Chapter 4, Verse 28

Text

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।

Transliteration

dravya-yajñās tapo-yajñā yoga-yajñās tathāpare swādhyāya-jñāna-yajñāśh cha yatayaḥ sanśhita-vratāḥ

Word Meanings

dravya-yajñāḥ—offering one’s own wealth as sacrifice; tapaḥ-yajñāḥ—offering severe austerities as sacrifice; yoga-yajñāḥ—performance of eight-fold path of yogic practices as sacrifice; tathā—thus; apare—others; swādhyāya—cultivating knowledge by studying the scriptures; jñāna-yajñāḥ—those offer cultivation of transcendental knowledge as sacrifice; cha—also; yatayaḥ—these ascetics; sanśhita-vratāḥ—observing strict vows


Translations

In English by Swami Adidevananda

Self-controlled and firm of resolve, others perform the sacrifice of material objects or austerities or yoga; while others offer their scriptural study and knowledge.

In English by Swami Gambirananda

Similarly, others are performers of sacrifices through wealth, through austerity, through yoga, and through study and knowledge; others are ascetics with severe vows.

In English by Swami Sivananda

Others again offer wealth, austerity, and Yoga as sacrifice, while ascetics of self-restraint and rigid vows offer the study of scriptures and knowledge as sacrifice.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

These are the performers of sacrifices with material objects, the performers of sacrifices with penance, and the performers of sacrifices with Yoga. Likewise, there are other ascetics with rigid vows whose sacrifices are the svadhyaya-knowledge.

In English by Shri Purohit Swami

Others offer as their sacrifice wealth, austerities, and meditation. Monks, wedded to their vows, renounce their scriptural learning and even their spiritual powers.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.28।। दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य-सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं, और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं, तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.28।। कुछ (साधक) द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले होते हैं;  और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.28 द्रव्ययज्ञाः those who offer wealth as sacrifice? तपोयज्ञाः those who offer austerity as sacrifice? योगयज्ञाः those who offer Yoga as sacrifice? तथा thus? अपरे others? स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः those who offer study and knowledge as sacrifice? च and? यतयः ascetics or anchorites (persons of selfrestraint)? संशितव्रताः persons of rigid vows.Commentary Some do sacrifice by distributing their wealth to the deserving as charity some offer their Tapas (austerities) as sacrifice some practise the eight limbs of Raja Yoga? viz.? Yama (the five great vows)? Niyama (the canons of conduct)? Asana (posture)? Pranayama (restraint of breath)? Pratyahara (withdrawal of the senses)? Dharana (concentration)? Dhyana (meditation) and Samadhi (superconscious state)? and offer this Yoga as a sacrifice some study the scriptures and offer it as sacrifice.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.28।। व्याख्या--'यतयः संशितव्रताः'--अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धिसे संग्रहका अभाव)--ये पाँच 'यम' हैं (टिप्पणी प0 257), जिन्हें 'महाव्रत' के नामसे कहा गया है। शास्त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा, महिमा है। इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय। इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ 'संशितव्रताः' पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं, उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब संशितव्रताः हैं। अपने-अपने यज्ञके अनुष्ठानमें प्रयत्नशील होनेके कारण उन्हें 'यतयः' कहा गया है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.28।। द्रव्ययज्ञ यहां द्रव्य शब्द को उसके व्यापक अर्थ में समझना चाहिये। ईमानदारी से अर्जित किये धन का समाज सेवा में भक्तिभाव सहित विनियोग करने को द्रव्ययज्ञ कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इसमें केवल अन्न या धन का ही दान हो।द्रव्य शब्द के अर्थ में वे सब वस्तुएं समाविष्ट हैं जो हमारे पास हैं जैसे भौतिक सम्पत्ति प्रेम और सद्विचार। ईश्वर की पूजा समझ कर अपनी इन भौतिक मानसिक एवं बौद्धिक सम्पदाओं का समाजसेवा में सदुपयोग करना ही द्रव्ययज्ञ कहलाता है। अत इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए साधक का धनवान होना आवश्यक नहीं है। दरिद्र अथवा शरीर से अपंग होते हुए भी हम जगत् के कल्याण की कामना कर सकते हैं और हृदय से प्रार्थना कर सकते हैं। हार्दिक सहानुभूति का एक शब्द कृपा का एक कटाक्ष स्नेह सिंचित स्मिति अथवा मैत्रीपूर्ण सदव्यवहार पाषाणीमन से दी हुई बड़ी धनराशि से भी अधिक महत्व का होता है।तपोयज्ञ कुछ साधक गण अपना तपोमय जीवन ईश्वर को अर्पित करते हैं। विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो किसी न किसी प्रकार से तप या व्रत का जीवन जीने का उपदेश न करता हो। ये व्रत परमेश्वर प्रीत्यर्थ ही किये जाते हैं। यह तो सब जानते ही हैं कि भक्त द्वारा किये गये भोग के त्याग से समस्त विश्व के पालन और पोषणकर्त्ता करुणासागर परमात्मा का कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होने का नहीं तथापि साधकगण उसे ईश्वरार्पण करते हैं जिससे उन्हें आत्मसंयम और चित्त शुद्धि प्राप्त हो। कोईकोई तप शरीर के लिये अत्यन्त पीड़ादायक होते हैं फिर भी यदि उन्हें समझ कर किया जाय तो इन्द्रिय संयम प्राप्त हो सकता है।योगयज्ञ अपने मन से निकृष्ट प्रवृत्तियों का त्याग करके उत्कृष्ट जीवन जीने के सतत् प्रयत्न का नाम है योग। इसकी प्राथमिक साधना है अपने हृदय के इष्ट भगवान् की भक्ति पूर्वक पूजा करना। इसका ही नाम है उपासना। निष्काम भावना से उपासना का अनुष्ठान करने पर साधक की अध्यात्म मार्ग में प्रगति होती है इसलिये इसे योग कहा गया है और यज्ञ भावना से इसका अनुष्ठान करने के कारण यहां योगयज्ञ कहा गया है।स्वाध्याय यज्ञ प्रतिदिन शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। शास्त्रों के अध्ययन के बिना हम न तो अपने लक्ष्य को ही निर्धारित कर सकते हैं और न ही साधना अभ्यास का अर्थ ही समझ सकते हैं। ज्ञानरहित यन्त्रवत् साधना से अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभी धर्मों में दैनिक स्वाध्याय पर विशेष बल दिया जाता है। आत्मानुभव के पश्चात् भी ऋषि मुनि अपना अधिकांश समय शास्त्राध्ययन तथा उसके गम्भीर चिन्तन मनन में व्यतीत करते हैं।अध्यात्म दृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण के द्वारा अपनी दुर्बलताओं को समझना जिससे उनका परित्याग किया जा सके। साधक के लिये यह आत्मविकास का एक साधन है तो सिद्ध पुरुषों के लिये आत्मानुभव में रमण का।ज्ञानयज्ञ गीता में यह शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त है और व्यास जी ने जिन मौलिक शब्दों का प्रयोग गीता में किया है उनमें से यह एक है। वह साधना ज्ञानयज्ञ कहलाती है जिसमें साधक ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित करके उसमें अपने अज्ञान की आहुति देता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अनात्म वस्तु का निषेध एवं आत्मा के पारमार्थिक सत्यस्वरूप का प्रतिपादन इस यज्ञ के अंग हैं। निदिध्यासन में इसी का अभ्यास किया जाता है।आत्मोन्नति के उपर्युक्त पाँच साधनों का लाभ दृढ़ निश्चयी एवं उत्साहपूर्ण अभ्यासी साधकों को ही मिल सकता है। इन साधकों को केवल ज्ञान अथवा आत्मविकास की इच्छामात्र से कोई प्रगति नहीं हो सकती। पूर्ण लगन से जो निरन्तर साधना का अभ्यास करते हैं केवल वे ही साधक अध्यात्म के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं।साधनोपदेश के क्रम में अब भगवान् प्राणायाम की विधि बताते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.28।।यज्ञषट्कमवतारयति द्रव्येति। तत्र द्रव्ययज्ञान्पुरुषानुपादाय विभजते तीर्थेष्विति। तपस्विनां यज्ञबुद्ध्या तपोऽनुतिष्ठन्तो नियमवन्त इत्यर्थः। प्रत्याहारादीत्यादिशब्देन यमनियमासनध्यानधारणासमाधयो गृह्यन्ते यथाविधि प्राङ्मुखत्वपवित्रपाणित्वाद्यङ्गविधिमनतिक्रम्येति यावत् व्रतानां तीक्ष्णीकरणमतिदृढत्वम्।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.28।।एवं त्रिभिः श्लोकैर्यज्ञपञ्चकमुक्त्वाथैकेन पञ्च यज्ञानाह द्रव्ययज्ञा इति। तीर्थेषु द्रव्यविनियोगं यज्ञबुद्य्धा ये कुर्वन्ति ते द्रव्ययज्ञा इति भाष्यम्। तस्यैव विवरणं द्रव्ययज्ञाः पूर्तदत्ताख्यस्मार्तयज्ञपराः। तथाच स्मृतिःवापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते।।शरणागतसंत्राणं भूतानां चाप्यहिंसनम्। बहिर्वेदि च यद्दानं दत्तमित्यभिधीयते।। इत्यादीति बोध्यम्। तथा पञ्चाग्निसेवनादि तप एव यज्ञो येषां ते तपोयज्ञाः। तथा यमनियमासनप्राणायमप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिलक्षणो योग एव यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। तथा परे स्वाध्यायो विधिवद्वेदाभ्यासो यज्ञो येषां ते स्वाध्याययज्ञाः। ज्ञानं पूर्वोत्तरमीमांसाविचारेण शास्त्रार्थपरिज्ञानं यज्ञो येषां ते ज्ञानयज्ञाश्च यतयो यत्नशीलाः सभ्यक् शितानि सूक्ष्माणि तीक्ष्णीकृतानि च व्रतानि येषां ते। इति सर्वेषां विशेषणमन्त्यानां वा। केचित्त्वनेन विशेषणेन यज्ञान्तरं वर्णयन्ति व्रतयज्ञा इत्यर्थ इति तेषां कृच्छ्रचान्द्रायणादि तप एव यज्ञो येषामिति तपोयज्ञा इत्यस्य व्याख्यानकर्तृ़णां मते पौनरुक्त्यं यज्ञानां च त्रयोदशत्वं चापतति। अपान इत्यादिसार्धश्लोकेनैकयज्ञवर्णनं तु प्रामादिकं अपर इत्यस्य वारद्वयमुपलब्धेरिति ज्ञेयम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.28।।द्रव्यं जुह्वतीति द्रव्ययज्ञाः। तपः परमेश्वरार्पणबुद्ध्या तत्र जुह्वतीति तपोयज्ञा इत्यादि। इदं तपो हविः एतद्ब्रह्माग्नौ जुहोति तत्पूजार्थमिति होमः। तदर्पण एव होमबुद्धिः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.28।।एवं यज्ञपञ्चकं श्लोकत्रयेणोक्तम्। अथैकेनैव श्लोकेन पञ्चयज्ञानाह द्रव्येति। द्रव्यसाध्याः वापीकूपारामाः तीर्थे बहिर्वेदिकादानं श्रौतयज्ञानां प्रागेव ग्रहणात् त एव यज्ञा येषां ते द्रव्ययज्ञाः। तथा तपःकृच्छ्रचान्द्रायणमासोपवासादि तदेव यज्ञस्थानीयं येषां ते तपोयज्ञाः। तथा योगयज्ञाः सङ्गफलत्यागपूर्वकं संध्योपासनादिनिर्विकल्पसमाध्यन्तानां कर्मणामनुष्ठानं तृतीयाध्यायोक्तं योगः स एव यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। यद्वा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिरूपोऽष्टाङ्गोपेतोयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति सूत्रितो योग एव यज्ञो येषां त इति। तथा स्वाध्याययज्ञाः नित्यं वेदाध्ययनरतास्ते स्वाध्याययज्ञाः। ज्ञानं स्वाध्यायार्थस्य पूर्वोत्तरमीमांसाविचारः स एव यज्ञो येषाम्। स्वाध्याययज्ञा ज्ञानयज्ञाश्चेति स्वाध्यायज्ञानयज्ञा इति समासः। यतयो यतनशीलाः संशितव्रताः सम्यक् शितं तीक्ष्णं व्रतमहिंसादिकं येषां ते इति सर्वेषां विशेषणम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.28।।केचित् कर्मयोगिनो द्रव्ययज्ञाः न्यायतो द्रव्याणि आदाय देवार्चने प्रयतन्ते केचित् च दानेषु केचित् च यागेषु केचित् च होमेषु एते सर्वे द्रव्ययज्ञाः।केचित्तपोयज्ञाः कृच्छ्रचान्द्रायणोपवासादिषु निष्ठां कुर्वन्ति योगयज्ञाः च अपरे पुण्यतीर्थे पुण्यस्थानप्राप्तिषु निष्ठां कुर्वन्ति। इह योगशब्दः कर्मनिष्ठाभेदप्रकरणात् तद्विषयः।केचित् स्वाध्यायपराः स्वाध्यायाभ्यासपराः केचित्तदर्थज्ञानाभ्यासपराः यतयः यतनशीलाः शंसितव्रताः दृढसंकल्पाः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.28।।किंच द्रव्येति। द्रव्यदानमेव यज्ञो येषां ते द्रव्ययज्ञाः। कृच्छ्रचान्द्रायणादितप एव यज्ञो येषां ते तपोयज्ञाः। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधलक्षणः समाधिः स एव यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। स्वाध्यायेन वेदेन श्रवणमननादिना यत्तदर्थज्ञानं तदेव यज्ञो येषां ते। अथवा वेदपाठयज्ञास्तदर्थज्ञानयज्ञाश्चेति द्विविधा यतयः प्रयत्नशीलाः। सम्यक् शितं निशितं तीक्ष्णीकृतं व्रतं येषां ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.28।।प्रत्येकं यज्ञशब्दप्रयोगाद्बहुविधकर्मयोगभेदनिष्ठा उच्यन्ते तत एवापरशब्दोऽपि प्रत्येकमन्वितः। तत्र द्रव्यैर्यज्ञा येषां ते द्रव्ययज्ञाः। यद्वा द्रव्यात्मका यज्ञा येषामिति विग्रहः। द्रव्यशब्दसामर्थ्यात् तत्साध्ययज्ञविशेषाः सर्वे सङ्गृहीता इति देवतार्चनदानयागहोमाः पृथगुक्ताः। अतःद्रव्ययज्ञाः इत्यादि बहुवचनमपि तत्तदवान्तरभेदविषयमिति भावः। ननु देवतार्चनयागादेः पूर्वमेवोक्तत्वान्निरर्थकं पुनर्वचनमिति चेत् नद्रव्यशब्दस्य साधारणत्वेन दानस्यापि सङ्ग्रहात् पूर्वं च तस्यानुक्तत्वेनापौनरुक्त्यात्। तर्हि दानयज्ञा इति विशिष्य वक्तव्यम् तदपि न अर्चनदानयोगहोमयज्ञानां चतुर्णामपि तपोयज्ञादिभ्यो व्यावृत्तावान्तरसङ्ग्राहकसूचनार्थतया न्यायार्जितद्रव्यसाध्यत्वज्ञापनार्थतया च सामान्यशब्दोपयोगात्। तदेतदभिप्रेत्योक्तंएते सर्वे द्रव्ययज्ञा इति। यद्वा अर्चनादिस्वरूपस्य यज्ञत्वं प्रागुक्तम् इह तु तदर्थद्रव्यार्जनादेरेवेत्यभिप्रायेणन्यायत इत्यादिप्रयतन्त इत्यन्तमुक्तम्।तपः शास्त्रीयो भोगसङ्कोचः तदवान्तरभेदप्रदर्शनं कृच्छ्रेत्यादि।योगयज्ञाः इत्यत्र योगः संयोगः प्राप्तिरित्यर्थः। सा चात्र पुण्यतीर्थाद्यभिगमनतन्निवासादिरूपा विवक्षितेत्यभिप्रायेणाहपुण्यतीर्थेति। पुण्यस्थानशब्दोऽत्र देवतास्थानाश्रमजनपदविशेषादिसङ्ग्राहकः। नन्विह योगशब्दः साक्षाद्योगे कर्मयोगमात्रे वा किं न वर्तते इत्यत्राह इहेति। कर्मनिष्ठाप्रकरणत्वात् साक्षाद्योगविषयत्वं न युक्तम् तद्भेदप्रकरणत्वात् तत्सामान्यविषयत्वं चानुचितम् तद्भेदेषु च पारिशेष्याद्योगशब्दसामर्थ्याच्च तीर्थादिप्राप्तिरेव ग्राह्या। सूचितं चैतत्सङ्ग्रहे परमाचार्यैःकर्मयोगस्तपस्तीर्थदानयज्ञादिसेवनम् गी.सं.23 इति भावः। स्वाध्यायाभ्यासतदर्थज्ञानयोः पृथग्धर्मत्वेन पृथग्यज्ञत्वनिर्देशोपपत्तेः द्वन्द्वस्य प्राधान्याच्च विभज्य निर्दिशतिकेचित्स्वाध्यायाभ्यासपरा इति स्वाध्यायसहपाठौचित्यादात्मज्ञानस्य च सर्वसाधारणत्वादर्थज्ञानस्यानुष्ठानेऽप्युपयोगात्केचित्तदर्थज्ञानाभ्यासपरा इत्युक्तम्। परशब्दोऽत्र साधारण्यव्यवच्छेदाय तन्निष्टतामाह। यतिशब्दस्यात्राश्रमविशेषपरत्वानौचित्यात्सर्वकर्मयोगनिष्ठसाधारणविशेषपरत्वौचित्याच्च प्रकृतिप्रत्ययार्थविभागेन निर्वक्तियतनशीला इति। सर्वप्रयोगानुगतः सर्वकर्मयोगनिष्ठसाधारणश्च सङ्कल्पोऽत्र व्रतशब्दार्थ इत्यभिप्रेत्य दृढसङ्कल्पा इत्युक्तम्। संशितत्वमत्राकुण्ठत्वम्। तच्च दृढत्वमेव।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.27 4.28।।सर्वाणीति। द्रव्ययज्ञा इति। ते च सर्वानिन्द्रियव्यापान् मानसान् व्यापारान् मुखनासिकानिर्गमनमूत्राद्यधोनयनादीन् वायवीयांश्च आत्मनो मनसः ( N मनसश्च) संयमहेतौ योगनाम्नि ऐकाग्र्यवह्नौ सम्यग्ज्ञानपरिदीपिते ( परिबोधिते) पूरयितव्ये निवेशयन्ति। गृह्यमाणं विषयं संकल्प्यमानं वा तदेकाग्रतयैव परित्यक्तान्यव्यापारया ( N तत्परित्यक्तान्य ) बुद्ध्या गृह्णन्ति इति तात्पर्यम्। तदुक्तं शिवोपनिषदि भावेऽत्यक्ते (S N भावे त्यक्ते) निरुद्धा चित् ( N चेत्) नैव भावान्तरं व्रजेत्।तदा तन्मध्यभावेन (K तन्मयभावेन) विकसत्यति भावना।।4. (विज्ञानभैरव 62 ) इति।एवं योगयज्ञाः व्याख्यातः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.28।।ननु द्रव्यं यज्ञो न भवति तत्कथं बहुव्रीहिः तत्पुरुषत्वे च कथं पुरुषसामानाधिकरण्यं इत्यत आह द्रव्यमिति। अनेन नायं यज्ञशब्दो भावार्थः किन्तु कर्त्रर्थः। तथा च द्रव्यस्य यज्ञा याजका इत्यर्थ इत्युक्तं भवति। एतदाशङ्कापरिहारायैव तपोयज्ञा इत्येतदप्येवं व्याचष्टे तप इति। तत्र परमेश्वरे।योगयज्ञाः इत्यादिकमप्येवमेव व्याख्येयमिति दर्शयति इत्यादीति। तपसो होमः कथं इत्यत आह इदमिति। तपश्चरणमेव तपोयज्ञत्वं किं न स्यात् इत्यत आह तदर्पण एवेति। अनेनैव प्रकारेण यज्ञत्वसम्पादनं नान्यथेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.28।।एवं त्रिभिः श्लोकैः प़ञ्चयज्ञानुक्त्वाऽधुनैकेन श्लोकेन षड्यज्ञानाह द्रव्यत्याग एव यथाशास्त्रं यज्ञो येषां ते द्रव्ययज्ञाः पूर्तदत्ताख्यरूपस्मार्तकर्मपराः। तथाच स्मृतिःवापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते।।शरणागतसंत्राणं भूतानां चाप्यहिंसनम्। बहिर्वेदि च यद्दानं दत्तमित्यभिधीयते।। इति। इष्टाख्यं श्रौतं कर्म तुदैवमेवापरे यज्ञमित्यत्रोक्तम्। अन्तर्वेदि दानमपि तत्रैवान्तर्भूतम्। तथा कृच्छ्रचांन्द्रायणादि तप एव यज्ञो येषां ते तपोयज्ञास्तपस्विनः। तथा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधोऽष्टाङ्गो यज्ञो येषां ते योगयज्ञा यमनियमासनादियोगाङ्गानुष्ठानपराः। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो हि योगस्यष्टावङ्गानि। तत्र प्रत्याहारः श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्य इत्यत्रोक्तः। धारणाध्यानसमाधय आत्मसंयमयोगाग्नावित्यत्रोक्ताः। प्राणायामोऽपाने जुह्वति प्राणमित्यनन्तरश्लोके वक्ष्यते। यमनियमासनान्यत्रोच्यन्ते। अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः पञ्च। शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः पञ्च। स्थिरसुखमासनं पद्मकस्वस्तिकाद्यनेकविधम्। अशास्त्रीयः प्राणिवधो हिंसा। सा च कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधा। एवमयथार्थभाषणमवध्यहिंसानुबन्धि यथार्थभाषणं चानृतम् स्तेयमशास्त्रीयमार्गेण परद्रव्यस्वीकरणम् अशास्त्रीयःस्त्रीपुंसव्यतिकरो मैथुनम् शास्त्रनिषिद्धमार्गेण देहयात्रानिर्वाहकाधिकभोगसाधनस्वीकारः परिग्रहः। एतन्निवृत्तिलक्षणा उपरमा यमाः।यम उपरमे इति स्मरणात्। तथा शौचं द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरं च। मृज्जलादिभिः कायादिक्षालनं हितमितमेध्याशनादि च बाह्मम्। मैत्रीमुदितादिभिर्मदमानादिचित्तमलक्षालनमान्तरम्। संतोषो विद्यमानभोगोपकरणादधिकस्यानुपादित्सारूपा चित्तवृत्तिः। तपः क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिद्वन्द्वसहनं काष्ठमौनाकारमौनादिव्रतानि च। इङ्गितेनापि स्वाभिप्रायाप्रकाशनं काष्ठमौनम् अवचनमात्रमाकारमौनमिति भेदः। स्वाध्यायो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा। ईश्वरप्रणिधानं सर्वकर्मणां तस्मिन्परमगुरौ फलनिरपेक्षतयाऽर्पणम्। एते विधिरूपा नियमाः। पुराणेषु येऽधिका उक्तास्त एष्वेव यमनियमेष्वन्तर्भाव्याः। एतादृशयमनियमाद्यभ्यासपरा योगयज्ञाः। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यथाविधि वेदाभ्यापराः स्वाध्याययज्ञाः। न्यायेन वेदार्थनिश्चयपरा ज्ञानयज्ञाः। यज्ञान्तरमाह यतयो यत्नशीलाः संशितव्रताः सम्यक् शितानि तीक्ष्णीकृतान्यतिदृढानि व्रतानि येषां ते संशितव्रतयज्ञा इत्यर्थः। तथाच भगवान्पतञ्जलिःते जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् इति। ये पूर्वमहिंसाद्याः पञ्च यमा उक्तास्त एव जात्याद्यनवच्छेदेन दृढभूमयो महाव्रतशब्दवाच्याः। तत्राहिंसा जात्यवच्छिन्ना यथा मृगयोर्मृगातिरिक्तान्न हनिष्यामीति। देशावच्छिन्ना न तीर्थे हनिष्यामीति। सैव कालवच्छिन्ना यथा न चतुर्दश्यां न पुण्येऽहनीति। सैव प्रयोजनविशेषरूपसमयावच्छिन्ना तथा क्षत्रियस्य देवब्राह्मणप्रयोजनव्यतिरेकेणन हनिष्यामि युद्धं विना न हनिष्यामीति च। एवं विवाहादिप्रयोजनव्यतिरेकेणानृतं न वदिष्यामीति एवमापत्कालव्यतिरेकेण क्षुद्भयाद्यतिरिक्तस्तेयं न करिष्यामीति च। एवमृतुव्यतिरिक्तकाले पत्नीं न गमिष्यामीति एवं गुर्वादिप्रयोजनमन्तरेण न परिग्रहीष्यामीति यथायोग्यमवच्छेदो द्रष्टव्यः। एतादृगवच्छेदपरिहारेण यदा सर्वजातिसर्वदेशसर्वकालसर्वप्रयोजनेषु भवाः सार्वभौमा अहिंसादयो भवन्ति महता प्रयत्नेन परिपाल्यमानत्वात् तदा ते महाव्रतशब्देनोच्यन्ते। एवं काष्ठमौनादिव्रतमपि द्रष्टव्यम्। एतादृशव्रतदार्ढ्ये चकामक्रोधलोभमोहानां चतुर्णामपि नरकद्वारभूतानां निवृत्तिः। तत्राहिंसया क्षमया क्रोधस्य ब्रह्मचर्येण वस्तुविचारेण कामस्य अस्तेयापरिग्रहरूपेण संतोषेण लोभस्य सत्येन यथार्थज्ञानरूपेण विवेकेन मोहस्य तन्मूलानां च सर्वेषां निवृत्तिरिति द्रष्टव्यम्। इतराणि च फलानि सकामानां योगाशास्त्रे कथितानि।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.28।।द्रव्ययज्ञाः यज्ञनिष्क्रयद्रव्यदातारः। तपोयज्ञाः साधनाद्यभावेन यज्ञजमत्प्रीत्युत्पादनार्थं तप एव यज्ञबुद्ध्या कुर्वन्ति। योगयज्ञाः पूर्वोक्तवत् मत्प्रीत्यर्थं यज्ञबुद्ध्या अष्टाङ्गयोगकर्तारः। अपरे तथा पूर्वोक्तप्रकारेण स्वाध्यायं वेदाध्ययनमेव यज्ञबुद्ध्या कर्तारः। च पुनः ज्ञानमेव यज्ञत्वेन ज्ञातारः। ते कीदृशाः यतयः सर्वपरित्यागिनः। पुनः कीदृशाः संशितव्रताः सूक्ष्मीकृतकर्मणो भगवत्स्मरणमात्रैकपराः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.28।। द्रव्ययज्ञाः तीर्थेषु द्रव्यविनियोगं यज्ञबुद्ध्या कुर्वन्ति ये ते द्रव्ययज्ञाः। तपोयज्ञाः तपः यज्ञः येषां तपस्विनां ते तपोयज्ञाः। योगयज्ञाः प्राणायामप्रत्याहारादिलक्षणो योगो यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। तथा अपरे स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च स्वाध्यायः यथाविधि ऋगाद्यभ्यासः यज्ञः येषां ते स्वाध्याययज्ञाः। ज्ञानयज्ञाः ज्ञानं शास्त्रार्थपरिज्ञानं यज्ञः येषां ते ज्ञानयज्ञाश्च यतयः यतनशीलाः संशितव्रताः सम्यक् शितानि तनूकृतानि तीक्ष्णीकृतानि व्रतानि येषां ते संशितव्रताः।।किञ्च

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.28।।अन्ये चद्रव्ययज्ञाः इति गृहिणो निरूपिताः तपोयज्ञा वनस्थाश्च। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। समाधिलक्षणो यज्ञो येषां ते च। स्वाध्याययज्ञा आत्मज्ञानयज्ञाश्चेत्येते यतयः संशितव्रता उक्ताः।


Chapter 4, Verse 28