Chapter 5, Verse 10

Text

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

Transliteration

brahmaṇyādhāya karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā karoti yaḥ lipyate na sa pāpena padma-patram ivāmbhasā

Word Meanings

brahmaṇi—to God; ādhāya—dedicating; karmāṇi—all actions; saṅgam—attachment; tyaktvā—abandoning; karoti—performs; yaḥ—who; lipyate—is affected; na—never; saḥ—that person; pāpena—by sin; padma-patram—a lotus leaf; iva—like; ambhasā—by water


Translations

In English by Swami Adidevananda

He who acts without attachment, reposing all actions on Brahman (Prakṛti), is untouched by evil, just as a lotus leaf is untouched by water.

In English by Swami Gambirananda

One who acts by dedicating their actions to Brahman and by renouncing attachment, they do not become polluted by sin, just as a lotus leaf is not by water.

In English by Swami Sivananda

He who does actions, offering them to Brahman and abandoning attachment, is not tainted by sin, just as a lotus leaf is not tainted by water.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Who performs actions by offering them to the Brahman and giving up attachment—they are not stained by sin, just as a lotus leaf is not stained by water.

In English by Shri Purohit Swami

He who dedicates his actions to the Spirit, without any personal attachment to them, is no more tainted by sin than the water lily is wetted by water.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.10।। जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् में अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.10 ब्रह्मणि in Brahman? आधाय having placed? कर्माणि actions? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? करोति acts? यः who? लिप्यते is tainted? न not? सः he? पापेन by sin? पद्मपत्रम् lotusleaf? इव like? अम्भसा by water.Commentary Chapter IV verses 18? 20? 21? 22? 23? 37? 41 Chapter V verses 10? 11 and 12 all convey the one idea that the Yogi who does actions without egoism and attachment to results or fruits of the actions? which he regards as offerings unto the Lord? is not tainted by the actions (Karma). He has no attachment even for Moksha. He sees inaction in action. All his actions are burnt in the fire of wisdom. He escapes from the wheel of Samsara. He is freed from the round of births and deaths. He gets purity of heart and through purity of heart attains to the knowledge of the Self. Through the knowledge of the Self he is liberated. This is the gist of the above ten verses. (Cf.III.30)

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.10।। व्याख्या--'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि'--शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान्के ही हैं, अपने हैं ही नहीं; अतः इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओँको भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान्के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान्के लिये ही हो रही हैं; मैं तो निमित्तमात्र हूँ।भगवान् ही अपनी इन्द्रियोंके द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं--इस बातको ठीक-ठीक धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओंके कर्तापनको भगवान्में ही मानना, यही उपर्युक्त पदोंका अर्थ है।शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं, प्रत्युत मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान्के नाते, भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली हैं। इन वस्तुओँपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न बदल सकते हैं और न मरनेपर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादिको तथा इनसे होनेवाली क्रियाओँको अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अतः मनुष्यको ईमानदारीके साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं ,उसीकी अर्थात् भगवान्की मान लेनी चाहिये।सम्पूर्ण क्रियाओँ और पदार्थोंको कर्मयोगी 'संसार' के, ज्ञानयोगी 'प्रकृति' के और भक्तियोगी 'भगवान्' के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार--दोनोंके ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओँ और पदार्थोंको भगवान्के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.10।। दो पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णित ज्ञान ब्रह्म स्वरूप में रमे हुए तत्त्ववित् पुरुषों के लिये सत्य हो सकता है परन्तु निरहंकार और अनासक्ति का जीवन सर्व सामान्य जनों के लिये सुलभ नहीं होता। पूर्णत्व के साधकों को यही कठिनाई आती है। जो साधकगण गीता ज्ञान को जीना चाहते हैं और न कि तत्प्रतिपादित सिद्धान्तों की केवल चर्चा करना उनकी यही समस्या होती है कि किस प्रकार वे अहंकार का त्याग करें। इस समस्या का निराकरण विचाराधीन श्लोक में किया गया है जिसके द्वारा कोई भी अनासक्त जीवन व्यतीत कर सकता है। ब्रह्म में अर्पण करके मन का पूर्णतया अनासक्त होना असंभव है और यही तथ्य साधक लोग नहीं जानते। जब तक मन का अस्तित्त्व रहेगा तब तक वह किसीनकिसी वस्तु के साथ आसक्त रहेगा। इसलिये परमार्थ सत्य को पहचान कर उसके साथ तादात्म्य रखने का प्रयत्न करना ही मिथ्या वस्तुओं के साथ की आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दर्शाते हुए भगवान् उपदेश देते हैं कि सभी साधकों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने चाहिये। किसी आदर्श के निरन्तर स्मरण का अर्थ है मनुष्य का तत्स्वरूप ही बन जाना। जैसे अज्ञानदशा में हमें अहंकार का अखण्ड स्मरण बना रहता है वैसे ही ईश्वर का निरन्तर स्मरण रहने पर अहंकार का त्याग संभव हो सकता है। ईश्वर के अखण्ड चिन्तन से हम जीवभाव से ऊपर उठकर ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव कर सकते हैं।संक्षेप में आज हम जीवभाव में स्थित आत्मा हैं गीता का आह्वान है कि हम आत्मभाव में स्थित जीव बन जायें।एक बार अपने शुद्ध स्वरूप की पहचान हो जाने पर शरीर मन और बुद्धि के द्वारा किये गये कर्म किसी प्रकार की वासना उत्पन्न नहीं कर सकते। पाप और पुण्य कर्तृत्वाभिमानी जीव के लिये हैं आत्मा के लिये कदापि नहीं। दर्पण के कारण दिखाई दे रहे मेरे प्रतिबिम्ब की कुरूपता मेरी नहीं कही जा सकती। प्रतिबिम्ब का विकृत होना दर्पण की सतह के उत्तल या अवतल होने पर निर्भर करता है। इसी प्रकार पाप और पुण्य का बन्धन जीव को ही स्वकर्मानुसार होता है।आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ज्ञानी पुरुष देहादि उपाधियों के साथ विषयों के मध्य उसी प्रकार रहता है जैसे कमल का पत्ता जल में। यद्यपि कमल की उत्पत्ति पोषण स्थिति और नाश भी जल में ही होता है तथापि कमल पत्र जल से सदा अस्पर्शित रहता है। जल उसे गीला नहीं कर पाता। उसी प्रकार ही एक ज्ञानी सन्त पुरुष अन्य मनुष्यों के समान जगत् में निवास करता हुआ समस्त व्यवहार करता है और फिर भी पाप पुण्य रागद्वेष सुन्दरता कुरूपता आदि से कभी भी लिप्त नहीं होता।सामान्य कर्म को कर्मयोग में परिवर्तित करने के दो उपाय हैं (1) कर्तृत्व का त्याग और (2) फलासक्ति का त्याग। यहां प्रथम उपाय का वर्णन किया गया है। यह कोई अपरिचित नवीन या विचित्र सिद्धांत नहीं है। इसका हमें अपने जीवन में अनेक अवसरों पर अनुभव भी होता है। एक चिकित्सक आसक्ति के कारण अपनी पत्नी की शल्य क्रिया (आपरेशन) करने में स्वयं को असमर्थ पाता है परन्तु वही चिकित्सक उसी दिन उसी शल्य क्रिया को किसी अन्य रोगी पर कुशलतापूर्वक कर सकता है क्योंकि उस रोगी के साथ उसकी कोई आसक्ति नहीं होती।यदि मनुष्य स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि अथवा सेवक समझकर कार्य करे तो वह स्वयं में ही उस प्रचण्ड सार्मथ्य एवं कार्यकुशलता को पायेगा जिन्हें वह वर्तमान में कर्तृत्वाभिमान के कारण व्यर्थ में खोये दे रहा है।इसलिये

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.10।।तर्हि विद्वानिवाविद्वानपि कर्मणि न प्रवर्तेत पापोपहतिसंभवादित्याशङ्क्याह यस्त्विति। यथा भृत्यः स्वाम्यर्थं कर्माणि करोति न स्वफलमपेक्षते तथैव यो विद्वान्मोक्षेऽपि सङ्गं त्यक्त्वा भगवदर्थमेव सर्वाणि कर्माणि करोति न स स्वकर्मणा बध्यते। नहि पद्मपत्रमम्भसा संबध्यते तद्वदित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.10।।एवं तत्त्वविदो लौकिककर्मणा मुधा चेष्टामात्रेण लेपो नास्तीत्युक्तं इदानीमतत्त्वविविदो मुमुक्षोः का गतिरित्यपेक्षायामाह ब्रह्मणीति। ब्रह्मणि परमेश्वरे भृत्यइव स्वामिने तदर्थं करोमीति समर्प्य मोक्षेऽपि फले सङ्गं त्यक्त्वा यः सर्वाणि कर्माणि करोति सोऽम्भसा पद्मपत्रमिव पापेन न संबध्यते। मुमुक्षुं प्रति पुण्यस्यापि प्रतिबन्धकत्वात्पापेनेत्युक्तं इतरे तु विद्वत्परत्वेनैवं श्लोकं योजयन्ति। तथाहि तत्त्वविदो यो लोपः स किंस्वाभाविकेन्द्रियशरीरचेष्टाजन्य उत वैधेन्द्रियादिचेष्टाजन्यः। आद्यंप्रति द्वाभ्यामुक्त्वा द्वितीयं प्रत्याह ब्रह्मणीति। स किंवा तत्तत्कर्मजन्यसुकृतापूर्वलक्षणः किंवातत्तत्कर्मोपयोग्यर्थप्रतिग्रहादिजन्यदुरितापूर्वलक्षणः। नाद्य प्रत्याह ब्रह्मणीत्यादि। ब्रह्मार्पणबुद्य्धा क्रियमाणेषु कर्मसु नापूर्वोत्पत्तिरिति भावः। न द्वितीय इत्याह सङगंत्यक्त्वेति। सङ्गमैहिकधनादिफलासङगं ततश्च न दुरितापूर्वोत्पत्तिरिति भावः। तद्विचार्यम्। बह्यार्पणबुद्य्धा कर्मकरणेऽतत्त्वविदो मुमुक्षोरेवाधिकारादन्यथानन्तरश्लोकेनासंगत्यापत्तेः। ननु कानि चेदृशानि कर्माणि यानि धनार्जनतया विनानुष्ठातुं शक्यानि सन्ति सत्त्वविशुद्धये भवन्तीत्याशङ्कां परिहरन् कर्मयोगानुष्ठाने शिष्टाचारं प्रमाणयति कायेनेतीति स्वपरग्रन्थविरोधाच्च। अवशिष्टं तु भाष्यानुरोधेनोपादेयं मोक्षफले सर्वफलानामन्तर्भावेन तदासक्तिवारणेन भाष्यकारैः सर्वफलासक्तेर्वारितत्वात्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.10।।सन्न्यासयोगयुक्त एव च कर्मणा न लिप्यत इत्याह ब्रह्मणीति। साधननियमस्योपचारत्वव्यावृत्त्यर्थं पुनः पुनः फलकथनम्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.10।।ब्रह्मणीति। यतो विद्वानसङ्गत्वात्कुर्वन्नपि न लिप्यते तस्मादविद्वानपि ब्रह्मणि सर्वान्तर्यामिणि कर्माण्याधाय अयमेव कारयिता नत्वहं कर्तेति समर्प्य यः कर्माणि करोति सः पापेन न लिप्यतेऽम्भसा पद्मपत्रमिव।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.10।।ब्रह्मशब्देन प्रकृतिः इह उच्यतेमम योनिर्महद्ब्रह्म (गीता 14।3) इति हि वक्ष्यते। इन्द्रियाणां प्रकृतिपरिणामविशेषरूपत्वेन इन्द्रियाकारेण अवस्थितायां प्रकृतौपश्यन् श्रृण्वन् इत्यादिना उक्तप्रकारेण कर्मणि आधाय फलसङ्गं त्यक्त्वानैव किञ्चित् करोमि इति यः कर्माणि करोति स प्रकृतिसंसृष्टतया वर्तमानः अपि प्रकृत्यात्माभिमानरूपेण सम्बन्धहेतुना पापेन न लिप्यते पद्मपत्रमिवाम्भसा यथा पद्मपत्रम् अम्भसा संसृष्टम् अपि न लिप्यते तथा न लिप्यते इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.10।।तर्हि यस्य करोमीत्यभिमानोऽस्ति तस्य कर्मलेपो दुर्वारः अविशुद्धचित्तत्वात्संन्यासोऽपि नास्तीति महत्संकटमापन्नमित्याशङ्क्याह ब्रह्मणीति। ब्रह्मण्याधाय परमेश्वरे समर्प्य तत्फले च सङ्गं त्यक्त्वा यः कर्माणि करोति असौ पापेन बन्धहेतुतया पापिष्ठेन पुण्यपापात्मकेन कर्मणा न लिप्यते। यथा पद्मपत्रमम्भसि स्थितमप्यम्भसा न लिप्यते तद्वत्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।5.10।।नन्वेवं फलाभिसन्धिपूर्वकेऽपि कर्मणि क्रियमाणेनैव किञ्चित्करोमि इति भावनया तत्करणेऽपि न दोषः स्यात् यदि च परमार्थतः स्वस्यैव कर्तृत्वं किं तस्योपाधिकत्वानुसन्धानेन प्रयोजनम् तथानुसन्धानेऽपि प्रकृतिसंसर्ग एवैनं देहात्मभ्रमे निमज्जयेदिति शङ्का निराक्रियतेब्रह्मणि इति श्लोकेन। न तावदत्र ब्रह्मशब्देन जीव उच्यते तत्कर्तृत्वतिरस्कारप्रकरणत्वात्। नापि परं ब्रह्म औपाधिकत्वप्रतिपादनप्रकरणे तदनपेक्षणात् अनन्तरं चसर्वकर्माणि मनसा 5।13़ इति श्लोकेन देहकर्तृत्वाभिसन्धानाभिधानात्। अतः पूर्वोक्तस्यार्थस्य आकाङ्क्षितफलनिर्देशपरत्वोपपत्तेः ब्रह्मशब्दोऽत्रेन्द्रियाकारपरिणतप्रकृतिगोचरः। भवति हि प्रकृतिकार्येऽपि ब्रह्मशब्दप्रयोगः तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं जायते मुं.उ.1।1।9 इति। तदेतदखिलमभिप्रेत्याह ब्रह्मशब्देनेति। ब्रह्मशब्दस्य प्रकृतौ प्रयोगं भगवद्गीतायामेवोदाहरति मम योनिरिति। भवतु प्रकृतौ ब्रह्मशब्दः प्रस्तुतस्य किमायातं इति शङ्कायां पूर्वश्लोकार्थन्यायाभ्यामुपबृंहितं वाक्यार्थमाह इन्द्रियाणामिति। ननु बृहत्त्वगुणात्प्रयोगबलाच्च मूलप्रकृतिर्ब्रह्मशब्देनोच्यताम् तत्र दर्शनश्रवणादिकर्तृत्वानुसन्धानमशक्यम् मूलप्रकृतिरूपे तद्धेतुत्वाभावादिति शङ्कानिराकरणायअवस्थितायामित्यन्तमुक्तम्। औपचारिकोऽपि कारणविषयः प्रयोगो द्रव्यैक्यात्कार्यमपि गोचरयेदिति भावः।कर्माणीति बहुवचनं पूर्वोक्तवैविध्यपरमिति प्रदर्शनायोक्तंपश्यउच्छृण्वन्नित्याद्युक्तप्रकारेणेति।यः करोति इत्यात्मन्येव कर्तृत्वनिर्देशात्तदौपाधिकत्वस्मारणाय पूर्वोक्तमाकृष्टंनैव किञ्चित्करोमीति। पापशब्दोत्र देहात्मभ्रमविषयःयोऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा म.भा.1।74।27 इत्यादिषु चात्मान्यथाज्ञानस्य पापत्वं प्रसिद्धम् आत्मनोऽकर्तृत्वानुसन्धानप्रकरणे तन्निवृत्तिरेव वक्तुमुचितेत्यभिप्रायेणप्रकृत्यात्माभिमानरूपेणेत्युक्तम्।बन्धहेतुनेति। तत्र पापलक्षणद्योतनम्। अलौकिकमनिष्टफलासाधारणकारणं हि पापम्। प्रयुक्तश्च पापशब्दोऽनेकेष्वर्थेषु यथा न सुकृतं न दुष्कृतं सर्वे पाप्मानोऽतो निवर्तन्ते छां.उ.8।4।1 इति। ननु पद्मपत्रमम्भसा संस्पृष्टं कथमत्र दृष्टान्तः इत्यत्राह यथेति। न संसर्गमात्रनिषेधायात्र दृष्टान्तः किन्तु यथा पद्मपत्रस्य जन्मस्थित्यादिकंसर्वमम्भस्येव तथापि न तत्कार्यक्लेशादिः तद्वत् प्रकृत्यधीनभोगस्थित्यादेरस्य तत्कार्यदेहात्मभ्रमादिर्न स्यादिति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्यकृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.10।।ननुयोगयुक्तः 7।5 इत्यनेन यत्सन्न्यासयोगयुक्तस्य कर्मालेपलक्षणं फलमुक्तं तदेव तस्यब्रह्मण्याधाय इति किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह सन्न्यासेति। प्रागुक्तस्यैव नियमोऽत्र क्रियते। सिद्धे सत्यारम्भस्य नियमार्थत्वादिति भावः। योगविवरणं च किञ्चिदधिकमिति चार्थः। ननु सन्न्यासस्त्वित्यनेनैव सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलं साधयत इति नियमोऽपि लब्ध एव तत्किमर्थमिदं सन्न्यासयोगयुक्तस्यकुर्वन्नपि न लिप्यते 5।7लिप्यते न स पापेन इति पुनः पुनः फलकथनं इत्यत आह साधनेति। साधननियमस्येति तदुक्तेरित्यर्थः। सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलसाधनमिति नियमोक्तेरुपचारत्वमपि सम्भवति लोकवत्। तन्निवृत्त्यर्थमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.10।।तर्ह्यविद्वान्कर्तृत्वाभिमानाल्लिप्येतैव तथाच कथं तस्य संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा स्यादिति तत्राह ब्रह्मणि परमेश्वरे आधाय समर्प्य सङ्गं फलाभिलाषं त्यक्त्वेश्वरार्थं भृत्यइव स्वाम्यर्थं स्वफलनिरपेक्षतया करोमीत्यभिप्रायेण कर्माणि लौकिकानि वैदिकानि च करोति यो लिप्यते न स पापेन पापपुण्यात्मकेन कर्मणेति यावत्। यथा पद्मपत्रमुपरि प्रक्षिप्तेनाम्भसा न लिप्यते तद्वद्भगवदर्पणबुद्ध्यानुष्ठितं कर्म बुद्धिशुद्धिफलमेव स्यात्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.10।।ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे सङ्गं आधाय संयोगावस्थायां स्थित्वा सङ्गं त्यक्त्वा वा विप्रयोगावस्थायां स्थित्वा कर्माण्यपि यः करोति स तेन न लिप्यते। तत्र दृष्टान्तमाह पद्मपत्रमिवेति। अम्भसा पद्मपत्रमिव। जले तिष्ठन्नपि तद्यथा न लिप्तं भवति तथेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.10।। ब्रह्मणि ईश्वरे आधाय निक्षिप्य तदर्थं कर्म करोमि इति भृत्य इव स्वाम्यर्थं सर्वाणि कर्माणि मोक्षेऽपि फले सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः सर्वकर्माणि लिप्यते न स पापेन न संबध्यते पद्मपत्रमिव अम्भसा उदकेन। केवलं सत्त्वशुद्धिमात्रमेव फलं तस्य कर्मणः स्यात्।।यस्मात्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.10।।न चायं मुनिः केवलं साङ्ख्यमार्गीयः कर्मसन्न्यासाभावात् किन्तु योगमार्गीयस्तत्त्ववित् कर्मकरणादिति विवेचयति ब्रह्मणीति। अत्र ब्रह्मपदं ब्रह्मयज्ञविषयबोधकं तत्रैव च कर्माणि स्वेनैव क्रियमाणानि अनुसन्धायेति क्रियाद्वैतभाव उक्तः। कर्मसु च सङ्गं फलाभिसन्धिं ममतां च त्यक्त्वा यो योगी करोति स तदधिगतः ब्रह्मवित् जीवन्मुक्तः पापेनाकरणप्रत्यवायेन नाश्लिष्टो भवति पद्मपत्रमिवाम्भसा।


Chapter 5, Verse 10