Chapter 4, Verse 12

Text

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।

Transliteration

kāṅkṣhantaḥ karmaṇāṁ siddhiṁ yajanta iha devatāḥ kṣhipraṁ hi mānuṣhe loke siddhir bhavati karmajā

Word Meanings

kāṅkṣhantaḥ—desiring; karmaṇām—material activities; siddhim—success; yajante—worship; iha—in this world; devatāḥ—the celestial gods; kṣhipram—quickly; hi—certainly; mānuṣhe—in human society; loke—within this world; siddhiḥ—rewarding; bhavati—manifest; karma-jā—from material activities


Translations

In English by Swami Adidevananda

Those who desire the fruits of their ritualistic acts, sacrifice to the gods here; for, success quickly accrues in the world of men.

In English by Swami Gambirananda

Longing for the fruition of their actions (of their rites and duties), they worship the gods here. For, in the human world, success from action comes quickly.

In English by Swami Sivananda

Those who long for success in action in this world sacrifice to the gods; for success is quickly attained by men through action.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Those who desire success in their actions perform sacrifices, intending them for the deities. For, the success born of ritualistic actions is quick in the world of men.

In English by Shri Purohit Swami

Those who seek success worship the Powers, and their actions in this world bear immediate fruit.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.12।। कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.12।। (सामान्य मनुष्य) यहाँ (इस लोक में) कर्मों के फल को चाहते हुये देवताओं को पूजते हैं;  क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र ही प्राप्त होते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.12 काङ्क्षन्तः those who long for? कर्मणाम् of actions? सिद्धिम् success? यजन्ते sacrifice? इह in this world? देवताः gods? क्षिप्रम् ickly? हि because? मानुषे in the human? लोके (in the) world? सिद्धिः success? भवति is attained? कर्मजा born of action.Commentary It is very difficult to attain to the knowledge of the Self or Selfrealisation. It demans perfect renunciation. The aspirnat should possess the four means and many other virtues? and practise constant and intense meditaion. But worldly success can be attained ickly and easily.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.12।। व्याख्या--'काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः'--मनुष्यको नवीन कर्म करनेका अधिकार मिला हुआ है। कर्म करनेसे ही सिद्धि होती है--ऐसा प्रत्यक्ष देखनेमें आता है। इस कारण मनुष्यके अन्तःकरणमें यह बात दृढ़तासे बैठी हुई है कि कर्म किये बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती। वे ऐसा समझते हैं कि सांसारिक वस्तुओंकी तरह भगवान्की प्राप्ति भी कर्म (तप, ध्यान, समाधि आदि) करनेसे ही होती है। नाशवान् पदार्थोंकी कामनाओंके कारण उनकी दृष्टि इस वास्तविकताकी ओर जाती ही नहीं कि सांसारिक वस्तुएँ कर्मजन्य हैं, एकदेशीय हैं, हमें नित्य प्राप्त नहीं हैं, हमारेसे अलग हैं और परिवर्तनशील हैं, इसलिये उनकी प्राप्तिके लिये कर्म करने आवश्यक हैं। परन्तु भगवान् कर्मजन्य नहीं हैं, सर्वत्र परिपूर्ण हैं, हमें नित्यप्राप्त हैं, हमारेसे अलग नहीं हैं और अपरिवर्तनशील हैं, इसलिये भगवत्प्राप्तिमें सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिका नियम नहीं चल सकता। भगवत्प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषासे होती है। उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न होनेमें खास कारण सांसारिक भोगोंकी कामना ही है। भगवान् तो पिताके समान हैं और देवता दूकानदारके समान। अगर दूकानदार वस्तु न दे, तो उसको पैसे लेनेका अधिकार नहीं है; परन्तु पिताको पैसे लेनेका भी अधिकार है और वस्तु देनेका भी। बालकको पितासे कोई वस्तु लेनेके लिये कोई मूल्य नहीं देना पड़ता, पर दूकानदारसे वस्तु लेनेके लिये मूल्य देना पड़ता है। ऐसे ही भगवान्से कुछ लेनेके लिये कोई मूल्य देनेकी जरूरत नहीं है; परन्तु देवताओंसे कुछ प्राप्त करनेके लिये विधिपूर्वक कर्म करने पड़ते हैं। दूकानदारसे बालक दियासलाई, चाकू आदि हानिकारक वस्तुएँ भी पैसे देकर खरीद सकता है; परन्तु यदि वह पितासे ऐसी हानिकारक वस्तुएँ माँगे तो वे उसे नहीं देंगे और पैसे भी ले लेंगे। पिता वही वस्तु देते हैं, जिसमें बालकका हित हो। इसी प्रकार देवतालोग अपने उपासकोंको (उनकी उपासना साङ्गोपाङ्ग होनेपर) उनके हित-अहितका विचार किये बिना उनकी इच्छित वस्तुएँ दे देते हैं; परन्तु परमपिता भगवान् अपने भक्तोंको अपनी इच्छासे वे ही वस्तुएँ देते हैं, जिसमें उनका परमहित हो। ऐसे होनेपर भी नाशवान् पदार्थोंकी आसक्ति, ममता और कामनाके कारण अल्प-बुद्धिवाले मनुष्य भगवान्की महत्ता और सुहृत्ताको नहीं जानते इसलिये वे अज्ञानवश देवताओंकी उपासना करते हैं (गीता 7। 20 23 9। 23 24)। 'क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा'--यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है--'कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके' (गीता 15। 2)। इसके सिवाय दूसरे लोक (स्वर्ग-नरकादि) भोगभूमियाँ हैं। मनुष्यलोकमें भी नया कर्म करनेका अधिकार मनुष्यको ही है, पशु-पक्षी आदिको नहीं। मनुष्य-शरीरमें किये हुए कर्मोंका फल ही लोक तथा परलोकमें भोगा जाता है। मनुष्यलोकमें कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्य रहते हैं--'कर्मसङ्गिषु जायते' (गीता 14। 15)। कर्मोंकी आसक्तिके कारण वे कर्मजन्य सिद्धिपर ही लुब्ध होते हैं। कर्मोंसे जो सिद्धि होती है, वह यद्यपि शीघ्र मिल जाती है, तथापि वह सदा रहनेवाली नहीं होती। जब कर्मोंका आदि और अन्त होता है, तब उनसे होनेवाली सिद्धि (फल) सदा कैसे रह सकती है? इसलिये नाशवान् कर्मोंका फल भी नाशवान् ही होता है। परन्तु कामनावाले मनुष्यकी दृष्टि शीघ्र मिलनेवाले फलपर तो जाती है, पर उसके नाशकी ओर नहीं जाती। विधिपूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये गये कर्मोंका फल देवताओंसे शीघ्र मिल जाया करता है; इसलिये वे देवताओंकी ही शरण लेते हैं और उन्हींकी आराधना करते हैं। कर्मजन्य फल चाहनेके कारण वे कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं होते और परिणामस्वरूप बारंबार जन्मते-मरते रहते हैं। जो वास्तविक सिद्धि है वह कर्मजन्य नहीं है। वास्तविक सिद्धि 'भगवत्प्राप्ति' है। भगवत्प्राप्तिके साधन--कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कर्मजन्य नहीं हैं। योगकी सिद्धि कर्मोंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत कर्मोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है।  शङ्का--'कर्मयोग' की सिद्धि तो कर्म करनेसे ही बतायी गयी है--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता 6। 3), तो फिर कर्मयोग कर्मजन्य कैसे नहीं है?समाधान--कर्मयोगमें कर्मोंसे और कर्म-सामग्रीसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही कर्म किये जाते हैं। योग (परमात्माका नित्य-सम्बन्ध) तो स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है। अतः योग अथवा परमात्मप्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। वास्तवमें कर्म सत्य नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके साधनरूप कर्मोंका विधान सत्य है। कोई भी कर्म जब सत्के लिये किया जाता है, तब उसका परिणाम सत् होनेसे उस कर्मका नाम भी सत् हो जाता है--'कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते' (गीता 17। 27)। अपने लिये कर्म करनेसे ही 'योग'-(परमात्माके साथ नित्ययोग-) का अनुभव नहीं होता। कर्मयोगमें दूसरोंके लिये ही सब कर्म किये जाते हैं, अपने लिये अर्थात् फल-प्राप्तिके लिये नहीं--'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'(गीता 2। 47)। अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँधता है (गीता 3। 9) और दूसरोंके लिये कर्म करनेसे वह मुक्त होता है (गीता 4। 23)। कर्मयोगमें दूसरोंके लिये ही सब कर्म करनेसे कर्म और फलसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जो 'योग' का अनुभव करानेमें हेतु है।कर्म करनेमें 'पर' अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, व्यक्ति, देश, काल आदि परिवर्तनशीलवस्तुओंकी सहायता लेनी पड़ती है। 'पर' की सहायता लेना परतन्त्रता है। स्वरूप ज्यों-का-त्यों है। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिये उसकी अनुभूतिमें 'पर' कहे जानेवाले शरीरादि पदार्थोंके सहयोगकी लेशमात्र भी अपेक्षा, आवश्यकता नहीं है। 'पर' से माने हुए सम्बन्धका त्याग होनेसे स्वरूपमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है।  सम्बन्ध--आठवें श्लोकमें अपने अवतारके उद्देश्यका वर्णन करके नवें श्लोकमें भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको जाननेका माहात्म्य बताया। कर्मजन्य सिद्धि चाहनेसे ही कर्मोंमें अदिव्यता (मलिनता) आती है। अतः कर्मोंमें दिव्यता (पवित्रता) कैसे आती है--इसे बतानेके लिये अब भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका विशेष वर्णन करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.12।। सुकर्म अथवा दुष्कर्म करने के लिये आत्म चैतन्य अथवा ईश्वर की शक्ति की समान रूप से आवश्यकता है और वह उपलब्ध भी है। परन्तु मन की प्रवृत्ति बहिर्मुखी ही बनी रहने के कारण है इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने पर निम्न स्तर के सुख की संवेदनाओं में उसकी आसक्ति। इस प्रकार के सुख सरलता से प्राप्त भी हो जाते हैं।अनेक प्रयत्नों के बावजूद हम वैषयिक सुख में ही रमते हैं जिसका कारण भगवान् बताते हैं मनुष्य लोक में कर्म की सिद्धि शीघ्र ही होती है।इस जगत् में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाना सामान्य मनुष्य के लिये सरल प्रतीत होता है। वह सुख निकृष्ट होने पर भी बिना किसी प्रतिरोध के मिलता है और इस कारण सुख शान्ति की इच्छा करने वाला पुरुष अपनी आध्यात्मिक शक्ति को व्यर्थ ही इन वस्तुओं की प्राप्ति और भोग करने में खो देता है। इस कथन के सत्यत्व का हम सबको अनुभव है।उपर्युक्त विवरण का सम्बन्ध केवल लौकिक सामान्य भोगों में ही सीमित नहीं वरन् हमारी अन्य उपलब्धियों से भी है। वनस्पति एवं पशु जगत् की अपेक्षा हम सुनियोजित कर्मों के द्वारा प्रकृति को अपने लिये अधिक सुख प्रदान करने को बाध्य कर सकते हैं।जीवन के उत्कृष्ट एवं निकृष्ट मार्गों का अनुसरण करने वाले लोगों को हम उनकी अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के आधार पर विभाजित कर सकते हैं इन बहिर्मुखी लोगों का फिर चार प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है जिसका आधार है उनके विचार (गुण) और कर्म।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.12।।अनुग्राह्याणां ज्ञानकर्मानुरोधेन भगवता तेष्वनुग्रहविधानात्तस्य रागद्वेषौ यदि न भवतस्तर्हि तस्य रागाद्यभावादेव सर्वेषु प्राणिष्वनुग्रहेच्छा तुल्या प्राप्ता नच तस्यां सत्यामेव फलस्याल्पीयसः संपादने सामर्थ्यं नतु भगवतो महतो मोक्षाख्यस्य फलस्य प्रदानेऽशक्तिरिति युक्तमप्रतिहतज्ञानेच्छाक्रियाशक्तिमतस्तव सर्वफलप्रदानसामर्थ्यात् तथाच यथोक्तानुजिघृक्षायां सत्यां त्वयि च यथोक्तसामर्थ्यवति सति सर्वे फल्गुफलादभ्युदयाद्विमुखा मोक्षमेवापेक्षमाणा ज्ञानेन त्वामेव किमिति न प्रतिपद्येरन्निति चोदयति यदीति। मोक्षापेक्षाभावात्तदुपायभूतज्ञानादपि वैमुख्याद्भगवत्प्राप्त्यभावे हेतुमभिदधानः समाधत्ते शृण्विति। कर्मफलसिद्धिमिच्छता किमिति मानुषे लोके देवतापूजनमिष्यते तत्राह क्षिप्रं हीति। कर्मफलसंपत्त्यर्थिनां यष्टृयष्टव्यविभागदर्शिनां तद्दर्शने कारणमात्मज्ञानमित्यत्र बृहदारण्यकश्रुतिमुदाहरति अथेति। अविद्याप्रकरणोपक्रमार्थमथेत्युक्तम्। उपासनं भेददर्शनमित्यनूद्य कारणमात्माज्ञानं न तत्रेति दर्शयति नेति। यथास्मदादीनां हलवहनादिना पशुरुपकरोत्येवमज्ञो देवादीनां यागादिभिरुपकरोतीत्याह यथेति। किमिति ते फलाकाङ्क्षिणो भिन्नदेवतायाजिनो ज्ञानमार्गं नापेक्षन्ते तत्रोत्तरार्धमुत्तरत्वेन योजयति तेषामित्यादिना। यस्माद्यथोक्तानामधिकारिणां कर्मप्रयुक्तं फलं लोकविशेषे झटिति सिध्यति तस्मात्तेषां मोक्षमार्गादस्ति वैमुख्यमित्यर्थः। मानुषलोकविशेषणं किमर्थमित्याशङ्क्याह मनुष्यलोके हीति। लोकान्तरेषु तर्हि कर्मफलसिद्धिर्नास्तीत्याशङ्क्य क्षिप्रविशेषणस्य तात्पर्यमाह क्षिप्रमिति। क्वचित्कर्मफलसिद्धिरविलम्बेन भवत्यन्यत्र तु विलम्बेनेति विभागे को हेतुरित्याशङ्क्य सामग्रीभावाभावाभ्यामित्याह मानुष इति। मनुष्यलोके कर्मफलसिद्धेः शैघ्र्यात्तदभिमुखानां ज्ञानमार्गवैमुख्यं प्रायिकमित्युपसंहरति तेषामिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.12।।ननु वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानार्थं सर्वे त्वामेव कुतो नानुवर्तन्त इत्याशङ्क्य मम वर्त्मेत्यादिविवृण्वन् तत्र कारणमाह। काङ्क्षन्तः प्रार्थयन्तः इहास्िमँल्लोके इन्द्राग्नयादयः देवता यजन्ते। हि यस्मान्मानुषे लोके काम्यकर्मजा सिद्धिः फलं क्षिप्रं शीघ्रं भवति। क्षिप्रं मानुषे लोके इति विशेषणादन्येष्वपि कर्मफलसिद्धिं दर्शयति भगवान्। मानुषे लोके वर्णाश्रमादिकर्माणीति विशेषः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.12।।कुतो मम वर्त्मानुवर्तन्ते क्षिप्रं हि अत एव हि फलप्राप्तिः। तस्मात्ते धनसनयः छां.उ.1।7।6 इति श्रुतिः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.12।।काङ्क्षन्त इति। हि यस्मात् मानुषे लोके कर्मसिद्धिः काम्यकर्मफलं पुत्रपश्वादिकं क्षिप्रं भवति न तु निष्कामकर्मजा चित्तशुद्धिः। अतो ये कर्मणां सिद्धिं फलं इहैव क्षिप्रं काङ्क्षन्तः काङ्क्षमाणा देवता इन्द्रादीन्यजन्ते तेऽपि ममैव वर्त्मानुवर्तन्त इति पूर्वेणान्वयः। वक्ष्यति चयेप्यन्यदेवताभक्ताः इत्यादि।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.12।।सर्व एव पुरुषाः कर्मणां फलं काङ्क्षमाणा इन्द्रादिदेवता यथाशास्त्रं यजन्ते आराधयन्ति। न तु कश्चिद् अनभिसंहितफल इन्द्रादिदेवतात्मभूतं सर्वयज्ञानां भोक्तारं मां यजते। कुत एतत् यतः क्षिप्रम् अस्मिन् एव मानुषे लोके कर्मजा पुत्रपश्वन्नाद्या सिद्धिः भवति। मनुष्यलोकशब्दः स्वर्गादिलोकप्रदर्शनार्थः।सर्व एव हि लौकिकाः पुरुषा अक्षीणानादिकालप्रवृत्तानन्तपापसंचयतया अविवेकिनः क्षिप्रफलाभिकाङ्क्षिणः पुत्रपश्वन्नादिस्वर्गाद्यर्थतया सर्वाणि कर्माणि इन्द्रादिदेवताराधनमात्राणि कुर्वते न तु कश्चित् संसारोद्विग्नहृदयो मुमुक्षुः उक्तलक्षणं कर्मयोगं मदाराधनभूतम् आरभते इत्यर्थः।यथोक्तकर्मयोगारम्भविरोधिपापक्षयहेतुम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.12।।तर्हि मोक्षार्थमेव किमिति सर्वे त्वां न भजन्तीत्यत आह काङ्क्षन्त इति। कर्मणां सिद्धिं फलं काङ्क्षन्तः प्रायशः इह मनुष्यलोके इन्द्रादिदेवता एव यजन्ते नतु साक्षान्मामेव। हि यस्मात्कर्मजा सिद्धिः कर्मजं फलं शीघ्रं भवति नतु ज्ञानफलं कैवल्यम्। दुष्प्राप्यत्वाज्ज्ञानस्य।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.12।।एवमध्यायार्थतयाऽभिहितेषु षट्सु प्रसञ्जकं प्रासङ्गिकं चोक्तम् अथ प्रकृतस्य कर्मयोगस्य ज्ञानाकारताप्रकारं वक्तुं तदुपोद्धाततया षट् श्लोकाः प्रवर्तन्ते। तत्राधिकारिविषयाश्चत्वारः कर्मस्वरूपविषयौ द्वावित्यवान्तरविभागः। तदिदमभिप्रयन् प्रथमं श्लोकमवतारयति इदानीमिति।काङ्क्षन्तः इत्यत्र विशेषनिर्देशाभावात्सर्व एव पुरुषा इत्युक्तम्। ये मुमुक्षुतया सम्भाव्यन्ते तेऽपि हि प्रथमं त्रिवर्गप्रवणा इत्येवकाराभिप्रायः।कर्मणां सिद्धिम् इत्यत्र कर्मस्वरूपसिद्धिशङ्काव्युदासायोक्तंफलमिति। इहशब्दाभिप्रेतमाह इन्द्रादिदेवतामात्रमिति। इह या देवतात्वेन प्रेतीयन्ते ता इत्यर्थः।यज देवपूजायाम् इति धात्वर्थव्यञ्जनायआराधयन्तीत्युक्तम्। एतेन तत्तद्देवताराधनभूतानां दानहोमादीनामपि सङ्ग्रहः।सर्वाणीन्द्रियकर्माणि 4।27 इत्यनन्तरमेतद्व्यञ्जयिष्यति। व्यतिरेकरूपमाभिप्रायिकं कर्मयोगाधिकारिदौर्लभ्यमाहन तु कश्चिदिति।सर्वयज्ञानां भोक्तारमित्यनेनअहं हि सर्वयज्ञानां 9।24भोक्तारं यज्ञतपसाम् 5।29 इत्यादि वक्ष्यमाणं सूचितम्। हेतुपरहिशब्दार्थव्यञ्जनाय शङ्कतेकुत एतदिति। महति फले स्थिते क्षुद्रफलाकाङ्क्षा किन्निबन्धना इत्यर्थः। क्षिप्रमानुषशब्दाभ्यां कालतो देशतश्चासत्तिरुच्यते। वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता यजुषि 6।1।1 इत्यादिकं क्षिप्रशब्देन स्मारितम्।अस्मिन्नेवेत्यनेन मानुषशब्दफलितदेशासक्तिद्योतनम्। क्षिप्रलाभादस्मिन्नेव लोके लाभाच्च क्षुद्रेष्वपि फलेषु प्रथममाकाङ्क्षा स्यादिति भावः। मानुषलोकौचित्येन सिद्धिं विशेषयतिपुत्रपश्िवत्यादि। अपवर्गप्रकरणफलितमाहमनुष्येति। अतिशयितफलसद्भावेऽपि क्षुद्रफलाकाङ्क्षायां तदनुषङ्गिदुःखसन्तानानुद्वेगे च हेतुं दर्शयन् कण्ठोक्तमाभिप्रायिकं च सङ्कलय्य वाक्यार्थमाह सर्व एवेति।लौकिका इति त्रिवर्गप्रावण्यनिदर्शनार्थमुक्तम्।अविवेकिनः अविवेकित्वादित्यर्थः।क्षिप्रफलाकाङ्क्षिण इति क्षुद्रत्वनश्वरत्वदुःखानुबन्धित्वादिदोषपुञ्जानादरेणवरमद्य काकः श्वो मयूरात् इतिवन्मन्यमाना इति भावः।उपलक्षणोपलक्ष्यभूतैहिकामुष्मिकसङ्कलनेनोक्तं पुत्रपश्वन्नाद्यस्वर्गादीति। एतेनकर्मणां सिद्धिम् इत्यत्र सिद्धिशब्दः सामान्यविषय इति दर्शितम्।सर्वाणि कर्माणि यागदानहोमादीनि।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.11 4.12।।यतः ये यथेति। कांक्षन्त इति। ये यथैव (S K ययैव) बुद्ध्या मामाश्रयन्ते तान् प्रति तदेव स्वरूपमहं गृह्णन् ताननुगृह्णामि। एवमेव मदीयं मार्गं मन्मया अमन्मयाश्च सर्व एवानुवर्तन्ते। न हि ज्योतिष्टोमादिरन्यो मार्गः मदीयैव सा तथेच्छा। वक्ष्यते हि चातुर्वर्ण्य मया सृष्टमिति।अन्यस्तु आह लिङ्गर्थे लट् यथा अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णन्ति इत्यत्र (S omits इत्यत्र) गृह्णीयु इत्यर्थः एवमिहापि अनुवर्तन्ते (N omits अनुवर्तन्ते) अनुवर्तेरन् इति।मानुषे एव लोके भोगापवर्गलक्षणा सिद्धिः नान्यत्रेति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.12।।साधकं तु प्रमाणं पृच्छति कुत इति।मम वर्त्मानुवर्तन्ते 4।11 इति यत्सर्वयज्ञादिभोक्तृत्वमुक्तम् तत्कुतः प्रमाणाज्ज्ञायते इत्यर्थः। सर्वकर्तृत्वं तु जीवानामस्वातन्त्र्यदर्शनात्सिद्धम्। इत्यत आहेति शेषः। हीत्यतः परमितिशब्दश्च। किमनेन प्रमाणमुक्तं इत्यत आह अत एव हीति। कर्मजा सिद्धिः फलप्राप्तिस्तावत् क्षिप्रं प्रत्यक्षोपलभ्याऽस्ति। सा चात एव कर्मणां भगवता भुक्तत्वादेव हि युज्यते नान्यथेत्यर्थः। इन्द्रादिभ्योऽपि फलप्राप्त्युपपत्तेरुपक्षीणार्थापत्तिरित्यतश्चाह अत एव हीति भगवत एव। अत्र हीति सूचितं प्रमाणमाह तस्मादिति। धनसनयो धनलाभवन्तः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.12।।ननु त्वामेव भगवन्तं वासुदेवं किमिति सर्वे न प्रपद्यन्त इति तत्राह कर्मणां सिद्धिं फलनिष्पत्तिं काङ्क्षन्त इह लोके देवताः देवानिन्द्राग्न्याद्यान्यजन्ते पूजयन्ति अज्ञानप्रतिहतत्वान्नतु निष्कामाः सन्तो मां भगवन्तं वासुदेवमिति शेषः। कस्मात्। हि यस्मात् इन्द्रादिदेवतायाजिनां तत्फलकाङ्क्षिणां कर्मजा सिद्धिः कर्मजन्यं फलं क्षिप्रं शीघ्रमेव भवति मानुषे लोके। ज्ञानफलं त्वन्तःकरणशुद्धिसापेक्षत्वान्न क्षिप्रं प्रभवति। मानुषे लोके कर्मफलं शीघ्रं भवतीति विशेषणादन्यलोकेऽपि वर्णाश्रमधर्मव्यतिरिक्तिकर्मफलसिद्धिर्भगवता सूचिता। यतस्तत्तत्क्षुद्रफलसिद्ध्यर्थं सकामा मोक्षविमुखाः अन्या देवता यजन्तेऽतो न मुमुक्षव इव मां वासुदेवं साक्षात्ते प्रपद्यन्त इत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.12।।नन्वेवं चेत्तदा कथं न सर्वे त्वामेव सेवन्ते इत्याशङ्क्याहुः काङ्क्षन्त इति। इह अस्मिन्नेव जन्मनि सिद्धिं काङ्क्षन्तो ये वाञ्छन्ति तादृशाः सन्तः कर्मणां देवताः कर्माधिष्ठातार इन्द्रादयस्तान् यजन्ते। यतः क्षिप्रं शीघ्रं मानुषे लोके अस्मिन्नेव जन्मनि कर्मजा सिद्धिर्भवति न मत्प्राप्तिः। हीति युक्तत्वाय। तथा चायमर्थः पुरुषोत्तमसम्बन्धो न लौकिकदेहप्राप्यः किन्त्वलौकिकस्वरूपप्राप्यः। तत्स्वरूपं च लौकिकदेहेन सेवायां क्रियमाणायां प्रेमोत्पत्त्या परीक्षासिद्ध्यनन्तरं तापे जाते तदनुभवार्थत्यागानन्तरमेतद्देहनिवृत्त्यनन्तरं भवति। तत्रापि परीक्षासिद्धौ परमतापे सति तदनुभवः स्यात्। सोऽपि क्लेशानन्दानुभवात्मकः। एतत्सर्वं व्रजे प्रसिद्धं कालीय अन्तर्गतभगवदन्तर्धानपुनःप्राकट्यरमणवनगमन श्रीमदुद्धवप्रसङ्गादिभिः। अन्यदेवानां तु जीववदंशरूपत्वादत्रैव मनुष्यलोके शीघ्रं तदर्थकृतकर्मसिद्धिर्भवति। अतोऽत्रैव शीघ्रं फलाभिलाषिणस्तत्र प्रवर्तन्ते न मद्भजने तत्र प्रवृत्तौ तेषां तत्सिद्धिर्भवति। देवानां मत्स्वरूपत्वादत्रैव लौकिकदेहेन लौकिकफलसिद्धिर्युक्तैवेति ज्ञापनाय हीति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.12।। काङ्क्षन्तः अभीप्सन्तः कर्मणां सिद्धिं फलनिष्पत्तिं प्रार्थयन्तः यजन्ते इह अस्मिन् लोके देवताः इन्द्राग्न्याद्याः अथ योऽन्यां देवतामुपास्ते अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम् (बृ0 उ0 1.4.10) इति श्रुतेः। तेषां हि भिन्नदेवतायाजिनां फलाकाङ्क्षिणां क्षिप्रं शीघ्रं हि यस्मात् मानुषे लोके मनुष्यलोके हि शास्त्राधिकारः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके इति विशेषणात् अन्येष्वपि कर्मफलसिद्धिं दर्शयति भगवान्। मानुषे लोके वर्णाश्रमादिकर्माणि इति विशेषः तेषां च वर्णाश्रमाद्यधिकारिकर्मणां फलसिद्धिः क्षिप्रं भवति। कर्मजा कर्मणो जाता।।मानुषे एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारः न अन्येषु लोकेषु इति नियमः किंनिमित्त इति अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेताः मनुष्याः मम वर्त्म अनुवर्तन्ते सर्वशः इत्युक्तम्। कस्मात्पुनः कारणात् नियमेन तवैव वर्त्म अनुवर्तन्ते न अन्यस्य इति उच्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.12।।ननु देवान्तरभजनमन्ये कुर्वन्ति इह किं इति तत्राह काङ्क्षन्त इति। हि यतः देवान्तरभजनेन कृत्वा शीघ्रं मानुषे लोके सिद्धिः फलं प्राकृतं कर्मजं भवति अतो देवता इन्द्रादीन् यजन्ते भगवन्तं न मां क्षिप्रं फलदातृत्वाभावनिश्चयात् निरुपाधिकस्यौपाधिककामितदाने विचारस्तत्पूर्वकपरीक्षा शोधनेन च विलम्बसम्भवात् तथाभावेन दातृत्वादित्यवगम्य क्षिप्रफलदानौपाधिकान्देवान्यजन्त इत्युक्तम्।


Chapter 4, Verse 12