अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः। प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
atha vyavasthitān dṛiṣhṭvā dhārtarāṣhṭrān kapi-dhwajaḥ pravṛitte śhastra-sampāte dhanurudyamya pāṇḍavaḥ hṛiṣhīkeśhaṁ tadā vākyam idam āha mahī-pate
atha—thereupon; vyavasthitān—arrayed; dṛiṣhṭvā—seeing; dhārtarāṣhṭrān—Dhritarashtra’s sons; kapi-dwajaḥ—the Monkey Bannered; pravṛitte—about to commence; śhastra-sampāte—to use the weapons; dhanuḥ—bow; udyamya—taking up; pāṇḍavaḥ—Arjun, the son of Pandu; hṛiṣhīkeśham—to Shree Krishna; tadā—at that time; vākyam—words; idam—these; āha—said; mahī-pate—King
Then Arjuna, whose banner crest was Hanuman, on beholding the sons of Dhrtarastra arrayed, took up his bow, while missiles were beginning to fly.
O King, thereafter, seeing Dhrtarastra's men standing in their positions, with all the weapons ready for action, the son of Pandu, Arjuna, who had the insignia of Hanuman on his chariot-flag, raised his bow and said the following to Hrsikesa.
Then, seeing the people of Dhritarashtra's party standing arrayed and the discharge of weapons about to begin, Arjuna, the son of Pandu whose ensign was a monkey, took up his bow and said the following to Krishna, O Lord of the Earth.
O king! Then, observing Dhrtarastra's men arrayed when the armed clash had virtually begun, at that time, Pandu's son, the monkey-bannered one (Arjuna), raising his bow, spoke these sentences.
Then, upon beholding the sons of Dhritarashtra, drawn up on the battlefield, ready to fight, Arjuna, whose flag bore the image of Hanuman,
।।1.20।। हे महीपते! धृतराष्ट्र! अब शस्त्रों के चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्य को धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थितरूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ये वचन बोले।
।।1.20।।हे महीपते ! इस प्रकार जब युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था कि कपिध्वज अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को स्थित देखकर धनुष उठाकर भगवान् हृषीकेश से ये शब्द कहे।
1.20 अथ now? व्यवस्थितान् standing arrayed? दृष्ट्वा seeing? धार्तराष्ट्रान् Dhritarashtras party? कपिध्वजः monkeyensigned? प्रवृत्ते about to begin? शस्त्रसंपाते discharge of weapons? धनुः bow? उद्यम्य having taken up? पाण्डवः the son of Pandu? हृषीकेशम् to Hrishikesha? तदा then? वाक्यम् word? इदम् this? आह said? महीपते O Lord of the earth.No Commentary.
।।1.20।। व्याख्या--'अथ'-- इस पदका तात्पर्य है कि अब सञ्जय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप 'भगवद्गीता' का आरम्भ करते हैं। अठारहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्लोकमें आये 'इति' पदसे यह संवाद समाप्त होता है। ऐसे ही भगवद्गीताके उपदेशका आरम्भ उसके दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे होता है और अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें यह उपदेश समाप्त होता है। 'प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते'-- यद्यपि पितामह भीष्मने युद्धारम्भकी घोषणाके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत केवल दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव और पाण्डव-सेनाने उसको युद्धारम्भकी घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र हाथमें उठाकर तैयार हो गये। इस तरह सेनाको शस्त्र उठाये देखकर वीरतामें भरकर अर्जुनने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथमें उठा लिया। 'व्यवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् दृष्ट्वा'-- इन पदोंसे सञ्जय-का तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखा, तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्यके पास गया। परन्तु जब अर्जुनने कौरवोंकी सेनाको देखा, तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुषपर ही गया-- 'धनुरुद्यम्य'। इससे मालूम होता है दुर्योधनके भीतर भय है और अर्जुनके भीतर निर्भयता है, उत्साह है, वीरता है। 'कपिध्वजः'-- अर्जुनके लिये 'कपिध्वज' विशेषण देकर सञ्जय धृतराष्ट्रको अर्जुनके रथकी ध्वजापर विराजमान हनुमान्जीका स्मरण कराते हैं। जब पाण्डव वनमें रहते थे, तब एक दिन अकस्मात् वायुने एक दिव्य सहस्रदल कमल लाकर द्रौपदीके सामने डाल दिया। उसे देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गयी और उसने भीमसेनसे कहा कि 'वीरवर! आप ऐसे बहुत-से कमल ला दीजिये।' द्रौपदीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये भीमसेन वहाँसे चल पड़े। जब वे कदलीवनमें पहुँचे, तब वहाँ उनकी हनुमान्जीसे भेंट हो गयी। उन दोनोंकी आपसमें कई बातें हुईँ। अन्तमें हनुमान्जीने भीमसेनसे वरदान माँगनेके लिये आग्रह किया तो भीमसेनने कहा कि 'मेरे पर आपकी कृपा बनी रहे।' इसपर हनुमान्जीने कहा 'हे वायुपुत्र! जिस समय तुम बाण और शक्तिके आघातसे व्याकुल शत्रुओंकी सेनामें घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जनासे उस सिंहनादको और बढ़ा दूँगा। इसके सिवाय अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठकर मैं ऐसी भयंकर गर्जना किया करूँगा, जो शत्रुओंके प्राणोंको हरनेवाली होगी, जिससे तुमलोग अपने शत्रुओंको सुगमतासे मार सकोगे' (टिप्पणी प0 17) । इस प्रकार जिनके रथकी ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान हैं उनकी विजय निश्चित है। 'पाण्डवः'-- धृतराष्ट्रने अपने प्रश्नमें 'पाण्डवाः' पदका प्रयोग किया था। अतः धृतराष्ट्रको बार-बार पाण्डवोंकी याद दिलानेके लिये सञ्जय (1। 14 में और यहाँ) 'पाण्डवः' शब्दका प्रयोग करते हैं। 'हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते'-- पाण्डव-सेनाको देखकर दुर्योधन तो गुरु द्रोणाचार्यके पास जाकर चालाकीसे भरे हुए वचन बोलता है परन्तु अर्जुन कौरवसेनाको देखकर जो जगदगुरु हैं अन्तर्यामी हैं मन-बुद्धि आदिके प्रेरक हैं--ऐसे भगवान् श्रीकृष्णसे शूरवीरता, उत्साह और अपने कर्तव्यसे भरे हुए (आगे कहे जानेवाले) वचन बोलते हैं।
।।1.20।। इन डेढ़ श्लोकों में महाभारत युद्ध के नायक अर्जुन का युद्धक्षेत्र में प्रवेशवर्णन मिलता है। उसके प्रवेश का ठीक समय और ढंग भी इसमें अंकित किया गया है। अभी बाण युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ था किन्तु वह क्षण दूर भी नहीं था। युद्ध का वह सर्वाधिक तनावपूर्ण क्षण था। संकट अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गया था। ऐसे समय कपिध्वज अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपने रथ को उभय पक्ष के मध्य ले चलने का अनुरोध किया।प्राचीनकाल में युद्धभूमि पर प्रत्येक श्रेष्ठ योद्धा का अपना एक विशेष सुप्रसिद्ध चिह्नांकित ध्वज होता था। पताका को पहराते समय रथ में बैठेे रथी को शत्रु की पहचान होती थी। उस समय के नियमानुसार एक साधारण सैनिक सेनानायक पर बाण नहीं चला सकता था। प्रत्येक योद्धा अपने समकक्ष योद्धा के साथ ही युद्ध करता था। विशिष्ट चिह्न द्वारा किसी व्यक्ति को पहचानने की प्रथा आज भी युद्ध क्षेत्र में प्रचलित है। किसी उच्च अधिकारी के वाहन और गणवेश पर उसके परिचायक विशेष चिह्न अंकित होते हैं। अर्जुन के ध्वज का प्रतीक चिह्न कपि था।संजय द्वारा किये गये वर्णन से प्रतीत होता है कि अर्जुन धर्मयुद्ध को प्रारम्भ करने के लिये अधीर हो रहा था। उसने अपना धनुष उठा लिया था जिससे उसकी युद्धतत्परता का संकेत मिलता है।
।।1.20।।दुर्योधनादीनां धार्तराष्ट्राणामेवं भयप्राप्तिं प्रदर्श्य पार्थादीनां पाण्डवानां तद्वैपरीत्यमिदानीमुदाहरति अथेत्यादिना। भीतिप्रत्युपस्थितेरनन्तरं पलायने प्राप्तेऽपि वैपरीत्याद्व्यवस्थितानप्रचलितानेव परान्प्रत्यक्षेणोपलभ्य हनूमन्तं वानरवरं ध्वजलक्षणत्वेनादायावस्थितोऽर्जुनो भगवन्तमाहेति संबन्धः। किमाहेत्यपेक्षायामिदं वक्ष्यमाणं हेतुमद्वचनमित्याह वाक्यमिदमिति। कस्यामवस्थायामिदमुक्तवानिति तत्राह प्रवृत्त इति। शस्त्राणामिषुप्रासप्रभृतीनां संपातः समुदायस्तस्मिन्प्रवृत्ते। प्रयोगाभिमुखे सतीति यावत्। किं कृत्वा भगवन्तं प्रत्युक्तवानिति तदाह धनुरिति। महीपतिशब्देन राजा प्रज्ञाचक्षुः संजयेन संबोध्यते।
।।1.20।।अथ तुमुलशब्देन व्यथाप्राप्त्यनन्तरमपि व्यवस्थितान्नतु पलायितान्धृतराष्ट्रसंबन्धिनो दृष्ट्वा प्रत्यक्षेणोपलभ्य प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते शस्त्राणां संपातः समुदायः तस्मिन्प्रवृत्ते प्रयोगाभिमुखे सति पाण्डवो धनुरुद्यम्य गाणडीवं धनुरुद्यतं कृत्वा हृषीकेशमुवाचेत्यन्वयः। पाण्डोरतिवीरस्य महीपतेः पुत्रत्वात्स्वयमतिशूरः कपिर्वानरो हनूमान सीतात्मिकां लक्ष्मीं भगवते रामचन्द्राय प्रापयिता। शत्रुपराजयं संपाद्य पाण्डवेभ्यो राज्यलक्ष्मीप्रदानाय यस्य ध्वजे स्थित इति भावः।
।।1.20।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।1.20।।व्यवस्थितान् भयोद्विग्नतया वैषम्येणावस्थितान्। कपिध्वजपाण्डवपदाभ्यां भीषणध्वजत्वं शौर्यं च प्रदृश्यते।
।।1.20।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.20।। तस्मिन्समये श्रीकृष्णमर्जुनो विज्ञापयामासेत्याह अथेति चतुर्भिः। व्यवस्थितान्युद्धोद्योगेन स्थितान्। कपिध्वजोऽर्जुनः।
।।1.20।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि
।।1.20।।No commentary.
।।1.20।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।1.20।।धार्तराष्ट्राणां भयप्राप्तिं प्रदर्श्य पाण्डवानां तद्वैपरीत्यमुदाहरति अथेत्यादिना। भीतिप्रत्युपस्थितेरनन्तरं पलायने प्राप्तेऽपि तद्विरुद्धतया युद्धोद्योगेनावस्थितानेव परान्प्रत्यक्षेणोपलभ्य तदा शस्त्रसंपाते प्रवर्तमाने सति। वर्तमाने क्तः। कपिध्वजः पाण्डवो हनूमता महावीरेण ध्वजरूपतयानुगृहीतोऽर्जुनः सर्वथा भयशून्यत्वेन युद्धाय गाण्डीवं धनुरुद्यम्य हृषीकेशमिन्द्रियप्रवर्तकत्वेन सर्वान्तःकरणवृत्तिज्ञं श्रीकृष्णमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यमाहोक्तवान् नत्वविमृश्यकारितया स्वयमेव यत्किंचित्कृतवानीति परेषां विमृश्यकारित्वेन नीतिधर्मयोः कौशलं वदन्नविमृश्यकारितया परेषां राज्यं गृहीतवानसीति नीतिधर्मयोरभावत्तव जयो नास्तीति महीपते इति संबोधनेन सूचयति। तदेवार्जुनवाक्यमवतारयति सेनयोरुभयोः स्वपक्षप्रतिपक्षभूतयोः संनिहितयोर्मध्ये मम रथं स्थापय स्थिरीकुर्विति सर्वेश्वरो नियुज्यतेऽर्जुनेन। किं हि भक्तानामशक्यं यद्भगवानपि तन्नियोगमनुतिष्ठतीति ध्रुवो जयः पाण्डवानामिति। नन्वेवं रथं स्थापयन्तं मामेते शत्रवो रथाञ्च्यावयिष्यन्तीति भगवदाशङ्कामाशङ्क्याह अच्युतेति। देशकालवस्तुष्वच्युतं त्वां को वा च्यावयितुमर्हतीति भावः। एतेन सर्वदा निर्विकारत्वेन नियोगनिमित्तः कोपोऽपि परिहृतः।
।।1.20।।एवं कृष्णार्जुनसमागमनार्थं सेनाद्वयेऽपि युद्धोत्सवमुक्त्वा प्रेरितकृष्णार्जुनयन्त्रणेन युद्धमध्ये प्रवृत्तस्य बन्धुनाशदर्शनेन वैराग्यं वक्तुमर्जुनस्य सहेतुकं कृष्णप्रेरणमाह अथेति चतुर्भिः। तत्र प्रेरणे प्रथमं हेतुदर्शनमाह। अथ भिन्नक्रमेण भयाभावेन धार्तराष्ट्रान् व्यवस्थितान् विशेषेण अवगता स्थितिर्येषां तादृशान् दृष्ट्वा कपिध्वजोऽर्जुनः कपिध्वज इति शस्त्रलाघवं सूचितम् शस्त्रसम्पाते प्रवृत्ते सति धनुरुद्यम्य पाण्डवः पाण्डोः पुत्रः स्वराज्याप्तिकाम्यया हृषीकेशं तथैवेन्द्रियप्रेरकं तदा तत्समये इदं वाक्यं वक्ष्यमाणमाह। महीपत इति सम्बोधनं राज्ञां तथैव धर्म इति ज्ञापनार्थम्। तद्वाक्यान्येवाह सेनयोरित्यादिना। हे अच्युत उभयोः सेनयोर्मध्ये रथं स्थापय।
1.20 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।
Chapter 1, Verse 20