Chapter 4, Verse 30

Text

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।

Transliteration

apare niyatāhārāḥ prāṇān prāṇeṣu juhvati sarve py 'ete yajña-vido yajña-kṣapita-kalmaṣāḥ

Word Meanings

apare—others; niyata—controlled; āhārāḥ—eating; prāṇān—outgoing air; prāṇeṣu—in the outgoing air; sarve—all; api—although apparently different; ete—all these; yajñavidaḥ—conversant with the purpose of performing; yajña—sacrifices; kṣapita—being cleansed of the result of such performances; kalmaṣāḥ—sinful reactions; juhvati—sacrifices.


Translations

In English by Swami Adidevananda

All these know the meaning of sacrifices, and through sacrifices, their sins are eradicated. Those who subsist on the ambrosial food, the remnants of sacrifices, go to eternal Brahman.

In English by Swami Gambirananda

Others, having their food regulated, offer the vital forces in the vital forces. All of them are knowers of the sacrifice and have their sins destroyed by the sacrifice.

In English by Swami Sivananda

Others who regulate their diet offer life-breaths in each life-breath. All these are knowers of sacrifice, whose sins are destroyed through sacrifice.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

- . [Some sages] offer the prana into the apana; likewise, others offer the apana into the prana. Having controlled both the courses of the prana and apana, the same sages, with their desires fulfilled by the above activities, and with their food restricted, offer the pranas into pranas. All these persons know what sacrifices are and have their sins destroyed by them.

In English by Shri Purohit Swami

Others, controlling their diet, sacrifice their worldly life to the spiritual fire. All understand the principle of sacrifice, and by it their sins are washed away.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.29 -- 4.30।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.30 अपरे other persons? नियताहाराः of regulated food? प्राणान् lifreaths? प्राणेषु in the lifreaths? जुह्वति sacrifice? सर्वे all? अपि also? एते these? यज्ञविदः knowers of sacrifice? यज्ञक्षपितकल्मषाः whose sins are destroyed by sacrifice.Commentary Niyataharah means persons of regulated or limited food. They take moderate food. By rigid dieting they control the passions and appetites by weakening the functions of the organs of action.Yogis pour the lifreaths as sacrifice in the controlled lifreath. The former becomes merged in the latter.Performance of the above sacrifice leads to the purification of the mind and destruction of sins.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.30।। व्याख्या--'अपाने जुह्वति ৷৷. प्राणायामपरायणाः' (टिप्पणी प0 258.1)--प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है (टिप्पणी प0 258.2)। श्वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है। इसलिये श्वासको बाहर निकालना 'प्राण' का कार्य और श्वासको भीतर ले जाना 'अपान' का कार्य है। योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका-(चन्द्रनाड़ी-) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है। इसको 'पूरक' कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु-- दोनोंकी गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको 'कुम्भक' कहते हैं। इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका-(सूर्यनाड़ी-) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करना है। इसको 'रेचक' कहते हैं। चार भगवन्नामसे पूरक, सोलह भगवन्नामसे कुम्भक और आठ भगवन्नामसे रेचक किया जाता है। इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 258.3)। 'अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति'--नियमित आहार-विहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता 6। 16 17)।प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है--प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे 'स्तम्भवृत्ति प्राणायाम' भी कहते हैं। इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है। केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.30।। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो आहार संयम के द्वारा कामक्रोधादि से उत्पन्न मन की उत्तेजनाओं को संयमित करने का अभ्यास करते हैं। भारत में आहार संयम की विधि अपरिचित और नई नहीं है। प्राचीन ऋषियों को अन्न के पोषक तत्त्वों के विषय में पूर्ण ज्ञान था। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के स्वभाव एवं कार्यों के लिए उपयुक्त शाकसब्जियों तथा धान्यों का भी वैज्ञानिक पद्धति से वर्गीकरण किया था। केवल विचार ही नहीं वरन् उन्होंने प्रयोग करके यह दर्शाया भी था कि आहार संयम के द्वारा किस प्रकार मनुष्य अपने गुणों तथा व्यवहार को परिष्कृत करके सांस्कृतिक उन्नति कर सकता है।यज्ञविद शब्द से तात्पर्य उन साधकों से है जो उपर्युक्त साधनों को समझ कर उनमें से सभी अथवा कुछ साधनों का ही अभ्यास निस्वार्थ भावना से करते हैं। ऐसे ही लोग इनसे लाभान्वित होंगे। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ के द्वारा मनुष्य पापमुक्त होगा और न कि इनसे सीधे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।देहादि अनात्म पदार्थों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंका देह तथा बाह्य विषयों में आसक्त हुआ अनेक प्रकार के संकल्प करता रहता है। इन संकल्पों के अनुरूप ही कर्म और फलोपभोग से वासनायें उत्पन्न होती हैं जो सदैव मनुष्य को विषयों में प्रवृत्त करती हैं। यही पाप है जो मनुष्य को पशु के स्तर तक गिरा देता है। उपर्युक्त यज्ञों के अनुष्ठान से न केवल विद्यमान वासनायें नष्ट होती हैं वरन् नवीन विनाशकारी वासनायें भी नहीं उत्पन्न होती।संक्षेप में निष्कर्ष निकलता है कि ये समस्त यज्ञ साध्य न होकर अन्तकरण की शुद्धि के साधनमात्र हैं। चित्त शुद्ध होने पर निदिध्यासन के अभ्यास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अनेक साधक लोग अज्ञानवश किसी एक विशेष साधना में ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि उनकी आगे की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।इन सभी यज्ञों में पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं का प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.30।।प्राणापानयोर्गती श्वासप्रश्वासौ निरुध्य किं कुर्वन्तीत्यपेक्षायामाह किञ्चेति। प्राणापानगतिनिरोधरूपं कुम्भकं कृत्वा पुनःपुनर्वायुजयं कुर्वन्तीत्यर्थः। आहारस्य परिमितत्वं हितत्वमेध्यत्वोपलक्षणार्थम्। प्राणानां प्राणेषु होममेव विभजते यस्येति। जितेषु वायुभेदेष्वजितानां तेषां होमप्रकारं प्रकटयति ते तत्रेति। प्रकृतान्यज्ञानुपसंहरति सर्वेऽपीति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.30।।द्वादशयज्ञमाह अपर इति। नियतः परिमित आहारो येषां ते नियताहाराः सन्तः प्राणानजितान्वायुभेदान् प्राणेषु जितेषु वायुभेदेषु जुह्वति। तेऽजिता अपि तत्र प्रविष्टा जिता इव भवन्तीत्यर्थः। यत्तु अपरे त्वाहारसंकोचमभ्यसन्तः स्वयमेव जीर्यमाणेष्विन्द्रियेषु तत्तदिन्द्रियवृत्तिलयं होमं भावयन्तीत्यर्थः। यद्वाअपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे इत्यनेन पूरकरेचकयोरावर्तमानयोर्हंसः सोहमित्यनुलोमतः प्रतिलोमतश्चाभिव्यज्यमानाऽजपामन्त्रेण तत्त्वंपदार्थैक्यं व्यतिहारेण भावयन्तीत्यर्थः। प्राणापानगती इत्यनेन तु श्लोकेन प्राणायामयज्ञाः अपने कल्प्यन्ते तत्रायमर्थः द्वौ भागौ पूरयेदन्नैस्तोयेनैकं प्रपूरयेत्। मारुतस्य प्रचारार्थ चतुर्थमवशेष्येत्।। इत्येवमुक्तो नियतः आहारो येषां ते कुम्भकेन प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः सन्तः प्राणानिन्द्रियाणि प्राणेषु जुह्वति। कुम्भके सर्वे प्राणा एकीभवन्ति तत्रैव लीयमानेष्विन्द्रियेषु होमं भावयन्तीति भाष्यविरुद्धं व्याचख्युस्तदुपेक्ष्यम्। प्रसिद्धार्थपरित्यागबीजभूतानुपपत्त्याद्यनुपलब्ध्या श्रोत्रादीन्द्रिहोमस्य प्रत्याहाररुपेष्वग्निषूक्तत्वेन च पक्षान्तरे श्लोकोत्तरार्धस्य सत्यपि संभवे स्वपूर्वार्धेनान्वयं विहायापरपूर्वार्धेनान्वयस्यान्याय्यत्वेन पूरकरेचकयोरित्यादिग्रन्थस्याक्षरार्थत्वाभावेन च पूरकरेचककुम्भकरुपं प्राणायामं कुर्वन्तीति भाष्योक्तस्यैव सम्यक्त्वात्। एतेन प्राणानिन्द्रियाणीत्याद्यापि प्रत्युक्तम् लोकाप्रसिद्धार्थकल्पनापत्तेः। अतएव प्राणेषु बाह्याभ्यन्तरकुम्भकाभ्यासनिगृहीतेषु प्राणान् ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरुपान् जुह्वति चतुष्कुम्भकाभ्यासेन विलापयन्तीत्यर्थ इत्यपास्तम्। इन्द्रियाणि जुह्वती युक्त्या इन्द्रियनिरोधयज्ञस्याप्युपलब्ध्या प्राणायामयज्ञमाह सार्धेनेति स्वोक्तिविरोधाच्च। यदपि नियताहारा वैराग्यादिमन्तः प्राणानत्र समनस्कानीन्द्रियाणि प्राणशब्देन गृह्यन्ते। द्वितीयान्तप्राणशब्देन श्रोत्रादीनि वागादीनि च गृह्यन्ते तान्प्राणान्प्राणेषु समनश्चित्ताहंकारेष्वन्तःकरणवृत्तिभेदेषु जुह्वति प्रविलापयन्ति। इन्द्रियाणि संकल्पात्मके मनसि संहृत्य मनोऽपि स्मरणात्मके चित्ते संहृत्य तदप्यहंकारे संहरन्ति स चाभिमानरुपोऽहंकारोऽभिमन्तव्याभावात्स्वयमेव दग्धेन्धनानलवद्विलीयत इत्यन्ये। तदप्यसमञ्जसम्। लोकाप्रसिद्धार्थकल्पनादिदोषस्यात्रापि तुल्यत्वादितिदिक्। एते सर्वेऽपि यज्ञविदो यज्ञानां ज्ञातारः कर्तारश्च यज्ञैर्यथोक्तैः क्षपिता नाशिताः कल्मषाः पापानि येषां ते।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.30 4.31।।नियताहारत्वेनैव प्राणशोषात्प्राणान् प्राणेषु जुह्वति। यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञः कठ.3।13 इत्यादिश्रुत्युक्तप्रकारेण वा। अन्यदपि ग्रन्थान्तरे सिद्धम्।यदस्याल्पाशनं तेन प्राणाः प्राणेषु वै हुताः इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.30।।द्वादशं यज्ञमाह अपरे इति। नियतो निगृहीत आहारो विषयभोगो यैस्ते नियताहाराः वैराग्यादिमन्तः प्राणान्। अत्र समनस्कानीन्द्रियाणि प्राणशब्देन गृह्यन्ते। तान्प्राणेषु मनश्चित्ताहंकारेष्वन्तःकरणवृत्तिभेदेषु। बुद्धेः प्राग्गृहीतत्वादग्रहणम्। जुह्वति प्रविलापयन्ति। इन्द्रियाणि संकल्पात्मके मनसि संहृत्य मनोऽपि स्मरणात्मके चित्ते संहृत्य तदप्यहंकारे संहरन्ति। स चाभिमानरूपोऽहंकारोऽभिमन्तव्याभावात्स्वयमेव दग्धेन्धनानलवद्विलीयते। तत्र येषां समाधिबुद्धिरस्ति ते आभिमानिका बुद्धियोगिभ्यः पूर्वोक्तेभ्यो निकृष्टाः। अतएव एतान्प्रकृत्योक्तं वायवीयेसहस्रं त्वाभिमानिकाः इति। सहस्रं मन्वन्तराणीत्यनुषङ्गः। भौतिकस्तु योगोऽत्र नोक्तः। यदनुष्ठातृ़न्प्रकृत्य तत्रैवोक्तंभौतिकास्तु शतं पूर्णम् इति। अत्रापि शतं मन्वन्तराणात्यनुषञ्जनीयम्। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञलब्धारो यज्ञेन क्षपितं कल्मषं येषां ते तथाविधा भवन्ति सर्वे यज्ञाः कल्मषक्षयायैव भवन्ति न पुनः साक्षान्मोक्षायेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.30।।अपरे कर्मयोगिनः प्राणायामेषु निष्ठां कुर्वन्ति। ते च त्रिविधाः पूरकरेचककुम्भकभेदेन। अपानेजुह्वति प्राणम् इति पूरकः प्राणे अपानम् इति रेचकः प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणान् प्राणेषु जुह्वति इति कुम्भकः। प्राणायामपरेषु त्रिषु अपि अनुषज्यते नियताहारा इति। द्रव्ययज्ञप्रभृतिप्राणायामपर्यन्तेषु कर्मयोगभेदेषु स्वसमीहितेषु प्रवृत्ता एते सर्वेसहयज्ञैः प्रजाः सृष्ट्वा (गीता 3।10) इति अभिहितमहायज्ञपूर्वकनित्यनैमित्तिककर्मरूपयज्ञविदः तन्निष्ठाः तत एव क्षपितकल्मषाः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.30।। किंच अपर इति। अपरे त्वाहारसंकोचमभ्यस्यन्तः स्वयमेव जीर्यमाणेष्विन्द्रियेषु तत्तदिन्द्रियवृत्तिलयं होमं भावयन्तीत्यर्थः। यद्वा अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे इत्यनेन पूरकरेचकयोरावर्त्यमानयोर्हंसः सोहमित्यनुलोमतः प्रतिलोमतश्चाभिव्यज्यमानेनाऽजपामन्त्रेण तत्त्वंपदार्थैक्यं व्यतिहारेण भावयन्तीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रेसकारेण बहिर्याति हकारेण विशेत्पुनः। प्राणस्तत्र स एवाहं हंस इत्यनुचिन्तयेत् इति। प्राणापानगती रुद्ध्वेत्यनेन तु श्लोकेन प्राणायामयज्ञा अपरैः कथ्यन्ते तत्रायमर्थःद्वौ भागौ पूरयेदन्नैस्तोयेनैकं प्रपूरयेत्। मारुतस्य प्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत्।। इत्येवमादिवचनोक्तो नियत आहारो येषां ते। कुम्भकेन प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः सन्तः प्राणानिन्द्रियाणि प्राणेषु जुह्वति। कुम्भके हि सर्वे प्राणा एकीभवन्तीति तत्रैव लीयमानेष्विन्द्रियेषु होमं भावयन्तीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रेयथा यथा सदाभ्यासान्मनसः स्थिरता भवेत्। वायुवाक्कायदृष्टीनां स्थिरता च तथा तथा।। इति। तदेवमुक्तानां द्वादशानां यज्ञविदां फलमाह सर्व इति। यज्ञान्विदन्ति लभन्त इति यज्ञविदः। यज्ञज्ञा इति वा। यज्ञैः क्षपितं नाशितं कल्मषं यैस्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.30।।किमेतेषामुच्चावचकर्मयोगभेदनिष्ठानां अवान्तरफलभेदोऽस्ति किं प्राणायामनिष्ठानां यज्ञादिकं त्याज्यं इति शङ्काद्वयं निराक्रियते सर्वेऽपीति श्लोकेन।स्वसमीहितेष्विति वचनादविशिष्टफलतया विकल्पे न्याय्ये तत्तत्सामर्थ्याद्यनुसारिणी स्वेच्छैव हि विशेषनियामिकेति सूचितम्। सामान्यस्य यज्ञशब्दस्य असङ्कोचप्रदर्शनायसहयज्ञैरित्यादिकमुक्तम्।यज्ञक्षपितकल्मषाःयज्ञशिष्टामृतभुजः इत्याभ्यांयज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः 3।13 इत्यादिप्रागुक्तप्रत्यभिज्ञानात्तत्प्रकरणे च यज्ञशिष्टाशनस्य शरीरयात्रार्थत्वप्रपञ्चनात् तत्स्मरणायोक्तंयज्ञशिष्टामृतेन शरीरधारणं कुर्वन्त एवेति। प्राणायामादिषु निष्ठावतामपि नित्यत्वादिना यज्ञादिकमवश्यकार्यमित्यपि सिद्धम्। एवकारेण नैवंविधशरीरधारणादिव्यापार आत्मावलोकनविरोधी किन्तूपयुक्त इत्यभिप्रेतम्।व्यापृता इति अन्यथा व्यापार एवाशक्य इति भावः।ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम् 4।24 इति पूर्वव्याख्याततुल्यार्थत्वादुपसंहारस्थं सनातनं ब्रह्म यान्तीत्येतदपि व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.29 4.30।।एवं द्रव्ययज्ञः तपोयज्ञो योगयज्ञश्चोक्तलक्षणाः। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च ये ते संप्रति लक्ष्यन्ते अपाने इति। अपरे इति। प्राणम् उदयमानं ( N उदीयमानम्) नादं (S omit नादम्) प्रणवादिमात्रालयान्तम् अपाने अस्तं याति स्वानन्दान्तः प्रवेशात्मनि जुह्वति इति पिण्डस्थैर्यात्मा स्वाध्यायः। शिष्यात्मना च नयानयग्रहणाय केचिदस्तं यान्तम् उदी(द) यमाने संवेश्य तदेकीकारेण अपवर्गदानात्(S अपवर्गात्) आत्मनि शिष्यात्मनि च शोधनबोधनप्रवेशनयोजनरूपे स्वाध्याययज्ञे (S N स्वाध्यायज्ञाने) स्वपरानन्दमये प्रतिष्ठितमनसः। अत एव पूरकः प्रथममुक्तः चरमं रेचकः। प्रथमेन च पादेन ( N भागेन) विषयभोगान्तर्मुखीकरणं द्वितीयेन महाविदेहधारणाक्रमाद्विषयग्रहणाय निस्सरणं (N विसारणम्) ध्वन्यते। अतश्च स्वाध्याययज्ञेभ्यो न अन्ये ज्ञानयज्ञाः। एत एवोक्तव्यापारपरिशीलनावशपरिपूरितस्वात्मशिष्यात्ममनोरथाः द्वे अप्येते गती निरुध्य आहारं विषयभोगात्मकं नियम्य प्राणान् सकलचित्तवृत्त्युदयान् प्राणेषु परनिरानन्दोल्लासेषु जुह्वति कुंभकप्रशान्त्या अर्पयन्ति (S omits अर्पयन्ति)। सर्वे चैते द्रव्ययज्ञात् प्रभृति ज्ञानयज्ञान्तं यज्ञस्य तत्त्वज्ञाः तेनैव च क्षपितकल्मषाः समूलोन्मूलितभेदवासनामयमहामोहाः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.30 4.31।।अपरे नियत इत्यत्र प्राणानां प्राणेषु कीदृशो होमः नियताहारत्वस्य कथं तत्रोपयोगः इत्यत आह नियतेति। प्राणशोषादिन्द्रियवृत्तीनां वृत्तिमत्त्विन्द्रियेषु सङ्कोचाज्जुह्वतीत्युच्यत इति शेषः। एवशब्देन श्रोत्रादीनीत्यतो भेदं दर्शयति। तत्र प्रत्याहारेणात्र नियताहारत्वेनेति। प्राणनित्यादिकं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे यच्छेदिति। वाग्वाचं मनसि यच्छेत्। तन्नियतां ध्यायेत् अवराणामिन्द्रियदेवतानां उत्तमेन्द्रियदेवतानियतत्वचिन्तनं प्रकारार्थः। वा प्राणानां प्राणेषु होम इति शेषः। अस्मिन्पक्षे नियताहार इति पृथक् यज्ञो ज्ञातव्यः। इदमेवास्तु व्याख्यानं श्रौतत्वात्किं पूर्वेणेत्यत आह अन्यदपीति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.30।।तदेवमुक्तानां द्वादशधा यज्ञविदां फलमाह यज्ञान्विदन्ति जानन्ति विन्दन्ति लभन्ते वेति यज्ञविदो यज्ञानां ज्ञातारः कर्तारश्च। यज्ञैः पूर्वोक्तैः क्षपितं नाशितं कल्मषं पापं येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः। यज्ञान्कृत्वाऽवविष्टे कालेऽन्नममृतशब्दवाच्यं भुञ्जत इति यज्ञशिष्टामृतभुजः। ते सर्वेऽपि सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नित्यं संसारान्मुच्यन्त इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.30।।अपरे योगिनो नियताहाराः नियमितभोजनाःद्वौ भागौ पूरयेदन्नैस्तोयेनैकं च पूरयेत्। मारुतस्य प्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत् इत्युक्तम्। तथाप्यन्तःकरणशुद्ध्यर्थं देहस्थितिमात्ररूपभगवत्प्रसादैकभोक्तारः प्राणान् लौकिकान् प्राणेष्वाधिदैविकेषु भगवदुपयोग्येषु जुह्वति। सर्वेऽप्येते सार्द्धपञ्चश्लोकोक्ताः यज्ञविदः यज्ञस्वरूपज्ञाः। यज्ञक्षपितकल्मषाः स्वस्वाधिकारकृतस्वयज्ञेन दूरीकृतं मत्स्मरणप्रतिबन्धकात्मकं कल्मषं यैस्ते दूरीकृतकल्मषा भवन्तीति शेषः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.30।। अपरे नियताहाराः नियतः परिमितः आहारः येषां ते नियताहाराः सन्तः प्राणान् वायुभेदान् प्राणेषु एव जुह्वति यस्य यस्य वायोः जयः क्रियते इतरान् वायुभेदान् तस्मिन् तस्मिन् जुह्वति ते तत्र प्रविष्टा इव भवन्ति। सर्वेऽपि एते यज्ञविदः यज्ञक्षपितकल्मषाः यज्ञैः यथोक्तैः क्षपितः नाशितः कल्मषो येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः।।एवं यथोक्तान् यज्ञान् निर्वर्त्य

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.30 4.31।।अपरे तु आहारतर्पणप्राणानेव (वृत्तीः) प्राणेषु विलापयन्ति इति संयताहाराः। अन्यथौदरीयसर्वभागपूरणे रोधो योगश्च न स्यात्। तदर्थं प्रारीप्सूनामाहारो नियन्तव्य एव। एते सर्वे यज्ञविदस्तेन च निष्कलमषाः स्वाधिकारागतं यज्ञशिष्टममृतं च भुञ्जत इति तथा ते सर्वे सनातनं नित्यं ब्रह्म साक्षात् परम्परया च यान्ति। तदकरणे दोषदर्शनेन व्यतिरेचयति नायमिति। अयमल्पानन्दोऽपि लोको देहो वाऽयज्ञस्य न भवति ततोऽन्यो दिव्यस्तु कुतः इति कर्त्तव्यता बोधिता। अपरं च दर्शनप्रकारः प्रसङ्गादुक्तः। ब्रह्मज्ञानिनाऽपि सर्वसन्न्यासतो ब्रह्मयज्ञाभिधः क्रियते इतिन हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति 3।5 इति समर्थितम्।


Chapter 4, Verse 30