Chapter 5, Verse 16

Text

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।5.16।।

Transliteration

jñānena tu tad ajñānaṁ yeṣhāṁ nāśhitam ātmanaḥ teṣhām āditya-vaj jñānaṁ prakāśhayati tat param

Word Meanings

jñānena—by divine knowledge; tu—but; tat—that; ajñānam—ignorance; yeṣhām—whose; nāśhitam—has been destroyed; ātmanaḥ—of the self; teṣhām—their; āditya-vat—like the sun; jñānam—knowledge; prakāśhayati—illumines; tat—that; param—Supreme Entity


Translations

In English by Swami Adidevananda

But for those in whom this ignorance is destroyed by the knowledge of the Self, that knowledge, in their case, is supreme and shines brightly like the sun.

In English by Swami Gambirananda

But in the case of those whose ignorance is destroyed by knowledge (of the Self), their knowledge, like the sun, reveals that supreme Reality.

In English by Swami Sivananda

But to those whose ignorance is destroyed by knowledge of the Self, like the sun, knowledge reveals the Supreme Brahman.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

In the case of those whose illusion has been destroyed by Self-knowledge, that knowledge illuminates itself, like the sun.

In English by Shri Purohit Swami

Surely, wisdom is like the sun, revealing the supreme truth to those whose ignorance has been dispelled by the wisdom of the Self.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.16।। परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान-(विवक-) के द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है, उनका वह ज्ञान सूर्यकी तरह परमतत्त्व परमात्माको प्रकाशित कर देता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.16।। परन्तु जिनका वह अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है,  उनके लिए वह ज्ञान,  सूर्य के सदृश,  परमात्मा को प्रकाशित करता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.16 ज्ञानेन by wisdom? तु but? तत् that? अज्ञानम् ignorance? येषाम् whose? नाशितम् is destroyed? आत्मनः of the Self? तेषाम् their? आदित्यवत् like the sun? ज्ञानम् knowledge? प्रकाशयति reveals? तत्परम् that Highest.Commentary When ignorance? the root cause of human sufferings? is annihilated by the knowledge of the Self? this knowledge illuminates the Supreme Brahman or that highest immortal Being? just as the sun illumines all the objects of this gross? physical universe.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.16।। व्याख्या--'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः'--पीछेके श्लोकमें कही बातसे विलक्षण बात बतानेके लिये यहाँ 'तु'पदका प्रयोग किया गया है।पीछेके श्लोकमें जिसको 'अज्ञानेन' पदसे कहा था, उसको ही यहाँ 'तत् अज्ञानम्' पदसे कहा गया है।अपनी सत्ताको और शरीरको अलग-अलग मानना 'ज्ञान' है और एक मानना 'अज्ञान' है।उत्पत्ति-विनाशशील संसारके किसी अंशमें तो हमने अपनेको रख लिया अर्थात् मैं-पन (अहंता) कर लिया और किसी अंशको अपनेमें रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ताका तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे--पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपनके परिवर्तनका ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ताके परिवर्तनका ज्ञान हमें नहीं है--यह ज्ञान अर्थात् विवेक है।मैं-मेरेपनको जडके साथ न मिलाकर साधक अपने-विवेकको महत्त्व दे कि मैं-मेरापन जिससे मिलाता हूँ, वह सब बदलता है; परन्तु मैं-मेरा कहलानेवाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जडका बदलना और अभाव तो समझमें आता है, पर स्वयंका बदलना और अभाव किसीकी समझमें नहीं आता; क्योंकि स्वयंमें किञ्चित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं--इस विवेकके द्वारा मैं-मेरेपनका त्याग कर दे कि शरीर 'मैं' नहीं और बदलनेवाली वस्तु 'मेरी' नहीं। यही विवेकके द्वारा अज्ञानका नाश करना है। परिवर्तनशीलके साथ अपरिवर्तनशीलका सम्बन्ध अज्ञानसे अर्थात् विवेकको महत्त्व न देनेसे है। जिसने विवेकको जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैं-मेरेपनके सम्बन्धका विच्छेद कर दिया है, उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है।'तेषामादित्यव़ज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्' विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशीलकी निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशीलकी निवृत्ति होनेपर अपने स्वरूपका स्वच्छ बोध हो जाता है जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।यहाँ 'परम' पद परमात्मतत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी परमात्मतत्त्वके लिये 'परम' पद आया है।'प्रकाशयति' पदका तात्पर्य है कि सूर्यका उदय होनेपर नयी वस्तुका निर्माण नहीं होता, प्रत्युत अन्धकारसे ढके जानेके कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी, वह दीखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है, पर अज्ञानके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेकके द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव होने लग जाता है। 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.16।। शोक और मोह से ग्रस्त जीवों के लिए शुद्ध आत्मस्वरूप अविद्या से आवृत रहता है अर्थात् उन्हें आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव नहीं होता। ज्ञानी पुरुष के लिए अज्ञानावरण पूर्णतया निवृत्त हो जाता है। कितने ही दीर्घ काल से किसी स्थान पर स्थित अंधकार प्रकाश के आने पर तत्काल ही दूर हो जाता है न कि धीरेधीरे किसी विशेष क्रम से। इसी प्रकार से आत्मज्ञान का उदय होते ही अनादि अविद्या उसी क्षण निवृत्त हो जाती है। अविद्या से उत्पन्न होता है अहंकार जिसका अस्तित्व शरीर मन और बुद्धि के साथ हुए तादात्म्य के कारण बना रहता है। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अहंकार भी नष्ट हो जाता है।द्वैतवादियों को वेदान्त के इस सिद्धांत को समझने में कठिनाई होती है। वस्तुओं को जानने के लिए हमारे पास उपलब्ध साधन हैं इन्द्रियां मन और बुद्धि। अहंकार इनके माध्यम से देखता अनुभव करता और विचार करता है। द्वैतवादी यह समझने में असमर्थ हैं कि अहंकार इन्द्रियां मन और बुद्धि के अभाव में आत्मज्ञान कैसे सम्भव है। एक बुद्धिमान् विचारक में यह शंका आना स्वाभाविक है। इसका अनुमान लगाकर श्रीकृष्ण यह बताते है कि अहंकार नष्ट होने पर आत्मज्ञान स्वत हो जाता है।विचाररत बुद्धि को यह बात सरलता से नहीं समझायी जा सकती। इसलिए दूसरी पंक्ति में प्रभु एक दृष्टान्त देते हैं आदित्यवत्। हम सबका सामान्य अनुभव है कि प्रावृट् ऋतु में कई दिनों तक सूर्य नहीं दिखाई देता और हम जल्दी में कह देते हैं कि सूर्य बादलों से ढक गया है।इस वाक्य के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य बादल के छोटे से टुकड़े से ढक नहीं सकता। इस विश्व के मध्य में जहाँ सूर्य अकेला अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है वहाँ से बादल बहुत दूर है। पृथ्वी तल पर खड़ा छोटा सा मनुष्य अपनी बिन्दु मात्र आँखों से देखता है कि बादल की एक टुकड़ी ने दैदीप्यमान आदित्य को ढक लिया है। यदि हम अपनी छोटी सी उँगली अपने नेत्र के सामने निकट ही लगा लें तो विशाल पर्वत भी ढक सकता है।इसी प्रकार जीव जब आत्मा पर दृष्टि डालता है तो उस अनन्त आत्मा को अविद्या से आवृत पाता है। यह अविद्या सत् स्वरूप आत्मा में नहीं है जैसे बादल सूर्य में कदापि नहीं है। अनन्त सत् की तुलना में सीमित अविद्या बहुत ही तुच्छ है। किन्तु आत्मस्वरूप की विस्मृति हमारे हृदय में उत्पन्न होकर अहंकार में यह मिथ्या धारणा उत्पन्न करती है कि आध्यात्मिक सत् अविद्या से प्रच्छन्न है। इस अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मतत्त्व प्रकट हो जाता है जैसे मेघपट हटते ही सूर्य प्रकट हो जाता है।सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है आत्मानुभव के लिए भी किसी अन्य अनुभव की अपेक्षा नहीं है वह चित् स्वरूप है। चित् की चेतना के लिए किसी दूसरे चैतन्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान का अन्तर्निहित तत्त्व चेतना ही है। अत अहंकार आत्मा को पाकर आत्मा ही हो जाता है।स्वप्न से जागने पर स्वप्नद्रष्टा अपनी स्वप्नावस्था से मुक्त होकर जाग्रत् पुरुष बन जाता है। वह जाग्रत् पुरुष को कभी भिन्न विषय के रूप में न देखता है और न अनुभव करता है बल्कि वह स्वयं ही जाग्रत् पुरुष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार अहंकार भी अज्ञान से ऊपर उठकर स्वयं आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। अहंकार और आत्मा का सम्बन्ध तथा आत्मानुभूति की प्रक्रिया का बड़ा ही सुन्दर वर्णन सूर्य के दृष्टान्त द्वारा किया गया है जिसके लक्ष्यार्थ पर सभी साधकों को मनन करना चाहिये।आत्मनिष्ठ पुरुष सदा के लिए जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनाद्यज्ञानावृतज्ञानत्वाद्व्यामोहाभावाच्च कुतः संसारनिवृत्तिरिति तत्राह ज्ञानेनेति। सर्वमिति पूर्णत्वमुच्यते ज्ञेयस्यैव वस्तुनस्तत्परमिति विशेषणम्। तद्व्याचष्टे परमार्थतत्त्वमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनादिभावरुपाज्ञानावृतज्ञानत्वाद्य्वामोहस्य निवृत्त्यभावात्संसारनिवृत्तिः कथं स्यादिति तत्राह ज्ञानेनेति। ज्ञानेन तु गुरुपदिष्टेन शास्त्रीयेण विवेकज्ञानेन स्वपरमार्थस्वरुपविषयेण तदज्ञानं कर्तृत्वादिविनिर्मुक्तं ब्रह्माहमस्मीति परमात्माभेदास्तित्वज्ञानावरकं येषां मुमुक्षूणां नाशितं तेषामादित्यवत् यथादित्योऽस्तित्वेन भान्तमपि घटादिवस्तु तद्गतसमस्तरुपा भानापादकं तमो निवर्त्य प्रकाशयति तथा गुरुपदिष्टं ज्ञानं भावनाप्रकर्षेण भानावरणमज्ञानमपि निवर्त्य तत् श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणादौ प्रसिद्धं परं परमार्थतत्त्वं प्रकाशयति सच्चिदानन्दानन्तात्मकं ब्रह्माहमस्मीति साक्षाद्य्वक्तीकरोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.16।।ज्ञानमेवाज्ञाननाशकमित्याह ज्ञानेनेति। प्रथमज्ञानं परोक्षम्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.16।।तदात्मन आवरकमज्ञानं येषां ज्ञानेन ब्रह्मास्मीति प्रमाणजेन नाशितं तेषां तज्ज्ञानं कर्तु आदित्यवदादित्यो यथा कृत्स्नं दृश्यं प्रकाशयति तद्वत्परं परमार्थवस्तु प्रकाशयति। अज्ञानजानर्थनिवृत्त्यर्थं ज्ञानमेष्टव्यमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.16।।एवं वर्तमानेषु सर्वात्मसु येषाम् आत्मनाम् उक्तलक्षणेन आत्मयाथात्म्योपदेशजनितेन आत्मविषयेण अहरहः अभ्यासाधेयातिशयेन निरतिशयपवित्रेण ज्ञानेन तदज्ञानावरणम् अनादिकालप्रवृत्तानन्तकर्मसंशयरूपाज्ञानं नाशितं तेषां तत् स्वाभाविकं परं ज्ञानं अपरिमितम् असंकुचितम् आदित्यवत् सर्वम् यथावस्थितं प्रकाशयति। तेषाम् इति विनष्टाज्ञानानां बहुत्वाभिधानाद् आत्मस्वरूपबहुत्वम् न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे (गीता 2।12) इति उपक्रमावगतम् अत्र स्पष्टतरम् उक्तम्।न च इदं बहुत्वम् उपाधिकृतं विनष्टाज्ञानानाम् उपाधिगन्धाभावात्।तेषाम् आदित्यवज्ज्ञानम् इति व्यतिरेकनिर्देशात् ज्ञानस्य स्वरूपानुबन्धित्वम् उक्तम् आदित्यदृष्टान्तेन च ज्ञातृज्ञानयोः प्रभाप्रभावतोः इव अवस्थानं च। तत एव संसारदशायां ज्ञानस्य कर्मणा संकोचः मोक्षदशायां विकासः च उपपन्नः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.16।।ज्ञानिनस्तु न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। आत्मनो भगवतो ज्ञानेन येषां तद्वैषम्योपलम्भकज्ञानं नाशितं तज्ज्ञानं तेषामज्ञानं नाशयित्वा तत्परं परिपूर्णमीश्वरस्वरूपं प्रकाशयति। यथा आदित्यस्तमो निरस्य समस्तं वस्तुजातं प्रकाशयति तद्वत्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.16।।एवं तृतीयाध्यायोक्ताकर्तृत्वानुसन्धानस्य प्रकारविशेषाः प्रतिपादिताः अथ चतुर्थाध्यायोक्तस्य ज्ञानविशेषस्य विशोधनं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह सर्वमिति।स्वकाले अकर्तृत्वानुसन्धानप्रकारकथनादनन्तरं ज्ञानस्वरूपकथनावसर इत्यर्थः। यद्वातद्विद्धि प्रणिपातेन इत्यत्रउपदेक्ष्यन्ति 4।34 इति स्वेनैव निर्दिष्टे विपाककाल इत्यर्थः।एवं वर्तमानेषु मुह्यत्स्वपीत्यर्थः। यद्वा कर्मयोगनिष्ठेष्वित्यर्थः। अज्ञानेन ज्ञानमावृतं चेत् कथं ज्ञानेन तस्य नाश इति शङ्कां व्यवच्छिन्दता तुशब्देन द्योतितं ज्ञानस्य विशेषं दर्शयितुंउक्तलक्षणेनेत्यादिनिरतिशयपवित्रेणेत्यन्तमुक्तम्। आत्मनो ज्ञानेनेत्यन्वयः।आत्मविषयेणेति आत्मनः इति षष्ठ्या सम्बन्धसामान्यमात्रपरत्वं कर्तृविषयत्वं चात्रानुपयुक्तमिति भावः। तच्छब्दपरामृष्टप्रकारमाह ज्ञानावरणमिति। अज्ञानस्वरूपस्यातिगहनत्वसूचनार्थम् निरतिशयपवित्रस्य ज्ञानभास्वतो निश्शेषाज्ञानतिमिरकुक्षिम्भरित्वप्रदर्शनार्थं चअनादिकालेत्याद्युक्तम्। उत्तरार्धगततच्छब्दार्थःस्वाभाविकमिति। सामानाधिकरण्यस्वारस्यात्परमिति ज्ञानविशेषणम्। तदर्थमाहअपरिमितमसङ्कुचितमिति। ज्ञानस्य परत्वं ह्यनवच्छिन्नविषयत्वम् तत्र च हेतुः सङ्कोचाभाव इत्यभिप्रायः।सर्वमिति प्रकाशयतेरर्थसिद्धकर्मोक्तिः। अज्ञाननिवृत्तौ च ज्ञानस्य सर्वगोचरत्वं श्रौतमिति भावः।आदित्यवत् इति दृष्टान्तसामर्थ्यसिद्धमाहयथावस्थितमिति। एतेन परमित्यत्र पदमिति विशेष्याध्याहारः। परमार्थतत्त्वमिति विवक्षा च परोक्ता निरस्ता। भेदव्यपदेशबलादद्वैतमतस्योपक्रमविरोधः प्रागुक्तः मध्येऽपि स एव तात्त्विको भेदः स्पष्टमुपदिश्यत इति तस्य तात्पर्यविषयत्वं दर्शयति तेषामिति।विनष्टाज्ञानानामिति नहीदं बहुत्वं भ्रान्तिसिद्धमुपाधिसिद्धं वा वक्तुं शक्यमिति भावः।सत्यमिथ्योपाधिकृतभेदवादिनोर्भास्करशङ्करयोर्मतमनूद्य परिहरति नचेदमिति। मिथ्याभूतस्याज्ञानाख्योपादानस्य विनाशे तदुपात्तमिथ्याभूतान्तःकरणाद्युपाधेरपि निवृत्तेरितिशङ्करं प्रति हेत्वर्थः। इतरं प्रत्यज्ञानशब्दवाच्यस्य कर्मादेर्विनाशे तन्निमित्तशरीरान्तःकरणाद्युपाधिनिवृत्तिरित्यर्थः।शङ्करमतदूषणप्रसङ्गे तदुक्तं ज्ञानमात्रात्मवादं दूषयितुं शुद्धदशायां ज्ञातृत्वमत्र सिद्धमिति दर्शयतितेषामिति। सम्बन्धविषतया षष्ठी व्यतिरेकगर्भेतिव्यतिरेकनिर्देशादित्युक्तम्। विनष्टोपाधीनामात्मनां धर्मतया निर्देशात् ज्ञानस्य स्वरूपानुबन्धित्वसिद्धेरागन्तुकचैतन्यवादोऽपि निरस्तः। आदित्यशब्दोऽत्रादित्यप्रभापरः प्रभाद्वारेणैवादित्यस्य प्रकाशकत्वात् धर्मभूतज्ञाने च सैव दृष्टान्तो भवितुमर्हतियथा न क्रियते ज्योत्स्ना मलप्रक्षालनान्मणेः। दोषप्रहाणान्न ज्ञानमात्मनः क्रियते तथा वि.ध.10।4।5 इत्यादिसाम्याच्च तदेतदभिप्रेत्य तत्फलितमाह आदित्यदृष्टान्तेनेति। ततः प्रस्तुतस्य किं इत्यत्राह तत एवेति। यथा प्रभाया आवारकसन्निधौ सङ्कोचस्तन्निवृत्तौ पुनर्विकासश्च दृश्यते तथा ज्ञानस्यापीति भावः। यद्वा तेषामादित्यवदवस्थितानां प्रभातुल्यं ज्ञानमित्यर्थः। प्रभायाः प्रदीपादित्याद्यपृथक्सिद्धतेजोद्रव्यविशेषत्वं ज्ञानस्यात्मधर्मत्वेऽपि द्रव्यत्वं सङ्कोचविकासयोगित्वादीनि च शारीरकभाष्ये प्रपञ्चितानि। एवं प्रभातुल्यद्रव्यत्वोपपादनेन प्रकृतमावृतत्वादिकं युज्यत इत्याह तत एवेति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.16।।अत एव ज्ञानेन त्विति। ज्ञानेन तु अज्ञाने नाशिते ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशकत्वं (K स्वप्रकाशकत्वं) स्वतःसिद्धम् यथा आदित्यस्य तमसि नष्टे विनिवर्तितायां ( निवर्तितायां) हि शङ्कायाम् अमृतं अमृतकार्य स्वयमेव करोति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.16।।ननु ज्ञानस्याज्ञाननाशकत्वमर्थप्रकाशकत्वं च प्रसिद्धमेव तत्किमर्थमुच्यते इत्यत आह ज्ञानमेवेति।अज्ञानेनावृतं ज्ञानं 5।15 इत्युक्तम्। एवं तर्हि तस्याविनाश एव स्यात्। तथा च न कदाचिद्ब्रह्मप्रकाशः। विनाशकान्तराङ्गीकारे च ज्ञानार्थयोः सन्न्यासयोगयोर्वैयर्थ्यमित्याशङ्क्यज्ञानमेवाज्ञाननाशकम् अतो नोक्तदोषः। किन्तु स्वरूपज्ञानमविद्ययाऽऽवृतम् वृत्तिज्ञानं त्वविद्यां शिथिलयति। ब्रह्म प्रकाशयतीत्येतदनेनाहेत्यर्थः। अत्र केचित् यथैक एवादित्योऽन्धकारं नाशयति भूमण्डलं च प्रकाशयति तथैकमेव ज्ञानमज्ञानं निवर्तयति परं च प्रकाशयति इति व्याचक्षतेतदसदिति भावेनाह प्रथमेति। तृतीयान्तपदोक्तम् द्वितीयमपरोक्षमिति शेषः। अन्यथा द्विर्ज्ञानग्रहणं व्यर्थं स्यादिति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनाद्यज्ञानावृत्वात्कथं संसारनिवृत्तिः स्यादत आह तदावरणविक्षेपशक्तिमदनाद्यनिर्वाच्यमनृतमनर्थव्रातमूलमज्ञानमात्माश्रयविषयमविद्यामायादिशब्दवाच्यमात्मनो ज्ञानेन गुरूपदिष्टवेदान्तमहावाक्यजन्येन श्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकनिर्मलान्तःकरणवृत्तिरूपेण निर्विकल्पकसाक्षात्कारेण शोधिततत्त्वंपदार्थाभेदरूपशुद्धसच्चिदानन्दाखण्डैकरसवस्तुमात्रविषयेण नाशितं बाधितं कालत्रयेऽप्यसदेवासत्तया ज्ञातमधिष्ठानचैतन्यमात्रतां प्रापितं शुक्ताविव रजतं शुक्तिज्ञानेन येषां श्रवणमननादिसाधनसंपन्नानां भगवदनुगृहीतानां मुमुक्षूणां तेषां तज्ज्ञानं कर्तृ आदित्यवत् यथादित्यः स्वोदयमात्रेणैव तमो निरवशेषं निवर्तयति नतु कंचित्सहायमपेक्षते तथा ब्रह्मज्ञानमपि शुद्धसत्त्वपरिणामत्वाद्व्यापकप्रकाशरूपं स्वोत्पत्तिमात्रेणैव सहकार्यन्तरनिरपेक्षतया सकार्यमज्ञानं निवर्तयत्परं सत्यज्ञानानन्तानन्दरूपमेकमेवाद्वितीयं परमात्मतत्त्वं प्रकाशयति प्रतिच्छायाग्रहणमात्रेणैव कर्मतान्तरेणाभिव्यनक्ति। अत्राज्ञानेनावृतं ज्ञानेन नाशितमित्यज्ञानस्यावरणत्वज्ञाननाश्यत्वाभ्यां ज्ञानाभावरूपत्वं व्यावर्तितम्। नह्यभावः किंचिदावृणोति न वा ज्ञानाभावो ज्ञानेन नाश्यते स्वभावनाशरूपत्वात्तस्य। तस्मादहमज्ञो मामन्यं च न जानामीत्यादिसाक्षिप्रत्यक्षसिद्धं भावरूपमेवाज्ञानमिति भगवतो मतम्। विस्तरस्त्वद्वैतसिद्धौ द्रष्टव्यः। येषामिति बहुवचनेनानियमो दर्शितः। तथाच श्रुतिःतद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणां तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति इत्यादिर्यद्विषयं यदाश्रयमज्ञानं तद्विषयतदाश्रयप्रमाणज्ञानात्तन्निवृत्तिरिति न्यायप्राप्तनियमं दर्शयति। तत्राज्ञानगतमावरणं द्विविधम्। एकं सतोऽप्यसत्त्वापादकं अन्यत्तु भासतोऽप्यभानापादकम्। तत्राद्यं परोक्षापरोक्षसाधारणप्रमाणज्ञानमात्रान्निवर्तते। अनुमितेऽपि वह्न्यादौ पर्वते वह्निर्नास्तीत्यादिभ्रमादर्शनात्। तथासत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मास्ति इति वाक्यात्परोक्षनिश्चयेऽपि ब्रह्म नास्तीति भ्रमो निवर्तत एव। अस्त्येव ब्रह्म किंतु मम न भातीत्येवं भ्रमजनकं द्वितीयमभानावरणं साक्षात्कारादेव निवर्तते। स च साक्षात्कारो वेदान्तवाक्येनैव जन्यते निर्विकल्पक इत्याद्यद्वैतसिद्धावनुसंधेयम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.16।।येषां भगवता ज्ञानेनाज्ञानं नाशितं ते न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। तु पुनः। आत्मज्ञानेन भगवत्सम्बन्धिज्ञानेन ज्ञानात्मकभगवद्रूपेण येषां दुर्लभानां कृपापात्राणां तत्पूर्वोक्तमज्ञानं नाशितं तेषां तद्भगवदात्मकं ज्ञानं परं ब्रह्म प्रकाशयति प्रकटयतीत्यर्थः। आदित्यवत् यथा सूर्यस्तमो दूरीकृत्य स्वात्मसहितं सर्वं वस्तुमात्रं प्रकाशयति तथा।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.16।। ज्ञानेन तु येन अज्ञानेन आवृताः मुह्यन्ति जन्तवः तत् अज्ञानं येषां जन्तूनां विवेकज्ञानेन आत्मविषयेण नाशितम् आत्मनः भवति तेषां जन्तूनाम् आदित्यवत् यथा आदित्यः समस्तं रूपजातम् अवभासयति तद्वत् ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु सर्वं प्रकाशयति तत् परं परमार्थतत्त्वम्।।यत् परं ज्ञानं प्रकाशितम्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.16।।भगवत्प्रदत्तात्मविद्यावन्तस्तु न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। येषां दयनीयानां साधनवतां वा आत्मज्ञानं यदक्षरात्मत्वज्ञानेन नाशितं तेषां तज्ज्ञानं कर्तृ आदित्यवत्परम् ब्रह्मविदाप्नोति परं तै.उ.2।1 इत्यत्र श्रुतं प्रकाशयति स्वयमेवेति भगवत्प्रदत्तत्वाद्भगवद्रूपं तदिति स्वतन्त्रकर्तृत्वं तस्योक्तम्। अन्यथा करणत्वे कर्तृत्वोक्तिर्व्याहता स्यात्।


Chapter 5, Verse 16