Chapter 4, Verse 29

Text

अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।।

Transliteration

apāne juhvati prāṇaṁ prāṇe ’pānaṁ tathāpare prāṇāpāna-gatī ruddhvā prāṇāyāma-parāyaṇāḥ apare niyatāhārāḥ prāṇān prāṇeṣhu juhvati sarve ’pyete yajña-vido yajña-kṣhapita-kalmaṣhāḥ

Word Meanings

apāne—the incoming breath; juhvati—offer; prāṇam—the outgoing breath; prāṇe—in the outgoing breath; apānam—incoming breath; tathā—also; apare—others; prāṇa—of the outgoing breath; apāna—and the incoming breath; gatī—movement; ruddhvā—blocking; prāṇa-āyāma—control of breath; parāyaṇāḥ—wholly devoted apare—others; niyata—having controlled; āhārāḥ—food intake; prāṇān—life-breaths; prāṇeṣhu—life-energy; juhvati—sacrifice; sarve—all; api—also; ete—these; yajña-vidaḥ—knowers of sacrifices; yajña-kṣhapita—being cleansed by performances of sacrifices; kalmaṣhāḥ—of impurities


Translations

In English by Swami Adidevananda

Others, with restricted diets, are devoted to the control of breath. Some sacrifice the inward breath in the outward breath; similarly, others sacrifice the outward breath in the inward breath. Some others, stopping the flow of both the inward and outward breaths, sacrifice the inward and outward breaths.

In English by Swami Gambirananda

Constantly practicing control of the vital forces by stopping the movements of the outgoing and incoming breaths, some offer as a sacrifice the outgoing breath into the incoming breath; while still others, the incoming breath into the outgoing breath.

In English by Swami Sivananda

Others offer as sacrifice the outgoing breath into the incoming, and the incoming into the outgoing, restraining the flow of the outgoing and the incoming breaths, solely absorbed in the restraint of the breath.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Some sages offer the prana into the apana; likewise, others offer the apana into the prana. Having controlled both the courses of the prana and apana, the same sages, with their desires fulfilled by the above activities, and with their food restricted, offer the pranas into pranas. All these persons know what sacrifices are and have their sins destroyed by them.

In English by Shri Purohit Swami

There are some who practice controlling the vital energy and governing the subtle forces of prana and apana, thereby sacrificing their prana to apana, or their apana to prana.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.29 -- 4.30।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.29।। अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,  तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं,  प्राण और अपान की गति को रोककर,  वे प्राणायाम के ही समलक्ष्य समझने वाले होते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.29 अपाने in the outgoing breath? जुह्वति sacrifice? प्राणम् incoming breath? प्राणे in the incoming breath? अपानम् outgoing breath? तथा thus? अपरे others? प्राणापानगती courses of the outgoing and incoming breaths? रुद्ध्वा restraining? प्राणायामपरायणाः solely absorbed in the restraint of breath.Commentary Some Yogis practise Puraka (inhalation)? some Yogis practise Rechaka (exhalation)?,and some Yogis practise Kumbhaka (retention of breath).The five subPranas and the other Pranas are merged in the chief Prana (MukhyaPrana) by the practice of Pranayama. When the Prana is controlled? the mind also stops its wanderings and becomes steady the senses are also thinned out and merged in the Prana. It is through the vibration of Prana that the activities of the mind and the senses are kept up. If the Prana is controlled? the mind? the intellect and the senses cease to function.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.29। व्याख्या--'अपाने जुह्वति ৷৷. प्राणायामपरायणाः'(टिप्पणी प0 258.1)--प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है (टिप्पणी प0 258.2)। श्वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है। इसलिये श्वासको बाहर निकालना 'प्राण' का कार्य और श्वासको भीतर ले जाना 'अपान' का कार्य है। योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका-(चन्द्रनाड़ी-) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है। इसको 'पूरक' कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु-- दोनोंकी गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको 'कुम्भक' कहते हैं। इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका-(सूर्यनाड़ी-) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राण-वायुमें अपानवायुका हवन करना है। इसको 'रेचक' कहते हैं। चार भगवन्नामसे पूरक, सोलह भगवन्नामसे कुम्भक और आठ भगवन्नामसे रेचक किया जाता है। इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 258.3)। 'अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति'--नियमित आहार-विहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता 6। 16 17)।प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है--प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे 'स्तम्भवृत्ति प्राणायाम' भी कहते हैं। इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है। केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.29।। इस श्लोक में आत्मसंयम के लिये उपयोगी प्राणायाम विधि का वर्णन किया गया है जिसका अभ्यास कुछ साधकगण करते हैं।अन्दर ली जाने वाली वायु को प्राण तथा बाहर छोड़ी जाने वाली वायु को अपान कहते हैं। योगशास्त्र के अनुसार हमारी श्वसन क्रिया के तीन अंग हैं पूरक रेचक और कुम्भक। श्वास द्वारा वायु को अन्दर लेने को पूरक तथा उच्छ्वास द्वारा बाहर छोड़ने को रेचक कहते हैं। एक पूरक और एक रेचक के बीच कुछ अन्तर होता है। जब वायु केवल अन्दर ही या केवल बाहर ही रहती है तो इसे कुम्भक कहते हैं। सामान्यत हमारी श्वसन क्रिया नियमबद्ध नहीं होती। अत पूरककुम्भकरेचककुम्भक रूप प्राणायाम की विधि का उपदिष्ट अनुपात में अभ्यास करने से प्राण को संयमित किया जा सकता है जो मनसंयम के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इस श्लोक में क्रमश रेचक पूरक और कुम्भक का उल्लेख है। प्राणायाम को यज्ञ समझ कर जो व्यक्ति इसका अभ्यास करता है वह अन्य उपप्राणों को मुख्य प्राण में हवन करना भी सीख लेता है।जैसी कि सामान्य धारणा है प्राण का अर्थ केवल वायु अथवा श्वास नहीं है। हिन्दु शास्त्रों में प्रयुक्त प्राण शब्द का अभिप्राय जीवन शक्ति के उन कार्यो से है जो एक जीवित व्यक्ति के शरीर में होते रहते हैं। शास्त्रों में वर्णित पंचप्राणों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे शरीर धारणा के पाँच प्रकार के कार्य हैं। वे पंचप्राण हैं प्राण अपान व्यान समान और उदान जो क्रमश विषय ग्रहण मलविसर्जन शरीर में रक्त प्रवाह अन्नपाचन एवं विचार की क्षमताओं को इंगित करते हैं। सामान्यत मनुष्य को इन क्रियायों का कोई भान नहीं रहता परन्तु प्राणायाम के अभ्यास से इन सबको अपने वश में रखा जा सकता है। अत वास्तव में प्राणायाम भी एक उपयोगी साधना है।अगले श्लोक में अन्तिम बारहवीं प्रकार की साधना का वर्णन किया गया है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.29।।प्राणायामाख्यं यज्ञमुदाहरति किञ्चेति। प्राणायामपरायणाः सन्तो रेचकं पूरकं च कृत्वा कुम्भकं कुर्वन्तीत्याह प्राणेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.29।।एकादशयज्ञमाह। अपानेऽपानवृत्तौ प्राणवृत्तिमपरे जुह्वति। पूरकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। तथा प्राणेऽपानं जुह्वति रेचकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्ति प्राणापानयोर्मुखनासिकाभ्यां वायोर्निर्गमनाधोगमनरुपे गती निरुध्य प्राणायामपरायणाः प्राणायामतत्पराः कुम्भकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.29।।अपरे प्राणायामपरायणाः प्राणमपाने जुह्वति अपानं च प्राणे। कुम्बकस्था एव भवन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.29।।एकादशं यज्ञमाह अपान इति। अपरे अपानेऽपानवृत्तौ जुह्वति प्रक्षिपन्ति प्राणं प्राणवृत्तिम्। पूरकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। तथा प्राणे च अपानं प्रक्षिपन्ति। रेचकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। प्राणापानगती रुद्ध्वा मुखनासिकाभ्यां वायोर्निर्गमनं प्राणस्य गतिः तद्विपर्ययेणाधोगमनमपानस्य गतिः ये प्राणापानगति एते निरुध्य प्राणायामपरायणाः प्राणायामतत्पराः कुम्भकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.29।।अपरे कर्मयोगिनः प्राणायामेषु निष्ठां कुर्वन्ति। ते च त्रिविधाः पूरकरेचककुम्भकभेदेन। अपानेजुह्वति प्राणम् इति पूरकः प्राणे अपानम् इति रेचकः प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणान् प्राणेषु जुह्वति इति कुम्भकः। प्राणायामपरेषु त्रिषु अपि अनुषज्यते नियताहारा इति। द्रव्ययज्ञप्रभृतिप्राणायामपर्यन्तेषु कर्मयोगभेदेषु स्वसमीहितेषु प्रवृत्ता एते सर्वेसहयज्ञैः प्रजाः सृष्ट्वा (गीता 3।10) इति अभिहितमहायज्ञपूर्वकनित्यनैमित्तिककर्मरूपयज्ञविदः तन्निष्ठाः तत एव क्षपितकल्मषाः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.29।।किंच अपान इति। अपाने अधोवृत्तौ प्राणमूर्ध्ववृत्तिं पूरकेण जुह्वति पूरककाले प्राणमपानेनैकीकुर्वन्ति। तथा कुम्भकेन प्राणापानयोरूर्ध्वाधोगती रुद्ध्वा रेचककालेऽपानं प्राणे जुह्वति। एवं पूरककुम्भकरेचकैः प्राणायामपरायणा अपरे इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.29।।प्राणायामपरायणाः इत्यनेन वर्गत्रयस्य सामान्यसङ्ग्रहः। क्रियत इति व्यञ्जनायप्राणायामेषु निष्ठां कुर्वन्तीति पृथग्वाक्यं कृतम्। प्राणायामनिष्ठानामवान्तरभेदज्ञापनायपूरकेत्यादिना प्राणायामावान्तरभेदप्रदर्शनम्। तत्तद्भेदप्रतिपादकांशं विविनक्ति अपरे इत्यादिना। ऊर्ध्वप्रवृत्तस्य प्राणस्य अधःप्रवेशनं हि पूरकः। ततश्चअपाने जुह्वतीत्येतदुपचारादुपपन्नम्। एवमधस्िस्थतस्य वायोरूर्ध्वप्रवर्तनं हि रेचक इतिप्राणेऽपानमित्युपचरितम्। वायोरूर्ध्वाधोगमननिवारणेनावस्थापनं कुम्भक इतिप्राणापानगती रुद्धा इत्यादेरभिप्रायः। प्राणान् प्राणवृत्तिभेदानित्यर्थः। आहारनियमस्तु दृष्टादृष्टोपकारद्वारा सर्वप्राणायामसाधारणतया विहित इत्याह प्राणायामपरेषु त्रिष्वपि इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.29 4.30।।एवं द्रव्ययज्ञः तपोयज्ञो योगयज्ञश्चोक्तलक्षणाः। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च ये ते संप्रति लक्ष्यन्ते अपाने इति। अपरे इति। प्राणम् उदयमानं ( N उदीयमानम्) नादं (S omit नादम्) प्रणवादिमात्रालयान्तम् अपाने अस्तं याति स्वानन्दान्तः प्रवेशात्मनि जुह्वति इति पिण्डस्थैर्यात्मा स्वाध्यायः। शिष्यात्मना च नयानयग्रहणाय केचिदस्तं यान्तम् उदी(द) यमाने संवेश्य तदेकीकारेण अपवर्गदानात्(S अपवर्गात्) आत्मनि शिष्यात्मनि च शोधनबोधनप्रवेशनयोजनरूपे स्वाध्याययज्ञे (S N स्वाध्यायज्ञाने) स्वपरानन्दमये प्रतिष्ठितमनसः। अत एव पूरकः प्रथममुक्तः चरमं रेचकः। प्रथमेन च पादेन ( N भागेन) विषयभोगान्तर्मुखीकरणं द्वितीयेन महाविदेहधारणाक्रमाद्विषयग्रहणाय निस्सरणं (N विसारणम्) ध्वन्यते। अतश्च स्वाध्याययज्ञेभ्यो न अन्ये ज्ञानयज्ञाः। एत एवोक्तव्यापारपरिशीलनावशपरिपूरितस्वात्मशिष्यात्ममनोरथाः द्वे अप्येते गती निरुध्य आहारं विषयभोगात्मकं नियम्य प्राणान् सकलचित्तवृत्त्युदयान् प्राणेषु परनिरानन्दोल्लासेषु जुह्वति कुंभकप्रशान्त्या अर्पयन्ति (S omits अर्पयन्ति)। सर्वे चैते द्रव्ययज्ञात् प्रभृति ज्ञानयज्ञान्तं यज्ञस्य तत्त्वज्ञाः तेनैव च क्षपितकल्मषाः समूलोन्मूलितभेदवासनामयमहामोहाः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.29।।अपाने जुह्वति इत्येतत् पूरकरेचककुम्भकपरतया केचिद्व्याचक्षते तदसत् अध्याहारादिप्रसङ्गात्। पूरकरेचकयोः कुम्भकार्थत्वेन पृथक्प्राणायामत्वाभावाच्चेति भावेन कुम्भकमात्रपरतया योजयति अपर इति।परायणाः इत्यतः परंप्राणापानगती रुद्धा इति द्रष्टव्यम्। अभिप्रायमाह कुम्भकस्था एवेति। एवशब्देनापव्याख्यानं व्यावर्तयति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.29।।प्राणायामयज्ञमाह सार्धेन अपानेऽपानवृत्तौ जुह्वति प्रक्षिपन्ति प्राणवृत्तिम्। बाह्यवायोः शरीराभ्यन्तरप्रवेशेन पूरकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। प्राणोऽपानं तथाऽपरे जुह्वति शारीरवायोर्बहिर्निर्गमनेन रेचकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। पूरकरेचककथनेन च तदविनाभूतो द्विविधः कुम्भकोऽपि कथित एव। यथाशक्ति वायुमापूर्यानन्तरं श्वासप्रश्वासनिरोधः क्रियमाणोऽन्तःकुम्भकः। यथाशक्ति सर्वं वायुं विरिच्यानन्तरं क्रियमाणो बहिःकुम्भकः। एतत्प्राणायामत्रयानुवादपूर्वकं चतुर्थं कुम्भकमाह प्राणापानगती मुखनासिकाभ्यामान्तरस्य वायोर्बहिर्निर्गमः श्वासः प्राणस्य गतिः। बहिर्निर्गतस्यान्तःप्रवेशः प्रश्वा सोऽपानस्य गतिः। तत्र पूरके प्राणगतिनिरोधः रेचकेऽपानगतिनिरोधः कुम्भके तूभयगतिनिरोध इति क्रमेण युगपच्च श्वा सप्रस्वासाख्ये प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः सन्तोऽपरे पूर्वविलक्षणानियताहाराः आहारनियमादियोगसाधनविशिष्टाः प्राणेषु बाह्याभ्यन्तरकुम्भकाभ्यासनिगृहीतेषु प्राणान् ज्ञानेन्द्रियकर्मर्मेन्द्रियरूपान्जुह्णति चतुर्थकुम्भकाभ्यासेन विलापयन्तीत्यर्थः। तदेतसर्वं भगवता पतञ्जलिना संक्षेपविस्तराभ्यां सूत्रितम्। तत्र संक्षेपसूत्रतस्मिन्सति श्वा सप्रश्वा सयोर्गतिविच्छेदलक्षणः प्राणायामः इति। तस्मिन्नासने स्थिरे सति प्राणायामोऽनुष्ठेयः। कीदृशः श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदलक्षणः श्वासप्रश्वासयोः प्राणापानधर्मयोर्या गतिः पुरुषप्रयत्नमन्तरेण स्वाभाविकप्रवहणं क्रमेण युगपञ्च पुरुषप्रयत्नविशेषेण तस्या विच्छेदो निरोध एव लक्षणं स्वरूपं यस्य स तथेति। एतदेव विवृणोतिबाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः इति। बाह्यगतिनिरोधरूपत्वाद्बाह्यवृत्तिः। पूरकः। आन्तरगतिनिरोधरूपत्वादान्तरवृत्ती रेचकः कैश्चित्तु बाह्यशब्देन रेचकः आन्तरशब्देन च पूरको व्याख्यातः। युगपदुभयगतिनिरोधस्तम्भस्तद्वृत्तिः कुम्भकः। तदुक्तंयत्रोभयोः श्वासप्रश्वासयोः सकृदेव विधारकात्प्रयत्नाद्भावो भवति न पुनः पूर्ववदापूरणप्रयत्नौघविधारणं नापि रेचनप्रयत्नौधविधारणं किंतु यथा तप्त उपले निहितं जलं परिशुष्यत्सर्वतः संकोचमापद्यते एवमयमपि मारुतो वहनशीलो बलवद्विधारकप्रयत्नावरुद्धक्रियः शरीर एव सूक्ष्मभूतोऽवतिष्ठते नतु पूरयति येन पूरकः नतु रेचयति येन रेचक इति। त्रिविधोऽयं प्राणायामो देशेन कालेन संख्यया च परीक्षितों दीर्घसूक्ष्मसंज्ञो भवति। यथा घनीभूतस्तूलपिण्डः प्रसार्यमाणो विरलतया दीर्घः सूक्ष्मश्च भवति तथा प्राणोऽपि देशकालसंख्याधिक्येनाभ्यस्यमानो दीर्घो दुर्लक्ष्यतया सूक्ष्मोऽपि संपद्यते। तथाहि हृदयान्निर्गत्य नासाग्रसंमुखे द्वादशाङ्गुलपर्यन्ते देशे श्वासः समाप्यते। ततएव च परावृत्त्य हृदयपर्यन्तं प्रविशतीति स्वाभाविकी प्राणापानयोर्गतिः। अभ्यासेन तु क्रमेण नाभेराधारद्वारा निर्गच्छति। नासान्तश्चतुर्विंशत्यङ्गुलपर्यन्ते षट्त्रिंशदङ्गुलपर्यन्ते वा देशे समाप्यते। एवं प्रवेशोऽपि तावानवगन्तव्यः। तत्र बाह्यदेशव्याप्तिर्निर्वाते देशे इषीकादिसूक्ष्मतूलक्रिययाऽनुमातव्या। अन्तरपि पिपीलिकास्पर्शसदृशेन स्पर्शेनानुमातव्या। सेयं देशपरीक्षा। तथा निमेषक्रियावच्छिन्नस्य कालस्य चतुर्थो भागः क्षणस्तेषामियत्ताऽवधारणीया। स्वजानुमण्डलं पाणिना त्रिःपरामृश्य छोटिकावच्छिन्नः कालो मात्रा। ताभिः षड्त्रिंशतामात्राभिः प्रथम उद्धातो मन्दः स एव द्विगुणीकृतो द्वितीयो मध्यः स एव त्रिगुणीकृतस्तृतीयस्तीव्र इति। नाभिमूलात्प्रेरितस्य वायोर्विरिच्यमानस्य शिरस्यभिहननमुद्धात इत्युच्यते। सेयं कालपरीक्षा। संख्यापरीक्षा च प्रणवजपावृत्तिभेदेन वा संख्यापरीक्षा श्वासप्रवेशगणनया वा। कालसंख्ययोः कथंचिद्भेदविवक्षया पृथगुपन्यासः। यद्यपि कुम्भके देशव्याप्तिर्नावगम्यते तथापि कालसंख्याव्याप्तिरवगम्यत एव। स खल्वयं प्रत्यहमभ्यस्तो दिवसपक्षमासादिक्रमेण देशकालप्रचयव्यापितया दीर्घः परमनैपुण्यसमधिगमनीयतया च सूक्ष्म इति निरूपितस्त्रिविधः प्राणायामः। चतुर्थं फलभूतं सूत्रयतिस्म बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः इति। बाह्मविषयः श्वासो रेचकः। अभ्यन्तरविषयः प्रश्वास पूरकः। वैपरीत्यं वा। तावुभावपेक्ष्य सकृद्बलवद्विधारकप्रयत्नवशाद्भवति बाह्याभ्यन्तरभेदन द्विविधस्ततृतीयः कुम्भकः। तावुभावनपेक्ष्यैव केवलकुम्भकाभ्यासपाटवेनासकृत्तत्तत्प्रयत्नवशाद्भवति चतुर्थः कुम्भकः। तथाच बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपीति तदनपेक्ष इत्यर्थः। अन्या व्याख्या बाह्यो विषयो द्वादशान्तादिराभ्यन्तरो विषयो हृदयनाभिचक्रादिः तौ द्वौ विषयावाक्षिप्य पर्यालोच्य यः स्तम्भरूपो गतिविच्छेदः स चतुर्थः प्राणायाम इति। तृतीयस्तु बाह्याभ्यन्तरौ विषयावपर्यालोच्यैव सहसा भवतीति विशेषः। एतादृशश्चतुर्विधः प्राणायामेऽपाने जुह्वति प्राणमित्यादिना सार्धेन श्लोकेन दर्शितः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.29।।अपरे योगिनोऽपानेऽधस्स्थे प्राणं ऊर्ध्वस्थं पूरकविधिना जुह्वति। तथा अपरे रेचकविधिना अपानं प्राणे। कुम्भकविधिना प्राणापानयोर्गतिनिरोधं कृत्वा प्राणायामपराः ईश्वरचिन्तननिष्ठा भवन्ति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.29।। अपाने अपानवृत्तौ जुह्वति प्रक्षिपन्ति प्राणं प्राणवृत्तिम् पूरकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः। प्राणे अपानं तथा अपरे जुह्वति रेचकाख्यं च प्राणायामं कुर्वन्तीत्येतत्। प्राणापानगती मुखनासिकाभ्यां वायोः निर्गमनं प्राणस्य गतिः तद्विपर्ययेण अधोगमनम् अपानस्य गतिः ते प्राणापानगती एते रुद्ध्वा निरुध्य प्राणायामपरायणाः प्राणायामतत्पराः कुम्भकाख्यं प्राणायामं कुर्वन्तीत्यर्थः।।किञ्च

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.29।।योगधारणवतामपि मध्ये केचित् प्राणायामपराः केचिन्नियताहारा उत्तममध्यमा इति तान्निरूपयति अपानेति। अधोवृत्तिप्राणा ऊर्द्धृवृत्तिरिति पर्यायेण तद्रोधे तथाविधाः।


Chapter 4, Verse 29