Chapter 5, Verse 17

Text

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।5.17।।

Transliteration

tad-buddhayas tad-ātmānas tan-niṣhṭhās tat-parāyaṇāḥ gachchhantyapunar-āvṛittiṁ jñāna-nirdhūta-kalmaṣhāḥ

Word Meanings

tat-buddhayaḥ—those whose intellect is directed toward God; tat-ātmānaḥ—those whose heart (mind and intellect) is solely absorbed in God; tat-niṣhṭhāḥ—those whose intellect has firm faith in God; tat-parāyaṇāḥ—those who strive after God as the supreme goal and refuge; gachchhanti—go; apunaḥ-āvṛittim—not returning; jñāna—by knowledge; nirdhūta—dispelled; kalmaṣhāḥ—sins


Translations

In English by Swami Adidevananda

Those whose intellects pursue it, whose minds think about it, who undergo discipline for it, and who hold it as their highest object, have their impurities cleansed by knowledge and go from whence there is no return.

In English by Swami Gambirananda

Those whose intellect is absorbed in That, whose Self is That, who are steadfast in That, and who have That as their supreme Goal—they attain the state of non-returning, their impurities having been removed by Knowledge.

In English by Swami Sivananda

Their intellect absorbed in That, their self being That, established in That, with That as their supreme goal, they go whence there is no return, their sins dispelled by knowledge.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Those who have their intellect and self (mind) devoted to This; who have established themselves in This and have This [alone] as their supreme goal; and who have washed off their sins through [perfect] knowledge—they reach a state from which there is no more return.

In English by Shri Purohit Swami

Meditating on the divine, having faith in the divine, concentrating on the divine, and losing themselves in the divine, their sins dissolve in wisdom, and they go from whence there is no return.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.17।। जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिनका मन तदाकार हो रहा है, जिनकी स्थिति परमात्मतत्वमें है, ऐसे परमात्मपरायण साधक ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति (परमगति) को प्राप्त होते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.17।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है,  जिनका मन तद्रूप हुआ है,  उसमें ही जिनकी निष्ठा है,  वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है,  ज्ञान के द्वारा पापरहित पुरुष अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं,  अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.17 तद्बुद्धयः intellect absorbed in That? तदात्मानः their self being That? तन्निष्ठाः established in That? तत्परायणाः with That for their supreme goal? गच्छन्ति go? अपुनरावृत्तिम् not again returning? ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः,those whose sins have been dispelled by knowledge.Commentary They fix their intellects on Brahman or the Supreme Self. They feel and realise that Brahman is their self. By constant and protracted meditation? they get established in Brahman. The whole world of names and forms vanishes for them. They live in Brahman alone. They have Brahman alone as their supreme goal or sole refuge. They rejoice in the Self alone. They are satisfied in the Self alone. They are contented in the Self alone. Such men never come back to this Samsara? as their sins are dispelled by knowledge (BrahmaJnana). (Cf.IX.34)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.17।। व्याख्या--[परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये दो प्रकारके साधन हैं एक तो विवेकके द्वारा असत्का त्याग करनेपर सत्में स्वरूप-स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा, सत्का चिन्तन करते-करते सत्की प्राप्ति हो जाती है। चिन्तनसे सत्की ही प्राप्ति होती है। असत्की प्राप्ति कर्मोंसे होती है, चिन्तनसे नहीं। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु कर्मसे मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिन्तनसे मिलता है। चिन्तनसे परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं--इसकी विधि इस श्लोकमें बताते हैं।]'तद्बुद्धयः' निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम 'बुद्धि' है। साधक पहले बुद्धिसे यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसारके उत्पन्न होनेसे पहले भी परमात्मा थे और संसारके नष्ट होनेके बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीचमें भी संसारका जो प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्माकी सत्ता-(होनेपन-) में अटल निश्चय होना ही 'तद्बुद्धयः' पदका तात्पर्य है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.17।। शास्त्रों के गहन अध्ययन के द्वारा साधक अपने व्यक्तित्व के सभी पक्षों के साथ आत्मयुक्त हो जाता है। बुद्धि आत्मस्वरूप का निश्चय करके उसमें ही स्थित हो जाती है और उसके मन की प्रत्येक भावना ईश्वर की ही स्तुति का गान करती है। अनन्त आनन्दस्वरूप को आत्मरूप से पहचान कर साधक की उसमें निष्ठा हो जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए अपरिच्छिन्न और अपरिच्छेद्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई परम लक्ष्य नहीं हो सकता।शास्त्राध्ययन के द्वारा जो व्यक्ति अपने सत्यात्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके लिए पुन राग या द्वेष के बन्धन में आने का अवसर या कारण ही नहीं रह जाता। यही शास्त्राध्ययन का फल है। अध्ययन के पश्चात् आवश्यकता होती है उस ज्ञान के अनुसार जीवन जीने की अर्थात् उस ज्ञान के आचरण की। अध्ययन और आचरण से ही स्वस्वरूप में अवस्थान सम्भव हो सकता है।स्वरूप में अवस्थान प्राप्त पुरुष का पुनर्जन्म नहीं होता। इसका कारण क्या है हम कैसेे कह सकते हैं कि ज्ञान के उपरान्त पुन अहंकार उत्पन्न नहीं होगा ज्ञानी पुरुषों के लिए प्रयुक्त ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इस विशेषण के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं। कल्मष अर्थात् पाप से तात्पर्य वासनाओं से है। वासनाओं से उत्पन्न होता है अहंकार। वेदान्त में वासना को ही आत्मअज्ञान कहते हैं। अज्ञान के विरोधी आत्मज्ञान का उदय होने पर दुखदायक अज्ञान अंधकार का विनाश हो जाता है और उसके साथ ही तज्जनित अहंकार भी नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् अहंकार पुन जन्म नहीं ले सकता क्योंकि ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञान लौटकर नहीं आ सकता। कारण के ही अभाव में कार्यरूप अहंकार कैसे उत्पन्न हो सकता है इस श्लोक में हमें विश्व के सबसे आशावादी तत्त्वज्ञान के दर्शन होते हैं जहाँ स्पष्ट घोषणा की गई है कि आत्मसाक्षात्कार जीव के विकास का चरम लक्ष्य है। परम तत्त्व की अनुभूति विकास के सोपान की अन्तिम सीढ़ी है जिसे प्राप्त करने के लिए ही जीव स्वनिर्मित विषयों के बन्धनों में यत्रतत्र भटकता रहता है।ज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ज्ञानी पुरुष किस प्रकार तत्त्व को देखते हैं उत्तर है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.17।।विदुषां विविदिषूणां चान्तरङ्गाणि विद्यापरिपाकसाधनानीत्युपदिदिक्षुरुत्तरश्लोकस्यापेक्षितं पूरयति यत्परमिति। तस्मिन्परमार्थतत्त्वे परस्मिन्ब्रह्मणि बाह्यं विषयमपोह्य गता प्रवृत्ता श्रवणमनननिदिध्यासनैरसकृदनुष्ठितैर्बुद्धिः साक्षात्कारलक्षणा येषां ते तथेति प्रथमविशेषणं विभजते तस्मिन्निति। तर्हि बोद्धा जीवो बोद्धव्यं ब्रह्मेति जीवब्रह्मभेदाभ्युपगमो नेत्याह तदात्मान इति। कल्पितं बोद्धृबोद्धव्यत्वं वस्तुतस्तु न भेदोऽस्तीत्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे तदेवेति। ननु देहादावात्माभिमानमपनीय ब्रह्मण्येवाहमस्मीत्यवस्थानं तत्तदनुष्ठीयमानकर्मप्रतिबन्धान्न सिध्यतीत्याशङ्क्य विशेषणान्तरमादत्ते तन्निष्ठा इति। तत्र निष्ठाशब्दार्थं दर्शयन्विवक्षितमर्थमाह निष्ठेत्यादिना। तथापि पुरुषार्थान्तरापेक्षाप्रतिबन्धात्कथंयथोक्ते ब्रह्मण्येवावस्थानं सेद्धुं पारयति तत्राह तत्परायणाश्चेति। यथोक्तानामधिकारिणां परमपुरुषार्थस्योक्तब्रह्मानतिरेकान्नान्यत्रासक्तिरिति तात्पर्यार्थमाह केवलेति। ननु यथोक्तविशेषणवतां वर्तमानदेहपातेऽपि देहान्तरपरिग्रहव्यग्रतया कुतो यथोक्ते ब्रह्मण्यवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह ते गच्छन्तीति। सति संसारकारणे दुरितादौ संसारप्रसरस्य दुर्वारत्वान्नापुनरावृत्तिसिद्धिरित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। उक्तविशेषसंपत्त्या दर्शितफलशालित्वमाश्रमान्तरेष्वसंभावितमिति मन्वानो विशिनष्टि यतय इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.17।।तत्परमार्थतत्त्वं ज्ञानप्रकाशितं तस्मिन्गता बुद्धिर्येषां ते। ननु ते किं तस्माद्य्वतिरिक्ता नेत्याह। तदेव परंब्रह्मात्मा स्वरुपं येषां ते। तत्र हेतुमाह। यतस्तस्मिन्ब्रह्मणि निष्ठा निदिध्यासनात्मकोऽभिनिवेशो येषां ते। तत्रापि हेतुमाह। यतस्तदेव परमयनं परा गतिर्येषां ते तदेव परां गतिं बुद्ध्वा इहामुत्रार्थभोगे विरज्य तत्छ्रवणतन्मननैकपरत्वेन तत्पराणा इत्यर्थः। एवंभूता अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति। यतो ज्ञानेन ब्रह्मात्मसाक्षात्कारेण नितरां मूलोच्छेदेन धूतो नाशितः कल्मषः पुनरावृत्तिकारणीभूतो येषां ते।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.17।।अपरोक्षज्ञानाव्यवहितसाधनमाह तद्बुद्धय इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.17।।तद्बुद्धय इति। यत् परं ब्रह्म प्रशान्तं तत्रैव बुद्धिरस्ति ब्रह्मेति निश्चयो येषामापाततः श्रुत्यर्थविदां ते तद्बुद्धयः तदेव आत्मा प्रत्यक्तत्त्वं येषां श्रवणमननात्मकविचारेण प्रमाणप्रमेयगतासंभावनाविहीनानां ते तदात्मानः तत्रैव निष्ठा विजातीयवृत्त्यनन्तरितसजातीयवृत्तिप्रवाहो येषां देहादावनात्मन्यात्मधीरूपविपरीतभावनारहितानां ते तन्निष्ठाः तदेव परमयनमज्ञानरूपोपाधिनिरासेन प्राप्यं येषामखण्डानन्दमग्नानां ते तत्परायणाः अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति। यतो ज्ञानेन निर्धूतं कल्मषं मूलाज्ञानं संसारबीजभूतं येषां ते ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.17।।तद्बुद्धयः तथाविधात्मदर्शनाध्यवसायाः तदात्मानः तद्विषयमनसः तन्निष्ठाः तदभ्यासनिरताः तत्परायणाः तद् एव परम् अयनं येषां ते एवमभ्यस्यमानेन ज्ञानेन निर्धूतप्राचीनकल्मषाः तथाविधम् आत्मानम् अपुनरावृत्तिं गच्छन्ति। यदवस्थाद् आत्मनः पुनरावृत्तिः न विद्यते स आत्मा अपुनरावृत्तिः स्वेन रूपेण अवस्थितः तम् आत्मानं गच्छन्ति इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.17।।एवंभूतेश्वरोपासनाफलमाह तद्बुद्धय इति। तस्मिन्नेव बुद्धिर्निश्चयात्मिका येषाम् तस्मिन्नेवात्मा मनो येषाम् तस्मिन्नेव निष्ठा तात्पर्यं येषाम् तदेव परमयनमाश्रयो येषाम् ततश्च तत्प्रसादलब्धेनात्मज्ञानेन निर्धूतं निरस्तं कल्मषं येषांतेऽपुनरावृत्तिं मुक्तिं यान्ति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.17।।आत्मानुभवसौधसोपानस्य ज्ञानस्यारोहणक्रमं दर्शयति तद्बुद्धयः इति श्लोकेन। तच्छब्देनात्र पूर्वप्रस्तुतस्वाभाविकात्मस्वरूपं पूर्वश्लोकोक्ततज्ज्ञानं वा परामृश्यत इत्यभिप्रायेणतथाविधात्मदर्शनाध्यवसाया इत्युक्तम्।तदात्मानः इत्यनेन द्रष्टव्यत्वाध्यवसायादनन्तरो दर्शनार्थप्रवृत्तियोग उच्यत इत्यभिप्रायेणतद्विषयमनस इत्युक्तम्।तन्निष्ठत्वं विषयान्तरवैमुख्यात्तत्परायणत्वे हेतुः। अयनशब्दोऽत्र कर्मणि ल्युडन्तः प्राप्यपरः। वाक्यार्थज्ञानादिमात्रव्यावृत्त्यर्थंएवमभ्यस्यमानेनेत्युक्तम्। प्राप्तिप्रतिबन्धककल्मषनिवृत्तिर्ह्युपान्त्यपर्व। अतोऽन्तिमं प्राप्यमत्रापुनरावृत्तिशब्देन विवक्षितम् स च यथावस्थित आत्मैवेत्यभिप्रायेणतथाविधमात्मानमिति। अपुनरावृत्तिशब्दस्यात्रानुद्दिष्टावध्यन्तरपरामर्शसापेक्षसमासान्तरव्युदासेनात्मविशेषणत्वायाहयदवस्थादिति। नन्वात्मन एवक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति 9।29 इति पुनरावृत्तिरुच्यते यदवस्थादिति चायुक्तं मोक्षस्याप्यवस्थाविशेषत्वे नित्यत्वायोगात्पुनरावृत्तिप्रसङ्गादित्यत्राहस्वेन रूपेणेति। औपाधिकसमस्ताकारनिवृत्तिरूपावस्थाविनाशकासम्भवात्परमतेऽपि प्रध्वंसरूपत्वादनिवर्त्येति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.17।।एतच्च (K तच्च) तद्गतबुद्धिमनसा त्यक्तान्यव्यापाराणां घटत इत्याशयं प्रकटयितुमाह (S तुमुक्तम्) यत एवं स्वभावस्तु प्रवर्तते इत्यतो ध्वस्ताज्ञानानामित्थं स्थितिरित्याह विद्येति। तथा च तेषां योगिना ब्राह्मणे न ईदृशी (N अनीदृशी) बुद्धिः अस्य शुश्रूषादिना अहं पुण्यवान् भविष्यामि इत्यादि गवि न पावनी इयम् इत्यादि हस्तिनि न अर्थादिधीः शुनि अपवित्रपापकारितादिनिश्चयः श्वपाके च न पापापवित्रादिधिषणा। अत एव समं पश्यन्ति इति न तुव्यवहरन्ति इति। तदुक्तम् (K यदुक्तम्) चिद्धर्मा सर्वदेहेषु विशेषो नास्ति कुत्रचित्।अतश्च तन्मयं सर्वं भावयन् भवजिज्जनः ( N भवभिज्जनः)।।इति। (V 100 )।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.17।।तद्बुद्धित्वादिकं यद्यपुनरावृत्तिसाधनत्वेनोच्यते तदाऽपरोक्षज्ञानादेव मोक्ष इति गतः पक्षः। अथ तद्बुद्धयो ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इति ज्ञानसाधनत्वेन। तदसत् ज्ञानेनेति परोक्षज्ञानस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वेनोक्तत्वादित्यत आह अपरोक्षेति। सत्यम् परोक्षज्ञानमपरोक्षज्ञानसाधनम् किन्तु व्यवहितम्। न हि श्रवणमननानन्तरमेवापरोक्षज्ञानमुत्पद्यते। इदं त्वव्यवहितसाधनमाहेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.17।।ज्ञानेन परमात्मतत्त्वप्रकाशे सति तस्मिञ्ज्ञानप्रकाशिते परमात्मतत्त्वे सच्चिदानन्दघन एव बाह्यसर्वविषयपरित्यागेन साधनपरिपाकात्पर्यवसिता बुद्धिरन्तःकरणवृत्तिः साक्षात्कारलक्षणा येषां ते तद्बुद्धयः। सर्वदा निर्बीजसमाधिभाज इत्यर्थः। तत्किं बोद्धारो जीवा बोद्धव्यं ब्रह्मतत्त्वमिति बोद्धृबोद्धव्यलक्षणभेदोऽस्ति नेत्याह तदात्मानः तदेव परं ब्रह्म आत्मा येषां ते तथा। बोद्धृबोद्धव्यभावो हि मायाविजृम्भितो न वास्तवाभेदविरोधीति भावः। ननु तदात्मान इति विशेषणं व्यर्थं अविद्वद्व्यावर्तकं हि विद्वद्विशेषणम्। अज्ञा अपि हि वस्तुगत्या तदात्मान इति कथं तद्व्यावृरिति चेत्। न। इतरात्मत्वव्यावृत्तौ तात्पर्यात्। अज्ञा हि अनात्मभूते देहादावात्माभिमानिन इति न तदात्मान इति व्यपदिश्यन्ते। विज्ञास्तु निवृत्तदेहाद्यभिमाना इति विरोधिनिवृत्त्या तदात्मान इति व्यपदिश्यन्त इति युक्तं विशेषणम्। ननु कर्मानुष्ठानविक्षेपे सति कथं देहाद्यभिमाननिवृत्तिरिति तत्राह तन्निष्ठाः तस्मिन्नेव ब्रह्मणि सर्वकर्मानुष्ठानविक्षेपनिवृत्त्या निष्ठा स्थितिर्येषां ते तन्निष्ठाः। सर्वकर्मसंन्यासेन तदेकविचारपरा इत्यर्थः। फलरागे सति कथं तत्साधनभूतकर्मत्याग इति तत्राह तत्परायणाः। तदेव परमयनं प्राप्तव्यं येषां ते तत्परायणाः। सर्वतो विरक्ता इत्यर्थः। अत्र तद्बुद्धय इत्यनेन साक्षात्कार उक्तः। तदात्मान इत्यनात्माभिमानरूपविपरीतभावनानिवृत्तिफलको निदिध्यासनपरिपाकः। तन्निष्ठा इत्यनेन सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकः प्रमाणप्रमेयगतासंभावनानिवृत्तिफलको वेदान्तविचारः श्रवणमननपरिपाकरूपः। तत्परायणा इत्यनेन वैराग्यप्रकर्ष इत्युत्तरोत्तरस्य पूर्वपूर्वहेतुत्वं द्रष्टव्यम्। उक्तविशेषणा यतयो गच्छन्त्यपुनरावृत्ति पुनर्देहसंबन्धाभावरूपां मुक्तिं प्राप्नुवन्ति। सकृन्मुक्तानामपि पुनर्देहसंबन्धः कुतो न स्यादिति तत्राह ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ज्ञानेन निर्धूतं समूलमुन्मूलितं पुनर्देहसंबन्धकारणं कल्मषं पुण्यपापात्मकं कर्म येषां ते तथा। ज्ञानेनानाद्यज्ञाननिवृत्त्या तत्कार्यकर्मक्षये तन्मूलकं पुनर्देहग्रहणं कथं भवेदिति भावः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.17।।तत्प्रकाशात्फलं भवतीत्याह तद्बुद्धय इति। तस्मिन् ईश्वरे बुद्धिर्येषां ते तस्मिन् स एव वाऽत्मा येषाम् तस्मिन्नेव निष्ठा भावो येषाम् तस्मिन्नेव परायणाः तत्परास्तादृशाः ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः निरस्ताज्ञानाः अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.17।। तस्मिन् ब्रह्मणि गता बुद्धिः येषां ते तद्बुद्धयः तदात्मानः तदेव परं ब्रह्म आत्मा येषां ते तदात्मानः तन्निष्ठाः निष्ठा अभिनिवेशः तात्पर्यं सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य तस्मिन् ब्रह्मण्येव अवस्थानं येषां ते तन्निष्ठाः तत्परायणाश्च तदेव परम् अयनं परा गतिः येषां भवति ते तत्परायणाः केवलात्मरतय इत्यर्थः। येषां ज्ञानेन नाशितम् आत्मनः अज्ञानं ते गच्छन्ति एवंविधाः अपुनरावृत्तिम् अपुनर्देहसंबन्धं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः यथोक्तेन ज्ञानेन निर्धूतः नाशितः कल्मषः पापादिसंसारकारणदोषः येषां ते ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः यतयः इत्यर्थः।।येषां ज्ञानेन नाशितम् आत्मनः अज्ञानं ते पण्डिताः कथं तत्त्वं पश्यन्ति इत्युच्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.17।।य एतादृशज्ञानिनस्ते मुक्ता इत्याह तद्बुद्धय इति। तत्प्रसादलब्धेन ज्ञानेन ब्रह्मस्वरूपविषयकेण निरस्तकल्मषा मुक्तिं यान्तीत्यर्थः।


Chapter 5, Verse 17