Chapter 4, Verse 13

Text

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

Transliteration

chātur-varṇyaṁ mayā sṛiṣhṭaṁ guṇa-karma-vibhāgaśhaḥ tasya kartāram api māṁ viddhyakartāram avyayam

Word Meanings

chātuḥ-varṇyam—the four categories of occupations; mayā—by me; sṛiṣhṭam—were created; guṇa—of quality; karma—and activities; vibhāgaśhaḥ—according to divisions; tasya—of that; kartāram—the creator; api—although; mām—me; viddhi—know; akartāram—non-doer; avyayam—unchangeable


Translations

In English by Swami Adidevananda

The system of four stations was created by Me, according to the distinction of Gunas and Karma. Though I am their creator, know Me to be non-agent and immutable.

In English by Swami Gambirananda

The four castes have been created by Me through a classification of the gunas and duties. Even though I am the agent of that (act of classification), still know Me to be non-agentive and changeless.

In English by Swami Sivananda

The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and Karma; though I am the author of it, know Me as non-doer and immutable.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

I have created the four-fold caste structure according to the division of their respective qualities and actions. Though I am the creator of this, know Me as the changeless, non-creator.

In English by Shri Purohit Swami

The four divisions of society—the wise, the soldier, the merchant, and the laborer—were created by Me, according to the natural distribution of qualities and instincts. I am the author of them, though I Myself do not act and am changeless.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.13 -- 4.14।। मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय रमेश्वरको तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.13।। गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है। यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.13 चातुर्वर्ण्यम् the fourfold caste? मया be Me? सृष्टम् has been created? गुणकर्मविभागशः according to the differentiation of Guna and Karma? तस्य thereof? कर्तारम् the author? अपि also? माम् Me? विद्धि know? अकर्तारम् nondoer? अव्ययम् immutable.Commentary The four castes (Brahmana? Kshatriya? Vaishya and Sudra) are classified according to the differentiation of Guna and Karma. In a Brahmana? Sattva predominates. He possesses selfrestraint? purity? serenity? straightforwardness? devotion? etc. In a Kshatriya? Rajs predominates. He possesses prowess? splendour? firmness? dexterity? generosity and the nature of a ruler. In a Vaishya? Rajas predominates and Tamas is subordinate to Rajas. He does the duty of ploughing? protection of cattle and trade. In a Sudra Tamas predominates and Rajas is subordinate to Tamas. He does service to the other three castes. Human temperaments and tendencies vary according to the Gunas.Though the Lord is the author of the caste system? yet He is not the author as He is the nondoer. He is not subject to Samsara. Really Maya does everything. Maya is the real author. Society can exist in a flourishing state if the four castes do their duties properly. Otherwise there will be chaos? rupture and fighting. (Cf.XVIII.41).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.13।। व्याख्या--'चातुर्वर्ण्यं' (टिप्पणी प0 235.1) 'मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः'--पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके अनुसार सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंमें न्यूनाधिकता रहती है। सृष्टि-रचनाके समय उन गुणों और कर्मोंके अनुसार भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--इन चारों वर्णोंकी रचना करते हैं (टिप्पणी प0 235.2)। मनुष्यके सिवाय देव, पितर, तिर्यक् आदि दूसरी योनियोंकी रचना भी भगवान् गुणों और कर्मोंके अनुसार ही करते हैं। इसमें भगवान्की किञ्चिन्मात्र भी विषमता नहीं है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.13।। कुछ काल से इस श्लोक का अत्यन्त दुरुपयोग करके इसे विवादास्पद विषय बना दिया गया है। वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। योगशास्त्र में प्रकृति के तीन गुणों सत्त्व रज और तम को तीन रंगों से सूचित किया जाता है। जैसाकि पहले बता चुके हैं इन तीन गुणों का अर्थ है मनुष्य के विभिन्न प्रकार के स्वभाव। सत्त्व रज और तम का संकेत क्रमश श्वेत रक्त और कृष्ण वर्णों से किया जाता है। मनुष्य अपने मन में उठने वाले विचारों के अनुरूप ही होता है। दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ साम्य होने पर भी दोनों के स्वभाव में सूक्ष्म अन्तर देखा जा सकता है।इन स्वभावों की भिन्नता के आधार पर अध्यात्म की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया जाता है इसको ही वर्ण कहते हैं। जैसे किसी बड़े नगर अथवा राज्य में व्यवसाय की दृष्टि से लोगों का वर्गीकरण चिकित्सक वकील प्राध्यापक व्यापारी राजनीतिज्ञ ताँगा चालक आदि के रूप में करते हैं उसी प्रकार विचारों के भेद के आधार पर प्राचीन काल में मनुष्यों को वर्गीकृत किया जाता था। किसी राज्य के लिये चिकित्सक और तांगा चालक उतने ही महत्व के हैं जितने कि वकील और यान्त्रिक। इसी प्रकार स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिये भी इन चारों वर्णों अथवा जातियों को आपस में प्रतियोगी बनकर नहीं वरन् परस्पर सहयोगी बनकर रहना चाहिये। एक वर्ण दूसरे का पूरक होने के कारण आपस में द्वेषजन्य प्रतियोगिता का कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिये।तदोपरान्त भारत में मध्य युग की सत्ता लोलुपता के कारण साम्प्रदायिकता की भावना उभरने लगी जिसने आज अत्यन्य कुरूप और भयंकर रूप धारण कर लिया है। उस काल में शास्त्रीय विषयों में सामान्य जनों के अज्ञान का लाभ उठाते हुए अर्धपण्डितों ने शास्त्रों के कुछ अंशों को बिना किसी सन्दर्भ के उद्घृत करते हुए अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया।हिन्दुओं के पतनोन्मुखी काल में ब्राह्मण वर्ग को इस श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्ध भाग अत्यन्त अनुकूल लगा और वे इसे दोहराने लगे मैंने चातुर्र्वण्य की रचना की। इसका उदाहरण देदेकर समाज के वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन को दैवी प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया। जिन लोगों ने ऐसे प्रयत्न किये उन्हें ही हिन्दू धर्म का विरोधी समझना चाहिये। वेदव्यासजी ने इसी श्लोक की प्रथम पंक्ति में ही इसी प्रकार के वर्गीकरण का आधार भी बताया कि गुणकर्म विभागश अर्थात् गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्र्वण्य बनाया हुआ है।वर्ण शब्द की यह सम्पूर्ण परिभाषा न केवल हमारी वर्तमान विपरीत धारणा को ही दूर करती है बल्कि उसे यथार्थ रूप में समझने में भी सहायता करती है। जन्म से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता। शुभ संकल्पों एवं श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है। केवल शरीर पर तिलक चन्दन आदि लगाने से अथवा कुछ धार्मिक विधियों के पालन मात्र से हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकते। परिभाषा के अनुसार उसके विचारों एवं कर्मों का सात्त्विक होना अनिवार्य है। रजोगुणप्रधान विचारों तथा कर्मों का व्यक्ति क्षत्रिय कहलाता है। जिसके केवल विचार ही तामसिक नहीं बल्कि जो अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन शारीरिक सुखों के लिय्ो ही जीता है उस पुरुष को शूद्र समझना चाहिये। गुण और कर्म के आधार पर किये गये इस वर्गीकरण से इस परिभाषा की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है।सत्त्व (ज्ञान) रज (क्रिया) और तम (जड़त्व) इन तीन गुणों से युक्त है जड़ प्रकृति अथवा माया। चैतन्य स्वरूप आत्मा के इसमें व्यक्त होने पर ही सृष्टि उत्पन्न होकर उसमें ज्ञान क्रिया रूप व्यवहार सम्भव होता है। उसके बिना जगत् व्यवहार संभव ही नहीं हो सकता। इस चैतन्य स्वरूप के साथ तादात्म्य करके श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चातुर्र्वण्यादि के कर्ता हैं क्योंकि उसके बिना जगत् का कोई अस्तित्व नहीं है और न कोई क्रिया संभव है। जैसे समुद्र तरंगों लहरों फेन आदि का कर्त्ता है अथवा स्वर्ण सब आभूषणों का कर्त्ता है वैसे ही भगवान् का कर्तृत्व भी समझना चाहिये।इसी श्लोक में भगवान् स्वयं को कर्त्ता कहते हैं परन्तु दूसरे ही क्षण कहते हैं कि वास्तव में वे अकर्त्ता हैं। कारण यह है कि अनन्त सर्वव्यापी चैतन्य आत्मा में किसी प्रकार की क्रिया नहीं हो सकती। देशकाल से परिच्छिन्न वस्तु ही क्रिया कर सकती हैं। आत्मस्वरूप की दृष्टि से भगवान् अकर्त्ता ही है।शास्त्रों की अध्ययन प्रणाली से अनभिज्ञ विद्यार्थियों को वेदान्त के ये परस्पर विरोधी वाक्य भ्रमित करने वाले होते हैं। परन्तु हम अपने दैनिक संभाषण में भी इस प्रकार के वाक्य बोलते हैं और फिर भी उसके तात्पर्य को समझ लेते हैं। जैसे हम कहते हैं कार मे बैठकर मैं गन्तव्य तक पहुँचा। अब यह तो सपष्ट है कि बैठने से मैं अन्य स्थान पर कभी नहीं पहुँच सकता तथापि कोई अन्य व्यक्ति हमारे वाक्य की अधिक छानबीन नहीं करता। इस प्रकार के वाक्यों में कार की गति का आरोप बैठे यात्री पर किया जाता है। वह अपनी दृष्टि से तो स्थिर बैठा है परन्तु वाहन की दृष्टि से गतिमान् प्रतीत होता है। इसी प्रकार विभिन्न स्वभावों की उत्पत्ति मन्ा और बुद्धि का धर्म है फिर भी उसका आरोप चैतन्य आत्मा पर करके उसे ही कर्त्ता कहते हैं किन्तु स्वस्वरूप से सर्वव्यापी अविकारी आत्मा अकर्त्ता ही है।वास्तव में मैं अकर्त्ता हूँ इसलिये

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.13।।मनुष्यलोके चातुर्वर्ण्यं चातुराश्रम्यमित्यनेन द्वारेण कर्माधिकारनियमे कारणं पृच्छति मानुष एवेति। आदिशब्देनावस्थाविशेषा विवक्ष्यन्ते। प्रकारान्तरेण वृत्तानुवादपूर्वकं चोद्यमुत्थापयति अथवेत्यादिना। प्रश्नद्वयं परिहरति उच्यत इति। तर्हि तव कर्तृत्वभोक्तृत्वसंभवादस्मदादितुल्यत्वेनानीश्वरत्वमित्याशङ्क्याह तस्येति। ईश्वरस्य विषमसृष्टिं विदधानस्य सृष्टिवैषम्यनिर्वाहकं कथयति गुणेति। गुणविभागेन कर्मविभागस्तेन चातुर्वर्ण्यस्य सृष्टिमेवोपदिष्टां स्पष्टयति तत्रेत्यादिना। प्रश्नद्वयप्रतिविधानं प्रकृतमुपसंहरति तच्चेदमिति। मनुष्यलोके परं वर्णाश्रमादिपूर्वके कर्मण्यधिकारस्तत्रैव वर्णादेरीश्वरेण सृष्टत्वान्न लोकान्तरेषुतत्र वर्णाद्यभावादीश्वरमेव चातुर्वर्ण्याश्रमादिविभागभागिनोऽधिकारिणोऽनुवर्तन्ते तेनैव वर्णादेस्तद्व्यापारस्य च सृष्टत्वात्तदनुवर्तनस्य युक्तत्वादित्यर्थः। तस्येत्यादि द्वितीयभागापोह्यं चोद्यमनुद्रवति हन्तेति। यदि चातुर्वर्ण्यादिकर्तृत्वादीश्वरस्य प्रागुक्तो नियमोऽभिमतस्तर्हि तद्विषयसृष्ट्यादेस्तन्निष्ठव्यापारस्य च धर्मादेर्निवर्तकत्वात्तत्फलस्य कर्तृगामित्वात् कर्तृत्वभोक्तृत्वयोस्त्वयि प्रसङ्गात् नित्यमुक्तत्वादि ते न स्यादित्यर्थः। मायया कर्तृत्वं परमार्थतश्चाकर्तृत्वमित्यभ्युपगमान्नित्यमुक्तत्वादि सिध्यतीत्युत्तरमाह उच्यत इति। मायावृत्यादिसंव्यवहारेण चातुर्वर्ण्यादेस्तत्कर्मणश्च यद्यपि कर्ताहं तथापि तथाविधं मां परमार्थतोऽकर्तारं विद्धीति योजना। अकर्तृत्वादेवाभोक्तृत्वसिद्धिरित्याह अतएवेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.13।।कस्मात्पुनः कारणात्तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते नान्यस्येत्यत आह। यद्वा मानुष एव लोके वर्णाश्रमकर्माधिकारो नान्येष्वितिनियमः किंनिमित्त इति तत्राह चातुर्वर्ण्यमिति। यत्तु ननु च केचित्सकामतया वर्तन्ते केचिन्निष्कामतयेति कर्मवैचित्र्यं तत्कर्तृ़णां ब्राह्मणादीनां उत्तममध्यमादिवैचित्र्यं च कुर्वतस्तव कथं वैषम्यं नास्तीत्याशङ्क्याहेति तदुपेक्ष्यम्। भाष्योक्तरीत्याऽव्यवहितेन संबन्धे संभवति व्यवहितसंबन्धेनोत्थानानौचित्यात्। शरीरारम्भकगुणवैषम्यादपि न सर्वे समानस्वभावा इत्याहेति वा। अस्मिन्पक्षे गुणकर्मविभागशश्चातुर्वर्ण्यमुत्पन्नमित्येतावतैव निर्वाहे मया सृष्टमित्यस्य प्रयोजनं चिन्त्यम्। चत्वार एव वर्णाश्चातुर्वर्ण्यम्। गुणाविभागशः कर्मविभागशश्च सत्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमदमादीनि कर्माणि सत्वोपसर्जनरजःप्रधानस्य राजन्यस्य शौर्यादीनि तमउपसर्जनस्य रजःप्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि रजउपसर्जनस्य तमःप्रधानस्य शूद्रस्य त्रैवर्णिकशुश्रूषैवेत्येवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं मयेश्वरेण सृष्टम्। चातुर्णां वर्णानां हितं चातुर्वर्ण्यम्। गुणाश्च कर्माणि चेति गुणकर्म। द्वन्द्वैकवद्भावः। कर्माण्यग्निहोत्रादीनि गुणाश्च द्रव्यदेवतारुपाः विभागशः साधारणासाधारणविभागेन। तथाहि दानजपादिकं सर्वसाधारणम् अग्निहोत्रादिकं त्रैवर्णिकस्यैव न शूद्रस्य राजसूयादिकं राज्ञ एव नेतरेषामिति विभागो दृश्यते। यतश्चातुर्वर्ण्यं गुणकर्म च मया सृष्ट ततोऽन्यदेवतानामपि मदुत्थत्वात्। पुत्रप्रीत्या पितुरिव तत्प्रीत्या ममैव तृप्तिरस्तीत्यर्थस्तु विभागपदेन साकाङ्क्षेण गुणकर्मणोः समासस्यौचित्यमभिप्रेत्याचार्यैर्न प्रदर्शित इति बोध्यम्। एवं तर्हि चातुर्वर्ण्यस्य विषमस्वभावस्य सृष्ट्यादेस्तन्निष्ठव्यापारस्य च निर्वर्तकत्वात् वैषम्यस्य कर्मफलस्य कर्तृगामित्वात् कर्तृत्वभोक्तृत्वयोश्च त्वयि प्रसङ्गात् संसारित्वादिकं ते स्यादित्याशङ्क्य मायया कर्तृत्वं न वस्तुत इत्यतो नित्यमुक्तस्य मम संसारित्वस्याभाव इत्याशयेनाह। तस्य चातुर्वर्ण्यस्य मायिकेन व्यवहारेण कर्तारमपि मां परमार्थतोऽकर्तारं विद्धि। अतएव कर्तृत्वाभावादभोक्तृत्वादिसिद्य्धाऽव्ययमविकारिणमक्षीणमहिमानम्। असंसारिणमितियावत्। आसक्तिराहित्येन श्रमरहितमित्यर्थस्त्वयुक्तः। फलासक्तिरहितानां जीवानां श्रमस्योपलब्धेः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.13।।अहमेव हि कर्तेत्याह चातुर्वर्ण्यमिति चतुर्वर्णसमुदायः। सात्त्विको ब्राह्मणः सात्त्विकराजसः क्षत्रियः राजसतामसो वैश्यः तामसः शूद्र इति गुणविभागः। कर्मविभागस्तुशमो दमः 18।42 इत्यादिना वक्ष्यते। क्रियायां वैलक्षण्यात्कर्ताऽप्यकर्ता। तथा हि श्रुतिः विश्वकर्मा विमनाः ऋक्सं.8।3।17 इत्यादि।तनुर्विद्या क्रियाऽऽकृतिः भाग.6।4।46 इति च। साधितं चैतत्पुरस्तात् पृ.142।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.13।।अन्यदेवताभक्ता अपि कस्मात्पुनः कारणात्तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते नान्यस्येत्यत आह चातुर्वर्ण्यमिति।चतुर्णां वर्णानां हितं चातुर्वर्ण्यम्। गुणाश्च कर्माणि चेति गुणकर्म। द्वन्द्वैकवद्भावः। कर्माण्यग्निहोत्रादीनि। गुणाश्च द्रव्यदेवतादिरूपाः। विभागशः साधारणासाधारणविभागेन। तथाहि दानजपादिकं सर्वसाधारणम्। अग्निहोत्रादिकं त्रैवर्णिकस्यैव न शूद्रस्य। राजसूयादिकं राज्ञ एव नेतरेषामिति विभागो दृश्यते। यतश्चातुर्वर्ण्यं गुणकर्म मया सृष्टं ततोऽन्यदेवतानामपि मदुत्थत्वात्पुत्रप्रीत्या पितुरिव तत्प्रीत्या ममैव तृप्तिरस्तीत्यर्थः। यद्वा गुणविभागशः कर्मविभागश इति योज्यम्। तथाहि सत्त्वप्रधाना ब्राह्मणास्तेषां कर्म शमदमादिकम् सत्त्वोपसर्जनरजःप्रधानाः क्षत्रियास्तेषां कर्म शौर्यादि तम उपसर्जनरजःप्रधाना वैश्यास्तेषां कर्म कृष्यादि रज उपसर्जनतमःप्रधानाः शूद्रास्तेषां कर्म शुश्रूषैवेति गुणकर्मविभागो दृश्यते तदा चातुर्वर्ण्यमिति स्वार्थे ष्यञ्। चत्वारो वर्णाः गुणकर्मविभागशो मया सृष्टा इत्यर्थः। अन्यदेवताभक्ता अपि मदुक्तकर्मकारित्वान्मद्भक्ता एवेति भावः। ननु यद्येवं त्वं स्वसन्ततितर्पणेन स्वाज्ञाकरणेन प्रीयसे तदर्थं च त्वया चातुर्वर्ण्यं सृष्टं तर्हि महान्संसारीं त्वमसीत्याशङ्क्याह तस्येति। कर्तारं मायायोगात् वस्तुतोऽकर्तारम्। अतएवाव्ययमविकारिणम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.13।।चातुर्वर्ण्यप्रमुखं ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं कृत्स्नं जगत् सत्त्वादिगुणविभागेन तदनुगुणशमादिकर्मविभागेन च प्रविभक्तं मया सृष्टम्। सृष्टिग्रहणं प्रदर्शनार्थम् मया एव रक्ष्यते मया एव च उपसंह्रियते। तस्य विचित्रसृष्टयादेः कर्तारम् अपि अकर्तारं मां विद्धि।कथम् इति अत्र आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.13।।ननु केचित्सकामतया प्रवर्तन्ते केचिन्निष्कामतयेति कर्मवैचित्र्यम् तत्कर्तृ़णां च ब्राह्मणादीनामुत्तममध्यमादिवैचित्र्यं कुर्वतस्तव कथं वैषम्यं नास्तीत्याशङ्क्याह चातुर्वर्ण्यमिति। चत्वारो वर्णा एव चातुर्वर्ण्यम्। स्वार्थे ष्यञ्प्रत्ययः। अयमर्थः सत्वप्रधाना ब्राह्मणास्तेषां शमदमादीनि कर्माणि सत्वरजःप्रधानाः क्षत्रियास्तेषां च शौर्ययुद्धादीनि कर्माणि रजस्तमःप्रधाना वैश्यास्तेषां कृषिवाणिज्यादीनि कर्माणि तमःप्रधानाः शूद्रास्तेषां च त्रैवर्णिकशुश्रूषादिकर्माणीत्येवं गुणानां कर्मणां च विभागैश्चातुर्वर्ण्यं मयैव सृष्टमिति। सत्यम्। तथाप्येवं तस्य कर्तारमपि फलतोऽकर्तारमेव मां विद्धि। तत्र हेतुः। अव्ययमासक्तिराहित्येन श्रमरहितं नाशादिरहितम्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.13।।नन्वक्षीणानन्तपापसञ्चयत्वं सर्वेषां समम् ततश्चाविवेकित्वात्क्षिप्रफलकाङ्क्षित्वमपि समानम् अतः कस्यापि मुमुक्षाविरहान्मोक्षोपायशास्त्रमप्रमाणं स्यादित्याशङ्क्य श्लोकद्वयेन तत्परिहारः क्रियत इत्यभिप्रायेणाह यथोक्तेति। पूर्वश्लोकोक्तेषु देवतान्तराधीनेषु क्षुद्रफलेष्वपि सर्वकर्तुः स्वस्यैव हेतुत्वंचातुर्वर्ण्यं इत्यादिना दर्शितम्। व्यष्टिसृष्ट्यन्तर्गतचातुर्वर्ण्यकथनं समस्तव्यष्टिसृष्टिसङ्ग्रहार्थमित्यभिप्रायेणचातुर्वर्ण्यप्रमुखमित्युक्तम्। वैषम्यनैर्घृण्यपरिहारप्रस्तावाय व्यष्टिसृष्ट्युपादानम्।गुणकर्मविभागशः इत्येतत्प्रपञ्चयिष्यमाणसत्त्वादिविभागविषयमित्यभिप्रायेणसत्त्वादीत्युक्तम्। सत्त्वादिमूलत्वात्सर्वव्यापाराणांतदनुगुणेत्युक्तम्।तमः शूद्रे रजः क्षत्त्रे ब्राह्मणे सत्त्वमुत्तमम् म.भा.14।39।11 इत्यादिगुणविभागःब्राह्मणक्षत्ित्रयविशाम् 18।41 इत्यादिकर्मविभागः।शमादिकर्मेति शमाद्यनुष्ठेयमित्यर्थः।शमो दमः इत्युपक्रम्यब्राह्मं कर्म स्वभाजम् 18।42 इति वक्ष्यते। एवं देवतिर्यङ्मनुष्यादिजातिषु वाराहपाद्मेशानकल्पादिषु च पुराणेषु प्रपञ्चितस्तत्तद्गुणोद्रिक्तो विषमसृष्टिप्रकारो द्रष्टव्यः। श्रुत्यादिषु सृष्ट्यादिसमस्तहेतुतयेश्वरस्य ज्ञातव्यत्वविधानादत्र सृष्टिग्रहणं रक्षादेरपि प्रदर्शनपरमित्याह सृष्टीति। एतेन व्यष्टिसृष्ट्यादिव्यापारत्रयस्यापि स्वकर्तृकत्ववचनात्सृष्टिं ततः करिष्यामि त्वामाविश्य प्रजापते वि.ध.68।51 इत्यादेरर्थोऽप्युक्तो भवति। सूत्रितं चैतत्संज्ञामूर्तिक्लृप्तिस्तु त्रिवृत्कुर्वत उपदेशात् ब्र.सू.2।4।20 इति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.13 4.14।।चातुर्वर्ण्यमिति। न मामिति। मम किल कथमाकाशकल्पस्य कर्मभिः लेपः आकाशप्रतिमत्वं कामनाभावात्। इति (S इत्यनेन) ज्ञानप्रकारेण यो भगवन्तमेवाश्रयते सर्वत्र सर्वदा आनन्दघनं परमेश्वरमेव न वासुदेवात्परमस्ति किंचित् इति रीत्या ( N K नीत्या) विमृशति तस्य किं कर्मभिः बन्धः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.13।।चातुर्वर्ण्यमित्यस्य सङ्गतिं सूचयन् तात्पर्यमाह अहमेव हीति। यस्मादहमेव चातुर्वर्ण्यस्य कर्ता त्रैविद्याश्च तदन्तर्भूताः तस्मात्स्वपितरं मां परित्यज्यान्यदेवता यजन्तः कथं महाफलभाजो भवेयुःइत्याहेत्यर्थः।विचित्रा तद्धितगतिः इति वचनादतिरिक्तार्थसम्भवेचतुर्वर्णादिभ्यः स्वार्थ उपसङ्ख्यानम् वार्ति.7।3।31 इति नादरणीयमिति भावेनाह चतुर्वर्णेति। वर्णाश्चत्वारो गुणास्त्रयः तत्कथं तेषु गुणविभागः इत्यत आह सात्त्विक इति। राजसस्थसात्त्विकेष्वेवायं विभाग इति ज्ञातव्यम्। निर्देशप्राथम्यात्क्षत्ित्रये रजसः सत्त्वमधिकम्। तत एव वैश्ये तमसो रजस्तच्च समत्वयुतं रजोपेक्षया तमोऽधिकं शूद्र इत्यसौ तामसः। सत्त्वं तु तमसोऽप्यधिकम्। कर्मविभागः कीदृशः इत्यत आह कर्मेति। यदि चातुर्वर्ण्यं त्वया सृष्टं तर्हि कर्तृत्वात् जीववत्तवापि कर्मलेपः प्रसज्यत इत्यतः कर्मलेपाभावं वक्तुं हेतुस्तावदुच्यतेतस्य इति तदेतद्व्याहतमित्यत आह क्रियायामिति। कथं वैलक्षण्यमित्यतः श्रुत्यैव दर्शयति तथा हीति। विश्वकर्माऽपि विमनास्तत्राभिनिवेशरहित इत्यर्थः। प्रकारान्तरेण वैलक्षण्यं पुराणेन दर्शयति तनुरिति। क्रियाया मिथ्यात्वात्कर्ताऽप्यकर्तेति परव्याख्यां प्रत्याख्याति साधितं चेति। एतत्क्रियायाः सत्यत्वं पुरस्तात् द्वितीये।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.13।।शरीरारम्भकगुणवैषम्यादपि न सर्वे समानस्वभावा इत्याह चत्वारो वर्णा एव चातुर्वर्ण्यं स्वार्थे ष्यञ्। मयेश्वरेण सृष्टमुत्पादितम्। गुणकर्मविभागशः गुणविभागशः कर्मविभागश्च। तथाहि सत्वप्रधान ब्राह्मणास्तेषां च सात्विकानि शमदमादीनि कर्माणि। सत्वोपसर्जनरजःप्रधानाः क्षत्रियास्तेषां च तादृशानि शौर्यतेजःप्रभृतीनि कर्माणि। तमउपसर्जनरजःप्रधाना वैश्यास्तेषां च कृष्यादीनि तादृशानि कर्माणि। तमःप्रधानाः शूद्रास्तेषां च तामसीनि त्रैवर्णिकशुश्रूषादीनि कर्माणीति मानुषे लोके व्यवस्थितानि। एवं तर्हि विषमस्वभावचातुर्वर्ण्यस्रष्टृत्वेन तव वैषम्यंदुर्वारमित्याशङ्क्य नेत्याह तस्य विषमस्वभावस्य चातुर्वर्ण्यस्य व्यवहारदृष्ट्या कर्तारमपि मां परमार्थदृष्ट्या विद्ध्यकर्तारमव्ययं निरहंकारत्वेनाक्षीणमहिमानम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.13।।ननु कर्मसिद्धिरपि त्वां विना कथं भवति इत्याशङ्क्याह चातुर्वर्ण्यमिति। चातुर्वर्ण्यं वर्णचतुष्टयं गुणकर्मविभागशः गुणकर्मविभागैः सत्त्वरजस्तमसां यानि कर्माणि तेषां विभागैर्मया सृष्टम् अतस्तस्य चातुर्वर्ण्यस्य कर्तारमव्ययमविनाशिनं ब्रह्मरूपमकर्तारं रसमार्गस्थं रसपरवशं मां तस्य चातुर्वर्ण्यस्य कर्तारमपि विद्धि। इच्छया अंशैः कर्ता न तु साक्षात्स्वयं इत्यपिशब्देन बोध्यते। अतो मदंशसम्बन्धेन तत्र सिद्धिर्भवतीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.13।। चत्वार एव वर्णाः चातुर्वर्ण्यं मया ईश्वरेण सृष्टम् उत्पादितम् ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् इत्यादिश्रुतेः। गुणकर्मविभागशःगुणविभागशः कर्मविभागशश्च। गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि। तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तपः इत्यादीनि कर्माणि सत्त्वोपसर्जनरजःप्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेजःप्रभृतीनि कर्माणि तमउपसर्जनरजःप्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि रजउपसर्जनतमःप्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषैव कर्म इत्येवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् इत्यर्थः। तच्च इदं चातुर्वर्ण्यं न अन्येषु लोकेषु अतः मानुषे लोके इति विशेषणम्। हन्त तर्हि चातुर्वर्ण्यस्य सर्गादेः कर्मणः कर्तृत्वात् तत्फलेन युज्यसे अतः न त्वं नित्यमुक्तः नित्येश्वरश्च इति उच्यते यद्यपि मायासंव्यवहारेण तस्य कर्मणः कर्तारमपि सन्तं मां परमार्थतः विद्धि अकर्तारम्। अत एव अव्ययम् असंसारिणं च मां विद्धि।।येषां तु कर्मणां कर्तारं मां मन्यसे परमार्थतः तेषाम् अकर्ता एवाहम् यतः

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.13।।ननु केचित्सकामतया देवान्प्रपद्यन्ते केचिदतिकामितया देवान्प्रपद्यन्ते केचिन्निष्कामतया त्वां न सर्वे एकमेवेति कर्मवैचित्र्यं तत्कर्तृ़णां च ब्राह्मणादीनाम् उत्तमादिवैचित्र्यं कुर्वतस्तव कथं वैषम्यनैर्घृण्ये न स्याताम् इत्याशङ्क्याह चातुर्वर्ण्यमिति। चतुर्वर्णात्मकं जगन्मया सृष्टंचत्वारो जज्ञिरे वर्णाः पुरुषादाश्रमैः सह इतिभगवद्वाक्यात्। परं गुणकर्मविभागश इति गुणाः सत्त्वादयः तदनुगुणकर्माणि तैर्विभागस्तेषां कृतः स्थूलः। दैवासुरविभागस्तु पूर्वत एव कृतः सूक्ष्मः। तत्र सत्त्वप्रधाना विप्रास्तेषां च शमदमादीनि कर्माणि सत्त्वरजःप्रधानाः क्षत्ित्रयास्तेषां शौर्यादि रजस्तमःप्रधाना वैश्यास्तेषां कृषिवाणिज्यादि तमःप्रधानाः शूद्रास्तेषां द्विजशुश्रूषेत्येवं सृष्टं मयैव। जीवेषु चतुर्वणेष्वपि प्रकृत्या सह संसृष्टत्वाद्गुणकर्माणि सहैवेन्द्रियैर्दत्तानिबुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजद्विभुः। मात्रार्थं च भवार्थं च स्वात्मनेऽकल्पनाय च भाग.10।87।2 इति वाक्यात्। तानि तु तैर्यथा कृतानि तथैव च फलदानि ब्रह्मणो वरदानादिति पूर्वं उक्तंदेवान् भावयतावेन 3।11 इत्यादिना। अतः कर्त्तारमपि जनकमपि मां तत्त्वतोऽकर्त्तारमेव विद्धि यतः अव्ययमिति अहङ्कारादिरहितमित्यर्थः। तथाच सूत्रंवैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति। ब्र.सू.2।1।34 अत्र भाष्यकारः जीवानां कर्मानुरोधात्सुखदुःखे प्रयच्छति इति वादिबोधनायोक्तं सापेक्षत्वात् इति। वस्तुतस्तु आत्मसृष्टैर्वैषम्यनैर्घृण्यसम्भवोऽपि न वृष्टिवद्भगवान् बीजवत्कर्म तथाहि दर्शयति एष ह्येव साधु कर्म कारयति यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति एष उ एव वाऽसाधु कर्म कारयति यमधो निनीषति कौ.उ.3।3।9 पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापःपापेन (वा) बृ.उ.4।4।5 इति च सापेक्षमपि कुर्वन्नीश्वरमाहात्म्यमिति।


Chapter 4, Verse 13