यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35।।
yaj jñātvā na punar moham evaṁ yāsyasi pāṇḍava yena bhūtānyaśheṣheṇa drakṣhyasyātmanyatho mayi
yat—which; jñātvā—having known; na—never; punaḥ—again; moham—delusion; evam—like this; yāsyasi—you shall get; pāṇḍava—Arjun, the son of Pandu; yena—by this; bhūtāni—living beings; aśheṣhāṇi—all; drakṣhyasi—you will see; ātmani—within me (Shree Krishna); atho—that is to say; mayi—in me
Knowing this, O Arjuna, you will not fall again into delusion in this way—by that knowledge, you will see all beings without exception in yourself and then in Me.
Knowing this, O Pandava, you will not be deluded again in this way, and through it, you will see all beings, without exception, in the Self and also in Me.
Knowing that thou shalt not, O Arjuna, again be deluded like this; and by that thou shalt see all beings in thyself and also in me.
By knowing this, you will not be deluded again, O son of Pandu; and by this means, you will see all beings without exception in yourself, that is, in Me.
Having known That, you shall never again be confounded; and, O Arjuna, by the power of that wisdom, you shall see all these people as if they were your own Self, and therefore as Me.
।।4.35।। जिस- (तत्त्वज्ञान-) का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा, और हे अर्जुन ! जिस- (तत्त्वज्ञान-) से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।
।।4.35।। जिसको जानकर तुम पुन इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगे, और हे पाण्डव ! जिसके द्वारा तुम भूतमात्र को अपने आत्मस्वरूप में तथा मुझमें भी देखोगे।।
4.35 यत् which? ज्ञात्वा having known? न not? पुनः again? मोहम् delusion? एवम् thus? यास्यसि will get? पाण्डव O Pandava? येन by this? भूतानि beings? अशेषेण all? द्रक्ष्यसि (thou) shalt see? आत्मनि in (thy) Self? अथो also? मयि in Me.Commentary That? the knowledge of the Self mentioned in the previous verse? that is to be learnt from the Brahmanishtha Guru through prostration? estioning and service. When you acire this knowledge you will not be again subject to confusion or error. You will behold that underlying basic unity. You will behold or directly cognise through internal experience or intuition that all beings from the Creator down to a blade of grass exist in your own Self and also in Me. (Cf.IX.15XVIII.20)
।।4.35।। व्याख्या--'यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि वे महापुरुष तेरेको तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे; परन्तु उपदेश सुननेमात्रसे वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूपका यथार्थ अनुभव नहीं होता--'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' (गीता 2। 29) और वास्तविक बोधका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता। कारण कि वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् मन, वाणी आदिसे परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है और यह तब होता है, जब मनुष्य अपने विवेक (जड-चेतनके भेदका ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेकको महत्त्व देनेसे जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है, तब वह विवेक ही वास्तविक बोधमें परिणत हो जाता है और जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता।गीताके पहले अध्यायमें अर्जुनका मोह प्रकट होता है कि युद्धमें सभी कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देनेवाला कौन होगा? पिण्ड और जल न देनेसे वे नरकोंमें गिर जायँगे। जो जीवित रह जायँगे, उन स्त्रियोंका और बच्चोंका निर्वाह और पालन कैसे होगा? आदि-आदि। तत्त्वज्ञान होनेके बाद ऐसा मोह नहीं रहता। बोध होनेपर जब संसारसे मैं-मेरेपनका सम्बन्ध नहीं रहता, तब पुनः मोह होनेका प्रश्न ही नहीं रहता।
।।4.35।। इस प्रकरण के संदर्भ किसी के मन में यह शंका उठ सकती है कि इतना अधिक परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है परन्तु हो सकता है कि मृत्यु के पश्चात् फिर हम उसी अज्ञान अवस्था को पुन प्राप्त हो जायें। अपने एक ही जीवन में हम अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं लेकिन सब का ही हमें स्मरण नहीं रहता। इसी प्रकार आत्मज्ञान को भी प्राप्त करके यदि उसका विस्मरण हो जाता है तब तो वास्तव में बड़ी ही हानि होगी।इस प्रकार की शंका का निवारण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण निश्चयपूर्वक कहते हैं इसे जानकर पुन तुम मोह को प्राप्त नहीं होगे। किसी कट्टरवादी की अत्युत्साही शैली की भाँति प्रतीत होने वाला यह कथन है तथापि विचार की प्रारम्भिक अवस्था में इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। सभी आचार्य इस विषय पर एकमत हैं और चूँकि अपनी पीढ़ी की वंचना करने में उनका कोई स्वार्थ नहीं हो सकता इसलिये उनके मत को विश्वासपूर्वक स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है। इस श्रद्धा की आवश्यकता तब तक ही है जब तक हम स्वयं आत्मा का साक्षात् अनुभव नहीं कर लेते। वैवाहिक जीवन का आनन्द एक बालक नहीं समझ सकता। इसी प्रकार अज्ञान अव्ास्था में शोक मोह से ग्रस्त हम लोग भी देशकालातीत आत्मतत्त्व की अनुभूति के आनन्द को नहीं समझ सकते। गुरु चाहे जितना ही वर्णन क्यों न करें परन्तु आन्तरिक परिपक्वता प्राप्त किए बिना उनके वाक्यों के लक्ष्यार्थ को हम यथार्थरूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे।आत्मानुभूति का लक्षण बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं आत्मा की पहचान होने पर बाह्य विषयों भावनाओं एवं विचारों की सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा में ही प्रतीत होगी और वह आत्मा ही श्रीकृष्ण परमात्मा का स्वरूप है। एक बार समुद्र की पहचान हो जाने पर उस मनुष्य के लिए सम्पूर्ण लहरें समुद्ररूप ही हो जाती हैं।पूर्व श्लोकों में वर्णित ज्ञान के साक्षात्कार के लक्षण इस श्लोक में बताये गये हैं। यहाँ स्पष्ट हो जाता हैं कि शिष्य को गुरु के सानिध्य की आवश्यकता तभी तक रहती है जब तक वह समस्त सृष्टि को परमात्मा से अभिन्न आत्मस्वरूप में अनुभव नहीं कर लेता।इस ज्ञान का महात्म्य देखिये कि
।।4.35।।विशिष्टैराचार्यैरुपदिष्टे ज्ञाने कार्यक्षमे प्राप्ते सति समनन्तरवचनमपि योग्यविषयमर्थवद्भवतीत्याह तथाचेति। अतस्तस्मिन्विशिष्टे ज्ञाने कार्यक्षमे त्वदीयमोहापोहहेतौ निष्ठावता भवितव्यमिति शेषः। तत्र निष्ठाप्रतिष्ठायै तदेव ज्ञानं पुनर्विशिनष्टि येनेति। यज्ज्ञात्वेत्ययुक्तं ज्ञाने ज्ञानायोगादित्याशङ्क्य प्राप्त्यर्थत्वमधिपूर्वस्य गमेरङ्गीकृत्य व्याकरोति अधिगम्येति। इतश्चाचार्योपदेशलभ्ये ज्ञाने फलवति प्रतिष्ठावता भवितव्यमित्याह किञ्चेति। जीवे चेश्वरे चोभयत्र भूतानां प्रतिष्ठितत्वप्रतिनिर्देशे भेदवादानुमतिःस्यादित्याशङ्क्याह क्षेत्रज्ञेति। मूलप्रमाणाभावे कथं तदेकत्वदर्शनं स्यादित्याशङ्क्याह सर्वेति।
।।4.35।।ज्ञानफलमाह यदिति। यत्तैरुपदिष्टं ज्ञानं ज्ञात्वा लब्धवा। यत्तु यच्चिन्मात्रस्वरुपं ब्रह्म ज्ञात्वेति तन्न। पूर्वप्रस्तुतज्ञानपरामर्शेनार्थसंभवे यच्छब्देनाप्रस्तुतपरामर्शस्यान्याय्यत्वात्। एवमिदानीमिव पुनर्मोहं न यास्यसि न प्राप्स्यसि। किंच न केवलं स्वसंबन्धिनिबन्धमेव मोहं यास्यस्यपि तु सर्वभूतनिबन्धनमित्याह। येन ज्ञानेनाशेषेण सर्वाणि भूतानि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानि मयि प्रत्यगात्मनि कल्पितानीति स्वस्मिन्साक्षाद्द्रक्ष्यसि अथो अयि वासुदेवे परमेश्वरे चेमानीति प्रत्यगात्मैकत्वं सर्ववेदान्तेषु प्रसिद्धंद्रक्ष्यसीत्यर्थः। अथो अनन्तरमात्मानं मयि परमात्मन्यभेदेनेति वा। अस्मिपक्षेऽध्याहारदोषः परिहर्तव्यः। यद्वाथो अपिच येन ज्ञानेन भूतान्यात्मनि मयि त्वंपदलक्ष्यार्थादनन्यभूते इति अस्मिन्पक्षे सति संभवेऽथोशब्दस्य दूरान्वयोऽयुक्त इति ध्येयम्। पाण्डवेति संबोधयन् यथाधुनाऽहं पाण्डुपुत्र एते मदीया इत्यहंकारममकाराभ्यां मोहं गतोऽसि तथा ज्ञानं तन्मूलोच्छेदकं लब्ध्वा न यास्यसीति द्योतयति।
।।4.35।।येन ज्ञानेन मय्यात्मभूते सर्वभूतान्यथो तस्मादेव मोहनाशात्पश्यसि।
।।4.35।।यज्ज्ञात्वेति। यत् चिन्मात्रस्वरूपं ब्रह्म ज्ञात्वा एवमिदानीमिव पुनर्मोहं न यास्यसि। अथो अपि च येन ज्ञानेन भूतानि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तान्यात्मनि मयि त्वंपदलक्ष्यार्थादनन्यभूते परमेश्वरे द्रक्ष्यसि।नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा इति प्रतीचोऽन्यस्य द्रष्टुर्निषेधात्। भाष्ये तु साक्षादात्मनि मत्स्थानीमानीति द्रक्ष्यसि। अथो अपि मयि वासुदेवे परमेश्वरे च इमानीति क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वं सर्वोपनिषत्प्रसिद्धं द्रक्ष्यसीत्यर्थ इति।
।।4.35।।यद ज्ञानं ज्ञात्वा पुनः एवं देहाद्यात्माभिमानरूपं तत्कृतं ममताद्यास्पदं च मोहं न यास्यसि येन देवमनुष्याद्याकेरण अननुसंहितानि सर्वाणि भूतानि स्वात्मनि एव द्रक्ष्यसि यतः तव अन्येषां च भूतानां प्रकृतिवियुक्तानां ज्ञानैकाकारतया साम्यम्। प्रकृतिसंसर्गदोषविनिर्मुक्तम् आत्मस्वरूपं सर्वं समम् इति च वक्ष्यते निर्दोषं हि समं ब्रह्म (गीता 5।19) इति।अथो मयि सर्वाणि भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि मत्स्वरूपसाम्यात् च परिशुद्धस्य सर्वस्य आत्मवस्तुनः।इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः (गीता 14।2) इति हि वक्ष्यतेतथा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इत्येवमादिषु नामरूपविनिर्मुक्तस्य आत्मवस्तुनः परं स्वरूपसाम्यम् अवगम्यते अतः प्रकृतिविनिर्मुक्तं सर्वम् आत्मवस्तु परस्परं समं सर्वेश्वरेण च समम्।
।।4.35।। ज्ञानफलमाह यज्ज्ञात्वेतिसार्धैस्त्रिभिः। यज्ज्ञानं ज्ञात्वा प्राप्य पुनर्बन्धुवधादिनिमित्तं मोहं न प्राप्स्यसि। तत्र हेतुः। येन ज्ञानेन भूतानि पितृपुत्रादीनि स्वाविद्यारचितानि स्वात्मन्येवाभेदेन द्रक्ष्यसि। अथो अनन्तरमात्मानं मयि परमात्मन्येवाभेदेन द्रक्ष्यसीत्यर्थः।
।।4.35।।कर्मान्तर्भूतस्यात्मयाथात्म्यज्ञानस्य विपाकानुगुणं कालेन वेदनीयस्य साक्षात्कारावस्थायाश्चिह्नंयज्ज्ञात्वा इत्यनेन श्लोकेनोच्यत इत्याह आत्मयाथात्म्येति।एवमित्यस्यार्थो देहेत्यादिनोक्तः।अशेषेण इत्यस्य तात्पर्यार्थमाह देवमनुष्येत्यादि। तेनविद्याविनयसम्पन्ने 5।18 इत्यादि वक्ष्यमाणं स्मारितम्। भूतशब्देनाचित्संसृष्टक्षेत्रज्ञा विवक्षिताः। तेन देवाद्याकारानुसन्धाने हेतुर्दर्शितः।आत्मन्यथो मयि इति सप्तम्योः सामानाधिकरण्यभ्रमव्युदासायस्वात्मन्येवेत्युक्तम्। एवंविधस्य प्राकरणिकस्य स्वात्मविषयत्वात्अथो मयि इत्यनेन पृथग्भावसूचनाद्वक्ष्यमाणसमदर्शित्वविपाकक्रमाच्च व्यधिकरणतैवोचितेति भावः।सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव द्रक्ष्यसि प्रकृतिसंसर्गेण विषमतया प्रतिपन्नानि भूतानि परिशुद्धतया ज्ञाते स्वात्मनि निदर्शनभूते स्थालीपुलाकादिन्यायेन द्रक्ष्यसीत्यर्थः। आधाराधेयभावाद्यर्थान्तरभ्रमव्युदासाय प्रकृतार्थे हेतुमाह यतस्तवेति।प्रकृतिवियुक्तानामिति। औपाधिकवैषम्यनिगमावस्थायामिति भावः।पुमान्न देवो न नरः वि.पु.2।13।98नायं देवो न मर्त्यो वा इत्याद्यनुसारेणाह ज्ञानैकाकारतयेति। स्वात्मनि सर्वानुसन्धानहेतुतयोक्तं साम्यं परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वादिहानुक्तमित्यभिप्रायेणाह प्रकृतिसंसर्गेति।अथो मयीत्यादि मन्निदर्शनेन स्वात्मानं परांश्च द्रक्ष्यसीत्यर्थः। अनीश्वराणां कर्मवश्यानां कथमीश्वरनिदर्शनेनानुसन्धानं इत्यत्राह मत्स्वरूपसाम्यात्परिशुद्धस्येति। हेतुतयोक्तं ईश्वरसाम्यमपि परस्ताद्वक्ष्यत इति नेहोक्तमित्याह इदमिति। परिशुद्धात्मनः परमात्मसाम्ये श्रुतिरप्यस्तीत्याह तथेति। पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः पुण्यपापविगमात्तत्कृतप्रकृतिसंसर्गतत्प्रयुक्तक्लेशादिरहितः।नामरूपविनिर्मुक्तस्येतिपदेन तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः मुं.उ.3।2।8 इति तत्रत्यं वाक्यान्तरमपि स्मारितम्। ईश्वरसाम्यस्य क्वाचित्कताशङ्कां निरस्य श्रुतिस्मृतिसिद्धं हेतुं सङ्कलय्य दर्शयति अत इति। एतेन श्रुत्यादिसिद्धमीश्वरसाम्यमपि जीवानां परस्परसाम्ये हेतुरित्यप्युक्तं भवति। एतेन क्षेत्रज्ञानां परस्परमीश्वरेण चैक्यमिहोच्यत इति वदन्तः प्रत्युक्ताः। ननु स्वात्मनि सर्वेश्वरे च सर्वेषामाधेयतया दर्शनमिह विधीयत इति प्रतीयते मैवं स्वात्मनः सर्वाधारत्वायोगात्। परमात्मपर्यन्तबुद्ध्योपपद्यत इति चेत् न जीवसमाधेः प्रकरणार्थत्वात्। अतः स्वात्मनि परेषां दर्शनं सर्वसमानाकारानुसन्धानम्।
।।4.34 4.35।।तद्विद्धीति। यज्ज्ञात्वेति। तच्च ज्ञानं प्रणिपातेन भक्त्या परिप्रश्नेन ऊहापोहतर्कवितर्कादिभिः सेवया अभ्यासेन जानीहि। यतः एवंभूतस्य तव ज्ञानिनः निजा एव संवित्तिविशेषानुगृहीता इन्द्रियविशेषाः तत्त्वम् उप समीपे देक्ष्यन्ति प्रापयिष्यन्ति। तथाहि ते तत्त्वमेव दर्शयन्तीति तत्त्वदर्शिनः। उक्तं हि योग एव योगस्योपाध्यायः इति।ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा (Y S I 48 ) इति च।अन्ये ज्ञानिनः पुरुषा इति व्याख्यायमाने भगवान् स्वयं यत् उपदिष्टवान् तदसत्यमित्युक्तं स्यात्। अथवा एवमभिधाने (S. अभिधानेन च) प्रयोजनम् अन्येऽपि लोकाः प्रणिपातादिना ज्ञानिभ्यो ज्ञानं गृह्णीयुः न यथाकथंचित् इति समयप्रतिपादनम्।आत्मनि मयि मत्स्वरूपतां यति (S K प्राप्ते) आत्मनि इति सामानाधिकरण्यम्। अथोशब्दः पादपूरणे। आत्मना ईश्वरस्य साम्ये कोऽपि विशेष उक्तः। असाम्ये विकल्पार्थानुपपत्तिः।
।।4.35।।येन भूतानि इत्यस्य येन मोहेन सर्वाणि भूतान्यात्मनि स्वस्मिन्नथो मयि च द्रक्ष्यसीत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह येनेति। आत्मभूते सर्वान्तर्यामिणि। द्रक्ष्यसीत्येतत्पश्यसीति व्याख्यातं इदानीमपि ज्ञान्येवेति ज्ञापयितुम्।
।।4.35।।एवमतिनिर्बन्धेन ज्ञानोत्पादने किं स्यादत आह यत्पूर्वोक्तं ज्ञानमाचार्यैरुपदिष्टं ज्ञात्वा प्राप्य। ज्ञात्वा प्राप्य। ओदनपाकं पचतीतिवत्तस्यैव धातोः सामान्यविवक्षया प्रयोगः। न पुनर्मोहमेवं बन्धुवधादिनिमित्तं भ्रमं यास्यसि। हे पाण्डव कस्मादेवं यस्मादेव ज्ञानेन भूतानि पितृपुत्रादीनि अशेषेण ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानि स्वाविद्याविजृम्भितानि आत्मनि त्वयि त्वंपदार्थे अथो अपि मयि भगवति वासुदेवे तत्पदार्थे परमार्थतो भेदरहितेऽधिष्ठानभूते द्रक्षस्यभेदेनैव। अधिष्ठानातिरेकेण कल्पितस्याभावात्। मां भगवन्तं वासुदेवमात्मत्वेन साक्षात्कृत्य सर्वाज्ञाननाशे तत्कार्याणि भूतानि न स्थास्यन्तीति भावः।
।।4.35।।एवमुपदिष्टज्ञानेन मोहो न भवत्येवेत्याह यदिति। हे पाण्डव यत् उपदिष्टज्ञानात्मकं मत्स्वरूपं ज्ञात्वा पुनरेवं भूयः प्रश्नादिरूपं (मोहं) न यास्यसि न प्राप्स्यसि। अथो एतदनन्तरं मोहाभावानन्तरं येन ज्ञानेन भूतानि कारणरूपाणि जीवात्मकानि च अशेषेण जगद्रूपेण आत्मनि मयि आत्मरूपे मयि द्रक्ष्यसि।
।।4.35।। यत् ज्ञात्वा यत् ज्ञानं तैः उपदिष्टं अधिगम्य प्राप्य पुनः भूयः मोहम् एवं यथा इदानीं मोहं गतोऽसि पुनः एवं न यास्यसि हे पाण्डव। किञ्च येन ज्ञानेन भूतानि अशेषेण ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि द्रक्ष्यसि साक्षात् आत्मनि प्रत्यगात्मनिमत्संस्थानि इमानि भूतानि इति अथो अपि मयि वासुदेवे परमेश्वरे च इमानि इति क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वं सर्वोपनिषत्प्रसिद्धं द्रक्ष्यसि इत्यर्थः।।किञ्च एतस्य ज्ञानस्य माहात्म्यम्
।।4.35।।ज्ञाने फलमाह यज्ज्ञात्वेति सार्द्धैस्त्रिभिः। यत्साङ्ख्ययोगयोरेकार्थरूपं सर्वं ब्रह्मात्मज्ञानं प्राप्य येन च भूतानि चिदंशभूताः आत्मनि पुरुषे चेतने मयि च द्रक्ष्यसि। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थं 13।30 इति वक्ष्यति चाग्रे। अशेषेणेति पदेन प्रकृतिकार्यं देहादिकमपि तत्कारणे च द्रक्ष्यसि। तमात्मानं वा मयि परब्रह्मणि मदंशभूतत्वात्समष्टिपुरुषस्य।
Chapter 4, Verse 35