Chapter 5, Verse 19

Text

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।

Transliteration

ihaiva tair jitaḥ sargo yeṣhāṁ sāmye sthitaṁ manaḥ nirdoṣhaṁ hi samaṁ brahma tasmād brahmaṇi te sthitāḥ

Word Meanings

iha eva—in this very life; taiḥ—by them; jitaḥ—conquer; sargaḥ—the creation; yeṣhām—whose; sāmye—in equanimity; sthitam—situated; manaḥ—mind; nirdoṣham—flawless; hi—certainly; samam—in equality; brahma—God; tasmāt—therefore; brahmaṇi—in the Absolute Truth; te—they; sthitāḥ—are seated


Translations

In English by Swami Adidevananda

Here itself, those whose minds rest in equanimity overcome samsara. For the Brahman (individual self), when uncontaminated by Prakriti, is the same everywhere; therefore, they abide in Brahman.

In English by Swami Gambirananda

Here itself is mirth attained by those whose minds are established in sameness. Since Brahman is the same in all and free from defects, they are established in Brahman.

In English by Swami Sivananda

Even here in this world, those whose minds rest in reality overcome birth; Brahman is indeed spotless and real; therefore they are established in Brahman.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The one who knows Brahman, who is disillusioned, established in Brahman, and has a firm intellect, would neither rejoice upon meeting a friend nor get agitated upon meeting a foe.

In English by Shri Purohit Swami

Even in this world, those whose minds remain always balanced, fixed on the Supreme, conquer their earthly life; for the Supreme has neither blemish nor bias.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.19।। जिनका अन्तःकरण समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है; ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.19।। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है,  उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.19 इह here? एव even? तैः by them? जितः is conered? सर्गः rirth or creation? येषाम् of whom? साम्ये in eality? स्थितम् established? मनः mind? निर्दोषम् spotless? हि indeed? समम् eal? ब्रह्म Brahman? तस्मात् therefore? ब्रह्मणि in Brahman? ते they? स्थिताः are established.Commentary When the mind gets rooted in eanimity or evenness or eality? when it is always in a balanced state? one coners birth and death. Bondage is annihilated and freedom is attained by him. When the mind is in a perfectly balanced state he overcomes Brahman Himself? i.e.? realises Brahman.Brahman is ever pure and attributeless and so He is not affected even though He dwells in an outcaste? dog? etc. So He is spotless. He is homogeneous and one? as He dwells eally in all beings.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.19।। व्याख्या--'येषां साम्ये स्थितं मनः'--परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होनेपर जब मन-बुद्धिमें राग-द्वेष, कामना, विषमता आदिका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब मन-बुद्धिमें स्वतः-स्वाभाविक समता आ जाती है, लानी नहीं पड़ती। बाहरसे देखनेपर महापुरुष और साधारण पुरुषमें खाना-पीना, चलना-फिरना आदि व्यवहार एक-सा ही दीखता है, पर महापुरुषोंके अन्तःकरणमें निरन्तर समता, निर्दोषता, शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषोंके अन्तःकरणमें विषमता, दोष, अशान्ति आदि रहती है।जैसे, पूर्वमें और पश्चिममें--दोनों ओर पर्वत हों, तो पूर्वमें सूर्यका उदय होना नहीं दीखता; परन्तु पश्चिममें स्थित पर्वतकी चोटीपर प्रकाश दीखनेसे सूर्यके उदय होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। कारण कि सूर्यका उदय हुए बिना पश्चिमके पर्वतपर प्रकाश दीखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही जिनके मन-बुद्धिपर मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख आदिका कोई असर नहीं पड़ता तथा जिनके मन-बुद्धि राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित हैं, उनकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिके बिना मन-बुद्धिमें अटल और एकरस समताका रहना सम्भव ही नहीं है

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.19।। इस श्लोक में प्राय सम्पूर्ण शास्त्र को ही गागर में सागर की भाँति भर दिया गया है। प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह दर्शाना आवश्यक था कि पूर्व श्लोक में वर्णित समदर्शनरूप पूर्णत्व कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उसमें उस लक्ष्य के प्रति न उत्साह होगा और न लगन।स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है। जीवभाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर मनुष्य ईश्वरानुभूति में स्थित रह सकता है।जीवत्व से ईश्वरत्व तक आरोहण करने में कौन समर्थ है किस उपाय से संसार बन्धनों से मुक्ति पायी जा सकती है इस श्लोक में केवल जीवन के लक्ष्य का ही नहीं बल्कि तत्प्राप्ति के लिए साधन का भी संकेत किया गया है। भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में स्थित हैं।पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोध अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अत मन के नष्ट होने पर अहंकार और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है। सांसारिक दुखों से मुक्त जीव अनुभव करता है कि वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं। इस स्वरूपानुभूति के बिना पूर्व श्लोक में कथित समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता।भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है। प्रथम बार में अध्ययन करने पर यह कथन अयुक्तिक प्रतीत हो सकता है। इसलिये भगवान् इसका कारण बताते हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है।ब्रह्म सर्वत्र समानरूप से व्याप्त है। सब घटनाएं उसमें ही घटती हैं परन्तु उसको कोई विकार प्राप्त नहीं होता। सत्य सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है।जो व्यक्ति मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है। समुद्र की लहरों पर बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।इसलिए

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.19।।सात्त्विकेषु राजसेषु तामसेषु च सत्वेषु समत्वदर्शनमनुचितमिति शङ्कते नन्विति। सर्वत्र समदर्शिनस्तच्छब्देन परामृश्यन्ते। तेषां दोषवत्त्वादभोज्यान्नत्वमित्यत्र प्रमाणमाह समासमाभ्यामिति। समानामध्ययनादिभिः। समानधर्मकाणां वस्त्रालंकारादिपूजया विषमे प्रतिपत्तिविशेषे क्रियमाणे सत्यसमानां चासमानधर्मकाणां कस्यचिदेकवेदत्वमपरस्य द्विवेदत्वमित्यादिधर्मवतां प्रागुक्ततया पूजया समे प्रतिपत्तिविशेषे पूजयिता पुरुषविशेषं ज्ञात्वा प्रतिपत्तिमकुर्वन्धनाद्धर्माच्च हीयते तेन सात्त्विके राजसतामसयोश्च समबुद्धिं कुर्वन्प्रत्यवैतीत्यर्थः। उत्तरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति न ते दोषवन्त इति। स्मृत्यवष्टम्भेन सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शिनां दोषवत्त्वमुक्तं कथं नास्तीति प्रतिज्ञामात्रेण सिध्यतीति शङ्कते कथमिति। स्मृतेर्गतिमग्रे वदिष्यन्निर्दोषत्वं समत्वदर्शिनां विशदयति इहैवेति। सर्वेषां चेतनानां साम्ये प्रवणमनसां ब्रह्मलोकगमनमन्तरेण तस्मिन्नेव देहे परिभूतजन्मनामशेषदोषराहित्ये हेतुमाह निर्दोषं हीति। वर्तमानो देहः सप्तम्या परिगृह्यते। तानेव समदर्शिनो विशिनष्टि येषामिति। ननु ब्रह्मणो निर्दोषत्वमसिद्धं दोषवत्सु श्वपाकादिषु तद्दोषैर्दोषवत्त्वोपलम्भसंभवात्तत्राह यद्यपीति। यस्मात्तन्निर्दोषं तस्मात्तस्मिन्ब्रह्मणि स्थितैर्निर्दोषैः सर्गो जित इति संबन्धः। ब्रह्मणो गुणभूयस्त्वादल्पीयान्दोषोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह नापीति। चेतनस्य स्वगुणविशेषविशिष्टत्वमनिष्टं निर्गुणत्वश्रवणादित्ययुक्तमिच्छादीनां परिशेषादात्मधर्मत्वस्य कैश्चिन्निश्चितत्वादित्याशङ्क्याह वक्ष्यति चेति। आत्मनो निर्गुणत्वे वाक्यशेषं प्रमाणयति अनादित्वादिति। चकारो वक्ष्यतीत्यनेन संबन्धार्थः। गुणदोषवशादात्मनो भेदाभावेऽपि भेदोऽन्त्यविशेषेभ्यो भविष्यतीत्यतिप्रसङ्गादाशङ्क्य दूषयति नापीति। प्रतिशरीरमात्मभेदसिद्धौ तद्धेतुत्वेन तेषां सत्त्वं तेषां च सत्त्वे प्रतिशरीरमात्मनो भेदसिद्धिरिति परस्पराश्रयत्वमभिप्रेत्य हेतुमाह प्रतिशरीरमिति। आत्मनो भेदकाभावे फलितमाह अत इति। समत्वमेव व्याकरोति एकं चेति। ब्रह्मणो निर्विशेषत्वेनैकत्वाज्जीवानां च भेदकाभावेनैकत्वस्योक्तत्वादेकलक्षणत्वादेकत्वं जीवब्रह्मणोरेष्टव्यमित्याह तस्मादिति। जीवब्रह्मणोरेकत्वे जीवानां ब्रह्मवन्निर्दोषत्वं सिध्यतीत्याह तस्मान्नेति। तच्छब्दार्थमेव स्फोरयति देहादीति। यदि सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शनमदुष्टमिष्टं तर्हि कथं गौतमसूत्रमित्याशङ्क्याह देहादिसंघातेति। सूत्रस्य यथोक्ताभिमानवद्विषयत्वे गमकमाह पूजेति। यदि वा चतुर्वेदानामेव सतां पूजया वैषम्यं यदि वा चतुर्वेदानां षडङ्गविदां च पूजया साम्यं तदा तेषामुक्तपूजाविषयाणां केषांचिन्मनोविकारसंभवे कर्ता प्रत्यवैतीत्यविद्वद्विषयत्वं सूत्रस्य प्रतिभातीत्यर्थः। तत्रैव चानुभवमनुकूलत्वेनोदाहरति दृश्यते हीति। देहादिसंघाताभिमानवतां गुणदोषसंबन्धसंभवात्तद्विषयं सूत्रमित्युक्तमिदानीं ब्रह्मात्मदर्शनाभिमानवतां गुणदोषासंबन्धान्न तद्विषयं सूत्रमित्यभिप्रेत्याह ब्रह्म त्विति। इतश्च नेदं सूत्रं ब्रह्मविद्विषयमित्याह कर्मीति। तत्रैव पूजापरिभवसंभवादित्यर्थः। ननु यत्र समत्वदर्शनं तत्रैव त्विदं सूत्रं नतु कर्मिण्यकर्मिणि वेति विभागोऽस्ति तत्राह इदं त्विति। समत्वदर्शनस्य संन्यासिविषयत्वेन प्रस्तुतत्वे हेतुमाह सर्वकर्माणीति। आऽध्यायपरिसमाप्तेःसर्वकर्माणीत्यारभ्य तत्र तत्र सर्वकर्मसंन्यासाभिधानात्तद्विषयमिदं समत्वदर्शनं गम्यते तत्र तन्निरहंकारे निरवकाशं सूत्रमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.19।।ननु सात्त्विकादिषु समत्वदर्शनमनुचितंसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति तस्यान्नमभोज्यमित्युपक्रम्य स्मृत्या समदर्शिनोऽभोज्यान्नत्वप्रतिपादनात् समानामध्ययनादिभिस्तुल्यधर्मवतां वस्त्रालंकाररत्नादिदानपूर्वके विषमे पूजाविशेषे क्रियमाणे सति असमानां च कस्यचित् द्विवेदाध्ययनमपरस्यैकवेदाध्ययनमित्येवमध्यनादिभिरतुल्यधर्मवतां प्रागुक्ते समे पूजाविशेषे तस्याः पूजातो हेतोः पूजयिता पुरुषविशेषं ज्ञात्वा पूजाविशेषमकुर्वन्नभोज्यान्नो भवति धनाद्धर्माच्च हीयत इति स्मृतेरर्थः। तथाच सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शिनः दोषवत्त्वमित्याशङ्कायाः कार्यकरणसंघातात्मदर्शनाभिमानवत्कर्मठविषया तु गौतमस्मृतिः। पूजात इति पूजाविषयत्वेन विशेषणात्। इदं तु यः सर्वकर्मसंन्यासी निष्परिग्रहः पाकानधिकारी अभोज्यान्नो धनहीनो धर्मादिदत्तजलाञ्जलिः तत्त्ववित् तद्विषयमिति विषयभेदेनाविरोधमभिप्रेत्योत्तरमाह इहेति। इहैव जीवद्भिरेव तैर्जितो वशीकृतः अतिक्रान्तो जन्मादिलक्षणः संसारः। कैरित्यपैक्षायामाह। येषां सर्वसत्त्वेषु ब्राह्मणः समभावे स्थितं स्थिरीभूतं मनोऽन्तःकरणम्। हि यस्मान्मनः स्थितिविषयो ब्रह्म निर्दोषं तोषवत्सु चाण्डालादिषु स्थितमप्याकाशवत्तद्दोषैरस्पृष्टमतएव समं सदैव सर्वत्रैकरुपम्। तस्मादेतादृशे ब्रह्मणि ते पण्डिताः स्थिताः अतो न दोषगन्धमात्रमपि तान्स्पृशतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.19।।तदैव स्तौति इहैवेति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.19।।ननुसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति तुल्यश्रुतशीलाय ब्राह्मणद्वयाय विषमां पूजां प्रयुक्तवतः तथा अतुल्यश्रुतशीलाय ब्राह्मणद्वयाय समां पूजां प्रयुक्तवतश्चाभोज्यान्नत्वं गौतमेन स्मर्यते तत्कथं ब्राह्मणचण्डालयोः समदर्शित्वं युक्तमित्याशङ्क्याह इहैवेति। येषां मनः सर्वभूतेषु साम्ये ब्रह्मभावे स्थितं निश्चलं तैरिहैव जीवद्भिरेव सर्गो जन्म जितो वशीकृतः। हि यस्मान्निर्दोषं समं सर्वत्राविषमं ब्रह्मास्ति यथा हिरण्मययोर्देवतातत्पीठयोः स्वर्णदृक्साम्यं पश्यति पूजकस्तु आकारदृक्तारतम्यं पश्यति तद्वत्। पूजास्मृतिर्भ्रान्तिकृततारतम्यविषया। साम्यदृष्टिस्तु तत्त्वविषयेति भावः। यस्मादेवं ते साम्यं पश्यन्ति तस्माद्ब्रह्मण्यखण्डैकरसे ते द्रष्टारः स्थिता एकीभावेन समाप्तिं गताः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.19।।इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव तैः सर्गो जितः संसारो जितः येषाम् उक्तरीत्या सर्वेषु आत्मसु साम्ये स्थितं मनः निर्दोषं हि समं ब्रह्म प्रकृतिसंसर्गदोषवियुक्ततया समम् आत्मवस्तु हि ब्रह्म आत्मसाम्ये स्थिताः चेद् ब्रह्मणि स्थिता एव ते। ब्रह्मणि स्थितिः एव हि संसारजयः। आत्मसु ज्ञानैकाकारतया साम्यम् एव अनुसन्दधाना मुक्ता एव इत्यर्थः।येन प्रकारेण अवस्थितस्य कर्मयोगिनः समदर्शनरूपो ज्ञानविपाको भवति तं प्रकारम् उपदिशति

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.19।। ननु विषमेषु समदर्शनं निषिद्धं कुर्वन्तोऽपि कथं ते पण्डिताः। यथाह गौतमःसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति। अस्यार्थःसमाय पूजाया विषमे प्रकारे कृते सति विषमाय च समे प्रकारे कृते सति स पूजक इह लोकात्परलोकाच्च हीयत इति। तत्राह इहैवेति। इहैव जीवद्भिरेव तैः सृज्यत इति सर्गः संसारो जितो निरस्तः। कैः। येषां मनः साम्ये समत्वे स्थितम्। तत्र हेतुः हि यस्मात् ब्रह्म समं निर्दोषं च तस्मात्ते समदर्शिनो ब्रह्मण्येव स्थिताः। ब्रह्मभावं प्राप्ता इत्यर्थः। गौतमोक्तस्तु दोषो ब्रह्मभावप्राप्तेः पूर्वमेव। पूजात इति पूजकावस्थाश्रवणात्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.19।।इदं समदर्शित्वं न कालान्तरभाविफलसाधनमात्रं किन्त्विदानीमेव निश्श्रेयसकल्पां क्लेशनिवृत्तिं दिशतीति समदर्शिनां प्रशंसा क्रियते इहैवेति श्लोकेन।साधनानुष्ठानदशायामेवेति इहशब्दस्यात्र लोकपरत्वादपि स्वावस्थाविशेषपरत्वमेवोचितमिति भावः।संसारो जित इति मुक्तप्रायास्त इत्यर्थः। सृष्ट्यादेरत्रानन्वयात्सर्गशब्दः सृज्यत इति व्युत्पत्त्याऽत्र संसारपरः। ब्राह्मणचण्डालादीनां स्पृश्यत्वादिसाम्यप्रसङ्गव्युदासायउक्तरीत्येत्युक्तम्। निरुपाधिकात्मस्वरूपं ज्ञानैकाकारतया सममिति पूर्वभाष्योक्तप्रकारेणेत्यर्थः। नन्वात्मन्येव स्थितिः संसारजयहेतुः न तु तत्साम्ये तत्राह निर्दोषं हि समं ब्रह्मइति। ब्रह्मत्वमेव विधेयम् अन्यथातस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः इत्यनन्वयात् समदर्शिनो ब्रह्मणि स्थिताः समस्य ब्रह्मत्वात् इति ह्यन्वयः स्यात् ततश्चोक्तचोद्यपरिहार इत्यभिप्रायेणाह आत्मवस्त्विति। ततः किं प्रकृतस्येत्यत्राह ब्रह्मणि स्थितिरिति। ब्रह्मशब्दोऽत्र शुद्धात्मनि ब्रह्मसाम्यात्। अत्र फलितं पिण्डितार्थमाह आत्मस्विति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.19।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.19।।ननूत्तरवाक्ये साम्यदर्शनं मुक्तिसाधनमेवोच्यते तत्कथमुच्यते अपरोक्षज्ञानसाधनमिति प्राग्ज्ञानिनोऽपि जन्मान्तरसद्भाव उक्तः तत्कथमिहैवेति तद्देह एव मुक्तिरुक्तेत्यत आह तदेवेति। स्तुतावधिकोक्तिः सम्भवतीति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.19।।ननु सात्त्विकराजसतामसेषु स्वभावविषमेषु प्राणिषु समत्वदर्शनं धर्मशास्त्रनिषिद्धम्। तथाचतस्यान्नमभोज्यम्इत्युपक्रम्य गौतमः स्मरतिसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति। समासमाभ्यामिति चतुर्थीद्विवचनम्। विषमसमे इति द्वन्द्वैकवद्भावेन सप्तम्येकवचनम्। चतुर्वेदपारगाणामत्यन्तसदाचाराणां यादृशो वस्त्रालंकारान्नादिदानपुरःसरः पूजाविशेषः क्रियते तत्समायैवान्यस्मै चतुर्वेदपारगाय सदाचाराय विषमे तदपेक्षया न्यूने पूजाप्रकारे कृते तथाल्पवेदानां हीनाचाराणां यादृशो हीनसाधनः पूजाप्रकारः क्रियते तादृशायैवासमाय पूर्वोक्तवेदपारगसदाचारब्राह्मणापेक्षया हीनाय तादृशहीनपूजाधिके मुख्यपूजासमे पूजाप्रकारे कृते उत्तमस्य हीनतया हीनस्योत्तमतया पूजातो हेतोस्तस्य पूजयितुरन्नमभोज्यं भवतीत्यर्थः। पूजयिता प्रतिपत्तिविशेषमकुर्वन्धनाद्धर्माच्च हीयत इति च दोषान्तरम्। यद्यपि यतीनां निष्परिग्रहाणां पाकाभावाद्धनाभावाच्चाभोज्यान्नत्वं धनहीनत्वं च स्वतएव विद्यते तथापि धर्महानिर्दोषो भवत्येव। अभोज्यान्नत्वं चाशुचित्वेन पापोत्पत्त्युपलक्षणम्। तपोधनानां च तपएव धनमिति तद्धानिरपि दूषणं भवत्येवेति कथं समदर्शिनः पण्डिता जीवन्मुक्ता इति प्राप्ते परिहरति तैः समदर्शिभिः पण्डितैरिहैव जीवनदशायामेव जितोऽतिक्रान्तः सर्गः सृज्यत इति व्युत्पत्त्या द्वैतप्रपञ्चः। देहपातादूर्ध्वमतिक्रमितव्य इति किमु वक्तव्यम्। कैः। येषां साम्ये सर्वभूतेषु विषमेष्वपि वर्तमानस्य ब्रह्मणः समभावे स्थितं निश्चलं मनः। हि यम्मान्निर्दोषं समं सर्वविकारशून्यं कूटस्थनित्यमेकं च ब्रह्म तस्मात्ते समदर्शिनो ब्रह्मण्येव स्थिताः। अयं भावः दुष्टत्वं हि द्वेधा भवति अदुष्टस्यापि दुष्टसंबन्धात्स्वतो दुष्टत्वाद्वा। यथा गङ्गोदकस्य मूत्रगर्तपातात् स्वतएव वा यथा मूत्रादेः। तत्र दोषवस्तु श्वपाकादिषु स्थितं तद्दोषैर्दुष्यति ब्रह्मेति मूढैर्विभाव्यमानमपि सर्वदोषासंसृष्टमेव ब्रह्म व्योमवदसङ्गत्वात्।असङ्गो ह्ययं पुरुषःसूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति श्रुतेः। नापि कामादिधर्मवत्तया स्वतएव कलुषितं कामादेरन्तःकरणधर्मत्वस्य श्रुतिस्मृतिसिद्धत्वात्। तस्मान्निर्दोषब्रह्मरूपा यतयो जीवन्मुक्ता अभोज्यान्नादिदोषदुष्टाश्चेति व्याहतम्। स्मृतिस्त्वविद्वद्गृहस्थविषयैवतस्यान्नमभोज्यम् इत्युपक्रमात् पूजात इति मध्ये निर्देशात्धनाद्धर्माच्च हीयते इत्युपसंहाराच्चेति द्रष्टव्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.19।।य एतादृशास्त उत्तमा इत्याह इहैवेति। येषां मनः साम्ये समभावे स्थितं तैरिहैव सर्गो जितः।अत्रायं भावः भगवता स्वक्रीडार्थं जगदुत्पादितं तत्र यस्य यादृशेच्छया यो भाव उत्पादितः स तथैव करोति। स योग्यो भवति नवेति किमर्थं विचारणीयम् अतो येषां मनः साम्ये भगवत्क्री़डारूपे स्थितं तैरिहैव अधिष्ठानात्मकदेह एव सर्गः संसारो मायारूपो जितः। यतो ब्रह्म समं स्वक्रीडार्थरूपेषु निर्दोषं तेषु दोषादिरहितं तस्माद्येषां मनः साम्ये स्थितं ते ब्रह्मणि ब्रह्मभावे स्थिताः अतस्तैः संसारो जित इत्यर्थः। यद्वा सर्गः स्वोत्पत्तिर्जिता वशीकृता सफलीकृतेत्यर्थः। भगवता स्वमेवार्थमुत्पादितास्तत्कृतमिति भावः। यद्वा येषां मनः संयोगवियोगयोः साम्येन स्थितं तैरिहैव अधिकरणदेह एव सर्गः अलौकिकोऽग्रेभावी जितो वशीकृतः सर्वथैवालौकिकदेहो भावरूपो वशे जातो यतोऽयं यदैवेच्छति तदैव भावप्राकट्यं भवतीति भावः। हीति युक्तमेव। यतो ब्रह्म भगवान् स्वस्थायिरसात्मकत्वात् समानाद्यवस्थासु। निर्दोषं यथा रासे। यतो ब्रह्म तादृशं तस्मात् ते ब्रह्मणि ब्रह्मभावे निरोधरूपे स्थिता इति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.19।। इह एव जीवद्भिरेव तैः समदर्शिभिः पण्डितैः जितः वशीकृतः सर्गः जन्म येषां साम्ये सर्वभूतेषु ब्रह्मणि समभावे स्थितं निश्चलीभूतं मनः अन्तःकरणम्। निर्दोषं यद्यपि दोषवत्सु श्वपाकादिषु मूढैः तद्दोषैः दोषवत् इव विभाव्यते तथापि तद्दोषैः अस्पृष्टम् इति निर्दोषं दोषवर्जितं हि यस्मात् नापि स्वगुणभेदभिन्नम् निर्गुणत्वात् चैतन्यस्य। वक्ष्यति च भगवान् इच्छादीनां क्षेत्रधर्मत्वम् अनादित्वान्निर्गुणत्वात् (गीता 13.31) इति च। नापि अन्त्या विशेषाः आत्मनो भेदकाः सन्ति प्रतिशरीरं तेषां सत्त्वे प्रमाणानुपपत्तेः। अतः समं ब्रह्म एकं च। तस्मात् ब्रह्मणि एव ते स्थिताः। तस्मात् न दोषगन्धमात्रमपि तान् स्पृशति देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानाभावात् तेषाम्। देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानवद्विषयं तु तत् सूत्रम् समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः (गौ0 स्मृ0 17.20) इति पूजाविषयत्वेन विशेषणात्। दृश्यते हि ब्रह्मवित् षडङ्गवित् चतुर्वेदवित् इति पूजादानादौ गुणविशेषसंबन्धः कारणम्। ब्रह्म तु सर्वगुणदोषसंबन्धवर्जितमित्यतः ब्रह्मणि ते स्थिताः इति युक्तम्। कर्मविषयं च समासमाभ्याम् इत्यादि। इदं तु सर्वकर्मसंन्यासविषयं प्रस्तुतम् सर्वकर्माणि मनसा (गीता 5.13) इत्यारभ्य आध्यायपरिसमाप्तेः।।यस्मात् निर्दोषं समं ब्रह्म आत्मा तस्मात्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.19।।अतो यद्यत्समं तद्ब्रह्मरूपमिति मन्तव्यं यदि मनोऽपि निरोधे समं स्यात्तदा ब्रह्मैव तादात्म्यात्सिद्ध्यसिद्धयो ৷৷. समत्वं योगः 2।48 इत्युक्तत्वात्। तद्विषयके मनसि ते ब्रह्मतादात्म्यापन्ना इत्याह इहैवेति। येषां साम्ये स्थितं मनस्तैः सर्गः प्रवाहमार्गो जितः।समदर्शिनः इत्यस्याथ त्वयमेव विवृणोति निर्दोष हि समं ब्रह्मेति। तस्मात्ते ब्रह्मणि स्थिता इत्यर्थो ज्ञातव्यः।


Chapter 5, Verse 19