Chapter 5, Verse 8

Text

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।

Transliteration

naiva kiñchit karomīti yukto manyeta tattva-vit paśhyañ śhṛiṇvan spṛiśhañjighrann aśhnangachchhan svapañśhvasan pralapan visṛijan gṛihṇann unmiṣhan nimiṣhann api indriyāṇīndriyārtheṣhu vartanta iti dhārayan

Word Meanings

na—not; eva—certainly; kiñchit—anything; karomi—I do; iti—thus; yuktaḥ—steadfast in karm yog; manyeta—thinks; tattva-vit—one who knows the truth; paśhyan—seeing; śhṛiṇvan—hearing; spṛiśhan—touching; jighran—smelling; aśhnan—eating; gachchhan—moving; svapan—sleeping; śhvasan—breathing; pralapan—talking; visṛijan—giving up; gṛihṇan—accepting; unmiṣhan—opening (the eyes); nimiṣhan—closing (the eyes); api—although; indriyāṇi—the senses; indriya-artheṣhu—in sense-objects; vartante—moving; iti—thus; dhārayan—convinced


Translations

In English by Swami Adidevananda

The one who knows the truth and is devoted to yoga should think, "I am not doing anything," even though they are seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, and breathing.

In English by Swami Gambirananda

- Remaining absorbed in the Self, the knower of Reality should think, 'I certainly do not do anything', even while seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, breathing, speaking, releasing, holding, opening, and closing the eyes—remembering that the organs function in relation to the objects of the organs.

In English by Swami Sivananda

"I do nothing at all," thus would the harmonized knower of Truth think, seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, and breathing.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

A master of Yoga, knowing the reality, would think, 'I do not perform any action at all.' For, he who, while seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, and breathing;

In English by Shri Purohit Swami

Though the saint sees, hears, touches, smells, eats, moves, sleeps, and breathes, yet he knows the truth and knows that it is not he who acts.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।5.8 -- 5.9।। तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं' -- ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' -- ऐसा माने।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।5.8।। तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा (अर्थात् जानता है) कि  "मैं किंचित् मात्र कर्म नहीं करता हूँ"  देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ,।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

5.8 न not? एव even? किञ्चित् anything? करोमि I do? इति thus? युक्तः centred (in the Self)? मन्येत should think? तत्त्ववित् the knower of Truth? पश्यन् seeing? श्रृण्वन् hearing? स्पृशन् touching? जिघ्रन् smelling? अश्नन् eating? गच्छन् going? स्वपन् sleeping? श्वसन् breathing.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 5.8।। व्याख्या--'तत्त्ववित् युक्तः'--यहाँ ये पद सांख्ययोगके विवेकशील साधकके वाचक हैं, जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं, उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं।जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता, वह 'तत्त्ववित्' है। उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि, प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है?वास्तवमें उपर्युक्त स्थिति स्वरूपसे सभी मनुष्योंकी है; परन्तु वे भूलसे स्वरूपको क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं (गीता 3। 27)। परमात्माकी जिस शक्तिसे समष्टि संसारकी क्रियाएँ हो रही हैं, उसी शक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी हो रही हैं। परन्तु समष्टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्टिकी कुछ क्रियाओँको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है। इस मान्यताको हटानेके ही लिये भगवान् कहते हैं कि साधक अपनेको कभी कर्ता न माने। जबतक किसी भी अंशमें कर्तापनकी मान्यता है, तबतक वह साधक कहा जाता है। जब अपनेमें कर्तापनकी मान्यताका सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है, तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है। जैसे स्वप्नसे जगनेपर मनुष्यका स्वप्नसे बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुषका शरीरादिसे होनेवाली क्रियाओंसे बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता।यहाँ 'तत्त्ववित्'वही है, जो प्रकृति और पुरुषके विभागको अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृतिमें है, प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें गुण और क्रिया नहीं है--इसको ठीक-ठीक जानता है। प्रकृतिसे अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है। सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्यके अन्तर्गत ओतप्रोत है। प्रकाश्य (शरीर आदि) में घुला-मिला रहनेपर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है। ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेयके) कण-कणमें व्याप्त है; पर वह कभी आधेय नहीं होता। कारण कि जो प्रकाशक और आधार है, उसमें करना और होना नहीं है। करना और होनारूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेयमें ही है। इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य आधार और आधेयके भेद-(विभाग-) को जो ठीक तरहसे जानता है, वही 'तत्त्ववित्' है। इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष-(क्षेत्रज्ञ-) के विभागको जाननेकी बात भगवान्ने पहले दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें और आगे सातवें अध्यायके चौथे-पाँचवें तथा तेरहवें अध्यायके दूसरे, उन्नीसवें, तेईसवें और चौंतीसवें श्लोकमें कही है। 'पश्यञ्शृण्वन्स्पृशन् ৷৷. उन्मिषन्निमिषन्नपि'--यहाँ देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना--ये पाँचों क्रियाएँ (क्रमशः नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, घ्राण और रसना --इन पाँच) ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं। चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करना--ये चारों क्रियाएँ (क्रमशः पाद, हस्त, वाक्, उपस्थ और गुदा--इन पाँच) कर्मेन्द्रियोंकी हैं (टिप्पणी प0 290)। सोना--यह एक क्रिया अन्तःकरणकी है। श्वास लेना--यह एक क्रिया प्राणकी और आँखें खोलना तथा मूँदना--ये दो क्रियाएँ 'कूर्म 'नामक उपप्राणकी हैं।उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान्ने ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण और उपप्राणसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओँका उल्लेख कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके द्वारा ही होती हैं, स्वयंके द्वारा नहीं। दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगीके द्वारा वर्ण, आश्रम, स्वभाव, परिस्थिति आदिके अनुसार शास्त्रविहित शरीर-निर्वाहकी क्रियाएँ, खान-पान, व्यापार करना, उपदेश देना, लिखना ,पढ़ना, सुनना, सोचना आदि क्रियाएँ न होती हों--ऐसी बात नहीं है। उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं।मनुष्य अपनेको उन्हीं क्रियाओँका कर्ता मानता है, जिनको वह जानकर अर्थात् मन-बुद्धिपूर्वक करता है; जैसे पढ़ना, लिखना, सोचना, देखना, भोजन करना आदि। परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता; जैसे--श्वासका आना-जाना, आँखोंका खुलना और बंद होना आदि। फिर इन क्रियाओंका कर्ता अपनेको न माननेकी बात इस श्लोकमें कैसे कही गयी? इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे श्वासोंका आना-जाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होनेवाली हैं; किन्तु प्राणायाम आदिमें मनुष्य श्वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है। ऐसे ही आँखोको खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है। इसलिये इन क्रियाओंका कर्ता भी अपनेको न माननेके लिये कहा गया है। दूसरी बात, जैसे मनुष्य 'श्वसन् उन्मिषन् निमिषन्' (श्वास लेना, आँखोंको खोलना और मूँदना)--इन क्रियाओंको स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता, ऐसे ही अन्य क्रियाओंको भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये।यहाँ 'पश्यन्' आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं, इनका बिना किसी आधारके होना सम्भव नहीं है। ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओंका जो आधार है, उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। ऐसे ही प्रकाशित होनेवाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाशके सिद्ध नहीं हो सकतीं। जिस प्रकाशसे ये क्रियाएँ प्रकाशित होती है, जिस प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं, उस प्रकाशमें कभी कोई क्रिया हुई नहीं, होती नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं। ऐसा वह तत्त्व सबका आधार, प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है। वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओँका तात्पर्य है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।5.8।। See commentary under 5.9

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।5.8।।कर्माण्यङ्गीकृत्य तैरस्य विदुषो बन्धो नास्तीत्युक्तमिदानीं वस्तुतस्तस्य कर्माण्येव न सन्तीत्याह नचेति। लोकदृष्ट्या विदुषोऽपि कर्माणि सन्तीत्याशङ्क्य स्वदृष्ट्या तदभावमभिप्रेत्याह नैवेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।5.8 5.9।। कुर्वन्नपि कुतो न लिप्यत इत्याशङ्क्य यतोऽसौ परमार्थतो न करोतीत्याह द्वाभ्याम् नैवेति। युक्तः समाहितः सन्नादौ कर्मयोगयुक्त इति वाऽयं पक्षोऽध्याहारसापेक्षत्वादाचार्यैरुपेक्षितिः। तत्त्ववित्परमार्थदर्शी नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। कदेत्यपेक्षायामाह पश्यन्नित्यादि। अपेः सर्वत्र संबन्धः। पश्यन्नित्यादिज्ञानेन्द्रियाणां व्यापारान् गच्छन्निति पादयोर्व्यापारं स्वपन्निति बुद्धेः श्वसन्निति प्राणस्य प्रलपन्निति वाचः विसृजन्निति पायूपस्थयोः गृह्णन्निति हस्तयोः उन्मिषन्निमिषन्निति कूर्माख्यप्राणस्य कुर्वन्नपीन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते नाहमसङ्ग आत्मेति धारयन् बुद्य्धा निश्चयं कुर्वन् किंचित्सरोमीति तत्त्वविन्मन्यतेऽतो न लिप्यत इत्यर्थः। यद्वानन्वेवं कर्तृत्वाभिमानशून्य इन्द्रियैः प्रतिषिद्धमपि कुर्यादित्यत आह इन्द्रियाणीति। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेष्विष्टेषु विषयेषु वर्तन्त इति हेतोरन्याय्यमपि कुर्युरित्य इन्द्रियाणि धारयन्त्त्स्वायत्तानि यथेष्टसंचारपराङ्भुखानि कुर्वन्निति। अस्मिन्पक्षे प्रकरणविरोधोऽनुषक्लेशश्च परिहर्तव्यः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।5.8 5.9।।सन्न्यासं स्पष्टयति पुनः श्लोकद्वयेन।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।5.8 5.9।।न लिप्यत इत्येतदुपपादयति नैवेति द्वाभ्याम्। तत्त्ववित् अहं नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र हेतुः। इन्द्रियाणि उपलक्षणमिदं प्राणादेरपि। इन्द्रियादय इन्द्रियार्थेषु स्वेषु विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन्निश्चिन्वन्नत्वहं विषयेषु वर्ते इति मन्यते। धारयन्निति हेतौ शतृप्रत्ययः। अत्र दर्शनादयः पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां व्यापाराः। गमनविसर्गप्रलपनग्रहणानि कर्मेन्द्रियाणाम्। तानिच आनन्दस्योपलक्षणानि। श्वसन्निति प्राणस्य स्वपन्निति बुद्धेः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विभागः। क्रमस्त्वविवक्षितः। एतानि कुर्वन्नप्यभिमानाभावान्न लिप्यत इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।5.8।।एवम् आत्मतत्त्ववित् श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वागादीनि कर्मेन्द्रियाणि प्राणाः च स्वस्य विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन् अनुसन्दधानो न अहं किञ्चित् करोमि इति मन्येत। ज्ञानैकस्वभावस्य मम कर्ममूलेन्द्रियप्राणसम्बन्धकृतम् ईदृशं कर्तृत्वम् न स्वरूपप्रयुक्तम् इति मन्येत इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।5.8 5.9।। कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यत इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य कर्तृत्वाभिमानाभावान्न विरुद्धमित्याह नैवेति द्वाभ्याम्। कर्मयोगेन युक्तः क्रमेण तत्त्वविद्भूत्वा दर्शनश्रवणादीनि कुर्वन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्बुद्ध्या निश्चित्य किंचिदप्यहं न करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र दर्शनश्रवणस्पर्शनावघ्राणाशनानि चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियव्यापाराः गतिः पादयोः स्वापो बुद्धेः श्वासः प्राणस्य प्रलपनं वागिन्द्रियस्य विसर्गः पायूपस्थयोः ग्रहणं हस्तयोः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विवेकः। एतानि कर्माणि कुर्वन्नप्यनभिमानाद्ब्रह्मविन्न लिप्यते। तथाच पारमर्षं सूत्रं तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात इति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

5.8 इत्यादिकं ह्यनन्तरमुच्यत इति भावः।न लिप्यते इत्यत्र सवासनं सम्बन्धनिषेधो विवक्षित इत्याह न सम्बध्यत इति। प्रस्तुतार्थतया निगमयति अत इति।।।5.

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।5.8 5.9।।नैव किञ्चिदित्यादेः प्रतिपाद्यमाह सन्न्यासमिति।ज्ञेयः इत्यादिनाविशुद्धात्मा इत्यादिना च स्पष्टीकृतत्वात् पुनरिति। स्पष्टं च प्रागनुक्तसङ्कल्पत्यागस्याभिधानात्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।5.8।।एतदेव विवृणोति द्वाभ्यां चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियैर्वागादिकर्मेन्द्रियैः प्राणादिवायुभेदैरन्तःकरणचतुष्टयेन च तत्तच्चेष्टासु क्रियमाणासु इन्द्रियाणि इन्द्रियादीन्येवेन्द्रियार्थेषु स्वस्वविषयेषु वर्तन्ते प्रवर्तन्ते नत्वहमिति धारयन्नवधारयन् नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। तत्त्ववित्परामार्थदर्शी युक्तः समाहितचित्तः। अथवा आदौ युक्तः कर्मयोगेन पश्चादन्तःकरणशुद्धिद्वारेण तत्त्वविद्भूत्वा नैव किंचित्करोमीति मन्यत इति संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।5.8।।ननु नियतफलस्य कर्मणः कृतस्य कथं न फलं इत्याशङ्क्याह नैव किञ्चिदित्यादित्रयेण। तत्त्ववित् भगवदिङ्गितज्ञः युक्तः मद्भावयुक्तः सन्नैव किञ्चित्करोमि अहं किञ्चिदपि न करोमि किन्तु भगवदिच्छया तदाज्ञया यथा स कारयति तथा वारिवशात्तृणादिचलनवत् कर्म किमपि मत्तो न भवति न त्वहं करोमि इति यो मन्येत स पापेन कर्मजफलेन न लिप्यते। एवंरूपस्य स्थितिमाह पश्यन्निति। भावात्मकेन मनसा स्थिरीकृतालौकिकेन्द्रियैश्चक्षुःप्रभृतिभिः पश्यन् भगवत्स्वरूपदर्शनं कुर्वन् शृण्वन् भगवत्कूजितवेण्वादिशब्दान् स्पृशन् भगवच्चरणारविन्दस्पर्श कुर्वन् जिघ्रन् भगवन्मुखामोदाद्याघ्राणं कुर्वन् अश्रन्৷৷. गच्छन् गोचारणादिलीलायां सङ्गे गच्छन् स्वपन् लीलादिसमये नेत्रमुद्रणं कुर्वन् श्वसन् विप्रयोगादिना श्वासविमोकं कुर्वन् प्रलपन् तद्भावेन मत्तावस्थायां भ्रमरवद्गानं कुर्वन् विसृजन् तदवस्थायामेव दूरे यच्छन् गृह्णन् तदवस्थयैवालिङ्गनादि चरणेषु कुर्वन् उन्मिषन् मत्तावस्थात्यागेन स्वरूपानुभवं कुर्वन् निमिषन् तत्सुखानुभवेन नेत्रनिमीलनं कुर्वन् इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु भगवदवयवेषु वर्तन्त इति धारयन्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।5.8 5.9।। नैव किञ्चित् करोमीति युक्तः समाहितः सन् मन्येत चिन्तयेत् तत्त्ववित् आत्मनो याथात्म्यं तत्त्वं वेत्तीति तत्त्ववित् परमार्थदर्शीत्यर्थः।।कदा कथं वा तत्त्वमवधारयन् मन्येत इति उच्यते पश्यन्निति। मन्येत इति पूर्वेण संबन्धः। यस्य एवं तत्त्वविदः सर्वकार्यकरणचेष्टासु कर्मसु अकर्मैव पश्यतः सम्यग्दर्शिनः तस्य सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारः कर्मणः अभावदर्शनात्। न हि मृगतृष्णिकायाम् उदकबुद्ध्या पानाय प्रवृत्तः उदकाभावज्ञानेऽपि तत्रैव पानप्रयोजनाय प्रवर्तते।।यस्तु पुनः अतत्त्ववित् प्रवृत्तश्च कर्मयोगे

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।5.8 5.9।।कुर्वन्नपि न लिप्यते इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य सर्वेन्द्रियव्यापारसत्वेऽपि कर्तृत्त्वाद्यभिमानाभावेन निर्द्वन्द्वत्वान्न विरुद्धमित्याह नैव किञ्चिदिति। मनस इन्द्रियाणां च व्यापाराःउन्मिषन्निमिषन्नपि इत्यन्तं निर्दिष्टाः। स्वविषयेषु हीमानीन्द्रियाणि प्रवर्त्तन्ते नाहमिति। साङ्ख्यवद्धारवन् न लिप्यते। तथा चोक्तं सूत्रकृतातदविगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ ब्र.सू.4।1।13 इति। कर्मभिर्न स बध्यते इति।


Chapter 5, Verse 8