Chapter 4, Verse 11

Text

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।

Transliteration

ye yathā māṁ prapadyante tāns tathaiva bhajāmyaham mama vartmānuvartante manuṣhyāḥ pārtha sarvaśhaḥ

Word Meanings

ye—who; yathā—in whatever way; mām—unto me; prapadyante—surrender; tān—them; tathā—so; eva—certainly; bhajāmi—reciprocate; aham—I; mama—my; vartma—path; anuvartante—follow; manuṣhyāḥ—men; pārtha—Arjun, the son of Pritha; sarvaśhaḥ—in all respects


Translations

In English by Swami Adidevananda

Whoever resorts to Me in any manner, I favor them in the same manner; men experience Me alone in different ways, O Arjuna.

In English by Swami Gambirananda

According to the manner in which they approach Me, I favor them in that same manner. O son of Partha, humans follow My path in every way.

In English by Swami Sivananda

In whatever way men approach Me, even so do I reward them; My path do men tread in all ways, O Arjuna.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The way in which people resort to Me, in the same way I favor them. O son of Prtha, all kinds of people follow My path.

In English by Shri Purohit Swami

However men try to worship Me, I welcome them. Whatever path they take, it leads to Me in the end.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.11।। हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.11।। जो मुझे जैसे भजते हैं,  मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ;  हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.11 ये who? यथा in whatever way? माम् Me? प्रपद्यन्ते approach? तान् them? तथा so? एव even? भजामि reward? अहम् I? मम My? वर्त्म path? अनुवर्तन्ते follow? मनुष्याः men? पार्थ O Partha? सर्वशः in all ways.Commentary I reward men by bestowing on them the objects they desire in accordance with their ways and the motives with which they seek Me. If anyone worships Me with selfish motives I grant him the objects he desires. If he worships Me unselfishly for attaining knowledge of the Self? I grant him Moksha or final liberation. I am not at all partial to anyone. (Cf.VII.21andIX.23).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.11।। व्याख्या--'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्'--भक्त भगवान्की जिस भावसे, जिस सम्बन्धसे, जिस प्रकारसे शरण लेता है, भगवान् भी उसे उसी भावसे, उसी सम्बन्धसे, उसी प्रकारसे आश्रय देते हैं। जैसे, भक्त भगवान्को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानता है तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं, पुत्र मानता है तो वे श्रेष्ठ पुत्र बन जाते हैं, भाई मानता है तो वे श्रेष्ठ भाई बन जाते हैं, सखा मानता है तो वे श्रेष्ठ सखा बन जाते हैं, नौकर मानता है तो वे श्रेष्ठ नौकर बन जाते हैं। भक्त भगवान्के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान् भी भक्तके बिना व्याकुल हो जाते हैं।अर्जुनका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति सखाभाव था तथा वे उन्हें अपना सारथि बनाना चाहते थे; अतः भगवान् सखाभावसे उनके सारथि बन गये। विश्वामित्र ऋषिने भगवान् श्रीरामको अपना शिष्य मान लिया तो भगवान् उनके शिष्य बन गये। इस प्रकार भक्तोंके श्रद्धाभावके अनुसार भगवान्का वैसा ही बननेका स्वभाव है।अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी भगवान् भी अपने ही बनाये हुए साधारण मनुष्योंके भावोंके अनुसार बर्ताव करते हैं, यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता, दयालुता और अपनापन है? भगवान् विशेषरूपसे भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं--ऐसा प्रस्तुत प्रकरणसे सिद्ध होता है। भक्तलोग जिस भावसे, जिस रूपमें भगवान्की सेवा करना चाहते हैं ,भगवान्को उनके लिये उसी रूपमें आना पड़ता है। जैसे, उपनिषद्में आया है--'एकाकी न रमते' (बृहदारण्यक0 1। 4। 3)--अकेले भगवान्का मन नहीं लगा, तो वे ही भगवान् अनेक रूपोंमें प्रकट होकर खेल खेलने लगे। ऐसे ही जब भक्तोंके मनमें भगवान्के साथ खेल खेलनेकी इच्छा हो जाती है, तब भगवान् उनके साथ खेल खेलने-(लीला करने-) के लिये प्रकट हो जाते हैं। भक्त भगवान्के बिना नहीं रह सकता तो भगवान् भी भक्तके बिना नहीं रह सकते। यहाँ आये ''यथा' और 'तथा'--इन प्रकारवाचक पदोंका अभिप्राय 'सम्बन्ध', 'भाव' और 'लगन' से है। भक्त और भगवान्का प्रकार एक-सा होनेपर भी इनमें एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि भगवान् भक्तकी चालसे नहीं चलते, प्रत्युत अपनी चाल-(शक्ति-) से चलते हैं (टिप्पणी प0 232.1)। भगवान् सर्वत्र विद्यमान, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, परम सुहृद् और सत्यसंकल्प हैं। भक्तको केवल अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है, फिर भगवान् भी अपनी पूरी शक्तिसे उसे प्राप्त हो जाते हैं।भगवत्प्राप्तिमें बाधा साधक स्वयं लगाता है क्योंकि भगवत्प्राप्तिके लिये वह समझ, सामग्री, समय और सामर्थ्यको अपनी मानकर उन्हें पूरा नहीं लगाता, प्रत्युत अपने पास बचाकर रख लेता है। यदि वह उन्हें अपना न मानकर उन्हें पूरा लगा दे तो उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है। कारण कि यह समझ, सामग्री आदि उसकी अपनी नहीं हैं; प्रत्युत भगवान्से मिली हैं; भगवान्की हैं। अतः इन्हें अपनी मानना ही बाधा है। साधक स्वयं भी भगवान्का ही अंश है। उसने खुद अपनेको भगवान्से अलग माना है, भगवान्ने नहीं। भक्ति (प्रेम) कर्मजन्य अर्थात् किसी साधन-विशेषका फल नहीं है। भगवान्के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्त होती है। दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है। यहाँ भगवान् मानो इस बातको कह रहे हैं कि तुम अपना सब कुछ मुझे दे दोगे तो मैं भी अपना सब कुछ तुम्हें दे दूँगा और तुम अपने-आपको मुझे दे दोगे तो मैं भी अपने-आपको तुम्हें दे दूँगा। भगवत्प्राप्तिका कितना सरल और सस्ता सौदा हैअपने-आपको भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान् भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते। वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं--रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।(मानस 1। 29। 3)इस (ग्यारहवें) श्लोकमें द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण, सायुज्य-सामीप्य आदि शास्त्रीय विषयका वर्णन नहीं है, प्रत्युत भगवान्से अपनेपनका ही वर्णन है। जैसे, नवें श्लोकमें भगवान्के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेसे भगवत्प्राप्ति होनेका वर्णन है। 'केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ'-- इस प्रकार भगवान्में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमतासेहो जाती है। अतः साधकको केवल भगवान्में ही अपनापन मान लेना चाहिये (जो वास्तवमें है), चाहे समझमें आये अथवा न आये। मान लेनेपर जब संसारके झूठे सम्बन्ध भी सच्चे प्रतीत होने लगते हैं, फिर जो भगवान्का सदासे ही सच्चा सम्बन्ध है, वह अनुभवमें क्यों नहीं आयेगा? अर्थात् अवश्य आयेगा।  शङ्का--जो भगवान्को जिस भावसे स्वीकार करते हैं, भगवान् भी उनसे उसी भावसे बर्ताव करते हैं, तो फिर यदि कोई भगवान्को द्वैष, वैर आदिके भावसे स्वीकार करेगा तो क्या भगवान् भी उससे उसी (द्वेष आदिके) भावसे बर्ताव करेंगे?  

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.11।। भगवान् में राग द्वेष आदि की दुर्बलताओं का आरोप उचित नहीं है। वे तो शक्तिपुञ्ज हैं जो समस्त कर्मों एवं उपलब्धियों का मूल है। उस ईश्वर की शक्ति का आह्वान करने के लिये हमें उपाधियाँ दी गयी हैं। बुद्धिमत्ता पूर्वक यदि इन उपाधियों का तथा शक्ति का हम उपयोग करें तो निश्चय ही लक्ष्य को पा सकते हैं अन्यथा वही शक्ति हमारे नाश का कारण बन सकती है।यन्त्रों की सहायता से पेट्रोल की ईन्धन शक्ति को अश्वशक्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। उस परिवर्तित शक्ति का उपयोग करके वाहन द्वारा हम अपने गन्तव्य तक पहुँच सकते हैं अथवा किसी वृक्ष आदि से टक्कर मारकर अपनी हड्डियाँ भी चूरचूर कर सकते हैं इस प्रकार की दुर्घटनायें वाहन चालकों की असावधानी के कारण होती हैं। यद्यपि जिस वेग से वाहन टकराया उस वेग को उसने पेट्रोल से ही प्राप्त किया था। हम यह नहीं कह सकते कि जो लोग लक्ष्य तक पहुँच गये उनके प्रति पेट्रोल को राग था और दुर्घटनाग्रस्त लोगों से द्वेष। बिना किसी पक्षपात के पेट्रोल अपनी शक्ति प्रदान करता है परन्तु यन्त्रों द्वारा उसका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करना हमारी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है। यही बात विद्युत् शक्ति के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिये। विद्युत् की अभिव्यक्ति विभिन्न उपकरणों में विभिन्न प्रकार से होती है वह उन सब उपकरणों का गुण धर्म है और न कि विद्युत शक्ति का।इसी प्रकार भगवान् यहाँ कहते हैं जो मुझे जैसा भजते हैं मैं उन पर वैसी ही कृपा करता हूँ। जिस रूप में हम ईश्वर का आह्वान करेंगे उसी रूप में वे हमारी इच्छा को पूर्ण करेंगे।यदि भगवान् पक्षपातादि अवगुणों से सर्वथा मुक्त हैं तो उनकी कृपा सब पर एक समान ही होगी फिर सामान्य मनुष्य भगवान् की शरण में न जाकर अन्य विषयों की ही क्यों इच्छा करते हैं इस प्रश्न का उत्तर है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.11।।ईश्वरः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो मोक्षं प्रयच्छति चेत्प्रागुक्तविशेषणवैयर्थ्यं यदि तु केभ्यश्चिदेव मोक्षं प्रयच्छेत्तर्हि तस्य रागादिमत्त्वादनीश्वरत्वापत्तिरिति शङ्कते तव तर्हीति। ये मुमुक्षवस्तेभ्यो मोक्षमीश्वरो ज्ञानसंपादनद्वारा प्रयच्छति फलान्तरार्थिभ्यस्तु तत्तदुपायानुष्ठानेन तत्तदेव ददातीति नास्य रागद्वेषाविति परिहरति उच्यत इति। मुमुक्षूणामीश्वरानुसारित्वेऽपि फलान्तरार्थिनां कुतस्तदनुसारित्वमित्याशङ्क्यफलमत उपपत्ते रिति न्यायेन तत्फलस्येश्वरायत्तत्वात्तदनुवर्तित्वमावश्यकमित्याह ममेति। भगवद्वचनभागिनां सर्वेषामेव कैवल्यमेकरूपं किमिति नानुगृह्यते तत्राह तेषामिति। अभ्युदयनिःश्रेयसार्थित्वं प्रार्थनावैचित्र्यादेकस्यैव किं न स्यादित्याशङ्क्य पर्यायेण तदनुपपत्तिं साधयति नहीति। मुमुक्षूणां फलार्थिनां च विभागे स्थिते सत्यनुग्रहविभागं फलितमाह अत इति। फलप्रदानेनानुगृह्णामीति संबन्धः। नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठायिनामेव फलार्थित्वाभावे सति मुमुक्षुत्वे कथं तेष्वनुग्रहः स्यादिति तत्राह ये यथोक्तेति। ज्ञानप्रदानेन भजामीत्युत्तरत्र संबन्धः। सन्ति केचित्त्यक्तसर्वकर्माणो ज्ञानिनो मोक्षमेवापेक्ष्यमाणास्तेष्वनुग्रहप्रकारं प्रकटयति ये ज्ञानिन इति। केचिदार्ताः सन्तो ज्ञानादिसाधनान्तररहिता भगवन्तमेवार्तिमपहर्तुमनुवर्तन्ते तेषु भगवतोऽनुग्रहविशेषं दर्शयति तथेति। पूर्वार्धव्याख्यानमुपसंहरति इत्येवमिति। भगवतोऽनुग्रहे निमित्तान्तरं निवारयति न पुनरिति। फलार्थित्वे मुमुक्षुत्वे च जन्तूनां भगवदनुसरणमावश्यकमित्युत्तरार्धं विभजते सर्वथापीति। सर्वावस्थत्वं तेन तेनात्मना परस्यैवेश्वरस्यावस्थानं मार्गो ज्ञानकर्मलक्षणः। मनुष्यग्रहणादितरेषामीश्वरमार्गानुवर्तित्वपर्युदासः स्यादित्याशङ्क्याह यत्फलेति। सर्वप्रकारैर्मम मार्गमनुवर्तन्त इति पूर्वेण संबन्धः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.11।। एवं स्वस्मिन्प्रसक्तौ रागद्वेषौ वारयति य इति। ये यथा येन प्रकारेण यदर्थं मोक्षाथमर्थार्थमार्तिनिवृत्त्यर्थं ज्ञानार्थं च मां प्रपद्यन्ते भजन्ति तांस्तथैव तत्तत्फलप्रदानेनाहं समस्तफलप्रदाता परमेश्वरो भजाम्यनुगृह्णामि। ये मनुष्याः यत्फलार्थितया यस्मिन्कर्मण्यधिकृता इन्द्रादिदेवतान्तरं यजन्ते सर्वशः सर्वप्रकारेण प्रवृत्तास्ते ममैव सर्वात्मनस्तत्कर्मात्मकं वर्त्म मार्गभनुवर्तन्ते। येतु ये मनुष्याः मां सर्वशरीरस्थं यथा येन प्रकारेण शत्रुत्वेन मित्रत्वेन वा प्रपद्यन्ते प्राप्नुवन्ति तांस्तेनैव प्रकारेणाहमपि भजाम्यनुसरामि। येतु मम वर्त्म भक्तिध्यानप्रणिधानात्मकं अनुवर्तन्ते तान्ममात्मभूतान् तथैव सर्वशः सर्वप्रकारैः अनुवर्तेऽहमिति वर्णयन्ति तैस्त्वर्थान्तरं वर्णनीयमिति व्यग्रचित्तैः मामुपाश्रिताः यजन्त इति पूर्वोत्तरग्रन्थानुसारी प्रपद्यन्ते भजामीत्यनयोर्यथाश्रुतार्थः परित्यक्तः। एतेन ममेत्यादिक्लिष्टकल्पनापि प्रत्युक्ता। इतरमनुष्या अपि मम वर्त्मानुवर्तन्ते त्वया तु मत्संबन्धिनापि मदनुर्वतनं न क्रियत इत्यत्याश्चर्यमिति द्योतयन्नाह पार्थेति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.11।।न च मद्भजनमात्रेण मुक्तिर्भवत्यन्यदेवतारूपेण तथापि सर्वेषामानुरूप्येण फलं ददामीत्याह येयथेति। सेवयामि फलदानेन न तु गुणभावेन। कथमयं विशेषः इत्यत आह मम वर्त्मेति। अन्यदेवता यजन्तोऽपि मम वर्त्मैवानुवर्तन्ते। सर्वकर्मकर्तृत्वात् भोक्तृत्वाच्च मम।येऽप्यन्यदेवताभक्ताः 9।23 इति वक्ष्यति। यो देवानां नामधा एक एव ऋक्सं.8।3।17।3 इति श्रुतिः। भगवानेव च तत्राभिधीयते। अजस्य नाभावध्येकमर्पितम् ऋक्सं.8।3।17।6 इति तल्लिङ्गात्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.11।।ननु साध्वसाध्वोस्त्राणविनाशौ कुर्वतस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्तोऽतः किं तवास्मदादितुल्यस्य जन्मकर्मस्वरूपाणां चिन्तनेनेत्याशङ्क्याह ये यथेति। ये मनुष्याः मां सर्वशरीरस्थं यथा येन प्रकारेण शत्रुत्वेन मित्रत्वेन वा प्रपद्यन्ते प्राप्नुवन्ति तांस्तेनैव प्रकारेणाहमपि भजाम्यनुसरामि। ये तु मम वर्त्म भक्तिध्यानप्रणिधानात्मकमनुवर्तन्ते तान्ममात्मभूतांस्तथैव सर्वशः सर्वैः प्रकारैरनुवर्तेऽहमिति योजना। ततश्च मद्बिम्बभूते प्राणिजाते यथा यः प्रीतिं द्वेषं वा करोति तस्मिन्प्रतिबिम्बभूतेऽहमपि तथैव प्रीतिं द्वेषं च करोमि। बिम्बपूजापरिभवौ प्रतिबिम्बे एव संक्रामतोऽतो न मम वैषम्यनैर्घृण्ये स्तः। तस्मात् श्रेयोर्थिना सर्वस्य कल्याणायैव यतितव्यमिति भावः। भाष्ये तु ये यथा येन प्रकारेण येन प्रयोजनेन आर्ता जिज्ञासवोऽर्थार्थिनो ज्ञानिनो वा प्रतिपद्यन्ते तांस्तथैव पीडापरिहारेण ज्ञानदानेन अर्थदानेन मोक्षदानेन वाऽनुगृह्णामि। सर्वथा ते ममैव वर्त्मानुवर्तन्त इति अन्यदेवताभक्ता इति चैतद्व्याचक्षते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.11। ये मत्समाश्रयणापेक्षा यथा येन प्रकारेण स्वापेक्षानुरूपं मां संकल्प्य प्रपद्यन्ते समाश्रयन्ते तान् प्रति तथैव तन्मनीषितप्रकारेण भजामि मां दर्शयामि। किमत्र बहुना सर्वे मनुष्या मदनुवर्तनैकमनोरथा मम वर्त्म मत्स्वभावं सर्वं योगिनां वाङ्मनसागोचरम् अपि स्वकीयैः चक्षुरादिकरणैः सर्वशः स्वापेक्षितैः सर्वप्रकारैः अनुभूय अनुवर्तन्ते।इदानीं प्रासङ्गिकं परिसमाप्य प्रकृतस्य कर्मयोगस्य ज्ञानाकारताप्रकारं वक्तुं तथाविधकर्मयोगाधिकारिणो दुर्लभत्वम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.11।।ननु तर्हि किं त्वय्यपि वैषम्यमस्ति यस्मादेवं त्वदेकशरणानामेवात्मभावं ददासि नान्येषां सकामानामित्यत आह ये यथेति। यथा येन प्रकारेण सकामतया निष्कामतया वा ये मां भजन्ति तानहं तथैव तदपेक्षितफलदानेन भजाम्यनुगृह्णामि नतु ये सकामा मां विहायेन्द्रादीनेव भजन्ते तानहमुपेक्ष इति मन्तव्यम्। यतः सर्वशः सर्वप्रकारैरिन्द्रादिसेवका अपि ममैव वर्त्म भजनमार्गमनुवर्तन्ते। इन्द्रादिरूपेणापि ममैव सेव्यत्वात्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.11।।एवं साधुपरित्राणाद्यर्थदेवमनुष्यादिसजातीयस्वेच्छावतारवर्णनमुखेनोपासनोपयुक्तं स्वस्य सौलभ्यमुक्तम्। अथ तस्यैव काष्ठाप्राप्तां दशां दर्शयति ये यथा इति श्लोकेन। अत्र कृष्णावतारवृत्तान्तेन सहार्चावतारवृत्तान्तोऽपि सङ्गृहीतः।ये यथा तांस्तथैव इति शब्दाः पूर्वोक्ताधिकारितदनुष्ठानप्रकारादिनियमनिवृत्तिपरा इत्यभिप्रायेणाह न केवलमिति।स्वापेक्षानुरूपमिति पतित्वपुत्रत्वसारथित्ववाराहनारसिंहादिप्रक्रिययेत्यर्थः।सङ्कल्प्य मनोरथविषयं कृत्वेत्यर्थः। एतदेवात्र प्रपदनमित्याह समाश्रयन्त इति।तांस्तथैव भजाम्यहम् इत्यत्र तद्भजनप्रकारेणाहमपि तान्भजामीत्येतदसङ्गतमिति शङ्कानिरासाय तथैवेत्यस्यार्थमाह तन्मनीषितप्रकारेणेति। न तु स्वकीयपरत्वानुरूपप्रकारेणेति भावः। अत्र यथाभिलषितफलप्रदानेन पक्षपातपरिहारार्थत्वं परोक्तं पूर्वोत्तराभ्यां नात्यन्तसङ्गतम्चातुर्वर्ण्यम् 4।13 इत्यादिनाऽर्थतः पुनरुक्तिश्च स्यात्। सेवकान् प्रति सेव्यस्य भजनं नाम सुलभदर्शनत्वमित्यभिप्रायेणमां दर्शयामीत्युक्तम्।उक्तार्थस्य लोकेऽपि प्रदर्शनपरमुत्तरार्धम् न पुनःयदि ह्यहं न वर्तेयम् 3।23 इत्यादाविव स्वस्य लोकानुविधेयानुष्ठानवत्त्वपरम् तस्येहासङ्गतत्वादित्यभिप्रायेण वाङ्मनसागोचरसौलभ्यपरतां विवृणोति किमत्र बहुनेति। मनुष्यशब्दः स्त्र्यादीनामपि सङ्ग्राहक इत्यभिप्रायेण सर्वशब्दः। अत्र वर्त्मशब्दो न साक्षात्सरणिवाचकः असङ्गतवाक्यार्थत्वप्रसङ्गात्। नाप्याचारपरः तस्याप्यत्रासङ्गतत्वेनोक्तदूषणत्वात्। अत एवएवं प्रवर्तितं चक्रम् 3।16तेनैव स्थापिता ब्रह्ममर्यादा लोकभाविनी इत्याद्युक्तशास्त्रमर्यादानुवर्तनपरत्वमपि निरस्तम्। अतोऽत्र सौलभ्योपदेशप्रकरणे स्वासाधारणविग्रहचेष्टासौशील्यादिस्वभावसमुदायपरत्वमेवोचितमित्यभिप्रायेणोक्तं मम वर्त्म मत्स्वभावं सर्वमिति। सरणिवाचकमपि हिशब्दमुपचारात् स्वभावविषयतया प्रयुञ्जते। यथाकोऽयं पन्था यदसि विमुखो मन्दभाग्ये मयीत्थम् इति।मनुष्याः इत्यनेन सूचितमुच्यते योगिनामिति। योगपरिशुद्धमनसां वाङ्मनसागोचरमपि मां सचक्षुषो मनुष्या बाह्येन्द्रियैरप्यनुभवन्तीत्यर्थः। प्रियतमपितृपुत्रसुहृद्भ्रातृभृत्यसारथित्वादिरूपाण्यर्चावताररूपाणि चसर्वशः इत्यनेन विवक्षितानीत्याहस्वापेक्षितैरिति।अनुभूयानुवर्तन्ते अनुभवन्तो वर्तन्त इत्यर्थः। अलङ्करणयात्रोत्सवसेवादिर्वाऽत्र प्रकारः। अत्र योगिनां वाङ्मनसागोचरमपिचक्षुरादिकरणैः इति वचनादर्चावताररूपेऽपि पररूपत्वानुसन्धानं दर्शितम्। यथा स्मरन्तितामेव ब्रह्मरूपिणीम् वि.ध.103।29 इति। वक्ष्यति च भगवान्भुजैश्चतुर्भिः इत्यादि। एवं प्रसङ्गात् सौलभ्यातिरेकं सारथ्यादिना पश्यतोऽपि पाण्डवस्योपासिसिषापूर्त्यर्थं कण्ठोक्त्याप्युपदिदेश।नन्वेतावताऽपि चोद्यानुमानतर्काणां कः परिहार उक्तो भवति तदुच्यते हेयप्रत्यनीकः स्वयं हेयं कथमुपाददीतेति चोद्यमवतारादेर्हेयत्वाभावादेव निरस्तम् तदभावश्चाकर्मवश्यत्वाप्राकृतत्वस्वेच्छाकृतत्वादिभिः। पुण्यपापाद्यभावे नियन्त्रन्तराभावे च कथं जन्मादीत्येतदपि स्वेच्छया परिहृतम्। हिताहिताज्ञानाशक्त्यादिचोद्यमकर्मवश्यस्य लीलयाऽवतरतोऽस्याहिताभावात्तदज्ञानाभावाच्च निरस्तम्। प्रयोजनाभावचोद्यं तु साधुपरित्राणादिप्रयोजनवर्णनेनापाकृतम्। यत्तु साधुपरित्राणादौ सङ्कल्पमात्रेणापि शक्ये किमवतारादिनेति तदपिपरित्राणाय साधूनाम् 4।8 इत्यत्रमन्नाम इत्यारभ्यआलापादिदानेन तेषां परित्राणाय रा.भा.4।8 इत्यन्तेन भाष्येणधर्मसंस्थापनार्थाय 4।8 इत्यत्रआराध्यस्वरूपप्रदर्शनेन इत्यनेनये यथा इत्यत्र सर्वसाधारणस्वसौलभ्यातिरेकप्रदर्शनेन च परिहृतम्। यदुक्तम् ईश्वरो न वस्तुतो जन्मादिमान् अकर्मवश्यत्वात् मुक्तात्मवत् इति तत्रेश्वराभ्युपगमानभ्युपगमयोर्धर्मिग्राहकबाधाश्रयासिद्धी।किञ्च किमत्र कर्महेतुकजन्मादिरहित इति साध्यार्थः उताकर्महेतुकजन्मादिरहित इति अथवा सामान्येन जन्मादिमात्ररहित इति। न प्रथमः सिद्धसाधनात्। न द्वितीयः हेतोरप्रयोजकत्वात्। न हि कर्मनिवृत्तिरकर्महेतुकं जन्मापि निवर्तयति निषेधस्वरूपसमर्पकप्रमाणेन बाधश्च यथाग्नेरनौष्ण्यानुमाने। न तृतीयः दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् मुक्तस्यापि हि शरीरपरिग्रहोजक्षन्क्रीडन् रममाणः छां.उ.8।12।3 स एकधा भवति त्रिधा भवति छां.उ.7।26।2 इत्यादिश्रुतिसिद्धः। तर्हि मुक्तोऽपि पक्षीकृत इति चेत् तदा को दृष्टान्तः घटादिरिति चेत् न तत्र शरीरपरिग्रहाद्यभावस्य अचेतनत्वोपाधिकत्वात्। एतेन यो जन्मादिमान् स कर्मवश्य इति व्यतिरेकोऽपि भग्नः। यस्त्वीश्वरनियोगाविषयत्वादिति सोऽपि प्रथमेन तुल्यार्थः। पुण्यपापनिरूपकशास्त्रस्यैवेश्वराज्ञारूपत्वात्। यत्तु तत्कारणरहितत्वात् यो यत्कारणरहितः न स तद्वानिति तदप्यसत् उपादानकारणविवक्षया प्रयोगे त्वप्राकृताकर्मनिमित्तावतारोपादाननित्यविग्रहसद्भावोपपादनाद्धेत्वसिद्धेः। निमित्तविवक्षया प्रयोगे तु सङ्कल्पादिनिमित्तोपपादनात्। सामान्यविवक्षाऽपि तत एवोक्तोत्तरा। एवंसङ्कुचितज्ञानशून्यत्वात् इत्यादिष्वपि धर्मिग्राहकबाधादिकं भाव्यम्साध्यप्रयोजनरहितत्वात् इत्यत्र हेत्वसिद्धिश्च साधुपरित्राणलीलादिप्रयोजनस्योक्तत्वात्। तथापीदानीन्तनं सुखं प्राङ्नास्तीति तेनांशेनापूर्णत्वं प्रसज्यत इति चेत् न इदमपूर्णत्वम् इष्टविघाताभावात् इच्छाकाले च तत्सिद्धेः तदानीमपि यदीच्छेत्सिद्ध्येदिति योग्यतासद्भावात् उत्तरकालीनस्यापि तस्य प्रागपीश्वरेण सर्वज्ञेन स्वसुखतयाऽनुसन्धीयमानत्वात्। एवमतीतेऽपि भाव्यम्। भविष्यतोऽपि सुखत्वेन प्रकाशमानत्वे किमर्था तत्रेच्छा इति चेदुत्पत्त्यर्थेति ब्रूमः। तया किं प्रयोजनं इति चेत्सैव सा तर्हि पूर्वोत्तरकालयोर्नास्तीति तयोः कालयोरपूर्णत्वमिति चेत् न तत्कालीनतया तयैव सर्वदा ज्ञायमानया पूर्णत्वात् ननु कस्यचिदिष्यमाणत्वं तदलाभे दुःखादिति चेत् न तल्लाभस्य प्रयोजनत्वेनैव तदुपपत्तेः अशक्तस्य हि तदिच्छतस्तदसिद्धेर्दुःखं जायते शक्तस्य तु तदिच्छैव तत्सुखत्वं पुष्यतीति न सङ्कटं किञ्चिदिति। एतेन साध्यप्रयोजनरहितत्वे हेतौ मुक्तदृष्टान्तोऽपि साधनविकलःजक्षन्क्रीडन् छां.उ.8।12।3 इत्यादिश्रुतेः। ये तु परमसाम्यापन्नदृष्टान्तेन सर्वज्ञत्वादित्यादिहेतवः तेष्वपि साध्यविकलत्वादिदोषः समानः। प्रसङ्गाश्चानुमानवद्व्याप्त्याद्यभावेन दूषिता इति।तदेवं सिद्धं जन्मादिकमीश्वरस्य सत्यं तत्प्रतिपादकं च वचः प्रमाणमिति। यत्त्ववतारेषु दुःखशोकभयादिकं क्वचिदुच्यते तदस्यापहतपाप्मत्वादिबलात्तेन वञ्चयते लोकान् म.भा.5।68।15 इत्यादिवचनबलाच्चाभिनयमात्रं मन्तव्यमिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.11 4.12।।यतः ये यथेति। कांक्षन्त इति। ये यथैव (S K ययैव) बुद्ध्या मामाश्रयन्ते तान् प्रति तदेव स्वरूपमहं गृह्णन् ताननुगृह्णामि। एवमेव मदीयं मार्गं मन्मया अमन्मयाश्च सर्व एवानुवर्तन्ते। न हि ज्योतिष्टोमादिरन्यो मार्गः मदीयैव सा तथेच्छा। वक्ष्यते हि चातुर्वर्ण्य मया सृष्टमिति।अन्यस्तु आह लिङ्गर्थे लट् यथा अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णन्ति इत्यत्र (S omits इत्यत्र) गृह्णीयु इत्यर्थः एवमिहापि अनुवर्तन्ते (N omits अनुवर्तन्ते) अनुवर्तेरन् इति।मानुषे एव लोके भोगापवर्गलक्षणा सिद्धिः नान्यत्रेति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.11।।ये यथा इति वाक्यं न प्रकृतेन साक्षात् सङ्गतम् अतस्तत्सङ्गमयितुं मध्ये शङ्कान्तरं निराकरोति न चेति। मामुपासिता मद्भावमागता इत्युक्त्याऽन्यदेवतादिरूपेण मद्भजनमात्रेण त्रैविद्यानामपि मुक्तिर्भवतीति नाशङ्कनीयमित्यर्थः। विष्णुं सामान्यतः सर्वोत्तमं ज्ञात्वाऽन्यदेवताः पितृ़ंश्चेष्ट्वाऽन्ते विष्णौ समर्पणमन्यदेवतादिरूपेण भगवद्भजनम्। उपपत्तिं तूत्तरत्र वक्ष्यामीति भगवतोऽभिप्रायः। तत्किं त्रैविद्यानां त्वद्भजनं निरर्थकमेव इत्यत आह तथापीति। यद्यपि न मुक्तिं ददामि तथापि तदभिप्रेतं स्वर्गादिकं ददामीति शेषः। एवं तर्हि ज्ञानिभ्यो मुक्तिं त्रैविद्येभ्योऽल्पं फलं ददद्विषमो भगवान् स्यादित्याशङ्कानिरासार्थत्वेनोत्तरवाक्यं सङ्गमयन्नाह सर्वेषामिति। अनुरूपेण सेवानुसारेण सर्वेषां ज्ञानिनां त्रैविद्यानां चेति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी।तथैव भजामि इत्येतदन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे सेवयामीति।बहुलमेतन्निदर्शनम् इति वचनात्स्वार्थे णिच्।मम वर्त्म इत्यस्य सङ्गत्यप्रतीतेस्तामाह कथमिति। यः फलतारतम्यहेतुरयं ज्ञानिभ्यस्त्रैविद्यानां सेवायां विशेषः कथं किम्प्रकार इत्यर्थः। कथमनेनैतच्छङ्कापरिहारः इत्यतो व्याचष्टे अन्येति। न केवलं ज्ञानिनः किन्त्वन्यदेवता यजन्तोऽपि त्रैविद्या इति यावत्। किं तत्सर्वेषां त्वद्वर्त्मानुवर्तनं इत्यत आह सर्वेति। भोक्तृत्वाद्धविरादीनाम्। एतत् द्वयमेव भगवद्वर्त्मानुवर्तनम्। तथा व्यवहारे निमित्तत्वात्पञ्चमी। इदमुक्तं भवति। अहमेव सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रेरकश्च। तदेतज्ज्ञात्वा भागवता निष्कामा मामेव यजन्ते। त्रैविद्यास्त्वेतत्तत्त्वतोऽजानानाः कर्मणां सिद्धिं काङ्क्षन्तोऽन्यदेवता यजन्ते। एवं सेवाविशेषाद्युक्तं फलतारतम्यमिति। कुत इदं भगवतोऽभिप्रेतम् इत्यत आह येऽपीति। अनेन श्लोकद्वयमुपात्तम्। तत्र च स्पष्टमेषोऽर्थः प्रतीयते। नन्विन्द्रादिनामवद्भिर्मन्त्रैर्दत्तं हविरादिकं कथं भगवान् भुङ्क्ते भगवतः सर्वनामत्वेन मन्त्राणां तत्परत्वादिति भावेनाह य इति। ननु विश्वकर्मैवमुच्यत इत्यत आह भगवानेवेति। तत्र चेति सम्बन्धः। अनेन भगवतः सर्वयज्ञादिभोक्तृत्वे बाधकं परिहृतम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.11।।ननु ये ज्ञानतपसा पूता निष्कामास्ते त्वद्भावं गच्छन्ति ये त्वपूताः सकामास्ते न गच्छन्तीति फलदातुस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्यातामिति नेत्याह ये आर्ताः अर्थार्थिनो जिज्ञासवो ज्ञानिनश्च यथा येन प्रकारेण सकामतया निष्कामतया च मामीश्वरं सर्वफलदातारं प्रपद्यन्ते भजन्ति तांस्तथैव तदपेक्षितफलदानेनैव भजाम्यनुगृह्णाम्यहम्। न। यदुच्यते सर्वज्ञस्येश्वरस्य सर्वकार्यविपर्ययेण तत्रामुमुक्षूनार्तानर्थार्थिनश्चार्तिहरणेनार्थदानेन चानुगृह्णामि। जिज्ञासून्विविदिषन्ति यज्ञेन इत्यादिश्रुतिविहितनिष्कामकर्मानुष्ठातृ़न् ज्ञानदानेन ज्ञानिनश्च मुभुक्षून् मोक्षदानेन न त्वन्यकामायान्यद्ददामीत्यर्थः। ननु तथापि स्वभक्तानामेव फलं ददासि नत्वन्यदेवभक्तानामिति वैषम्यं स्थितमेवेति नेत्याह मम सर्वात्मनो वासुदेवस्य वर्त्म भजनमार्गं कर्मज्ञानलक्षणमनुवर्तन्ते। हे पार्थ सर्वशः सर्वप्रकारैरिन्द्रादीनप्यनुवर्तमाना मनुष्या इति कर्माधिकारेणइन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुः इत्यादिमन्त्रवर्णात्फलमत उपपत्तेः इति न्यायाच्च सर्वरूपेणापि फलदाता भगवानेक एवेत्यर्थः। तथाच वक्ष्यतियेऽप्यन्यदेवताभक्ता इत्यादि।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.11।।ननु त्वत्सङ्गता एवैके लीलायां सम्बन्धं प्राप्नुवन्ति एके मुक्तिं तत्र किं कारणं इत्याशङ्क्याहुः ये यथा मामिति। हे पार्थ ये मां यथा येन प्रकारेण यदिच्छया वा प्रपद्यन्ते प्रपन्ना भवन्ति अहं तांस्तथैव भजामि तत्फलरूपेण वशे भवामि। अत्रायमर्थः यौ तु साक्षान्मत्प्राप्त्यर्थं च भक्तिज्ञानमार्गावुक्तौ तत्र यस्योत्तमत्वज्ञानेन यत्र रुचिः स्यात्तस्य तददाने तन्मनोरथो न स्यात् दुःखं स्यात् तदा ममात्मत्वं भज्येताऽतस्तथा करोमि।ये इत्युक्त्या मर्यादामार्गीयज्ञानोपयोग्यजीवानामपि स्नेहभजने पुष्टिमर्यादायां मत्प्राप्तिरूपं फलं ददामीति व्यज्यते। पार्थेति सम्बोधनेन मूलतो भक्तेऽपि त्वय्येवं प्रश्नयोग्ये त्वत्प्रश्नानुसारेणोत्तरं प्रयच्छामीति त्वयैवानुभूयत इति ध्वन्यते। किञ्च ये मनुष्या मम वर्त्म मदुक्तमार्गं पुष्टिमार्गमनुवर्तन्ते मदुक्तप्रकारेण अनु पश्चाद्वर्तन्ते तान् सर्वप्रकारैरहं भजामि व्रजरीत्येति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.11।। ये यथा येन प्रकारेण येन प्रयोजनेन यत्फलार्थितया मां प्रपद्यन्ते तान् तथैव तत्फलदानेन भजामि अनुगृह्णामि अहम् इत्येतत्। तेषां मोक्षं प्रति अनर्थित्वात्। न हि एकस्य मुमुक्षुत्वं फलार्थित्वं च युगपत् संभवति। अतः ये फलार्थिनः तान् फलप्रदानेन ये यथोक्तकारिणस्तु अफलार्थिनः मुमुक्षवश्च तान् ज्ञानप्रदानेन ये ज्ञानिनः संन्यासिनः मुमुक्षवश्च तान् मोक्षप्रदानेन तथा आर्तान् आर्तिहरणेन इत्येवं यथा प्रपद्यन्ते ये तान् तथैव भजामि इत्यर्थः। न पुनः रागद्वेषनिमित्तं मोहनिमित्तं वा कञ्चित् भजामि। सर्वथापि सर्वावस्थस्य मम ईश्वरस्य वर्त्म मार्गम् अनुवर्तन्ते मनुष्याः यत्फलार्थितया यस्मिन् कर्मणि अधिकृताः ये प्रयतन्ते ते मनुष्या अत्र उच्यन्ते हे पार्थ सर्वशः सर्वप्रकारैः।।यदि तव ईश्वरस्य रागादिदोषाभावात् सर्वप्राणिषु अनुजिघृक्षायां तुल्यायां सर्वफलप्रदानसमर्थे च त्वयि सति वासुदेवःसर्वम् इति ज्ञानेनैव मुमुक्षवः सन्तः कस्मात् त्वामेव सर्वे न प्रतिपद्यन्ते इति शृणु तत्र कारणम्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.11।।ननु तर्हि त्वय्यपि वैषम्यं यस्मादेवमुपाश्रितानामेवात्मभावं ददासि नान्येषामिति तत्राह ये यथेति। ये यादृशा अधिकारिणः पुष्टिप्रवाहमर्यादामार्गीयाः येन येन प्रकारेण सकामतया निष्कामतया वा मां प्रपद्यन्ते आश्रयन्ते तानहं तथैव भजाम्यनुकरोमि।तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः इतिन्यायेनाङ्गीकरोमि कल्पतरुवत्। न तु सकामा ये मां विहायेन्द्रादीनेव यजन्ते तानहमुपेक्षे इति मन्तव्यं यतः सर्वशः सर्वप्रकारैर्देवान्तरभजनभेदैर्मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते। न तु मामेवाऽथापि। तत्तद्रूपेण ममैव सेव्यत्वश्रवणात् तथा तेषामविवेकतो भजनं न साधु वस्तुविमर्शे तन्ममैवायाति तदंशित्वात्। वक्ष्यते च येऽप्यन्यदेवताभक्ताः 9।3 इत्यादिना।


Chapter 4, Verse 11