अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।
ajñaśh chāśhraddadhānaśh cha sanśhayātmā vinaśhyati nāyaṁ loko ’sti na paro na sukhaṁ sanśhayātmanaḥ
ajñaḥ—the ignorant; cha—and; aśhraddadhānaḥ—without faith; cha—and; sanśhaya—skeptical; ātmā—a person; vinaśhyati—falls down; na—never; ayam—in this; lokaḥ—world; asti—is; na—not; paraḥ—in the next; na—not; sukham—happiness; sanśhaya-ātmanaḥ—for the skeptical soul
The ignorant, the faithless, and the doubting one perish; for the doubting one, there is neither this world nor the one beyond, nor happiness.
One who is ignorant and faithless, and has a doubting mind, perishes. Neither this world nor the next, nor happiness, exists for one who has a doubting mind.
The ignorant, the faithless, and the doubting self go to destruction; there is neither this world nor the other, nor happiness for the doubting one.
But he who is ignorant and has no faith, perishes, with his mind full of doubts. Neither this world nor the other, nor happiness is for a person who is by nature full of doubts.
But the ignorant man, and he who has no faith, and the skeptic are lost. Neither in this world nor elsewhere is there any happiness in store for him who always doubts.
।।4.40।। विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है।
।।4.40।। अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख।।
4.40 अज्ञः the ignorant? च and? अश्रद्दधानः the faithless? च and? संशयात्मा the doubting self? विनश्यति goes to destruction? न not? अयम् this? लोकः world? अस्ति is? न not? परः the next? न not? सुखम् happiness? संशयात्मनः for the doubting self.Commentary The ignorant one who has no knowledge of the Self. The man without faith one who has no faith in his own self? in the scriptures and the teachings of his Guru.A man of doubting mind is the most sinful of all. His condition is very deplorable. He is full of doubts as regards the next world. He does not rejoice in this world also? as he is very suspicious. He has no happiness.
4.40।। व्याख्या--'अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति'--जिस पुरुषका विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशययुक्त पुरुषका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है। कारण कि संशययुक्त पुरुषकी अपनी बुद्धि तो प्राकृत--शिक्षारहित है और दूसरेकी बातका आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुषके संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है? अलग-अलग बातोंको सुननेसे 'यह ठीक है अथवा वह ठीक है?' ---इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुषका नाम संशयात्मा है। पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले साधकमें संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषयको पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषयको कुछ नहीं समझते उस विषयमें संशय पैदा नहीं होता और जिस विषयको पूरा समझते हैं, उस विषयमें संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञानमें ही पैदा होता है, इसीको अज्ञान कहते हैं (टिप्पणी प0 272.1)। इसलिये संशयका उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशयको बनाये रखना और उसे दूर करनेकी चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशयको दूर करनेकी चेष्टा न करनेपर वह संशय ही 'सिद्धान्त' बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होनेपर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्गमें सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपने भीतर संशयका रहना साधकको बुरा लगना चाहिये। संशय बुरा लगनेपर जिज्ञासा जाग्रत् होती है, जिसकी पूर्ति होनेपर संशय-विनाशक ज्ञानकी प्राप्ति होती है।साधकका लक्षण है--खोज करना। यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। साधकको निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्तेपर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्यतक पहुँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुएपर सन्तोष न करे, प्रत्युत जिस विषयको अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जाननेकी चेष्टा करता रहे। इसलिये संशयके रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, प्रत्युत जिज्ञासा अग्निकी तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होनेपर साधकका संशय सन्त-महात्माओंसे अथवा ग्रन्थोंसे किसी-न-किसी प्रकारसे दूर हो ही जाता है। संशय दूर करनेवाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है।
।।4.40।। इसके पूर्व के श्लोक में कहा गया है कि श्रद्धा तथा ज्ञान से युक्त पुरुष परम शान्ति प्राप्त करता है। इसी तथ्य पर बल देने के लिये निषेधात्मक भाषा में कहते हैं कि उपर्युक्त गुणों से रहित पुरुष अपनी ही हानि करता हुआ अन्त में नष्ट हो जाता है।जो अज्ञानी है अर्थात् वह पुरुष जिसे बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार के श्रद्धारहित और संशयी स्वभाव के पुरुष का नाश अवश्यंभावी है।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण संशयात्मा पुरुष की निन्दा करते हुये उसके जीवन की त्रासदी बताते हैं। ऐसे पुरुष को न इस लोक में सुख मिलता है और न अन्यत्र। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अज्ञानी तथा अश्रद्धालु पुरुष कुछ मात्रा में तो इस लोक का सुख प्राप्त कर सकते हैं परन्तु संशयी स्वभाव के व्य़क्ति के भाग्य में वह भी नहीं लिखा होता ऐसे पुरुष मानसिक रूप से किसी भी परिस्थिति का आनन्द लेने में सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं क्योंकि संशय की प्रवृत्ति प्रत्येक अनुभव में विष घोल देती है। तथाकथित बुद्धिमान अश्रद्धालु और संशयी स्वभाव के पुरुषों पर इस पंक्ति मे तीक्ष्ण व्यंग्य प्रहार किया गया है।अत इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। भगवान् आगे कहते हैं
।।4.40।।उत्तरश्लोकस्य पातनिकां करोति अत्रेति। यथोक्तसाधनवानुपदेशमपेक्ष्याचिरेण ब्रह्म साक्षात्करोति साक्षात्कृतब्रह्मत्वेऽचिरेणैव मोक्षं प्राप्नोतीत्येषोऽर्थः सप्तम्या परामृश्यते। संशयस्याकर्तव्यत्वे हेतुमाह पापिष्ठो हीति। उक्तं हेतुं प्रश्नपूर्वकमुत्तरश्लोकेन साधयति कथमिति। अज्ञादश्रद्दधानाच्च संशयचित्तस्य विशेषमादर्शयति नायमिति। द्वितीयविभागविभजनार्थं भूमिकां करोति अज्ञेति। अज्ञादीनां मध्ये संशयात्मनो यत्पापिष्ठत्वं तत्प्रश्नद्वारा प्रकटयति कथमिति। लोकद्वयस्य तत्प्रयुक्तसुखस्य चाभावे हेतुमाह तत्रापीति। संशयचित्तस्य सर्वत्र संशयप्रवृत्तेर्दुर्निवारत्वादित्यर्थः। संशयस्यानर्थमूलत्वे स्थिते फलितमाह तस्मादिति।
।।4.40।।अस्मिन्सर्वशास्त्रन्यायसिद्धे सुनिश्चितेऽर्थे संशयो न कर्तव्यः। तस्य पापिष्ठत्वादित्याशयेनाह यज्ञ इति। अज्ञो गुरुमुखादनधीतशास्त्रत्वेनात्मज्ञानशून्यश्च पूर्वोक्तश्रद्धारहितश्च इदमेवं भवति न वेति सर्वत्र संशयाकान्तचेता निनश्यति स्वार्थलाभाद्भश्यति। अज्ञाश्रद्दधानसंशयात्मापेक्षया चकारद्वयसूचितममुख्यत्वं स्फुटयति। संशयात्मा तु सर्वतः पापिष्ठः। यतस्तस्यायं मनुष्यलोको वित्तार्जनविवाहादिसाध्यो न। नच पर उपासनादिसाध्यो देवलोकः। नच तत्त्वज्ञानसाध्यजीवन्मुक्तिसुखं सर्वत्रापि संशयस्य सत्त्वात्। अज्ञानश्रद्दधानयोः परलोकस्य जीवन्मुक्तिसुखस्य चाभावेऽपि मनुष्यलोकोऽस्त्येव। यद्वा यज्ञः कदाचिदभ्यासवशात्परलोकादिसाधनं देहात्मविवेकादिज्ञानं लभते। अश्रद्दधानोऽपि युक्तियुक्तं श्रुत्वा श्रद्धां लभते। ततश्च परलोकादिभाजौ भवतः। सदा सर्वत्र संशयग्रस्तस्तु न तथा किंत्वतिपापिष्ठ इत्यर्थः। तस्मात्संशयो न कर्तव्य इत्याशयः।
।।4.40।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
।।4.40।।अज्ञ इति। अज्ञः सुखेन चिकित्सितुं शक्यः। अश्रद्दधानो यत्नेन। संशयात्मा त्वसाध्य एव। यतो मित्रादिष्वपि संशयं कुर्वतोऽस्यायं लोकोऽपि नास्ति नापि परः। वेदवाक्येऽपि संशयात्। अतएव सर्वदा संशयाकुलत्वात्सुखमपि तस्य नास्ति। तस्मात्संशयो न कर्तव्यः।
।।4.40।।अज्ञः एवम् उपदेशलब्धज्ञानरहितः उपदिष्टज्ञानवृद्ध्युपाये च अश्रद्दधानः अत्वरमाणः उपदिष्टे च ज्ञाने संशयात्मा संशयितमना विनश्यति नष्टो भवति। अस्मिन् उपदिष्टे आत्मयाथात्म्यविषये ज्ञाने संशयात्मनः अयम् अपि प्राकृतलोको न अस्ति न च परः धर्मार्थकामादिपुरुषार्थाः च न सिद्ध्यन्ति कुतो मोक्ष इत्यर्थः।शास्त्रीयकर्मसिद्धिरूपत्वात् सर्वेषां पुरुषार्थानां शास्त्रीयकर्मजन्यसिद्धेः च देहातिरिक्तात्मनिश्चयपूर्वकत्वात् अतः सुखलवभागित्वम् आत्मनि संशयात्मनो न संभवति।
।।4.40।।ज्ञानाधिकारिणमुक्त्वा तद्विपरीतमनधिकारिणमाह अज्ञश्चेति। अज्ञो गुरूपदिष्टार्थानभिज्ञः कथंचिज्ज्ञाने जातेऽप्यश्रद्दधानश्च जातायामपि श्रद्धायां ममेदं सिध्येद्वा न वेति संशयाक्रान्तचित्तश्च नश्यति स्वार्थाद्भ्रश्यति। एतेषु त्रिष्वपि संशयात्मा सर्वथा नश्यति यतस्तस्यायं लोको नास्ति धनार्जनविवाहाद्यसिद्धेः। नच परलोकः धर्मस्यानिष्पत्तेः। नच सुखं संशयेनैव भोगस्याप्यसंभवात्।
।।4.40।।उक्त एवार्थो व्यतिरेकेण स्थाप्यतेअज्ञश्च इति श्लोकेन।उपदेशलब्धज्ञानरहित इति पूर्वकमनिर्देशौचित्यादश्रद्धाहेत्वाकाङ्क्षणात् संशयदशासमभिव्याहाराच्च अज्ञशब्दोऽत्र शास्त्रजन्यज्ञाननिवृत्तिपर इति भावः। संशयस्य पृथगभिहितत्वात्अश्रद्दधानः इत्येतन्न विश्वासनिषेधपरम् किन्त्वाकाङ्क्षानिषेधपरम्। प्रकृष्टाकाङ्क्षैव हि त्वरेत्यभिप्रायेणअत्वरमाण इत्युक्तम्।संशयमना इति। संशय्यतेऽनेनेति संशयः संशयकारणं संशयहेतुभूतमना इत्यर्थः यद्वा संशये मनो यस्येति विग्रहः। नित्यस्यात्मनः पुरुषार्थशून्यत्वलक्षणस्य विनाशस्य पूर्वापरभावेन सन्तन्यमानस्य प्राचीनस्यैवानुवृत्तिप्रदर्शनाय प्रकृतिप्रत्ययार्थभेदविवक्षयानष्टो भवतीत्युक्तम्।विनष्टा वा प्रणष्टा वा वा.रा.5।13।15 इत्यादिषु प्रध्वंसव्यतिरिक्तविषये प्रयोगोऽप्यनेन सूचितः।विनश्यति इत्यस्य विवरणमुत्तरार्धम्।अयमपि इत्यनेनायंशब्देन निर्दिष्टक्षुद्रतासूचनम्।नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम 4।31 इतिवदत्रापि लोकशब्दः पुरुषार्थविषयः। कैमुतिकन्यायप्रदर्शनार्थं चअयं लोकः इत्युक्तम्। मोक्षप्रकरणत्वाच्चात्रायंशब्दपरशब्दयोर्न भौमदिव्यविषयत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाह धर्मार्थेति। मोक्षोपायभूतार्थे संशयात्मनः कथं पुरुषार्थान्तरासिद्धिः इत्यत्राह शास्त्रीयेति। अस्तु तत्तच्छास्त्रैरेव तत्तत्सिद्धिः किमनेन मोक्षोपयुक्तेन इत्यत्राहशास्त्रीयकर्मजन्यसिद्धेश्चेति। अयमभिप्रायः नह्यायुर्वेदादिवत् केवलमेतद्देहान्तर्भाविफलसाधनं कर्म तत्तच्छास्त्रैः प्रतिपाद्यते येन देहातिरिक्तात्मज्ञाननिरपेक्षता स्यात् देहान्तरभाव्येव हि यज्ञादिसाध्यं स्वर्गादिकं फलं प्राचुर्येण प्रतिपाद्यते अतो देहातिरिक्तात्मनिश्चयोऽत्यन्तापेक्षितः इति। उभयविधपुरुषार्थराहित्योपसंहारपरंन सुखम् इत्येतदिति व्यञ्जनायाह अत इति। यद्वाऽनन्तसुखदुःखभोगरूपनिश्श्रेयसनिरयपर्यन्तसंशयस्य मनस्तापहेतुत्वात्तदानीन्तनदुःखाभिप्रायेणन सुखम् इत्युक्तम्। अथवा पुरुषार्थयोग्यताभिमानमूलसुखाभावोऽभिप्रेतः।
।।4.39 4.40।।श्रद्धावानिति। अज्ञ इति। अत्र च श्रद्धागमः तत्परव्यापारत्वं च झगित्येव आस्तिकत्वात् असंशयत्वे सति उत्पद्यते। तस्मादसंशयवता गुर्वागमादृतेन भाव्यम् संशयस्य सर्वनाशकत्वात् ससंशयो हि न किञ्चिज्जानाति अश्रद्दधानत्त्वात्। तस्मात् निःसंशयेन भाव्यम् इति वाक्यार्थः।
।।4.40।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
।।4.40।।अत्र च संशयो न कर्तव्यः कस्मात् अज्ञोऽनधीतशास्त्रत्वेनात्मज्ञानशून्यः। गुरुवेदान्तवाक्यार्थे इदमेवं न भवत्येवेति विपर्ययरूपा नास्तिक्यबुद्धिरश्रद्धा तद्वानश्रद्धधानः। इदमेवं भवति नवेति सर्वत्र संशयाक्रान्तचित्तः संशयात्मा विनश्यति स्वार्थाद्भ्रष्टो भवति। अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च विनश्यतीति संशयात्मापेक्षया न्यूनत्वकथनार्थं चकाराभ्यां तयोः प्रयोगः। कुतः संशयात्मा हि सर्वतः पापीयान्। यतो नायं मनुष्यलोकोऽस्ति वित्तार्जनाद्यभावात् न परलोकः स्वर्गमोक्षादिः धर्मज्ञानाद्यभावात् न सुखं भोजनादिकृतं संशयात्मनः सर्वत्र संदेहाक्रान्तचित्तस्य। अज्ञस्याश्रद्दधानस्य च परो लोको नास्ति मनुष्यलोके भोजनादिसुखं च वर्तते। संशयात्मा तु त्रितयहीनत्वेन सर्वतः पापीयानित्यर्थः।
।।4.40।।अत्र मदुक्तौ संशयो न कर्तव्य इत्याह संशयात्माभविष्यति न वा इति सन्देहवान् अज्ञः मूर्खः अनात्मज्ञः अश्रद्दधानः गुरौ ज्ञानसाधनेषु च श्रद्धारहितो भूत्वा विनश्यति नष्टो भवति। चकारद्वयेन धर्मरहितः सन्तोषरहितश्च भवेदिति ज्ञाप्यते। किञ्च संशयात्मनः साधारणरीत्यापीह लोके परलोके च सुखं न स्यादित्याह नायमिति। संशयात्मनः सन्देहवतः अयं लोकः पशुपुत्रादिरूपो न सिद्धो भवति न परः स्वर्गादिरूपसुखं ऐश्वर्यारोग्यादिरूपं न भवतीत्यर्थः।
।।4.40।। अज्ञश्च अनात्मज्ञश्च अश्रद्दधानश्च गुरुवाक्यशास्त्रेषु अविश्वासवांश्च संशयात्मा च संशयचित्तश्च विनश्यति। अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः न तथा यथा संशयात्मा। संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम्। कथम् नायं साधारणोऽपि लोकोऽस्ति। तथा न परः लोकः। न सुखम् तत्रापि संशयोत्पत्तेः संशयात्मनः संशयचित्तस्य। तस्मात् संशयो न कर्तव्यः।।कस्मात्
।।4.40।।अश्रद्दधानस्तु नाधिकारी इत्येतावति वक्तव्ये अन्यमप्यनधिकारिणमाह। अज्ञ उपदिष्टार्थानभिज्ञः अनधिकारी तत्र च सत्यपि ज्ञानेऽश्रद्धावान् तथा संशयानश्च विनश्यत्येवेत्यन्ते महाननधिकारी निर्दिष्टः अनिश्चयात्तस्य महत्त्वमनधिकारे। तथा हि नायं लोकोऽस्तीति न च सुखं परलोकश्च। अतो निश्चयात्मिकैव बुद्धिरुचितेति भावः।
Chapter 4, Verse 40