Chapter 5, Verse 14

Text

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5.14।।

Transliteration

na kartṛitvaṁ na karmāṇi lokasya sṛijati prabhuḥ na karma-phala-saṅyogaṁ svabhāvas tu pravartate

Word Meanings

na—neither; kartṛitvam—sense of doership; na—nor; karmāṇi—actions; lokasya—of the people; sṛijati—creates; prabhuḥ—God; na—nor; karma-phala—fruits of actions; sanyogam—connection; svabhāvaḥ—one’s nature; tu—but; pravartate—is enacted


Translations

In English by Swami Adidevananda

The Lord of the body (the Self, i.e., the Jiva) does not create agency, nor actions, nor union with the fruits of actions in relation to the world of selves; only the inherent tendencies function.

In English by Swami Gambirananda

The Self does not create agency or any objects of desire for anyone, nor does it associate with the results of actions; rather, it is Nature that acts.

In English by Swami Sivananda

Neither does the Lord create agency nor actions for the world, nor union with the fruits of actions; rather, it is Nature that acts.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The Lord (Self) acquires neither the state of being a creator of the world, nor the actions, nor the connection with the fruits of their actions. But it is the inherent nature [in It] that exerts.

In English by Shri Purohit Swami

The Lord of this universe has not ordained activity, nor any incentive thereto, nor any relation between an act and its consequences; all this is the work of Nature.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.14।। परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.14।। लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.14 न not? कर्तृत्वम् agency? न not? कर्माणि actions? लोकस्य for this world? सृजति creates? प्रभुः the Lord? न not? कर्मफलसंयोगम् union with the fruits of actions? स्वभावः nature? तु but? प्रवर्तते leads to action.Commentary The Lord does not create agency or doership. He does not press anyone to do actions. He never tells anyone? Do this or do that. He does not bring about the union with the fruit of actions. It is Prakritit or Nature that does everything. (Cf.III.33)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.14।। व्याख्या--'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः'--सृष्टिकी रचनाका कार्य सगुण भगवान्का है, इसलिये 'प्रभुः' पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक, नियामक हैं। सृष्टिरचनाका कार्य करनेपर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता 4। 13)। किसी भी कर्मके कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मोंके कर्तापनकी रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा किये जाते हैं ;परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृतिसे तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका कर्ता बन जाता है (गीता 3। 27)। यदि कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता, तो भगवान् इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.14।। वेदों में ईश्वर के विषय में प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वद्रष्टा कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है जो समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार ही न्यायपूर्वक फल प्रदान करता है। यहाँ परमात्मा का वर्णन जगत् के साथ उसके सम्बन्ध को दिखाकर किया गया है।परमात्मा न कर्तृत्व को उत्पन्न करता है और न ही कर्मों का अनुमोदन करता है। कर्म का फल के साथ संयोग कराना यह भी उसका कार्य नहीं।अनेक व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में प्रभु शब्द से कर्माध्यक्ष कर्मफलदाता ईश्वर को सूचित किया गया है परन्तु भगवान् के कथन से उनके मत की पुष्टि नहीं होती। विचार करने पर कोई भी विद्यार्थी स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि यहाँ भगवान अर्जुन को निरुपाधिक चैतन्य आत्मा का स्वरूप समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यहाँ आत्मा का तीन शरीरों स्थूल सूक्ष्म और कारण के साथ सम्बन्ध बताया गया है।यदि श्रीकृष्ण के कथन के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व कर्म और कर्मफल संयोग से कोई सम्बन्ध नहीं है तब हमारे जीवन का भी आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये क्योंकि कर्तृत्वादि से भिन्न हमारे जीवन का अस्तित्व ही नहीं है। तथापि आत्मा के अभाव में किसी भी वस्तु का न अस्तित्व है और न क्रियारूप व्यापार। इसलिये आत्मा और अनात्मा के बीच किसीनकिसी प्रकार का सम्बन्ध होना अनिवार्य है और उस विचित्र सम्बन्ध रहित सम्बन्ध का वर्णन यहाँ किया गया है।यह तो सर्वविदित है कि मनुष्य की नाक अपनी जगह पर सुस्थिर रहती है। उसमें स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से गति नहीं होती। और फिर भी यदि कोई व्यक्ति जल में अपने मुख को देखते हुये यह पाये कि उसकी नाक किसी कील पर लटकी हुयी वस्तु के समान हिल रही है तब वह क्या सोचेगा वह जानेगा कि नाक अपने स्थान पर सुस्थित है तथापि जल में वह उसे हिलती दिखाई दे रही है। स्पष्ट है कि चेहरे के प्रतिबिम्ब की स्थिति जल की स्थिति पर निर्भर करती है। आत्मा में न कर्तृत्व है और न क्रिया परन्तु उपाधियों में व्यक्त आत्मा जिसे जीव कहते हैं के लिए कर्तृत्व कर्म और फल संयोग प्राप्त हो जाते हैं।विद्युत स्वयं स्थिर शक्ति है। उसके उत्पादन के पश्चात् उसका वितरण करने पर अनेक प्रकार के उपकरणों के माध्यम से वह अनेक रूपों में व्यक्त होती है। चैतन्यस्वरूप आत्मा भी जड़ उपाधियों से परिच्छिन्नसा हुआ कर्तृत्वादि को प्राप्त होता है।कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव है आत्मा नहीं। स्वभाव अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया के सम्बन्ध से ही आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्वादि गुण प्रतीत होते हैं।पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा प्रकृति के गुणों से सर्वथा निर्लिप्त ही है। भगवान् कहते है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.14।।आत्मनो यदुक्तं कारयितृत्वं नास्तीति तत्प्रपञ्चयति नेत्यादिना। यद्यपि लोकस्य कर्तृत्वं न सृजतीति नास्ति कारयितृत्वं तथापि रथशकटादीनि कुर्वन्भवति कर्तेत्याशङ्क्याह न कर्माणीति। तथापि भोजयितृत्वेन विक्रियावत्त्वं दुष्परिहरमित्याशङ्क्याह न कर्मेति। कस्य तर्हि प्रवर्तकत्वं तदाह स्वभावस्त्विति। कुर्विति कर्तृत्वं लोकस्य न सृजत्यात्मेति संबन्धः। रथादीनां कर्मत्वं साधयति ईप्सितेति। आत्मनो देहादिस्वामित्वेन प्रभुत्वं रथादिकृतवतो लोकस्य रथादिफलेन संबन्धमपि न सृजत्यात्मेत्यात्मनो भोजयितृत्वं प्रत्याचष्टे नापीति। चतुर्थपादं शङ्कोत्तरत्वेनावतारयति यदीत्यादिना। स्वभाववादस्तर्हीत्याशङ्क्य व्याकरोति अविद्यालक्षणेति। प्रकृतेर्विद्याभावत्वं व्युदसितुं मायेत्युक्तं सा च सप्तमे वक्ष्यते तेन प्रधानविलक्षणेत्याह दैवी हीति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.14।।नैव कुर्वन्न कारयन्नित्युक्तं प्रपञ्चयति नेति। प्रभुरात्मा लोकस्य देहादेः कर्तृत्वं न सृजति न घटप्रासादादीनि कर्माणि नापि घटादिकृतवतस्तत्फलेन संयोगम्। अनेन भोजयितृत्वमप्यात्मनो वारितम्। उपलक्षणमेतत् भोक्तृत्वस्य। विविधनिषेधस्यापि तर्हि कस्य कर्तृत्वादिकमित्यपेक्षायामाह। स्वभावोऽविद्यालक्षणा प्रकृतिर्माया कुर्वन्कारयन्प्रवर्तते। यत्तु स्वस्मिन् भावस्यापि आरोपिता सत्ताऽस्येति स्वभावोऽन्तःकरणं तदेव प्रवर्तते कृत्यै मुक्त्यै वेत्यर्थ इति। तन्न अन्तःकरणस्यापि प्रकृत्यधीनप्रवृत्तिकत्वेन साकाङ्क्षायाः क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्।नन्वेष साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते इत्यादिश्रुतेःअज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।। इतिस्मृतेश्च परमेश्वरेणैव शुभाशुभफलेषु कर्मसु कर्तृत्वेन प्रयुज्यमानः अस्वतन्त्रः पुरुषः कथं तानि कर्माणि त्यजेत। ईश्वरेणऐव ज्ञानमार्गे प्रयुज्यमानस्त्यक्ष्यतीति चेत्। एवंसतिवैषम्यनैर्घृण्याभ्यां प्रयोजककर्तृत्वादीश्वरस्यापि पुण्यपापसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह नेति। द्वाभ्यामित्येवभुत्थाप्यायमपि श्लोको भाष्यकृद्भिरीश्वरत्वेन कुतो न व्याख्यात इति चेत् अतीतानन्तरश्लोकेन क्लिष्टकल्पनां विनैव संगतिसंभवमभिप्रेत्येति गृहाण।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.14।।न च करोति वस्तुत इत्याह न कर्तृत्वमिति। प्रभुर्हि जीवो जडमपेक्ष्य।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.14।।नन्वेवं भृत्यवत्कर्तृत्वं स्वामिवत्कारयितृत्वं वास्य मास्तु। अयस्कान्तवदविकारस्यैव सतः कर्त्रादिधर्मकाहंकारादिप्रवर्तकत्वमस्त्वित्याशङ्क्याह न कर्तृत्वमिति। कर्तृत्वमहंकारस्य कर्माणीन्द्रियाणां वचनादानादीनि श्रवणदर्शनादीनि च। लोकस्य लोक्यते प्रकाश्यत इति लोको जडवर्गः प्रभुश्चिदात्मा सूर्य इवास्मदादीनां प्रकाशकोऽपि न कर्मादौ प्रवर्तकस्तद्वदस्य कर्मफलसंयोगं वा न सृजति किंतु यो यादृक् यस्य स्वभावः स तथा प्रवर्तते। यथा सूर्येऽभ्युदिते कमलानां विकसनं कुमुदानामुन्मुद्रणं चेति तद्वदेवमात्मनि प्रकाशमाने घटादयो न चेष्टन्ते मनुष्यादयस्तु चेष्टन्ते। नत्वात्मा कस्यचित्प्रवर्तको निवर्तको वा। लोहायस्कान्तयोरिव सत्यानृतयोरात्मानात्मनोः संबन्धाभावादिति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.14।।अस्य देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मना प्रकृतिसंसर्गेण वर्तमानस्य लोकस्य देवाद्यसाधारणं कर्तृत्वं तत्तदसाधारणानि कर्माणि तत्तत् कर्म जन्यदेवादिफलसंयोगं च अयं प्रभुः अकर्मवश्यः स्वाभाविकस्वरूपेण अवस्थित आत्मा न सृजति नोत्पादयति।कः तर्हि स्वभावः तु प्रवर्तते स्वभावः प्रकृतिवासना अनादिकालप्रवृत्तपूर्वपूर्वकर्मजनितदेवाद्याकारप्रकृतिसंसर्गकृततत्तदात्माभिमानजनितवासनाकृतम् ईदृशं कर्तृत्वादिकं सर्वम् न स्वरूपप्रयुक्तम् इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.14।।ननुएष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते इत्यादिश्रुतेः परमेश्वरेणैव शुभाशुभफलेषु कर्मसु कर्तृत्वेन प्रयुज्यमानोऽस्वतन्त्रः पुरुषः कथं तानि कर्माणि त्यजेत्। ईश्वरेणैव ज्ञानमार्गे प्रयुज्यमानः शुभान्यशुभानि च त्यक्ष्यतीति चेत् एवं सति वैषम्यनैर्घृण्याभ्यां प्रयोजककर्तृत्वादीश्वरस्यापि पुण्यपापसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह न कर्तृत्वमिति द्वाभ्याम्। प्रभुरीश्वरः जीवलोकस्य कर्तृत्वादिकं न सृजति किंतु जीवस्यैव स्वभावोऽविद्यैव कर्तृत्वादिरूपेण प्रवर्तते। अनाद्यविद्याकामवशात्प्रवृत्तिस्वभावं जीवलोकमीश्वरः कर्मसु नियुङ्क्ते न तु स्वयमेव कर्तृत्वादिकमुत्पादयतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.14।।एवमौपाधिकस्य स्वरूपस्योपाधिषु सन्न्यास उक्तः अथ स्वस्मिन्ननुसन्धेयस्वाभाविकरूपमुच्यत इति सङ्गत्यभिप्रायेणाह साक्षादिति। विचित्रजनविषयेणलोकस्य इत्यनेनाभिप्रेतमुपाधिवैचित्र्यादिकं दर्शयितुंअस्येत्याद्युक्तम्। कर्तृत्वं प्रयत्नादिरूपम् कर्माणि शरीरेन्द्रियादिचेष्टाः। यद्यात्मनां स्वाभाविकमिदं कर्तृत्वादिकं तदा सर्वेषामेकरूपं तत् स्यात् न च तथा दृश्यत इत्यभिप्रायेणदेवाद्यसाधारणं कर्तृत्वमित्याद्युक्तम्। देवाद्यसाधारणं देवत्वादिजातिमत्पिण्डपरिग्रहदशाप्रतिनियतमित्यर्थः। फलसंयोगः फलानुभवः। प्रकरणवशात् प्रभुशब्दोऽत्र जीवविषय इति प्रदर्शनार्थंअयं प्रभुरित्युक्तम्। जीवे प्रभुशब्दाभिप्रेतमाहअकर्मवश्यः स्वाभाविकस्वरूपेणावस्थित इति। अत्र हि प्रकरणेमयि सर्वाणि 3।30 इत्यादिना जीवस्य कर्तृत्वं परमात्मन्यध्यस्यते अतोऽत्राकर्तृविषयः प्रभुशब्दो न परविषय इति भावः।न सृजति इत्यत्रसृज विसर्गे इति धातोस्त्यागार्थत्वे कर्तृत्वादित्रयं स्वीकरोतीति वाक्यार्थः स्यादिति तद्व्युदासायाह नोत्पादयतीति। कारणान्तरादर्शनात् तस्यैव कर्तृत्वमित्यभिप्रायेण चतुर्थपादस्य शङ्कामाहकस्तर्हीति। सृजतीति शेषः। स्वभावशब्दं प्रकरणोपयुक्तविशेषे स्थापयितुं वाच्यं तावदाहप्रकृतीति। ननु चेतनस्यात्मनः कर्तृत्वादिकं नास्ति अचेतनायास्तु वासनायाश्चेतनगुणमात्रभूतायाः कर्तृत्वादिकमिति कथमिदं ज्ञायते यद्यात्मनः स्वतश्शुद्धस्य न कर्तृत्वं तर्हि तस्य वासनाऽपि कुतः समागता यदि न कुतश्चित् तदा वासनैव स्वाभाविकीति तत्कृतकर्तृत्वादिकमपि स्वाभाविकं स्यात् यदि कुतश्चिद्धेतोः तदा तस्यापि स्वाभाविकत्वे पूर्वदोषः औपाधिकत्वे त्वकर्तुरात्मनस्तदागमोऽपि कुतः यदि वासनया तर्ह्यन्योन्याश्रयणम् यद्यन्यस्मात्कुतश्चित् तत्रापि तथैवेत्यनवस्थेत्यादिचोद्यनिरसनाय तुशब्दः। तदाह अनादिकालेति। बीजाङ्कुरन्यायादन्योन्याश्रयादिपरिहारः। वासनाहेतुवैचित्र्यसिद्ध्यर्थंदेवाद्याकारेत्याद्युक्तम्। यथा तप्तायःपिण्डे वह्निसंसर्गाद्वह्नित्वबुद्धिः तथाऽत्रेति दर्शयितुंसंसर्गकृतशब्दः।वासनाकृतं वासनाख्यविशेषहेतूपाधिकमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.14।।यतः न कर्तृत्वमिति। एष आत्मा न किंचित् कस्यचित् करोति प्रवृत्तिस्तु अस्य स्वभावमात्रं न फलेप्सया। तथाहि संवेदनात्मनो भगवतः प्रकाशानन्दस्वातन्त्र्यपरमार्थस्वभावस्य स्वभावमात्राक्षिप्तसमस्तसृष्टिस्थितिसंहृतिप्रबन्धस्य स्वस्वभावान्न मनागप्यपायो जातुचित् इति न कर्त्रवस्था अतिरिक्तं कर्तृत्वं किंचित्। तदभावात् कानि कर्माणि तदसत्वे कस्य फलम् को वा कर्मफलसंबन्धः कर्म अत्र क्रिया कर्मफलमपि (S क्रियाफलमपि च कर्म ) च क्रियाफलमेव। तथाहि दण्डचक्रपरिवर्तनादिक्रिया नान्या। न च सा घटनिष्पादिता संविदन्तवंर्त्तित्त्वात्। अस्माच्चेतनः (K तस्मात् omits अस्मात् सिद्धान्तः) स्वतन्त्रः परमेश्वर एव तथा तथा भाति इति न तद्व्यतिरिक्तं क्रिया तत्फलादिकमिति सिद्धान्तः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.14।।ननु कर्तृत्वमित्येतत्प्रागुक्तान्न विशिष्यत इत्यत आह न चेति। दर्शनादिकं कुर्वन्नेव नैव किञ्चित्करोमीति मन्यत इत्युक्तम्। तर्हि मिथ्या ज्ञानी प्रसज्येतेत्याशङ्कानिरासाय परमेश्वरप्रेरितः कुर्वन् कारयन् वस्तुतः स्वातन्त्र्येण न करोति न कारयति चेत्यनेनाहेत्यर्थः। अस्य जीवविषयत्वे प्रभुरित्येतदसम्भवीत्यत आह प्रभुर्हीति। अनेन विभुरित्युपपादितप्रायम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.14।।देवदत्तस्य स्वगतैव गतिर्यथा स्थितौ न भवति एवमात्मनोऽपि कर्तृत्वं कारयितृत्वं च स्वगतमेव सत्संन्यासे सति न भवति अथवा नभसि तलमलिनतादिवद्वस्तुवृत्त्या तत्र नास्त्येवेति संदेहापोहायाह लोकस्य देहादेः कर्तृत्वं प्रभुरात्मा स्वामी न सृजति त्वं कुर्विति नियोगेन तस्य कारयिता न भवतीत्यर्थः। नापि लोकस्य कर्माणीप्सिततमानि घटादीनि स्वयं सृजति कर्तापि न भवतीत्यर्थः। नापि लोकस्य कर्म कृतवतस्तत्फलसंबन्धं सृजति भोजयितापि भोक्तापि न भवतीत्यर्थः।स समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव सुधीः इत्यादिश्रुतेः। अत्रापिशरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते इत्युक्तेः यदि किंचिदपि स्वतो न कारयति न करोति चात्मा कस्तर्हि कारयन्कुर्वंश्च प्रवर्तत इति तत्राह स्वभावस्तु अज्ञानात्मिका दैवी माया प्रकृतिः प्रवर्तते।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.14।।ननूपदेशादिना कारणे को दोषः इति चेत्तत्राह न कर्तृत्वमिति। प्रभुः ईश्वरः लोकस्य कर्तृत्वं न सृजति न कर्माणि सृजति न वा कर्मफलसंयोगं सृजति। अतः स्वयमपि किमिति तथोपदिशेदिति भावः। नन्वीश्वरोत्पादनाभावे लोकः कथं प्रवर्तते इत्यत आह स्वभावस्तु प्रवर्तत इति। जीवस्य स्वभावः प्रकृत्यात्मकः प्रवर्त्तते कर्तृत्वादिरूपेण।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.14।। न कर्तृत्वं स्वतः कुरु इति नापि कर्माणि रथघटप्रासादादीनि ईप्सिततमानि लोकस्य सृजति उत्पादयति प्रभुः आत्मा। नापि रथादि कृतवतः तत्फलेन संयोगं न कर्मफलसंयोगम्। यदि किञ्चिदपि स्वतः न करोति न कारयति च देही कः तर्हि कुर्वन् कारयंश्च प्रवर्तते इति उच्यते स्वभावस्तु स्वो भावः स्वभावः अविद्यालक्षणा प्रकृतिः माया प्रवर्तते दैवी हि इत्यादिना वक्ष्यमाणा।।परमार्थतस्तु

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.14।।किञ्चआत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः 6।5 इत्युक्तत्वादात्मन एव निरोधे समत्वे सर्वं सेत्स्यतीति। अन्यथा कर्तृत्वाद्यहङ्कारादिना मिथ्याचरणमेव भविष्यति। तत्र च हेतुरात्मैव नान्यः सोऽपि प्राकृतस्वभावमय इति तन्निरोधं दृढयितुं सिद्धान्तमाह न कर्तृत्वमिति। प्रभुरीश्वरः परमात्मा लोकस्य प्राकृतशरीराभिमानिनः नानायोनिबीजाशयस्वभावकृतिकस्य कर्तृत्वं कर्माणि तत्फलसंयोगं च न सृजति। किन्तु तादृशः स्वभावो लोकनिष्ठः स्वत एव प्रवर्तते। अन्यथा परमात्मनो वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गः।


Chapter 5, Verse 14