Chapter 5, Verse 15

Text

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।

Transliteration

nādatte kasyachit pāpaṁ na chaiva sukṛitaṁ vibhuḥ ajñānenāvṛitaṁ jñānaṁ tena muhyanti jantavaḥ

Word Meanings

na—not; ādatte—accepts; kasyachit—anyone’s; pāpam—sin; na—not; cha—and; eva—certainly; su-kṛitam—virtuous deeds; vibhuḥ—the omnipresent God; ajñānena—by ignorance; āvṛitam—covered; jñānam—knowledge; tena—by that; muhyanti—are deluded; jantavaḥ—the living entities


Translations

In English by Swami Adidevananda

The all-pervasive One takes away neither the sin nor the merit of anyone. Knowledge is enveloped by ignorance, and creatures are thereby deluded.

In English by Swami Gambirananda

The Omnipresent neither accepts anyone's sin nor even virtue; knowledge remains covered by ignorance, thus the creatures become deluded.

In English by Swami Sivananda

The Lord takes neither the demerit nor the merit of any; knowledge is enveloped by ignorance, and beings are deluded.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The Omnimanifest Soul takes neither sin nor merit born of any action upon itself. But, perfect knowledge is clouded by Illusion, and thus the creatures are deluded.

In English by Shri Purohit Swami

The Lord does not accept responsibility for any person's sin or merit; they are deluded, for wisdom is submerged in ignorance within them.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.15।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसीके पापकर्मको और न शुभकर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञानसे ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है;  (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है,  इससे सब जीव मोहित होते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.15 न not? आदत्ते takes? कस्यचित् of anyone? पापम् demerit? न not? च and? एव even? सुकृतम् merit? विभुः the Lord? अज्ञानेन by ignorance? आवृतम् enveloped? ज्ञानम् knowledge? तेन by that? मुह्यन्ति are deluded? जन्तवः beings.Commentary Knowledge is enveloped by ignorance. Conseently man is deluded. He thinks? I act. I enjoy. I have done such and such a meritourious act. I will get such and such a fruit. I will enjoy in heaven. I will get a birth in a rich family.Of anyone even of His devotees.Man is bound when he is identifies himself with Nature and its effects -- body? mind? Prana or the lifeforce? and senses. He attains freedom or Moksha when he identifies himself with the immortal? actionless Self that dwells within his heart.When I does not act how can God accept good or evil deeds (Cf.V.29)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.15।। व्याख्या--'नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः'--पूर्वश्लोकमें जिसको 'प्रभुः' पदसे कहा गया है, उसी परमात्माको यहाँ 'विभुः' पदसे कहा गया है।कर्मफलका भागी होना दो प्रकारसे होता है--जो कर्म करता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है और जो दूसरेसे कर्म करवाता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है। परन्तु परमात्मा न तो किसीके कर्मको करनेवाला है और न कर्म करवानेवाला ही है; अतः वह किसीके भी कर्मका फलभागी नहीं हो सकता।सूर्य सम्पूर्ण जगत्को प्रकाश देता है और उस प्रकाशके अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्य-कर्म करते हैं; परन्तु उन कर्मोंसे सूर्यका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्वसे प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसीकी सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार-शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादिसे होनेवाले पाप-पुण्योंका परमात्मतत्त्वसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान्ने मनुष्यमात्रको स्वतन्त्रता दे रखी है; अतः मनुष्य उन कर्मोंका फलभागी अपनेको भी मान सकता है और भगवान्को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलोंको भगवान्के अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान्की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता अपनेको मान लेता है, वह बन्धनमें प़ड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण नहीं करते। परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान्के अर्पण करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण करते हैं। जैसे सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'सर्वस्य' पदसे और छब्बीसवें श्लोकमें 'कश्चन' पदसे सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, ऐसे ही यहाँ 'कस्यचित्' पदसे अपनेको कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करनेवाले सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, न कि भक्तोंकी। कारण कि भावग्राही होनेसे भगवान् भक्तोंके द्वारा अर्पण किये हुए पत्र, पुष्प आदि पदार्थोंको और सम्पूर्ण कर्मोंको ग्रहण करते हैं (गीता 9। 26 27)। 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्'--स्वरूपका ज्ञान सभी मनुष्योंमें स्वतः सिद्ध है; किन्तु अज्ञानके द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञानके कारण जीव मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं। अपनेको कर्मोंका कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता 3। 27)। भगवान्के द्वारा मनुष्यमात्रको विवेक दिया हुआ है, जिसके द्वारा इस मूढ़ताका नाश किया जासकता है। इसलिये इस अध्यायके आठवें श्लोकमें कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने और तेरहवें श्लोकमें कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मोंके कर्तापनको विवेकपूर्वक मनसे छोड़ दे।शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूपसे अपरिवर्तनशील होनेपर भी अपनेको परिवर्तनशील पदार्थोंसे एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं--ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव किसीको नहीं होता। अतः मैं बदलनेवाला नहीं हूँ--इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थोंसे अपनी असङ्गताका अनुभव कर लेनेसे अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वतः प्रकाशित हो जाता है। कारण कि प्रकृतिके कार्यसे अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है।'अज्ञान' शब्दमें जो 'नञ्'समास है, वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। कारण कि ज्ञानका अभाव कभी होता ही नहीं, चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञानको ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियोंका और बुद्धिका ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञानको महत्त्व देनेसे, इसके प्रभावसे प्रभावित होनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं--यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानका आवृत होना है। इन्द्रियोंका ज्ञान सीमित है। इन्द्रियोंके ज्ञानकी अपेक्षा बुद्धिका ज्ञान असीम है। परन्तु बुद्धिका ज्ञान मन और इन्द्रियोंके ज्ञान-(जानने और न जानने-) को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषय-पदार्थोंको ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृतिका कार्य है और जिस बुद्धिका कारण प्रकृति है, उस प्रकृतिको बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृतिको भी प्रकाशित नही कर सकती, तब प्रकृतिसे अतीत जो चेतन-तत्त्व है, उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है! इसलिये बुद्धिका ज्ञान अधूरा ज्ञान है। 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः'--भगवान्ने 'जन्तवः' पद देकर मानो मनुष्योंकी ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं, (टिप्पणी प0 303) क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है। आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है। इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका लक्ष्य नहीं है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य सुख-दुःखसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलानेयोग्य हैं।अपनेको कर्मोंका कर्ता मान लेना तथा कर्मफलमें हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञानसे मोहित होना है। पापपुण्य हमें करने पड़ते हैं इनसे हम कैसे छूट सकते हैं सुखीदुःखी होना हमारे कर्मोंका फल है, इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं?--इस प्रकारकी धारणा बना लेना ही अज्ञानसे मोहित होना है।जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दुःखसे रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखीदुःखी होता है। इस मूढ़ता(अज्ञान) को ही यहाँ 'तेन' पदसे कहा गया है। इस मूढ़तासे अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहे हैं,  इस बातको यहाँ 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः' पदोंसे कहा गया है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया है कि अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका जानेके कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेकके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर देनेपर जिस ज्ञानका उदय होता है, उसकी महिमा आगेके श्लोकमें कहते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.15।। विभु अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न पुण्य कर्म को। यह कथन पुराणों में वर्णित देवताओं की कल्पना से भिन्न है क्योंकि वहाँ देवताओं को जीवों के पाप और पुण्य कर्मों का लेखाजोखा रखने वालों के रूप में वर्णन किया गया है। कथा प्रेमी भक्त लोगों को वेदान्त सिद्धांत उनके प्रेम को आघात पहुँचाने वाला प्रतीत होता है और इसलिये वे गीता के स्थान पर श्रीकृष्ण की लीलाओं का अध्ययन कर भाव विभोर होना अधिक पसन्द करते हैं। ईश्वर के विषय में यह धारणा है कि मेघों के ऊपर कहीं आकाश में बैठा विश्व भर के प्राणियों के शुभअशुभ कर्मों का निरीक्षण करते हुए उनका ख्याल रखता है जिससे प्र्ालय के पश्चात् न्याय के दिन जब समस्त जीव उसके पास पहुँचें तो वह उनका कर्मानुसार न्याय कर सके। यह रोचक धारणा केवल सामान्य जनों की ही हो सकती है जिनकी बुद्धि अधिक विकसित नहीं है।समस्त विश्व के अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा को जीवन के कर्मों से कोई प्रयोजन हो या परिच्छिन्न वस्तुओं में उसकी कोई विशेष रुचि हो ऐसा हम नहीं मान सकते। परमार्थ की दृष्टि से तो परिच्छिन्न जगत् का आत्यन्तिक अभाव है। केवल आत्म विस्मृति के कारण ही उपाधियों में व्यक्त हुआ वह आत्मा कर्तृत्व कर्म फलभोग आदि से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। समतल काँच के माध्यम से निर्गत सूर्यप्रकाश में कोई विकार नहीं होता परन्तु यदि वही प्रकाश एक प्रिज्म (आयत) में से निकले तो सात रंगों में विभाजित हो जाता है। इसी प्रकार एकमेव अद्वितीय सर्वव्यापी परिपूर्ण परमात्मा शरीर मन और बुद्धि इन आविद्यक उपाधियों में व्यक्त होकर नानारूप जगदाभास के रूप में प्रतीत होता है।यहाँ ज्ञान और अज्ञान के सम्बन्ध का सुन्दर वर्णन किया गया है। अज्ञान ज्ञान नहीं हो सकता और न ज्ञान अज्ञान का एक अंश। परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण इन दोनों का सह अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता हैं। परन्तु यहाँ कहा गया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत हुआ है यह ऐसे ही है जैसे किसी जंगल में सर्वत्र व्याप्त अंधकार में दूर कहीं प्रकाश की किरण को देखकर कहा जा सकता है कि वह प्रकाश अंधकार से आवृत है। अगले श्लोक में अज्ञान आवरण को दूर करने के उपाय तथा उसकी निवृत्ति के फल को विस्तार से बताया गया है।सत्य के अनावरण की प्रक्रिया में अज्ञान की निवृत्ति मात्र अपेक्षित है न कि ज्ञान की उत्पत्ति। इसलिए सत्य की प्राप्ति वास्तव में सिद्ध वस्तु की ही प्राप्ति है और कोई नवीन उपलब्धि नहीं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.15।।कर्तृत्वभोक्तृत्वैश्वर्याण्यात्मनोऽविद्याकृतानीत्युक्तमिदानीमीश्वरे संन्यस्तसमस्तव्यापारस्य तदेकशरणस्य दुरितं सुकृतं वा तदनुग्रहार्थं भगवानादत्ते मदेकशरणो मत्प्रीत्यर्थं कर्म कुर्वाणो दुष्कृताद्यनुमोदनेनानुग्राह्यो मयेति प्रत्ययभाक्त्वादित्याशङ्क्य सोऽपि परमार्थतो नास्यास्त्यविक्रियत्वादित्याह परमार्थतस्त्विति। पूर्वार्धगतान्यक्षराणि व्याख्यायाकाङ्क्षापूर्वकमुत्तरार्धमवतार्य व्याचष्टे किमर्थमित्यादिना।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.15।।ननु यः परमेश्वरैकशरणो ब्रह्मणि संन्यस्तसमस्तकर्मा यानि पुण्यपापानि करोति तानि क्व गच्छन्ति।लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा इत्यनेन तस्य लेपाभावोक्तेः। तथाच स्वस्य भक्तस्य पुण्यं च पापं च तदसुग्रहार्थ भगवानादत्ते इति चेत्तत्राह नेति। विभुः परमेश्वरः कस्यचित्स्वभक्तस्यापि पापं नादत्ते न गृह्णाति। तथा भक्तैः समर्पितं सुकृतं पूर्णकामत्वान्न चैवादत्ते। ननु परमार्थतो जीवस्यापीश्वराव्यतिरेकात्कर्तृत्वाद्यभावः ईश्वरस्य सुतरां अतः किमर्थमीश्वरात्स्वस्य भेदं प्रकल्प्य परमेश्वरो भजनीयोऽहं तस्य भक्तस्तदर्थं मया पूजायागदानहोमादिलक्षणं कर्मानुष्ठेयमिति बुद्य्धा परमेश्वरैकशरणैरन्यैश्चाहं कर्म करोमि कारयामि तस्य फलं भोक्ष्ये भोजयामीति बुद्य्धा कर्माण्यनुष्ठीयन्त इति चेत्तत्राह। अज्ञानेनावृतं कर्तृत्वादिविनिर्मुक्तोऽहमस्मीति विवेकज्ञानम्। वसिष्ठोऽप्याहविवेकमाच्छादयति जगन्ति जनयत्यलम् इति। पूर्वप्रस्तुताऽविद्या तेन जन्तवो मुह्यन्ति मोहं गच्छन्ति। यथा शुक्तिज्ञानं शुक्त्यज्ञानेनावृतं तेन रजतमिदमिति पुरुषाणां मोहस्तथाहमुपासक ईश्वरार्थं कर्म करोभ्यहं कर्ता कारयिता भोक्ता भोजयितेत्येवं मुह्यन्तीत्यर्थः। ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमाधिष्ठानभूतं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरुपं परमार्थमिति तु लोकप्रसिद्धज्ञानपदार्थत्यागे बीजाभावमभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातमिति बोध्यम्। एतेन ननु भक्ताननुगृह्णतोऽभक्तान्निगृह्णतश्च वैषम्योपलम्भात्कथमाप्तकामत्वमत आह अज्ञानेनेति। निग्रहोऽपि दण्डरुपोऽनुग्रह एवेत्येवमज्ञानेन सर्वत्र समः परमेश्वर इत्येवंभूतं ज्ञानमावृतं तेन हेतुना जन्तवो जीवा मुह्यन्ति। भगवति वैषम्यं मन्यन्त इत्यर्थ इति प्रत्युक्तम्। ज्ञानं प्रकाशयति। ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इत्यत्राभिमततद्य्वतिरिक्तज्ञानपदार्थकल्पनानुपपतेश्च। यत्त्वितरैः स्वभावस्तु प्रवर्तत इत्यत्रान्तःकरणं प्रवर्तत इति व्याख्याय৷৷৷৷नन्वेवंसति देवदत्तः पापी यज्ञदत्तः सुकृतीत्यादिव्यवहाराणां का गतिरित्यत आह नादत्ते इति। चिच्चिदात्मा कस्य ज्ञानशक्तिक्रियाशक्त्याधारत्वगुणयोगात्कशब्दस्यान्तःकरणस्य पापं सुकृतं च नादत्ते नात्मसंबन्धि करोति। तत्र हेतुमाह विभुरिति। अपरिणामीत्यर्थः। कथंतर्ह्ययं लोकव्यवहारस्तत्राह अज्ञानेनेति। अज्ञानेनाज्ञानपरिणामरुपेणान्तःकरणेन ज्ञानं स्वरुपमावृतम्। अन्योन्यतादात्म्याध्यासविषयभावं गमितमित्यर्थः। तेन कारणेन जन्तवोऽज्ञामनुष्या मुह्यन्ति। आत्मगतत्वेन सुकृतदुष्कृतादिव्यवहरन्तीत्यर्थ इति व्याख्यातं तदुपेक्ष्यम्। मुख्यवृत्त्या सभ्यक् वाक्यार्थसंभवे गौण्यादिवृत्त्याश्रयणस्य क्लिष्टकल्पनायाश्चान्याय्यत्वात्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.15।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.15।।ननुएष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इति श्रुत्या परमेश्वरे कारयितृत्वं बोध्यते। तत्कथमुच्यतेस्वभावस्तु प्रवर्तते इति तत्राह नादत्त इति। कस्यचित्कर्तुः पापमयं नादत्ते नापि सुकृतम्। कारयितृत्वाभावात्। यतो विभुर्व्यापकः। निष्क्रिय इति यावत्। सक्रियो ह्यन्यं प्रवर्तयति तदीयं पापं पुण्यं वा लभते। अयं तु न तथा किंतु सूर्यवत् प्रकाशत एव नतु स्वप्रकाश्यानां कर्त्रादीनां कर्मणा संबध्यते इति भावः। कारयितृत्वमप्यस्य सत्तामात्रेण सूर्यवत्। यथा घटः प्रकाशते सविता प्रकाशयतीति नोदाहृतश्रुतिविरोधः। कथं तर्हि ईश्वराराधनार्थं कर्माणि कुर्वन्ति तदकरणाच्च बिभ्यतीत्याशङ्क्याह अज्ञानेनेति। यथा हि महाराजस्य सार्वभौमस्याहं सर्वेश्वरो निर्वृतोऽस्मीति ज्ञानं अज्ञानेन सौषुप्तेनावृतं चेत्स तत्र विविधानि परचक्रादीनि महान्ति संकटशतानि पश्यति अहो अहं दीनोऽस्मिदुःख्यस्मीति च मुह्यति तद्वदेते जन्तवः स्वस्याहं ब्रह्मास्मीति प्रमाणेन ब्रह्मभावमजानन्त ईश्वरादात्मानं पृथङ्मन्यमाना ईशात्मनोः सेव्यसेवकभावं च पश्यन्तो मुह्यन्ति। तथाच श्रुतिःअथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमिति न स वेद यथा पशुरेव स देवानाम् इति। एष ह्येवेति श्रुतिरपि भ्रान्तजनव्यवहारविषयैवेति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.15।।कस्यचित् स्वसम्बन्धितया अभिमतस्य पुत्रादेः पापं दुःखं न आदत्ते न अपनुदति कस्यचित् प्रतिकूलतया अभिमतस्य सुकृतं सुखं च न आदत्ते न अपनुदति। यतः अयं विभुः न क्वाचित्कः न देवादिदेहाद्यसाधारणदेशः अत एव न कस्यचित् सम्बन्धी न कस्यचित् प्रतिकूलः च। सर्वम् इदं वासनाकृतम्।एवंस्वभावस्य कथम् इयं विपरीतवासना उत्पद्यते अज्ञानेन आवृतं ज्ञानम् ज्ञानविरोधिना पूर्वपूर्वकर्मणा स्वफलानुभवयोग्यत्वाय अस्य ज्ञानम् आवृतं संकुचितम् तेन ज्ञानावरणरूपेण कर्मणा देवादिदेहसंयोगः तत्तदात्माभिमानरूपमोहः च जायते। ततः च तथाविधात्माभिमानवासना तदुचितकर्मवासना च। वासनातो विपरीतात्माभिमानः कर्मारम्भश्च उपपद्यते।सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि (गीता 4।36)ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा (गीता 4।37)न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रम् (गीता 4।38) इति पूर्वोक्तं स्वकाले संगमयति

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.15।।यस्मादेवं तस्मात् नादत्त इति। प्रयोजकोऽपि सन्प्रभुः कस्यचित्पापं सुकृतं च नैवादत्ते न भजते। तत्र हेतुःविभुः परिपूर्णः। आप्तकाम इत्यर्थः। यदि हि स्वार्थकामनया कारयेत्तर्हि तथा स्यात् नत्वेतदस्ति। आप्तकामस्यैवाचिन्त्यनिजमायया तत्तत्पूर्वकर्मानुसारेण प्रवर्तकत्वात्। ननु भक्ताननुगृह्णतोऽभक्तान्निगृह्णतश्च वैषम्योपलम्भात्कथमाप्तकामत्वमित्यत आह अज्ञानेनेति। निग्रहोऽपि दण्डरूपोऽनुग्रह एवेत्येवमज्ञानेन सर्वत्र समः परमेश्वर इत्येवंभूतं ज्ञानमावृतम्। तेन हेतुना जन्तवो जीवा मुह्यन्ति। भगवति वैषम्यं मन्यन्त इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.15।।आत्मनोऽकर्तृत्वादिकस्य वासनायाः कर्तृत्वादिकस्य च विवरणंनादत्ते इति श्लोकस्यार्धद्वयम्। परगतपापसुकृतयोरादानप्रसङ्गाभावात्तत्प्रतिषेधोऽनुचितः अतस्तत्कार्यं दुःखं सुखं च लक्ष्यते तत्रापि परगतसुखदुःखयोः स्वस्मिन्नाकर्षणं न शक्यम् अतस्तदपनयनमात्रं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह कस्यचिदिति।कस्यचित् इत्यनेन सूचितमपनोदनहेतुविशेषं दर्शयितुंस्वसम्बन्धितयाऽभिमतस्येत्याद्युक्तम्।आदत्ते इत्यस्य करोत्याद्यर्थत्वानौचित्यादपहरणार्थत्वे च प्रयोगादपहरणनिषेधेनैव तुल्यतया करणनिषेधसिद्धेःनापनुदतीति व्याख्यातम्।विभुरिति न परिमाणविशेषाद्यभिप्रायम् जीवस्याणुतया श्रुत्यादिसिद्धेः। नापि प्रभुत्वपरम् अत्रानुपयुक्तत्वात्। अतस्तत्तत्कर्मानुकूलसमस्तदेहानुप्रवेशयोग्यतामात्रं प्रतिनियतदेशराहित्यं विवक्षितम्। अतएव आगन्तुकेषु मित्रामित्रादिषु सम्बन्धित्वं प्रतिकूलत्वं च आगन्तुकानां तत्तद्देहानामेव न त्वात्मन इति सिध्यति। तत एव चानुकूलप्रतिकूलपुरुषविषयदुःखाद्यपनयनमौपाधिकमित्यायातम्। तदेवं कार्याभावौपयिकहेत्वभावप्रतिपादनपरो विभुशब्द इत्यभिप्रायेणाह यतोऽयमिति। उत्तरार्धोत्थानाय शङ्कते एवंस्वभावस्येति।विपरीतवासना स्वभावविरुद्धवासनेत्यर्थः। अत्रोत्तरम् अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् इति।अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या तृतीया शक्तिरिष्यते। यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा।।संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान्। तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता।।सर्वभूतेषु भूपाल तारतम्येन वर्तते वि.पु.6।8।6163 इति भगवत्पराशरवचनमनुस्मरन्नाहज्ञानविरोधिनेति। अत्र नञस्तदन्यतदभावार्थत्वमावरणानुपयुक्तमिति भावः।स्वफलेत्यादि नह्यसावसङ्कुचितज्ञानसंसारतापानुभवयोग्य इति भावः। अत्यन्तविलोपपरिहारायावरणशब्दोपचरितमाह सङ्कुचितमिति। नहि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते बृ.उ.4।3।30 इत्यादिश्रुतिसिद्धमनेन स्मारितम्।देवादिदेहसंयोग इति जन्तुशब्दाभिप्रेतोऽर्थः। स च मोहजनने कर्मणो द्वारम्। शङ्कोत्तरत्वमाह ततश्चेति। आत्मनि प्रतिषिद्धस्येष्टानिष्टाचरणस्यान्यहेतुतामाह वासनात इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.15।।अत एव क्रियातत्फलयोरभावे विधिफलस्यापि नादृष्टकृतता काचित् इत्यर्धेन अभिधाय अर्धान्तरेण संसारिणः प्रति तत्समर्थनं कर्तुमाह नादत्ते इति। पापादीनि नैतत्कृतानि किं तु निजेन अज्ञानेन कृतानि शङ्कयेव अमृते विषयम् ( omits पापादीनि विषम्)।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.15।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.15।।नन्वीश्वरः कारयिता जीवः कर्ता। तथाच श्रुतिःएष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इत्यादिः। स्मृतिश्चअज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।। इति। तथाच जीवेश्वरयोः कर्तृत्वकारयितृत्वाभ्यां भोक्तृत्वभोजयितृत्वाभ्यां चपापपुण्यलेपसंभवात्कथमुक्तं स्वभावस्तु प्रवर्तत इति तत्राह परमार्थतः विभुः परमेश्वरः कस्यचिज्जीवस्य पापं सुकृतं च नैवादत्ते परमार्थतो जीवस्य कर्तृत्वाभावात् परमेश्वरस्य च कारयितृत्वाभावात्। कथं तर्हि श्रुतिः स्मृतिर्लोकव्यवहारश्च तत्राह अज्ञानेनावरणविक्षेपशक्तिमता मायाख्येनानृतेन तमसा आवृतमाच्छादितं ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमाधिष्ठानभूतं नित्यं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरूपमद्वितीयं परमार्थसत्यं तेन स्वरूपावरणेन मुह्यन्ति प्रमातृप्रमेयप्रमाणकर्तृकर्मकरणभोक्तृभोग्यभोगाख्यनवविधसंसाररूपं मोहमतस्मिंस्तदवभासरूपं विक्षेपं गच्छन्ति जन्तवो जननशीलाः संसारिणो वस्तुस्वरूपादर्शिनः। अकर्त्रभोक्तृपरमानन्दाद्वितीयात्मस्वरूपादर्शननिबन्धनो जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमःप्रतीयमानो वर्तते मूढानाम्। तस्यां चावस्थायां मूढप्रत्ययानुवादिन्यावेते श्रुतिस्मृती वास्तवाद्वैतबोधिवाक्यशेषभूते इति न दोषः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.15।।यतः प्रभुर्न सृजत्यतः कस्यचित् पापपुण्यादिकमङ्गीकृत्य फलं न ददातीत्याह नादत्त इति। विभुः अनियम्यः स्वेच्छयैव सर्वफलदानसमर्थः कस्यचित् जीवस्य पापं पापरूपं कर्म न आदत्ते नाङ्गीकरोति तदङ्गीकृत्य नरकादिफलं न ददातीत्यर्थः। सुकृतं च नैवाङ्गीकरोति तदङ्गीकारेण स्वर्गादिसुखं न ददातीत्यर्थः। विभुत्वात् स्वक्रीडेच्छयैव यथासुखं करोतीति भावः। तर्हि एष एव तं ह्येवैनं साधु कर्म कारयति कौ.उ.3।9 इत्यादिश्रुतिभ्य ईश्वर एव तत्तत्कर्म कारयित्वा सर्वेभ्यः फलं ददातीति कथमुच्यते तत्राह अज्ञानेनेति। अज्ञानेन प्रकृत्युत्पन्नेन ज्ञानं भगवत्स्वरूपात्मकं श्रुत्यर्थरूपं वा तेन जन्तवः जीवा मुह्यन्ति मोहं प्राप्नुवन्ति अन्यथा वदन्तीत्यर्थः। श्रुतौ तु पूर्वं तादृक्फलदानेच्छां निरूप्य पश्चात् कर्मकारणत्वमुच्यते न तु कर्मफलत्वमागच्छति किन्तु विचित्रेच्छात्वमेवायातीति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.15।। न आदत्ते न च गृह्णाति भक्तस्यापि कस्यचित् पापम्। न चैव आदत्ते सुकृतं भक्तैः प्रयुक्तं विभुः। किमर्थं तर्हि भक्तैः पूजादिलक्षणं यागदानहोमादिकं च सुकृतं प्रयुज्यते इत्याह अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं विवेकविज्ञानम् तेन मुह्यन्ति करोमि कारयामि भोक्ष्ये भोजयामि इत्येवं मोहं गच्छन्ति अविवेकिनः संसारिणो जन्तवः।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.15।।यस्मादेवं तस्मान्नादत्ते न भजते पापं पुण्यं च कारयितृत्वं च तत्साधकतमविसर्जनादेवोपयुज्यते।बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् भाग.10।87।2 इत्यादिवाक्यात्तैर्भोगमोक्षोपायप्रवृत्तौ तदात्मैवेह हेतुरिति तत्त्वम्। अतः स्वभावकृतं सर्वम्। ननु तदेशभूता अपि एते आत्मनः कथं प्राकृतत्वभावेन सम्मुह्यन्ति स्वरूपाज्ञानादित्याह अज्ञानेनेति। तत्र ज्ञानं स्वरूपविषयकं अज्ञानेनाविद्यायाः प्रथमपर्वस्वरूपाज्ञानेनावृतं ततोऽन्यपर्वभिः प्राणान्तःकरणेन्द्रियदेहाध्यासैः वस्तुतस्तु विचित्ररिरंसावतो भगवतो नित्या आज्ञाकारिण्यो द्वादशशक्तयो मुख्याःगिरा पृष्ट्या इत्यादिना निरूपिता भागवते। तत्र मायाख्याया अशंद्वयं विद्याविद्येति। भगवदाज्ञयैव विद्यया आत्मनां स्वरूपगमकात्सत्त्वानुगुण्यात् अविद्यया च विपरीतस्वभावया कर्मजन्ममरणादिपर्यावर्तगम इतरानुगुण्यात् अन्यथा स्वरूपवैचित्र्यं न स्यादित्यज्ञानेनावृतमात्मनां स्वरूपज्ञानम्। उक्तं चविद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्। मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते भाग.11।11।3 इति।पञ्चपर्वा त्वविद्येयं जीवगा मायया कृता इति। अतस्तेन जन्तवो भवन्तो मुह्यन्ति। स्वयमेवात्मनि कर्तृत्वादिस्वभावं सृजन्ति न परमात्मेति सिद्धान्तः।


Chapter 5, Verse 15