Chapter 4, Verse 38

Text

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।

Transliteration

na hi jñānena sadṛiśhaṁ pavitramiha vidyate tatsvayaṁ yogasansiddhaḥ kālenātmani vindati

Word Meanings

na—not; hi—certainly; jñānena—with divine knowledge; sadṛiśham—like; pavitram—pure; iha—in this world; vidyate—exists; tat—that; svayam—oneself; yoga—practice of yog; sansiddhaḥ—he who has attained perfection; kālena—in course of time; ātmani—wihtin the heart; vindati—finds


Translations

In English by Swami Adidevananda

For there is no purifier equal to knowledge; he who is perfected in Karma Yoga finds this knowledge of his own accord in himself in due time.

In English by Swami Gambirananda

Indeed, there is nothing purifying here comparable to Knowledge. One who has become perfected over time through yoga, realizes That in their own heart.

In English by Swami Sivananda

Verily, there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga finds it within the Self in due time.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

In this world, there exists no purifier comparable to knowledge. One who becomes perfect in Yoga finds this, of their own accord, in their Self in due course.

In English by Shri Purohit Swami

There is nothing in the world so purifying as wisdom; and he who is a perfect saint finds that at last within himself.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.38।। इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.38।। इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,  निसंदेह,  कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.38 न not? हि verily? ज्ञानेन to wisdom? सदृशम् like? पवित्रम् pure? इह here (in this world)? विद्यते is? तत् that? स्वयम् oneself? योगसंसिद्धः perfected in Yoga? कालेन in time? आत्मनि in the Self? विन्दति finds.Commentary There exists no purifier eal to knowledge of the Self. He who has attained perfection by the constant practice of Karma Yoga and Dhyana Yoga (the Yoga of meditation) will? after a time? find the knowledge of the Self in himself.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.38।। व्याख्या--'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते'--यहाँ 'इह' पद मनुष्यलोकका वाचक है; क्योंकि सबकी-सब पवित्रता इस मनुष्यलोकमें ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करनेका अधिकार और अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीरमें नहीं है। अलग-अलग लोकोंके अधिकार भी मनुष्यलोकसे ही मिलते हैं। संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको माननेसे तथा उससे सुख लेनेकी इच्छासे ही सम्पूर्ण दोष, पाप उत्पन्न होते हैं (गीता 3। 37)। तत्त्वज्ञान होनेपर जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती, तब सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है और महान् पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं।संसारमें यज्ञ, दान, तप, पूजा, व्रत, उपवास, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गङ्गा, यमुना, गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी मनुष्यके पापोंका नाश करके उसे पवित्र करनेवाले हैं। परन्तु उन सबमें भी तत्त्वज्ञानके समान पवित्र करनेवाला कोई भी साधन, तीर्थ आदि नहीं है; क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञानके साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सबका साध्य है। परमात्मा पवित्रोंके भी पवित्र हैं--'पवित्राणां पवित्रम्' (विष्णुसहस्र0 10)। उन्हीं परमपवित्र परमात्माका अनुभव करानेवाला होनेसे तत्त्वज्ञान भी अत्यन्त पवित्र है।'योगसंसिद्धः'--जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया है अर्थात् कर्मयोगका अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो गया है, उस महापुरुषको यहाँ 'योगसंसिद्धः' कहा गया है, छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें उसीको 'योगारूढः' कहा गया है। योगारूढ़ होना कर्मयोगकी अन्तिम अवस्था है। योगारूढ़ होते ही तत्त्वबोध हो जाता है। तत्त्वबोध हो जानेपर संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।कर्मयोगकी मुख्य बात है--अपना कुछ भी न मानकर सम्पूर्ण कर्म संसारके हितके लिये करना, अपने लिये कुछ भी न करना। ऐसा करनेपर सामग्री और क्रिया-शक्ति--दोनोंका प्रवाह संसारकी सेवामें हो जाता है। संसारकी सेवामें प्रवाह होनेपर 'मैं सेवक हूँ' ऐसा (अहम्का) भाव भी नहीं रहता अर्थात् सेवक नहीं रहता, केवल सेवा रह जाती है। इस प्रकार जब सेवक सेवा बनकर सेव्यमें लीन हो जाता है, तब प्रकृतिके कार्य शरीर तथा संसारसे सर्वथा वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है। वियोग होनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जाती, केवल क्रिया रह जाती है। इसीको योगकी संसिद्धि अर्थात् सम्यक् सिद्धि कहते हैं।कर्म और फलकी आसक्तिसे ही 'योग' का अनुभव नहीं होता। वास्तवमें कर्मों और पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद स्वतःसिद्ध है। कारण कि कर्म और पदार्थ तो अनित्य (आदि-अन्तवाले) हैं, और अपना स्वरूप नित्य है। अनित्य कर्मोंसे नित्य स्वरूपको क्या मिल सकता है? इसलिये स्वरूपको कर्मोंके द्वारा कुछ नहीं पाना है --यह 'कर्मविज्ञान' है। कर्मविज्ञानका अनुभव होनेपर कर्मफलसे भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् कर्मजन्य सुख लेनेकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है, जिसके मिटते ही परमात्माके साथ अपने स्वाभाविक नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है, जो 'योगविज्ञान' है। योगविज्ञानका अनुभव होना ही योगकी संसिद्धि है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.38।। जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक वस्तु के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।योग में संसिद्धि अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है। इस चित्तशुद्धि के लिये ही बारह प्रकार के साधनरूप यज्ञों का वर्णन किया गया है। कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसी इच्छा करना जीवन के सुअवसरों को खोना ही है। कितने ही चेले ईश्वरत्व को सस्ते में खरीदने की प्रतीक्षा में जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ खो रहे हैं यद्यपि इस देश में अनेक गुरु अपने आश्रमों में आध्यात्मिकता का विक्रय करते हैं परन्तु यहां साधकों को सावधान किया जाता है कि इस प्रकार के विक्रय के लिये शास्त्र का कोई आधार नहीं हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा।पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि जो पुरुष पूर्ण मनोयोग से पूर्व वर्णित यज्ञों का अनुष्ठान करेगा उसे आवश्यक आन्तरिक योग्यता प्राप्त होगी और फिर उचित समय में वह आत्मानुभव को प्राप्त करेगा। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें।ज्ञानप्राप्ति का निश्चित साधन अगले श्लोक में बताते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.38।।नन्वन्येनैव परिशुद्धिकरेण केनचिदश्वमेधादिना परमपुरुषार्थसिद्धेरलमात्मज्ञानेनेत्याशङ्क्याह यत इति। पूर्वोक्तेन प्रकारेण ज्ञानमाहात्म्यं यतः सिद्धमतस्तेन ज्ञानेन तुल्यं परिशुद्धिकरं परमपुरुषार्थौपयिकमिह व्यवहारभूमौ नास्तीत्यर्थः। तत्पुनरात्मविषयं ज्ञानं सर्वेषां किमिति झटिति नोत्पद्यते तत्राह तत्स्वयमिति। महता कालेन यथोक्तेन साधनेन योग्यतामापन्नस्तदधिकृतः स्वयं तदात्मनि ज्ञानं विन्दतीति योजना। सर्वेषां झटिति ज्ञानानुदयो योग्यतावैधुर्यादिति भावः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.38।।यत एवमतो नहि ज्ञानेन तुल्यं पवित्रं पापनाशनं शुद्धिकरमिह दैवादियज्ञादौ विद्यते तस्य ज्ञानभिन्नस्याज्ञानानिवर्तकत्वेनात्यन्तशुद्धिकरत्वाभावात्। तर्हि किमन्यैर्यज्ञादिभिः मयाऽन्यैश्च ज्ञानमेव कुतो न संपाद्यमित्याशङ्क्याह। तत् ज्ञानं स्वयमेव योगेन निष्कामकर्मयोगेन समाधियोगेन च संसिद्धः संस्कृत योग्यतां प्राप्तः सन् मुमुक्षुर्महता कालेनात्मनि अखण्डात्मविषयं ज्ञानं विन्दति लभते। स्वयमेव स्वप्रयत्नेनैव योगसिद्धः स्वयमैव विन्दतीति वा। आत्मविषयसाक्षात्कारस्य स्वेनैव लभ्यत्वात्। गुर्वादेः परोक्षज्ञान एवोपयोगात्। यस्माद्योगसंसिद्धेरेवान्यैर्ज्ञानं लभ्यते तस्मात्त्वमपि तथाभूतः सन् तल्लभस्वेत्याशयः

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.38 4.39।।तत्साधनं विरोधिफलं च तदुत्तरैरुक्त्वोपसंहरति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.38।।नहीति। योगेन निष्कामकर्मानुष्ठानेन समाधियोगेन वा संसिद्धः संस्कृतो योग्यतामापन्नः। कालेनेति चिरप्रयत्नसाध्यत्वं ज्ञानस्योच्यते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.38।।यस्माद् आत्मज्ञानेन सदृशं पवित्रं शुद्धिकरम् इह जगति वस्त्वन्तरं न विद्यते तस्मादात्मज्ञानं सर्वं पापं नाशयति इत्यर्थः। तत् तथाविधं ज्ञानं यथोपदेशमहरहरनुष्ठीयमानं ज्ञानाकारकर्मयोगेन संसिद्धः कालेन स्वात्मनि स्वयमेव लभते।तद् एव स्पष्टम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.38।।तत्र हेतुमाह नहीति। पवित्रं शुद्धिकरं इह तपोयोगादिषु मध्ये ज्ञानतुल्यं नास्त्येव। तर्हि सर्वेऽप्यात्मज्ञानमेव किं नाभ्यस्यन्तीत्यत आह तत्स्वयमिति सार्धेन। तदात्मविषयं ज्ञानं कालेन महता कर्मयोगेन संसिद्धो योग्यतां प्राप्तःसन्स्वयमेवानायासेन लभते नतु कर्मयोगं विनेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.38।।लोकदृष्टान्तेन दर्शितोऽर्थो वह्नेः पदार्थान्तरादृष्टदाहकत्ववत्पवित्रतमस्वभावत्वेनोपपाद्यते नहीत्यर्धेन तदाह यस्मादिति।वस्त्वन्तरमिति ज्ञानरहितकर्मपुण्यस्थानादिकम्क्षेत्रज्ञस्येश्वरज्ञानाद्विशुद्धिः या.स्मृ.3।34 इत्युक्तादीश्वरज्ञानादर्वाचीनेषु परिशुद्धात्मज्ञानतुल्यं पावनं नास्तीत्यर्थः। ननु इदानीं तथाविधज्ञानं कुर्यामिति साभिसन्धिकस्यापि तन्न जायते अतस्तस्य पुरुषव्यापाराविषयत्वादविधेयत्वमिति शङ्का परिह्रियतेतत्स्वयमित्यर्धेन। तच्छब्देन विपाकावस्थं परामृश्यत इत्याहतथाविधमिति।यथोपदेशमिति। शास्त्रीयत्वमविकलत्वं कालेकाले वेदनीयत्वं च सूचितम्। तथाविधज्ञानस्य संस्कारप्राचुर्याद्विरोधिपापनिवर्तनाच्च स्वयमागमे हेतुःयोगसंसिद्धः इत्यनेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहज्ञानाकारकर्मयोगेन संसिद्ध इति। पक्वकषायत्वलक्षणयोग्यतापन्न इत्यर्थः। स्वयंशब्देन तदानीमुपदेशनैरपेक्ष्यमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह स्वयमेवेति। ज्ञानस्वरूपस्य साक्षात्स्वप्रयत्नागोचरत्वेऽपि तन्मूलभूतोक्ताकारकर्मयोगद्वारा तस्य विधेयत्वमुपपद्यत इति भावः। अत्रआत्मनि इति विषयसप्तमी इदानीं तद्रहितेऽपीत्यभिप्रायेणाधिकरणार्थत्वं वा स्वात्मसाक्षिकमिति वा विवक्षितम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.38।।नहीति। पवित्रं हि ज्ञानसमं नास्ति। अन्यस्य संवृद्ध्या (K ( n ) संवृत्या) पवित्रत्वं न वस्तुत इत्यतिप्रसंगभयात् न प्रताय्यते। पवित्रत्वं (S K पवित्रताम्) चास्य स्वयं ज्ञास्यतीति सुबुद्धतायाम्(S स्वप्रबुद्धतायाम्)।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.38 4.39।।उत्तरस्य श्लोकत्रयस्य सङ्कीर्णार्थत्वादेकोक्त्यैव तात्पर्यमुक्त्वा तस्मादिति चतुर्थस्य प्रतिपाद्यमाह तदिति। तस्य ज्ञानस्य साधनमन्तरङ्गं श्रद्धादिकम्। विरोध्यज्ञानादिकं ज्ञानस्य फलं परमशान्त्यादिकम्। विरोधिनः फलं विनाशादिकमिति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.38।।यस्मादेवं तस्मात् नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं पावनं शुद्धिकरमन्यदिह वेदे लोकव्यवहारे वा विद्यते ज्ञानभिन्नस्याज्ञानानिवर्तकत्वेन समूलपापनिवर्तकत्वाभावात् कारणसद्भावेन पुनः पापोदयाच्च। ज्ञानेन त्वज्ञाननिवृत्त्या समूलपापनिवृत्तिरिति तत्सममन्यन्न विद्यते। तदात्मविषयं ज्ञानं सर्वेषां किमिति झटिति नोत्पद्यते तत्राह तज्ज्ञानं कालेन महता योगसंसिद्धो योगेन पूर्वोक्तकर्मयोगेन संसिद्धः संस्कृतो योग्यतामापन्नः स्वयमात्मन्यन्तःकरणे विन्दति लभते नतु योग्यतामापन्नोऽन्यदत्तं स्वनिष्ठतया न वा परनिष्ठं स्वीयतया विन्दतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.38।।एवं ज्ञानस्य प्रतिबन्धनिरासकत्वमुक्त्वा स्वप्रापकत्वमाह न हीति। हीति निश्चयेन ज्ञानेन सदृशं इह साधनेषु पवित्रं न विद्यते। अतः योगसंसिद्धः कर्मयोगादिभिः सम्यक्प्रकारेण सिद्धो मत्तोषार्थं मदाज्ञया फलानभिलाषेण कृतकर्मयोगः तत् मत्स्वरूपात्मकं ज्ञानं कालेन अलौकिकेन तज्ज्ञानदानार्थमाविर्भूतेन आत्मनि स्वयं स्वात्मस्वरूपेण विन्दति जानातीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.38।। न हि ज्ञानेन सदृशं तुल्यं पवित्रं पावनं शुद्धिकरम् इह विद्यते। तत् ज्ञानं स्वयमेव योगसंसिद्धः योगेन कर्मयोगेन समाधियोगेन च संसिद्धः संस्कृतः योग्यताम् आपन्नः सन् मुमुक्षुः कालेन महता आत्मनि विन्दति लभते इत्यर्थः।।येन एकान्तेन ज्ञानप्राप्तिः भवति स उपायः उपदिश्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.38।।तत्र हेतुमाह नहीति। तपोध्यानादिषु मध्ये साङ्ख्ययोगैकार्थरूपज्ञानेन तुल्यं पवित्रं नास्ति यतस्तत्साङ्ख्यनिष्पन्नमपि योगे संसिद्धे एव कालानुगुण्येनात्मनि प्राप्नोति। कश्चित्तु साङ्ख्यज्ञानमेकं प्राप्नोति। योगं प्रतिपक्षीकरोति। च तथाऽन्योऽपि। मदुक्तानुसारेण तु विशेष्यैकविषयस्य साङ्ख्यस्य विशिष्टविशेष्यविषयकस्य योगस्य चैकार्थरूपं ब्रह्मज्ञानं मदनुगृहीतः प्राप्नोतीति स्वयमुक्तम्।


Chapter 4, Verse 38