स्वयं को थका लेते हैं और उस झूठी आशा में न जाने कितने हीन कर्म भी करते हैं। जबकि वास्तविक शुद्ध दिव्य और पूर्ण आनन्द केवल आत्मानुभूति के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।श्रेय मार्ग का एक और प्रतिपक्षी शत्रु है जो सब अनर्थों का कारण तथा दुर्जेय है इसलिये सबके परिहार के लिये प्रयत्नाधिक्य की आवश्यकता है। भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.22।।तत्रैव हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमुदाहरति इतश्चेति। विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणीति शेषः। वैराग्यार्थमेव वैषयिकाणि सुखानि दूषयति ये हीति। ननु विषयेन्द्रियसंप्रयोगसंप्रसूतेषु भोगेषु जन्तूनामभिरुचिदर्शनात्कुतस्तेषां दुःखयोनित्वमित्याशङ्क्याविवेकिनां तेष्वासङ्गेऽपि न विवेकिनामित्याह आद्यन्तवन्त इति। यस्मादाधिव्याधिजरामरणादिसहितेभ्यः समागमनादिक्लेशरूपभागिभ्यश्च विषयेन्द्रियसंबन्धेभ्यो भोगाः सुखलवानुभवा जायन्ते तस्मात्ते दुःखहेतवो भवन्तीति योजना। अविद्याकार्यत्वाद्दुःखानां कुतो भोगजन्यत्वमित्याशङ्क्य भोगानामविद्याप्रयुक्तत्वात्तन्निबन्धनत्वं दुःखानां युक्तमित्यभिप्रेत्याह अविद्येति। भोगानां दुःखयोनित्वे मानवमनुभवमुपन्यस्यति दृश्यन्ते हीति। ऐहिकानां भोगानां दुःखनिमित्तत्वेऽपि नामुष्मिकाणां तथात्वमनुभवाभावादित्याशङ्क्यावधारणसामर्थ्यसिद्धमर्थमाह यथेति। पूर्वार्धस्याक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह नेत्यादिना। इतश्च विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणि निवर्तयितव्यानीत्याह न केवलमिति। आद्यन्तवत्त्वे मध्यक्षणवर्तित्वेन क्षणभङ्गुरत्वादुपेक्षणीयत्वं भोगानां सिध्यति। अस्ति हि तेषां क्षणभङ्गुरत्वं क्षणिकविषयाकारमनोवृत्तिव्यङ्ग्यत्वादिति मन्वानः सन्नाह अत इति। बुद्धिपूर्वकारिणां विवेकवतां भोगेषूपेक्षोपलब्धेश्च तेषामाभासत्वं प्रतिभातीत्याह न तेष्विति। प्रतीकोपादानमाद्यमिदं पुनर्व्याख्यानमिति न पुनरुक्तिः। ननु केषांचिद्भोगेष्वभिरुचिरुपलभ्यते तत्राह अत्यन्तेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.22।।विषयेष्वसक्ततां संपादयेदित्युक्तं तत् भोगानां दुःखरुपत्वप्रतिपादनेन द्रढयति ये हीति। ये हि यस्माद्विषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यो जाता भोगास्ते दुःखानामाध्यात्मिकादीनां योनयः कारणानि। अविद्यावृतत्वात्। एवकारात्संसारे सुखस्य गन्धमात्रमपि नास्तीति ज्ञात्वा शुक्तिरजतनिमेभ्यो भोगेभ्यो इन्द्रियाणि निवर्तयेत्। न केवलं दुःख योनय एवापि त्वाद्यन्तवन्तश्च आदिर्विषयेन्द्रियसंयोगो भोगानामन्तश्च एतद्वियोगएव। तस्माद्बुधो विवेकी दृग्दृश्यतत्त्ववित् तेषु भोगेषु न रमते। तदुक्तं वासिष्ठेसंपदः प्रमदाश्चैव तरङ्गोत्सङ्गभङ्गुराः। कस्तास्वहिफणाच्छत्रच्छायासु रमते बुधः इति। कौन्तेयेति संबोधयन् स्त्रीस्वभावोऽदीर्घदर्श्यत्यन्तमूढ एव भोगेषु रमते इति ध्वनयति। यद्वा विषयेषु रतिरहितायाः कुन्त्याः पुत्रस्त्वं तेषु रन्तुभयोग्योऽसीति सूचयति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.22।।सन्न्यासार्थं कामभोगं निन्दयति येहीति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.22।।ननु सुषुप्तितुल्यस्य मोक्षसुखस्यार्थे कः प्राप्तमेव बाह्यं दिव्यस्त्र्यन्नपानगीतवाद्यादिसुखं त्यजेदित्याशङ्क्य बाह्यसुखमनित्यत्वान्निन्दति ये हीति। संस्पर्शजा विषयसंबन्धजाः। दुःखयोनित्वे हेतुः आद्यन्तवन्त इति। जाते पुत्रे यत्सुखं तत्तस्मिन्नष्टे नश्यति दुःखं च महत्प्रयच्छतीति तेषु भोगेषु बुधः परिपाकदर्शी न रमते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.22।।विषयेन्द्रियस्पर्शजा ये भोगाः दुःखयोनयः ते दुःखोदर्का आद्यन्तवन्तः अल्पकालवर्तिनो हि उपलभ्यन्ते न तेषु तद्याथात्म्यविद् रमते।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.22।।ननु प्रियविषयभोगानामपि निवृत्तेः कथं मोक्षः पुरुषार्थः स्यात्तत्राह ये हीति। संस्पृश्यन्त इति संस्पर्शा विषयास्तेभ्यो जाता ये भोगाः सुखानि ते हि वर्तमानकालेऽपि स्पर्धासूयादिव्याप्तत्वाद्दुःखस्यैव योनयः कारणभूतास्तथादिमन्तोऽन्तवन्तश्च। अतो वेकी तेषु न रमते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.22।।अनादिकालं बाह्यस्पर्शरसिकस्य तत्परित्यागः कथम् इत्याकाङ्क्षायामार्जनरक्षणादिदोषदर्शनात्तत्रोपरमः शक्य इतिये हि इत्यादिश्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहप्राकृतस्येति।संस्पर्शजाः इत्यनेनाभिप्रेतमौपाधिकत्वं व्यञ्जयतिविषयेन्द्रियस्पर्शजा इति। स्पर्शोऽत्र सम्बन्धमात्रम्। एतेन सुखस्वरूपस्य क्षुद्रत्वमुक्तम्।दुःखयोनयः इत्यत्र तत्पुरुषविवक्षां दर्शयितुंदुःखोदर्का इत्युक्तम्। संस्पर्शजत्वात्परलोकेऽपि दुःखयोनित्वं स्वध्यवसानमित्येवकाराभिप्रायः। न खलु हिरण्यगर्भभोगादभ्यधिकः प्राकृतभोगोऽस्ति सोऽपि स्वमानेन शतसंवत्सरपरिमिततया मानुषादिसम इति दर्शयितुंअल्पकालवर्तिन इत्युक्तम्। क्षणरुचिबुद्बुदादिष्विवावान्तरस्थितिकालवैषम्यम् आद्यन्तवत्त्वविशिष्टमिति भावः। एवंसंस्पर्शजाः इत्यादिविशेषणत्रयेण अल्पत्वदुःखमिश्रत्वान्तवत्त्वानि दर्शितानि। प्रत्यक्षसिद्धेषु दोषेषु निपुणस्य किमुपदेशापेक्षयेति दर्शयितुंउपलभ्यन्त इत्युक्तम्। बुधशब्देनात्र पञ्चविधोपरमोपयुक्तविवेकज्ञानवत्त्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंतद्याथात्म्यविदित्युक्तम्। न तेषु रमते किन्तु क्रमादुपरमत इति भावः। सागरतरणराजसेवादिषु शरीरविनाशपर्यन्ता आर्जनदोषाः। सहस्रप्राकारपरिवृतगर्भगृहे निवेशितस्यापि रक्ष्यवस्तुनो राजदहनचोरमूषिकादयस्तन्निवारणक्लेशादयश्च रक्षणदोषाः।स्वर्गेऽपि पातभीतस्य क्षयिष्णोर्नास्ति निर्वृतिः वि.पु.6।5।50 इत्यादयः क्षयदोषाः।न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते भाग.9।19।14म.भा.1।85।12वि.पु.4।10।22अलाभे मत्तकाशिन्या दृष्टा तिर्यक्षु कामिता इत्यादिवदुत्तरोत्तररागप्रबन्धानर्थहेत्वयोग्यविषयप्रवृत्त्यादयो भोगदोषाः। सर्वस्य चास्य प्रायशः परहिंसागर्भत्वात्तदधीना ऐहिकामुष्मिकदुःखसन्ततयो हिंसादोषाः। पञ्चविधाश्चैते दोषाः प्रत्यक्षादिसिद्धा इति तद्भावनावतां प्राकृतस्यानादिकालशीलितस्यापि सुत्यजत्वं सिद्धमिति भावः। उक्तं च तुष्टिप्रकरणे साङ्ख्यैरपिबाह्या विषयोपरमात्पञ्च सां.का.50 इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.22।।ये हीति। स ह्येवं भावयति बाह्यविषयजा भोगाः ( N बाह्यविषयभोगाः) सर्वे दुःखकारणरूपाः तथाविधा अपि अनित्याः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.22।।ननूत्तरश्लोके सन्न्यासादित्रितयान्तर्गतं न किञ्चिदुच्यत इत्यत आह सन्न्यासार्थमिति। निन्दयतीति स्वार्थे णिच्। सन्न्यासार्थिनेति वा।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.22।।ननु बाह्यविषयप्रीतिनिवृत्तावात्मन्यक्षयसुखानुभवस्तस्मिंश्च सति तत्प्रसादादेव बाह्यविषयप्रीतिनिवृत्तिरितीतरेतराश्रयवशान्नैकमपि सिध्येदित्याशङ्क्य विषयदोषदर्शनाभ्यासेनैव तत्प्रीतिनिवृत्तिर्भवतीति परिहारमाह हि यस्मात् ये संस्पर्शजा विषयेन्द्रियसंबन्धजा भोगाः क्षुद्रसुखलवानुभवाः इह वा परत्र वा रागद्वेषादिव्याप्तत्वेनदुःखयोनय एव ते ते सर्वेऽपि ब्रह्मलोकपर्यन्तं दुःखहेतव एव। तदुक्तं विष्णुपुराणेयावन्तः कुरुते जन्तुः संबन्धान्मनसः प्रियान्। तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः।। इति। एतादृशा अपि न स्थिराः किंतु आद्यन्तवन्तः आदिर्विषयेन्द्रियसंयोगोऽन्तश्च तद्वियोग एव तौ विद्येते येषां ते। पूर्वापरयोरसत्त्वान्मध्ये स्वप्नवदाविर्भूताः क्षणिका मिथ्याभूताः। तदुक्तं गौडपादाचार्यैःआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति। यस्मादेवं तस्मात्तेषु बुधो विवेकी न रमते प्रतिकूलवेदनीयत्वान्न प्रीतिमनुभवति। तदुक्तं भगवता पतञ्जलिनापरिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनःइति। सर्वमपि विषयसुखं दृढमानुश्रविकं च दुःखमेव प्रतिकूलवेदनीयत्वात्। विवेकिनः परिज्ञातेक्लेशादिस्वरूपस्य न त्वविवेकिनः। अक्षिपात्रकल्पो हि विद्वानत्यल्पदुःखलेशेनाप्युद्विजते यथोर्णातन्तुरतिसुकुमारोऽप्यक्षिपात्रे न्यस्तः स्पर्शेन दुःखयति नेतरेष्वङ्गेषु तद्वद्विवेकिन एव मधुविषसंपृक्तान्नभोजनवत्सर्वमपि भोगसाधनं कालत्रयेऽपि क्लेशानुविद्धत्वाद्दुःखं विवेकिनः न मूढस्य बहुविधदुःखसहिष्णोरित्यर्थः। तत्र परिणामतापसंस्कारदुःखैरिति भूतवर्तमानभविष्यत्कालेऽपि दुःखानुविद्धत्वादौपाधिकं दुःखत्वं विषयसुखस्योक्तम्। गुणवृत्तिविरोधाच्चेत्यनेन स्वरूपतोऽपि दुःखत्वं तत्र परिणामश्च तापश्च संस्कारश्च त एव दुःखानि तैरित्यर्थः। इत्यंभूतलक्षणे तृतीया। तथाहि रागानुविद्ध एव सर्वोऽपि सुखानुभवः। नहि तत्र न रज्यति तेन सुखी चेति संभवति। राग एव च पूर्वमुद्भूतः सन्विषयप्राप्त्या सुखरूपेण परिणमते। तस्य च प्रतिक्षणं वर्धमानत्वेन स्वविषयाप्राप्तिनिबन्धनदुःखस्यापरिहार्यत्वाद्दुःखरुपतैव। याहि भोगेष्विन्द्रियाणामुपशान्तिः परितृप्तत्वात्सुखम्। या लौल्यादनुपशान्तिस्तद्दुःखम्। नचेन्द्रियाणां भोगाभ्यासेन वैतृष्णयं कर्तुं शक्यम्। यतो भोगाभ्यासमनु विवर्धन्ते रागाः कौशलानि चेन्द्रियाणाम्। स्मृतिश्चन जातु कामः इत्यादिः। तस्माद्दुःखात्मकरागपरिणामत्वाद्विषयसुखमपि दुःखमेव कार्यकारणयोरभेदादिति परिणामदुःखत्वम्। तथा सुखानुभवकाले तत्प्रतिकूलानि दुःखसाधनानि द्वेष्टि। नानुपहत्य भूतान्युपभोगः संभवतीति भूतानि च हिनस्ति। द्वेषश्च सर्वाणि दुःखसाधनानि मे माभूवन्निति संकल्पविशेषः। नच तानि सर्वाणि कश्चिदपि परिहर्तुं शक्नोति। अतः सुखानुभवकालेऽपि तत्परिपन्थिनं प्रति द्वेषस्य सर्वदैवावस्थितत्वात्तापदुःखं दुष्परिहरमेव। तापो हि द्वेषः। एवंच दुःखसाधनानि परिहर्तुमशक्तो मुह्यति चेति मोहदुःखतापि व्याख्येया। तथाचोक्तं योगभाष्यकारैःसर्वस्य द्वेषानुविद्धश्चेतनाचेतनसाधनाधीनस्तापानुभवः इति। तत्रास्ति द्वेषजः कर्माशयः। सुखसाधनानि च प्रार्थयमानः कायेन वाचा मनसा च परिस्पन्दते। ततः परमनुगृह्णात्युपहन्ति चेति परानुग्रहपीडाभ्यां धर्माधर्मावुपचिनोति। स कर्माशयो लोभान्मोहाच्च भवतीत्येषा तापदुःखतोच्यते। यथा वर्तमानः सुखानुभवः स्वविनाशकाले संस्कारमाधत्ते। सच सुखस्मरणं तच्च रागं सच मनःकायवचनचेष्टां साच पुण्यापुण्यकर्माशयौ तौ च जन्मादीनि संस्कारदुःखता। एवं तापमोहयोरपि संस्कारौ व्याख्येयौ। एवं कालत्रयेऽपि दुःखानुवेधाद्विषयसुखं दुःखमेवेत्युक्त्वा स्वरूपतोऽपि दुःखतामाह गुणवृत्तिविरोधाच्च गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि सुखदुःखमोहात्मकाः परस्परविरुद्धस्वभावा अपि तैलवर्त्यग्नय इव दीपं पुरुषभोगोपयुक्तत्वेन त्र्यात्मकमेकं कार्यमारभन्ते। तत्रैकस्य प्राधान्ये द्वयोर्गुणभावात्प्रधानमात्रव्यपदेशेन सात्त्विकं राजसं तामसमिति त्रिगुणमपि कार्यमेकेन गुणेन व्यपदिश्यते। तत्र सुखोपभोगरूपोऽपि प्रत्यय उद्भूतसत्त्वकार्यत्वेऽप्यनुद्भूतरजस्तमःकार्यत्वात्ित्रगुणात्मक एव। तथाच सुखात्मकत्ववद्दुःखात्मकत्वं विषादात्मकत्वं च तस्य ध्रुवमिति दुःखमेव सर्वं विवेकिनः। नचैतादृशोऽपि प्रत्ययः स्थिरः। यस्माच्चलं च गुणवृत्तमिति क्षिप्रपरिणामि चित्तमुक्तम्। नन्वेकः प्रत्ययः कथं परस्परविरुद्धसुखदुःखमोहत्वान्येकदा प्रतिपद्यत इति चेत् न। उद्भूतानुद्भूतयोर्विरोधाभावात्। समवृत्तिकानामेव हि गुणानां युगपद्विरोधो न विषमवृत्तिकानाम्। यथा धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याणि लब्धवृत्तिकानि लब्धवृत्तिकैरेवाधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्यैः सह विरुध्यन्ते नतु स्वरूपसद्भिः। प्रधानस्य प्रधानेन सह विरोधो नतु दुर्बलेनेति हि न्यायः। एवं सत्त्वरजस्तमांस्यपि परस्परं प्राधान्यमात्रं युगपन्न सहन्ते नतु सद्भावमपि। एतेन परिणामतापसंस्कारदुःखेष्वपि रागद्वेषमोहानां युगपत्सद्भावो व्याख्यातः प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाररूपेण क्लेशानां चतुरवस्थत्वात्। तथाहिअविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः। अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छन्नोदाराणाम्। अनित्याशुचिदुःखानामत्सु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या। दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता। सुखानुशयी रागः। दुःखानुशयी द्वेषः। स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेशः। ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः। ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः। क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः। सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः इति पातञ्जलानि सूत्राणि। तत्रातस्मिंस्तद्बुद्धिर्विपर्ययो मिथ्याज्ञानमविद्येति पर्यायाः। तत्राशेषसंसारनिदानम्। तत्रानित्ये नित्यबुद्धिर्यथा ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा सचन्द्रतारका द्यौरमृता दिवौकस इति। अशुचौ परमबीभत्से काये शुचिबुद्धिर्यथा नवेव शशाङ्कलेखा कमनीयेयं कन्या मध्वमृतावयवनिर्मितेव चन्द्रं भित्त्वा निःसृतेव ज्ञायते नीलोत्पलपत्रायताक्षी हावगर्भाभ्यां लोचनाभ्यां जीवलोकमाश्वासयतीवेति कस्य केन संबन्धः स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्निष्यन्दान्निधनादपि। कायमाधेयशौचत्वात्पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।। इति च वैयासकः श्लोकः। एतेनापुण्ये पुण्यप्रत्ययोऽनर्थे चार्थप्रत्ययो व्याख्यातः। दुःखे सुखख्यातिरुदाहृतापरिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः इति। अनात्मन्यात्मख्यातिर्यथा शरीरे मनुष्योऽहमित्यादिः। इयं चाविद्या सर्वक्लेशमूलभूता तम इत्युच्यते। बुद्धिपुरुषयोरभेदाभिमानोऽस्मिता मोहः। साधनरहितस्यापि सर्वं सुखजातीयं मे भूयादिति विपर्ययविशेषो रागः। सएव महामोहः। दुःखसाधने विद्यामानेऽपि किमपि दुःखं मे माभूदिति विपर्ययविशेषो द्वेषः। स तामिस्रः। आयुरभावेऽप्येतैः शरीरेन्द्रियादिभिरनित्यैरपि वियोगो मे माभूदित्यविद्वदङ्गनाबालं स्वाभाविकः सर्वप्राणिसाधरणो मरणत्रासरूपो विपर्ययविशेषोऽभिनिवेशः। सोऽन्धतामिस्रः। तदुक्तं पुराणेतमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञितः। अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मनः।। इति। एते च क्लेशाश्चतुरवस्था भवन्ति। तत्रासतोऽनुत्पत्तेरनभिव्यक्तरूपेणावस्थानं सुप्तावस्था। अभिव्यक्तस्यापि सहकार्यलाभभावात्कार्याजनकत्वं तन्ववस्था। अभिव्यक्तस्य जनितकार्यस्यापि केनचिद्बलवताभिभवो विच्छेदावस्था। अभिव्यक्तस्य प्राप्तसहकारिसंपत्तेरप्रतिबन्धेन स्वकार्यकरत्वमुदारावस्था। एतादृगवस्थाचतुष्टयविशिष्टानामस्मितादीनां चतुर्णां विपर्ययरूपाणां क्लेशानामविद्यैव सामान्यरूपा क्षेत्रं प्रसवभूमिः। सर्वेषामपि विपर्ययरूपत्वस्य दर्शितत्वात्। तेनाविद्यानिवृत्त्यैव क्लेशानां निवृत्तिरित्यर्थः। ते च क्लेशाः प्रसुप्ता यथा प्रकृतिलीनानां तनवः प्रतिपक्षभावनया तनूकृता यथा योगिनाम्। त उभयेऽपि सूक्ष्माः प्रतिप्रसवेन मनोनिरोधेनैव निर्बीजसमाधिना हेयाः। ये तु सूक्ष्मवृत्तयस्तत्कार्यभूताः स्थूला विच्छिन्ना उदाराश्च विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः प्रादुर्भवन्तीति विच्छिन्नाः। यथा रागकाले क्रोधो विद्यमानोऽपि न प्रादुर्भूत इति विच्छिन्न उच्यते। एवमेकस्यां स्त्रियां चैत्रो रक्त इति नान्यासु विरक्तः किंत्वेकस्यां रागो लब्धवृत्तिरन्यासु च भविष्यद्वृत्तिरिति स तदा विच्छिन्न उच्यते। ये यदा विषयेषु लब्धवृत्तयस्ते तदा सर्वात्मना प्रादुर्भूता उदारा उच्यन्ते। तत उभयेऽप्यतिस्थूलत्वाच्छुद्धसत्त्वमयेन भगवद्व्यानेन हेया न मनोनिरोधमपेक्षन्ते। निरोधहेयास्तु सूक्ष्मा एव। तथाच परिणामतापसंस्कारदुःखेषु प्रसुप्ततनुविच्छिन्नरूपेण सर्वे क्लेशाः सर्वदा सन्ति। उदारता तु कादाचित्की स्यादिति विशेषः। एते च बाधनालक्षणं दुःखमुपजनयन्तः क्लेशशब्दवाच्या भवन्ति। यतः कर्माशयो धर्माधर्माख्यः क्लेशमूलक एव। सति च मूलभूते क्लेशे तस्य कर्माशयस्य विपाकः फलं जन्मायुर्भोगश्चेति। सच कर्माशय इह परत्र च स्वविपाकारम्भकत्वेन दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः। एवं क्लेशसंततिर्घटीयन्त्रवदनिशमावर्तते। अतः समीचीनमुक्तंये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः इति। दुःखयोनित्वं परिणामादिभिर्गुणवृत्तिविरोधाच्च आद्यन्तवत्त्वं गुणवृत्तस्य चलत्वादिति योगमते व्याख्या। औपनिषदानां तु अनादिभावरूपज्ञानमविद्या। अहंकारधर्म्यध्यासोऽस्मिता। रागद्वेषाभिनिवेशास्तद्वृत्तिविशेषा इत्यविद्यामूलत्वात्सर्वेऽप्यविद्यात्मकत्वेन मिथ्याभूता रज्जुभुजङ्गाध्यासवन्मिथ्यात्वेऽपि दुःखयोनयः स्वप्नादिवद्दृष्टिसृष्टिमात्रत्वेनाद्यन्तवन्तश्चेति बुधोऽधिष्ठानसाक्षात्कारेण निवृत्तभ्रमस्तेषु न रमते। मृगतृष्णिकास्वरूपज्ञानवानिव तत्रोदकार्थी न प्रवर्तते। न संसारे सुखस्य गन्धमात्रमप्यस्तीति बुद्ध्वा ततः सर्वाणीन्द्रियाणि निवर्तयेदित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.22।।ननु लौकिकरसभोगाभावेऽनुभवं विना कथमलौकिकरसज्ञानं स्यात् तदभावे च कथं तदनुभवःस्यात् इत्यत आह ये हि संस्पर्शजा इति। संस्पर्शजा भोगा विषयसम्बन्धिनो लौकिकार्थे भोगास्ते दुःखयोनयो भगवत्सम्बन्धाभावक्लेशकारणभूताः यत आद्यन्तवन्तः आदिमन्तः स्वभावेनैवोत्पन्नाः नतु भगवदिच्छया। अन्तवन्तः स्वमनोरथपूर्त्यैव पूर्णाः। यतस्त एव तादृशा अतो हे कौन्तेय मद्भावानुभवयोग्य हीति निश्चयेन। बुधः सर्वरसज्ञो भगवान् न रमते न रसदानं करोतीत्यर्थः। यतो भगवान् बुधः सर्वरसज्ञः अतस्तदिच्छया तद्भोगानुभवः सिद्ध एव भविष्यतीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.22।। ये हि यस्मात् संस्पर्शजाः विषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यो जाताः भोगा भुक्तयः दुःखयोनय एव ते अविद्याकृतत्वात्। दृश्यन्ते हि आध्यात्मिकादीनि दुःखानि तन्निमित्तान्येव। यथा इहलोके तथा परलोकेऽपि इति गम्यते एवशब्दात्। न संसारे सुखस्य गन्धमात्रमपि अस्ति इति बुद्ध्वा विषयमृगतृष्णिकाया इन्द्रियाणि निवर्तयेत्। न केवलं दुःखयोनय एव आद्यन्तवन्तश्च आदिः विषयेन्द्रियसंयोगो भोगानाम् अन्तश्च तद्वियोग एव अतः आद्यन्तवन्तः अनित्याः मध्यक्षणभावित्वात् इत्यर्थः। कौन्तेय न तेषु भोगेषु रमते बुधः विवेकी अवगतपरमार्थतत्त्वः अत्यन्तमूढानामेव हि विषयेषु रतिः दृश्यते यथा पशुप्रभृतीनाम्।।अयं च श्रेयोमार्गप्रतिपक्षी कष्टतमो दोषः सर्वानर्थप्राप्तिहेतुः दुर्निवारश्च इति तत्परिहारे यत्नाधिक्यं कर्तव्यम् इत्याह भगवान्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.22।।ननु सुखहेतुविषयाणामपि निवृत्तेः कथं श्रुतमात्रस्य मोक्षस्य ब्रह्मानन्दस्य पुरुषार्थता स्यात् तत्राह ये हीति। प्राकृतेन्द्रियजन्यानां विषयभोगानां आद्यन्तवत्त्वेन दुःखयोनित्वादपुरुषार्थत्वमनर्थत्वमर्थसिद्धं तेन तद्विपरीतत्वाद्ब्रह्मानन्दस्यैव पुरुषार्थत्वमिति विज्ञाय योगिनो बुधस्य तत्रैव प्रवृत्तिस्तदाह न तेषु रमते बुध इति।


Chapter 5, Verse 22