Chapter 4, Verse 15

Text

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4.15।।

Transliteration

evaṁ jñātvā kṛitaṁ karma pūrvair api mumukṣhubhiḥ kuru karmaiva tasmāttvaṁ pūrvaiḥ pūrvataraṁ kṛitam

Word Meanings

evam—thus; jñātvā—knowing; kṛitam—performed; karma—actions; pūrvaiḥ—of ancient times; api—indeed; mumukṣhubhiḥ—seekers of liberation; kuru—should perform; karma—duty; eva—certainly; tasmāt—therefore; tvam—you; pūrvaiḥ—of those ancient sages; pūrva-taram—in ancient times; kṛitam—performed


Translations

In English by Swami Adidevananda

Knowing thus, even ancient seekers of liberation did their work. Therefore, do your work only as the ancients did in olden times.

In English by Swami Gambirananda

Thus having known, even the ancient seekers of liberation performed their duties. Therefore, you should undertake action as was performed earlier by the ancients.

In English by Swami Sivananda

Having known this, the ancient seekers of freedom also performed action; therefore, do thou also perform action, as the ancients did in days of yore.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Realizing in this fashion, ancient seekers of salvation also undertook action. Hence, you too should, by all means, perform the action that was performed by the ancients.

In English by Shri Purohit Swami

In the light of wisdom, our ancestors who sought deliverance performed their acts. Act thou also as our fathers of old did.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.15।। पूर्वकालके मुमुक्षुओंने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजोंके द्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही (उन्हींकी तरह) कर।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.15।। पूर्व के मुमुक्ष पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है;  इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों को ही करो।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.15 एवं thus? ज्ञात्वा having known? कृतम् (was) done? कर्म action? पूर्वैः by ancients? अपि also? मुमुक्षुभिः seekers after freedom? कुरु perform? कर्म action? एव even? तस्मात् therefore? त्वम् thou? पूर्वैः by ancients?,पूर्वतरम् in the olden time? कृतम् done.Commentary Knowing thus that the Self can have no desire for the fruits of actions and cannot be tainted by them? and knowing that no one can be tainted if he works without egoism? attachment and expectation of fruits? do thou perform your duty.If your heart is impure? perform actions for its purification. If you have attained AtmaJnana or the knowledge of the Self? work for the wellbeing of the world. The ancients such as Janaka and others performed actions in the days of yore. So do thou also perform action.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.15।। व्याख्या-- [नवें श्लोकमें भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताका जो प्रसङ्ग आरम्भ किया था उसका यहाँ उपसंहार करते हैं।] 'एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः'--अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात् अपना कल्याण चाहते थे। परन्तु युद्धरूपसे प्राप्त अपने कर्तव्य-कर्मको करनेमें उन्हें अपना कल्याण नहीं दीखता, प्रत्युत वे उसको घोर-कर्म समझकर उसका त्याग करना चाहते हैं (गीता 3। 1)। इसलिये भगवान् अर्जुनको पूर्वकालके मुमुक्षु पुरुषोंका उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके कल्याणकी प्राप्ति की है, इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनकादिका उदाहरण देकर तथा इसी (चौथे) अध्यायके पहले-दूसरे श्लोकोंमें विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु आदिका उदाहरण देकर भगवान्ने जो बातें कही थी, वही बात इस श्लोकमें भी कह रहे हैं। शास्त्रोंमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि मुमुक्षाके बाद मनुष्य कर्मका अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञानका अधिकारी हो जाता है (टिप्पणी प0 238)। परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी कर्मयोगका तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।कर्मयोगका तत्त्व है--कर्म करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसारके लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मोंको करना और न करना--दोनों अवस्थाएँ हैं। अतः प्रवृत्ति (कर्म करना) और निवृत्ति (कर्म न करना) दोनों ही प्रवृत्ति (कर्म करना) है। प्रवृत्ति और निवृत्ति--दोनोंसे ऊँचा उठ जाना योग है, जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है। चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करनेकी इस विद्या-(कर्मयोग-) को जानकर फलेच्छाका त्याग करके कर्म करता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता; कारण कि फलेच्छासे ही मनुष्य बँधता है--फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। अगर मनुष्य अपने सुखभोगके लिये अथवा धन, मान, बड़ाई, स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं (गीता 3। 9)। परन्तु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्ति-विनाशशील संसार नहीं है, प्रत्युत वह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये निःस्वार्थ सेवा-भावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है, तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं (गीता 4। 23)। कारण कि दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है, जिससे कर्मोंका सम्बन्ध (राग) मिट जाता है और फलेच्छा न रहनेसे नया सम्बन्ध पैदा नहीं होता।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.15।। परमात्मा में कर्तृत्व तथा फलासक्ति का अभाव है और उस आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेने पर साधक में न इच्छा रहती है और न अहंकार जनित अन्य वृत्तियाँ। पूर्व अध्याय में वर्णित कर्मयोग का आचरण प्राचीन समय में अनेक बुद्धिमान मुमुक्ष पुरुषों ने किया था। अर्थ यह हुआ कि यह मार्ग कोई नवीन नहीं है।आपके उपदेशमात्र से मैं कर्मयोग का पालन करूँगा किन्तु इसमें पूर्व के मुमुक्षुओं का सन्दर्भ देने की क्या आवश्यकता है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं क्योंकि कर्म क्या है इस विषय को समझने में कठिनाई है कैसे कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.15।।तव कर्मतत्फलसंबन्धाभावे तथा ज्ञानवतश्च तदसंबन्धे ममापि किं कर्मणेत्याशङ्क्य कर्मणि कर्तृत्वाभिमानं तत्फले स्पृहां चाकृत्वा मुमुक्षुवत्त्वया कर्म कर्तव्यमेवेत्याह नाहमित्यादिना। नाहं कर्तेत्येवमादि एवमा परामृश्यते तेन पूर्वैर्मुमुक्षुभिरनुष्ठितत्वेन हेतुनेत्यर्थः। कर्मैवेत्येवकारार्थमाह नेत्यादिना। त्वंशब्दस्य क्रियापदेन संबन्धः। तस्मादित्युक्तमेव स्फुटयति पूर्वैरिति। यदुक्तं किं मम कर्मणेति तत्र त्वमज्ञो वा तत्त्वविद्वा। यद्यज्ञस्तदा चित्तशुद्ध्यर्थं कुरु कर्मेत्याह यदीति। द्वितीयं प्रत्याह तत्त्वविदिति। कुरु कर्मेति संबन्धः। पूर्वैर्मूढैराचरितमित्येतावता किमिति विवेकवता मया तत्कर्तव्यमित्याशङ्क्याह जनकादिभिरिति। ते तावदेवं संपाद्य कर्म कृतवन्तो न तदिदानीमप्रामाणिकत्वादनुष्ठेयमित्याशङ्क्याह पूर्वतरमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.15।। नाहं कर्ता न मे कर्मफले स्पृहेत्येवंज्ञात्वा पूर्वैरपि मुमुक्षुभिश्चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानार्थं कर्म कृतं तस्मात्त्वमपि कर्मैव कुरु। नापि तूष्णीमासनं नापि संन्यासम्। यस्मात्त्वत्तोऽपि पूर्वैर्जनकादिभिः ज्ञानिभिर्लोकसंग्रहार्थं अनादिसिद्धत्वात्पूर्वतरं कृतम्। यद्यज्ञो मुमुक्षुस्त्वं तर्हि सत्त्वशुद्य्धर्थं तत्त्वविच्चेत्तर्हि लोकसंग्रहार्थं कर्म कुर्वित्यभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.15।।एवं ज्ञात्वा कर्मकरणे आचारोऽप्यस्तीत्याह एवमिति। पूर्वतरं कर्म पूर्वभावीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.15।।एतदेव शिष्टाचारप्रदर्शनपूर्वकं ग्राहयति एवं ज्ञात्वेति। पूर्वतरं वेदोक्तत्वान्नत्वधुना केनचित्कल्पितमित्यर्थः। पूर्वतरं प्रथमतरं कृतं अत्यावश्यकत्वादिति वार्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.15।।एवं मां ज्ञात्वा अपि विमुक्तपापैः पूर्वैः अपि मुमुक्षुभिः उक्तलक्षणं कर्म कृतम्। तस्मात् त्वम् उक्तप्रकारमद्विषयज्ञानविधूतपापः पूर्वैः विवस्वन्मन्वादिभिः कृतं पूर्वतरं पुरातनं तदानीम् एव मया उक्तं वक्ष्यमाणाकारं कर्म एव कुरु।वक्ष्यमाणस्य कर्मणो दुर्ज्ञानताम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.15।।ये यथा मां प्रपद्यन्ते इत्यादिचतुर्भिः श्लोकैः प्रासङ्गिकमीश्व रस्य वैषम्यं परिहृत्य पूर्वोक्तमेव कर्मयोगं प्रपञ्चयितुमनुस्मारयति एवमिति। अहंकारादिराहित्येन कृतं कर्म बन्धकं न भवतीत्येवं ज्ञात्वा पूर्वैर्जनकादिभिरपि मुमुक्षुभिः सत्त्वशुद्ध्यर्थं पूर्वतरं युगान्तरेष्वपि कृतम्। तस्मात्त्वमपि प्रथमं कर्मैव कुरु।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

4.15 इत्यनन्तरवाक्यानुरोधाच्च सङ्कोचे कार्ये प्रकृतोपयुक्तो विशेषोऽयमेवेत्यभिप्रायेणकर्मयोगारम्भविरोधिभिरित्याद्युक्तम्। विरोधित्वेऽवान्तरव्यापारकथनम्।फलसङ्गादिहेतुभिरिति। यद्वा फलसङ्गादिना कृतत्वात्फलादिद्वारा कर्मयोगारम्भविरोधिभिरिति भावः। अत्र प्राचीनशब्देन निष्पन्नोपासनस्य उत्तराघाश्लेष इत्यभिप्रेतम्। प्राचीनैः प्रागेव बद्धस्य कस्तैरबन्ध इत्यत्राहमुच्यत इत्यर्थ इति। एवं श्लोकद्वयेन यथोक्तकर्मयोगारम्भविरोधिपापक्षयहेतुरुक्तः।।।4.15।।तत्पूर्वकं कर्मयोगं शिष्टानुष्ठानप्रदर्शनेन द्रढयन् अर्जुनं प्रत्यनुशास्तिएवं इति श्लोकेन।एवमिति कर्तृत्वाकर्तृत्वादिनोक्तप्रकारेणेत्यर्थः।ज्ञात्वा कृतं कर्म इत्युक्ते ज्ञानस्य कर्मकरणहेतुत्वं सूचितम्।कर्मभिर्न स बध्यते 4।14 इति च पूर्वमुक्तम्। अतो विरोधिपापनिवर्तनद्वारा ज्ञानस्य कर्महेतुत्वमिति व्यञ्जनायज्ञात्वाऽपि विमुक्तपापैरित्युक्तम्। कर्मशब्दोऽत्र मुमुक्षुकर्तव्यविषयत्वात् व्यवहितमपि प्रधानप्रकृतं कर्मयोगमवलम्बत इत्यभिप्रायेणउक्तलक्षणमित्युक्तम्। त्वंशब्दो गृहीतस्वयाथात्म्योपदेशतां सूचयतीत्यभिप्रायेणत्वमुक्तप्रकारमद्विषयज्ञानविधूतपाप इत्युक्तम्।इमं विवस्वते 4।1 इत्यादावुदाहृतानुष्ठातारः पूर्वैरिति परामृश्यन्त इत्यभिप्रायेणविवस्वन्मन्वादिभिरित्युक्तम्। पूर्वतरमित्यस्य क्रियाविशेषणत्वव्युदासायाहपुरातनमिति। तदभिप्रेतमाहतदानीमेव मयोक्तमिति। एवं प्रवाहानादित्वमिह विवक्षितम्। कर्मयोगस्वरूपनिष्कर्षोपोद्धातरूपत्वादस्यवक्ष्यमाणाकारमित्युक्तम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.15।।एवमिति। तस्मादनया बुद्ध्या पवित्रीकृतस्त्वमपि कर्माण्यवश्यं कर्तव्यानि कुरु।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.15।।नन्वेवं ज्ञात्वेति पुनरुक्तम् कर्मकरण आचारस्य प्रागेवोक्तत्वात् इत्यत आह एवमिति। यदि ज्ञानी कर्मभिर्न बद्ध्यते तर्हि ममापि ज्ञानित्वेन कर्मबन्धाभावात् कथं कर्मविधानं इत्याशङ्क्य ज्ञानिनामप्यधिकमोक्षाकाङ्क्षया कर्मकरणमाचारोऽत्रोच्यते। प्राक्तु जनकादीनां विवस्वदादीनां च विद्यमानमपि ज्ञानित्वं भगवता न विवक्षितमिति भावः। अत एव भाष्यकारेणतत्र कर्म कृत्वैव इत्याद्युक्तम्। न हि ज्ञानिनां कर्मज्ञानद्वारा मुक्तिहेतुः। मुमुक्षुभिरितितत्साधुकारिणि अष्टा.3।2।13 उप्रत्ययः। पूर्वैः कृतमित्यनेनैव पूर्वतर त्वस्योक्तत्वात् पुनरुक्तिरित्यत आह पूर्वतरमिति। तैरपि ततोऽपि पूर्वभावि कृतमित्यर्थः। कर्मणः क्षणिकत्वात्कथं तदेव कर्तव्यं इत्यतो वेदमुक्तम्। पूर्वमिव भवतीति पूर्वभावि अत एव कर्मेत्यनुवादः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.15।।यतो नाहं कर्ता न मे कर्मफले स्पृहेति ज्ञानात्कर्मभिर्न बध्यते अतः एवं आत्मनोऽकर्तुः कर्मालेपं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरतिक्रान्तैरपि अस्मिन् युगे ययातियदुप्रभृतिभिर्मुमुक्षुभिः। तस्मात्त्वमपि कर्मैव कुरु न तूष्णीमासनं नापि संन्यासम्। यद्यतत्त्ववित्तदात्मशुद्ध्यर्थं तत्त्वविच्चेल्लोकसंग्रहार्थं पूर्वैः जनकादिभिः पूर्वतरं अतिपूर्वं युगान्तरेऽपि कृतम्।एतेनास्मिन्युगेऽन्ययुगे च पूर्वपूर्वतरैः कृतत्वादवश्यं त्वया कर्तव्यं कर्मेति दर्शयति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.15।।पूर्वैर्मुमुक्षुभिरपि विद्वद्भिरप्येवं मत्स्वरूपं ज्ञात्वा कर्म कृतं मदाज्ञारूपत्वात् कृतमिति भावः। तैर्मदाज्ञया कृतं त्वमपि पूर्वाध्यायोक्तप्रकारेण मदाज्ञयैव कुर्वित्याह एवं ज्ञात्वेति। तस्मादेवं बन्धकाभावादेव पूर्वैर्मुमुक्षुभिः कृतं त्वं मदाज्ञारूपत्वेन कर्म कुरु। कीदृशं पूर्वतरं परम्परया मुक्तैरपि मुमुक्षुदशायां कृतम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.15।। एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैः अपि अतिक्रान्तैः मुमुक्षुभिः। कुरु तेन कर्मैव त्वम् न तूष्णीमासनं नापि संन्यासः कर्तव्यः तस्मात् त्वं पूर्वैरपि अनुष्ठितत्वात् यदि अनात्मज्ञः त्वं तदा आत्मशुद्ध्यर्थम् तत्त्वविच्चेत् लोकसंग्रहार्थं पूर्वैः जनकादिभिः पूर्वतरं कृतं न अधुनातनं कृतं निर्वर्तितम्।।तत्र कर्म चेत् कर्तव्यं त्वद्वचनादेव करोम्यहम् किं विशेषितेन पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् (गीता 4.15) इत्युच्यते यस्मात् महत् वैषम्यं कर्मणि। कथम्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.15।।एवं प्रासङ्गिकमुक्त्वा पूर्वोक्तयोगे कर्त्तव्यं कर्म प्रपञ्चयितुमनुस्मारयति एवं ज्ञात्वेति। पूर्वोक्तप्रकारेण योगिभावतो भगवता कृतं कर्म न बधन्कमिति ज्ञात्वा पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः कक्षीवन्नारदादिभिर्मन्वादिभिर्वा जनकादिभिर्वा कर्म स्वधर्माख्यं वक्ष्यमाणप्रकारेण कृतम् तस्मात्त्वमपि कर्मैव कुरु। न चेदमाधुनिकम् किन्तु पूर्वतरं पूर्वैश्च कृतम्। इति शिष्टाचारात्कर्त्तव्यता बोधिता।


Chapter 4, Verse 15