किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
kiṁ karma kim akarmeti kavayo ’pyatra mohitāḥ tat te karma pravakṣhyāmi yaj jñātvā mokṣhyase ’śhubhāt
kim—what; karma—action; kim—what; akarma—inaction; iti—thus; kavayaḥ—the wise; api—even; atra—in this; mohitāḥ—are confused; tat—that; te—to you; karma—action; pravakṣhyāmi—I shall explain; yat—which; jñātvā—knowing; mokṣhyase—you may free yourself; aśhubhāt—from inauspiciousness
What is action? What is non-action? Even the wise are puzzled in respect of these. I shall declare to you that kind of action, knowing which you will be freed from evil.
Even the intelligent are confounded as to what is action and what is inaction. I shall tell you of that action, knowing which you will become free from evil.
What is action? What is inaction? Even the wise are confused about this. Therefore, I shall teach you the nature of action and inaction, by knowing which you will be liberated from the evil of Samsara, the wheel of birth and death.
Even the wise are perplexed about what is action and what is non-action; I shall properly teach you the action, by knowing which you will be freed from evil.
What is action and what is inaction? This is a question that has bewildered the wise. But I will declare to you the philosophy of action, and knowing it, you will be free from evil.
।।4.16।। कर्म क्या है और अकर्म क्या है -- इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुम्हें भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ- (संसार-बन्धन-) से मुक्त हो जायगा।
।।4.16।। कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी भ्रमित हो जाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें कर्म कहूँगा, (अर्थात् कर्म और अकर्म का स्वरूप समझाऊँगा) जिसको जानकर तुम अशुभ (संसार बन्धन) से मुक्त हो जाओगे।।
4.16 किम् what? कर्म action? किम् what? अकर्म inaction? इति thus? कवयः wise? अपि also? अत्र in this? मोहिताः (are) deluded? तत् that? ते to thee? कर्म action? प्रवक्ष्यामि (I) shall teach? यत् which? ज्ञात्वा having known? मोक्ष्यसे (thou) shalt be liberated? अशुभात् from evil.No Commentary.
4.16।। व्याख्या--'किं कर्म'--साधारणतः मनुष्य शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओँको ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ बंद होनेको अकर्म मान लेते हैं। परन्तु भगवान्ने शरीर वाणी और मनके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाओँको कर्म माना है--'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता 18। 15)।भावके अनुसार ही कर्मकी संज्ञा होती है। भाव बदलनेपर कर्मकी संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे कर्म स्वरूपसे सात्त्विक दीखता हुआ भी यदि कर्ताका भाव राजस या तामस होता है तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है। जैसे कोई देवीकी उपासनारूप कर्म कर रहा है जो स्वरूपसे सात्त्विक है। परन्तु यदि कर्ता उसे किसी कामनाकी सिद्धिके लिये करता है तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसीका नाश करनेके लिये करता है तो वही कर्म तामस हो जाता है। इस प्रकार यदि कर्तामें फलेच्छा ममता और आसक्ति नहीं है तो उसके द्वारा किये गये कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फलमें बाँधनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करनेसे कर्मके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं होता। इस विषयमें शास्त्रोंको जाननेवाले बड़ेबड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं अर्थात् कर्मके तत्त्वका यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। जिस क्रियाको वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है। कारण कि कर्ताके भावके अनुसार कर्मका स्वरूप बदल जाता है। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है वह क्यों बाँधता है कैसे बाँधता है इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं इन सबका मैं विवेचन करूँगा जिसको जानकर उस रीतिसे कर्म करनेपर वे बाँधनेवाले न हो सकेंगे।यदि मनुष्यमें ममता आसक्ति और फलेच्छा है तो कर्म न करते हुए भी वास्तवमें कर्म ही हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे लिप्तता है। परन्तु यदि ममता आसक्ति और फलेच्छा नहीं है तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे निर्लिप्तता है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं औरबाँधनेवाले हैं।
।।4.16।। सामान्य दृष्टि से हम किसी भी प्रकार की शारीरिक क्रिया को कर्म और वैसी क्रिया के अभाव को अकर्म समझते है। दैनिक जीवन के कार्यकलापों के सन्दर्भ में यह परिभाषा योग्य ही है। परन्तु दर्शनशास्त्र के दृष्टिकोण से कर्म और अकर्म के लक्षण भिन्न है।आत्मविकास की दृष्टि से कर्म का तात्पर्य केवल उसका स्थूल रूप जो शरीर द्वारा व्यक्त होता है नहीं समझना चाहिये किन्तु उसके साथ ही उसी कर्म के पीछे जो सूक्ष्म उद्देश्य है उसे भी ध्यान में रखना आवश्यक है। कर्म अपने आप में न अच्छा होता है और न बुरा। कर्म के उद्देश्य से कर्म का स्वरूप निश्चित किया जाता है। जैसे किसी फल की सुन्दरता से ही हम नहीं कह सकते कि वह खाने योग्य है अथवा नहीं क्योंकि वह तो उस फल में निहित तत्त्वों पर निर्भर करता है। उसी प्रकार अत्यन्त श्रेष्ठ प्रतीत होने वाले कर्म भी अपराधपूर्ण हो सकते हैं यदि उनका उद्देश्य निम्नस्तरीय और पापपूर्ण हो।इसलिये यहाँ कहा गया है कि कर्मअकर्म का विवेक करने में कवि लोग भी मोहित होते हैं। आजकल कविता लिखने वाले व्यक्ति को ही कवि कहा जाता है किन्तु पूर्व काल में उपनिषदों के मन्त्र द्रष्टा ऋषियों के लिये अथवा बुद्धिमान् पुरुषों के लिये यह शब्द प्रयुक्त होता था। प्रेरणा प्राप्त कोई भी पुरुष जो श्रेष्ठ सत्य को उद्घाटित करता था सिद्धकवि कहा जाता था।कर्मअकर्म की कठिन समस्या की ओर संकेत करके श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि वे उसे कर्मअकर्म का तत्त्व समझायेंगे जिसे जानकर मनुष्य स्वयं को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकता है।यह सर्वविदित है कि कोई भी क्रिया कर्म है और क्रिया का अभाव शान्त बैठना अकर्म है। इसके विषय में और अधिक जानने योग्य क्या बात है इस पर कहते हैं
।।4.16।।कर्मविशेषणमाक्षिपति तत्रेति। मनुष्यलोकः सप्तम्यर्थः। कर्मणि महतो वैषम्यस्य विद्यमानत्वात्तस्य पूर्वैरनुष्ठितत्वेन पूर्वतरत्वेन च विशेषितत्वे तस्मिन्प्रवृत्तिस्तव सुकरेति युक्तं विशेषणमिति परिहरति उच्यत इति। कर्मणि देहादिचेष्टारूपे लोकप्रसिद्धे नास्ति वैषम्यमिति शङ्कते कथमिति। विज्ञानवतामपि कर्मादिविषये व्यामोहोपपत्तेः सुतरामेव तव तद्विषये व्यामोहसंभवात्तदपोहार्थमाप्तवाक्यापेक्षणादस्ति कर्मणि वैषम्यमित्युत्तरमाह किं कर्मेति। तत्ते कर्मेत्यत्राकारानुबन्धेनापि पदं छेत्तव्यम्। कर्मादिप्रवचनस्य प्रयोजनमाह यज्ज्ञात्वेति। तत्कर्माकर्म चेति संबन्धः। अतो मेधाविनामपि यथोक्ते विषये व्यामोहस्य सत्त्वादित्यर्थः। कर्मणोऽकर्मणश्च प्रसिद्धत्वात्तद्विषये न किंचिद्बोद्धव्यमिति चोद्यमनूद्य निरस्यति नचेति।
।।4.16।।ननु कर्म कर्तव्यं चेत्त्वदुत्त्यैवाहमिदं कर्मेति खबुद्य्धा विचार्य करोमि किं पूर्वैः पूर्वतरं कतमिति विशेषितेनेत्याशङ्क्य कर्मणि महावैषम्यस्य सत्त्वात् तस्य पूर्वौरत्यादिविशेषितत्वेन तव प्रवृत्तिस्तस्मिन्सुकरेत्याशयेन कर्मणो दुर्विज्ञेयत्वमाह किमिति। यत्तु तच्च तत्त्वविद्भिः सह विचार्य कर्तव्यं न लोकपरम्परामात्रेणेत्याहिति तच्चिन्त्यम्। कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतमिति स्वयमतिनिर्बन्धेनोक्त्वा पुनस्तत्रैवानिर्बन्धं वदतः परमेश्वरस्य पूर्वोपरविरोधापत्तेः। अत्रास्मिन्कर्मादिविषये कवयो मेधाविनोऽपि मोहं किं कर्म किम कर्मेति संशयं गताः प्राप्ताः। अतस्ते तुभ्यमहं कर्म अकारप्रश्लेषेणाकर्म च प्रवक्ष्यामि। यत्कर्मादि ज्ञात्वाऽशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे।
।।4.16।।कर्म कुरु इत्युक्तम् तस्य कर्मणो दुर्विज्ञेयत्वमाह सम्यग्वक्तुम् किं कर्म किमकर्मेति।
।।4.16।।आवश्यकत्वेऽपि न कर्मणो गतानुगतिकतयानुष्ठानं कर्तव्यं किंतुज्ञात्वा कर्माणि कुर्वीत इतिवचनात्कर्माश्रितं किंचिद्विशेषं ज्ञापयितुमुपोद्धातयति किं कर्मेति। यतः कर्माकर्मणी कवीनामपि दुर्निरूपे तत्तस्मात्ते तुभ्यं कर्म अकर्म चाकारप्रश्लेषेण ग्राह्यम्। ते उभे प्रवक्ष्यामि यत् द्वयं ज्ञात्वाऽशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे।
।।4.16।।मुमुक्षुणा अनुष्ठेयं कर्म किंस्वरूपम् अकर्म च किम् फलाभिसन्धिरहितं भगवदाराधनरूपं कर्म अकर्म इति कर्तुः आत्मनो याथात्म्यज्ञानम् उच्यते। अनुष्ठेयं कर्म तदन्तर्गतं ज्ञानं च किंस्वरूपम् इति उभयत्र कवयः विद्वांसः अपि मोहिताः यथार्थतया न जानन्ति। एवम् अन्तर्गतज्ञानं यत् कर्म तत् ते प्रवक्ष्यामि यद् ज्ञात्वा अनुष्ठाय अशुभात् संसारबन्धात् मोक्ष्यसे। कर्तव्यकर्मज्ञानं हि अनुष्ठानफलम्।कुतः अस्य दुर्ज्ञानता इति अत्र आह
।।4.16।।तच्च तत्त्वविद्भिः सह विचार्य कर्तव्यं न लोकपरम्परामात्रेणेत्याह किं कर्मेति। किं कर्म कीदृशं कर्मकरणम् किमकर्म कीदृशं कर्माकरणमित्येतस्मिन्नर्थे विवेकिनोऽपि मोहिताः अतो यज्ज्ञात्वानुष्ठाय अशुभात्संसारान्ममोक्ष्यसे मुक्तो भविष्यसि तत्कर्माकर्म च तुभ्यमहं प्रवक्ष्यामि श्रृणु।
।।4.16।।किं कर्म इति श्लोके कर्माकर्मशब्दाभ्यां पृथक् ज्ञातव्यभ्रमः स्यादिति तद्व्युदासायाह वक्ष्यमाणस्य कर्मण इति।कर्मण्यकर्म यः पश्येत् 4।18 इत्यादिना कर्माकर्मणोर्द्वयोरप्येककर्मयोगांशत्वं हि वक्ष्यते। अत्रापि श्लोकेतत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि इति उच्यत इत्यभिप्रेत्यवक्ष्यमाणस्य कर्मण इत्युक्तम्। दुर्विज्ञानत्वज्ञापनायाहमुमुक्षुणाऽनुष्ठेयमिति।अकर्मेति कर्माभावादिव्युदासायाहआत्मनो याथात्म्यज्ञानमिति। अनुष्ठानोपयोगित्वज्ञापनायकर्तुरित्युक्तम्।कवयः क्रान्तदर्शिनः इति प्रसिद्ध्याऽर्थान्तरप्रसिद्धेरत्रानुपयोगाच्चविद्वांस इत्युक्तम्।मोहिताः इत्यत्राज्ञानं अयथाज्ञानं च विवक्षितम् तदुभयसङ्ग्रहायाहयथावन्न जानन्तीति। मोहिताः विप्रकीर्णैः शास्त्रैरिति शेषः।किं कर्म किमकर्म इति द्वयोः प्रकृतत्वेऽपिकर्म प्रवक्ष्यामिकुरु कर्मैवगहना कर्मणो गतिः 4।17 इति पूर्वापरपरामर्शेन कर्मणः प्राधान्यमकर्मणस्तद्विशेषणत्वं च विवक्षितमित्यभिप्रायेण तच्छब्दाभिप्रेतं वैशिष्ट्यं व्यनक्ति एवमन्तर्गतज्ञानमिति। संसाराबन्धादिपरमप्रयोजनविवक्षयोक्तंज्ञात्वा मोक्ष्यस इति। एतावति निर्दिष्टे अनुष्ठायेति कुतो लब्धम् इत्यत्राहकर्तव्यकर्मज्ञानमिति। अत्रज्ञात्वा इतिपदमजहल्लक्षणया कर्मज्ञानानुष्ठाने अपि गृह्नाति।कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम् 4।15 इति ह्यनन्तरमेवोक्तम् अन्यथा कर्मानुष्ठानविधिनैरर्थक्यं च स्यादिति भावः।
।।4.16 4.17।।अथ उच्यतेऽकरणादेव सिद्धिरिति तन्न। यतः किं कर्म इति। कर्मणो ह्यपि इति। कर्माकर्मणोर्विभागः दुष्परिज्ञानः। तथा च विहिते कर्मण्यपि (S N तथा च ( N omit च) कर्मण्यपि ( णोऽपि) मध्ये दुष्टं कर्मास्ति अग्निष्टोमे इव पशुवधः। विरुद्धेऽपि च कर्मणि शुभमस्ति कर्म। तथाहि ( N यथा instead of तथा हि) हिंस्रप्राणिवधे प्रजोपतापाभावः। अकरणेऽपि च शुभाशुभं कर्म अस्ति वाङ्मनसकृतानां कर्मणामवश्यं भावात् (S श्यभावित्वात् K ( n) वित्वादिति) तेषां ज्ञानमन्तरेण दुष्परिहरत्वात्। अतः कुशलैरपि गहनत्वात् कर्म न ज्ञायते अनेन (S तेन) शुभकर्मणा शुभमस्माकं भविष्यति अनेन च कर्मणामनारंभेण मोक्षो न (नो) भविष्यति इति। तस्माद्वक्ष्यमाणो विज्ञानवह्निरेव अवश्यं सकलशुभाशुभकर्मेन्धनप्लोषसमर्थः शरणत्वेनान्वेष्य इति भगवतोऽभिप्रायः।
।।4.16।।किं कर्म इत्यस्य सङ्गतिर्न प्रतीयतेऽत आह कर्मेति। तस्य कर्तव्यतयोक्तस्य। किमर्थम् सम्यग्वक्तुम्। एतदेव सम्यग्वचनम् यज्जिज्ञासितकथनम् जिज्ञासा च दुर्विज्ञेयत्वोक्तौ भवतीति भावः। अत एव प्रकर्षेण वक्ष्यामीत्याह। ननूत्तरश्लोकेविकर्मणोऽपि गृहीतत्वादिहाप्यकर्मशब्दस्तदुपलक्षणार्थ इति स्थिते कर्मादीनामिति वक्तव्यंकर्मणः इति कथम् अनुष्ठेयत्वात्। अकर्मादिकं हेयतया ज्ञेयम्। अत एवतत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि इत्याह। तत्राप्यकर्मादेरुपलक्षणात्।
।।4.16।।ननु कर्मविषये किं कश्चित्संशयोऽप्यस्ति येन पूर्वैः पूर्वतरं कृतमित्यतिनिर्बध्नासि अस्त्येवेत्याह नौस्थस्य निष्क्रियेष्वपि तटस्थवृक्षेषु गमनभ्रमदर्शनात् तथाऽदूराच्चक्षुःसंनिकृष्टेषु गच्छत्स्वपि पुरुषेष्वगमनभ्रमदर्शनात् परमार्थतः किं कर्म किंवा परमार्थतोऽकर्मेति कवयो मेधाविनाऽप्यत्रास्मिन्विषये मोहिताः मोहं निर्णयासामर्थ्यं प्राप्ताः। अत्यन्तदुर्निरूपत्वादित्यर्थः। तत्तस्मात्ते तुभ्यमहं कर्म अकारप्रश्लेषेण छेदादकर्म च प्रवक्ष्यामि प्रकर्षेण संदेहोच्छेदेन वक्ष्यामि। यत्कर्माकर्मस्वरूपं ज्ञात्वा मोक्ष्यसे मुक्तो भविष्यस्यशुभात्संसारात्।
।।4.16।।ननु लौकिकफलसाधकं कर्मरूपमेवेति चेत्तत्राह किं कर्मेति। किं कर्म कीदृशं कर्म कर्तव्यम् अकर्म किम् अकर्म कीदृशं अकर्तव्यम् इत्यत्र एतज्ज्ञाने कवयोऽपि शब्दार्थज्ञातारोऽपि मोहिता मोहं भ्रमं प्राप्ताः। तत्तस्मात्कारणात्ते कर्म कर्तव्यं प्रवक्ष्यामि प्रकर्षेण सन्देहाभावपूर्वकं कथयामीत्यर्थः। यत्कर्म ज्ञात्वा अशुभादकर्मणो लौकिकफलसाधकात् मोक्ष्यसे मुक्तो भविष्यसि।
।।4.16।। किं कर्म किं च अकर्म इति कवयः मेधाविनः अपि अत्र अस्मिन् कर्मादिविषये मोहिताः मोहं गताः। तत् अतः ते तुभ्यम् अहं कर्म अकर्म च प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा विदित्वा कर्मादि मोक्ष्यसे अशुभात् संसारात्।।न चैतत्त्वया मन्तव्यम् कर्म नाम देहादिचेष्टा लोकप्रसिद्धम् अकर्म नाम तदक्रिया तूष्णीमासनम् किं तत्र बोद्धव्यम् इति। कस्मात् उच्यते
।।4.16।।तदिदं विचार्यैव कर्त्तव्यं न लोकपरम्परामात्रत इत्यत आह किं कर्म किमकर्मेति।किं विहितमुक्तं किञ्चाऽविहितं अत्र कवयोऽपि मोहिताः तदहं सुबोधतया वक्ष्यामि यत्कर्म ज्ञात्वा तृतीयाद्विकर्मणोऽशुभाद्विमुक्तो भविष्यसि।
Chapter 4, Verse 16