Chapter 4, Verse 6

Text

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।

Transliteration

ajo ’pi sannavyayātmā bhūtānām īśhvaro ’pi san prakṛitiṁ svām adhiṣhṭhāya sambhavāmyātma-māyayā

Word Meanings

ajaḥ—unborn; api—although; san—being so; avyaya ātmā—Imperishable nature; bhūtānām—of (all) beings; īśhvaraḥ—the Lord; api—although; san—being; prakṛitim—nature; svām—of myself; adhiṣhṭhāya—situated; sambhavāmi—I manifest; ātma-māyayā—by my Yogmaya power


Translations

In English by Swami Adidevananda

Though I am birthless and of immutable nature, and the Lord of all beings, yet by employing My own Nature (Prakrti), I am born out of My own free will.

In English by Swami Gambirananda

Though I am birthless and undecaying by nature, and the Lord of beings, yet by subjugating My Prakriti, I take birth through My own Maya.

In English by Swami Sivananda

Though I am unborn and of imperishable nature, and though I am the Lord of all beings, yet, governing my own nature, I am born by my own Maya.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Though I am unborn and changeless Self, though I am the Lord of all beings, yet, presiding over My own nature, I take birth by My own trick of illusion.

In English by Shri Purohit Swami

There is no beginning to Me. Though I am imperishable and the Lord of all that exists, I manifest Myself by My own will and power.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.6।। मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.6।। यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.6 अजः unborn? अपि also? सन् being? अव्ययात्मा of imperishable nature? भूतानाम् of beings? ईश्वरः the Lord? अपि also? सन् being? प्रकृतिम् Nature? स्वाम् My own? अधिष्ठाय governing? संभवामि come into being? आत्ममायया by My own Maya.Commentary Man is bound by Karma. So he takes birth. He is under the clutches of Nature. He,is deluded by the three alities of Nature whereas the Lord has Maya under His perfect control. He rules over Nature? and so He is not under the thraldom of the alities o Nature. He appears to be born and embodied through His own Maya or illusory power? but is not so in reality. His embodiment is ? as a matter of fact? apparent? It cannot affect in the least His true divine nature. (Cf.IX.8).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.6।। व्याख्या--[यह छठा श्लोक है और इसमें छः बातोंका ही वर्णन हुआ है। अज, अव्यय और ईश्वर--ये तीन बातें भगवान्की हैं, (टिप्पणी प0 217) प्रकृति और योगमाया--ये दो बातें भगवान्की शक्तिकी हैं और एक बात भगवान्के प्रकट होनेकी है।] 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.6।। परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह को धारण करके जगत् में उस काल की मोहित पीढी का मार्गदर्शन करने आते हैं। अज्ञानी के समान देहादि के बन्धन में रहना उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक की भूमिका के समान है। र्मत्य जीव अविद्या का शिकार बनता है जबकि ईश्वर स्वमाया के स्वामी बने रहते हैं। कार का चालक कार से बंधा रहता है और उसका स्वामी स्वतन्त्र। वाहन का स्वामी अपने प्रयोजन के लिये वाहन का उपयोग करता है और गन्तव्य स्थान पर पहुँचने पर उसे छोड़कर अपने कार्य में व्यस्त हो जाता है। परन्तु बेचारा चालक चोर आदि लोगों से उसको सुरक्षित रखने के लिये एक सेवक के समान उस कार से बंधा रहता है। सृष्टि की रक्षा के खेल में भगवान् इन उपाधियों तथा तज्जनित परिच्छिन्नताओं को साधन रूप में स्वीकारते हैं किन्तु स्वयं उनके दास अथवा शिकार नहीं बन जाते।इस प्रकार स्वस्वरूप में अज और अविनाशी तथा प्राणिमात्र के ईश्वर होते हुये भी भगवान् अपनी माया को पूर्णत अपने वश में रखकर स्वेच्छा से जन्म लेते हैं जीव के समान पूर्व कर्मों के अवश्यंभावी फलों को भोगने के लिये नहीं। उन्हें न स्वस्वरूप का विस्मरण है और न माया का बन्धन है।आप अपने सेवक से स्कूटर में पेट्रोल भरवाकर लाने के लिये कहकर फिर उसे काम करते देखिये तो इस श्लोक में कथित अर्थ को आप समझ सकते हैं। स्कूटर के विषय में अनजान उस बेचारे के लिये वह भारी मशीन एक बोझ और दुख का कारण ही बन जाती है। स्कूटर के भार के कारण उसे खींचकर ले जाना कठिन होता है। इसके विपरीत यदि आप स्कूटर पर बैठकर उसे चला रहे हों अथवा उसे धक्का भी देना पड़े तो भी आप उसे सहर्ष और सरलता से ले जा सकते हैं। स्कूटर तो वही है परन्तु आपके हाथों में वह आपका दास है और अनुचर को तो वह स्वयं इधरउधर खींचकर ले जाने वाला भार है।इसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य अपनी उपाधियों के कार्यों के विषय में कुछ नहीं जानता और इसलिये उनकी दास बना रहता है। ईश्वर के लिये जगत् कोई समस्या नहीं क्योंकि वे प्रकृति को सर्वथा अपने वश में रखते हैं। ईश्वर के पूर्ण स्वातन्त्र्य को इन दो पंक्तियों में अत्यन्त सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है।ईश्वर का यह जन्म कब और किसलिये होता है इस पर कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.6।।ईश्वरस्य कारणाभावाज्जन्मैवायुक्तमतीतानेकजन्मवत्त्वं तु दूरोत्सारितमिति शङ्कते कथमिति। वस्तुतो जन्माभावे़ऽपि मायावशाज्जन्म संभवतीत्युत्तरमाह उच्यत इति। पारमार्थिकजन्मायोगे कारणं पूर्वार्धेनानूद्य प्रातिभासिकजन्मसंभवे कारणमाह प्रकृतिमिति। प्रकृतिशब्दस्य स्वरूपविषयत्वं प्रत्यादेष्टुमात्ममाययेत्युक्तम्। वस्तुतो जन्माभावे कारणानुवादभागं विवृणोति अजोऽपीत्यादिना। प्रातिभासिकजन्मसंभवे कारणकथनपरमुत्तरार्धं विभजते प्रकृतिमित्यादिना। प्रकृतिशब्दस्य स्वरूपशब्दपर्यायत्वं वारयति मायामिति। तस्याः स्वातन्त्र्यं निराकृत्य भगवदधीनत्वमाह ममेति। तस्याश्चाधिकरणद्वारेणावच्छिन्नत्वं सूचयति वैष्णवीमिति। मायाशब्दस्यापि प्रज्ञानामसु पाठाद्विज्ञानशक्तिविषयत्वमाशङ्क्याह त्रिगुणात्मिकामिति। तस्याः कार्यलिङ्गकमनुमानं सूचयति यस्या इति। जगतो मायावशवर्तित्वमेव स्फुटयति ययेति। यथा लोके कश्चिज्जातो देहवानालक्ष्यते एवमहमपि मायामाश्रित्य स्ववशया संभवामि जन्मव्यवहारमनुभवामि तेन मायामयमीश्वरस्य जन्मेत्याह तां प्रकृतिमित्यादिना। संभवामीत्युक्तमेव विभजते देहवानिति। अस्मदादेरिव तवापि परमार्थत्वाभिमानो जन्मादिविषये स्यादित्याशङ्क्य प्रागुक्तस्वरूपपरिज्ञानवत्त्वादीश्वरस्य मैवमित्याह न परमार्थत इति। आवृतज्ञानवतो लोकस्य जन्मादिविषये परमार्थत्वाभिमानः संभवतीत्याह लोकवदिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.6।। ईश्वरस्य तव धर्माधर्माद्यभावाज्जन्मैवायुक्तम्। व्यतीतानेकजन्म वत्त्वं तु दूरनिरस्तमित्याशङ्क्य वस्तुतो जन्माभावेऽपि स्वमायया जन्म संभवतीत्याह अजोऽपीति। अजो जन्मरहितोऽपि सन्नव्ययात्माऽक्षीणज्ञानशक्तिस्वभावोऽपि सन् कदापि मम विच्छेदाभावात् था भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामीश्वर ईशनशीलोऽपि सन् प्रकृतिं मम वैष्णवीं त्रिगुणात्मिकां मायां यस्या वशे सर्वं जगद्वर्तते यया मोहितः सन् स्वमात्मानं वासुदेवं न जानाति तामधिष्ठाय वशीकृत्य संभवामि देहवानिव जात इव। आत्मनः स्वस्य मायया मन्माययैव मयि विग्रहवत्त्वादिप्रतीतिः साधकानुग्रहार्थं न परमार्थं इति भावः। तदुक्तं मोक्षधर्मेएतत्त्वया न विज्ञेयं रुपवानिति दृश्यते। इच्छन्मुहूर्तान्नश्येयमीशोऽहं जगतो गुरुः।। नश्येयमदृश्यो भवेयमित्यर्थः।माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नतु मां द्रष्टुमर्हसि।। इति। सर्वभूतगुणैर्युक्तं कारणोपाधिकमित्यर्थः। अत्र केचित्नित्यो यः कारणोपाधिर्मायाख्योऽनेकशक्तिमान्। सएव भगवद्देह इति भाष्यकृतां मतम् इत्याचार्यानुसारिव्याख्यानानन्तरं तस्मतं संग्रहेणोक्त्वा मतान्तरं प्रदर्शयन्ति। अन्येतु परमेश्वरे देहदेहिभावं न मन्यन्ते। किंतु यश्च नित्यो विभुः सच्चिदानन्दघनो भगवान्वासुदेवः परिपूर्णो निर्गुणः परमात्मा जन्मविनाशरहितः सर्वभासकः सर्वकारणत्वेन सर्वभूतेश्वरोऽपि सन् अहं प्रकृतिं स्वभावं सच्चिदानन्दघनैकरसम्। मायां व्यावर्तयति स्वामिति। निजरुपामित्यर्थः।स भगवः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति स्वे महिन्मीति इति श्रुतेः स्वस्वरुपमधिष्ठाय स्वरुपावस्थित एव सन् संभवामि देहदेहिभावमन्तरेणैव देहिवद्य्ववहरामि। कथं तर्ह्यदेहे सच्चिदानन्दघने देहित्वप्रतीतिरत आह आत्ममाययेति। निर्गुणे शुद्धे सच्चिदानन्दरसघने मयि भगवति वासुदेवे देहदेहिभावशून्ये तद्रूपेण प्रतीतर्मायामात्रमित्यर्थः। तदुक्तंकृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्।जगद्विताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया।। इति।अहोभाग्यमहोभाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्। यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् इतिचेति। तत्रेदमवधेयम् परमेश्वरे देहदेहिभावो नास्तीत्युक्तिर्मायया देहदेहिभावो न वस्तुत इत्यङ्गीकुर्वतां भाष्यकृतां मतेन प्रतिकूला। यत्तु नित्य इत्यादि तत्र यो निर्गुणःअथात आदेशो नेतिनेतिनेदं यदिदमुपासतेएकमेवाद्वितीयंसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मविज्ञानमानन्दं ब्रह्मअस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घंयत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमायो वै भूमा तत्सुखंयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सहतदेतदपूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूःनिष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्अपाणिपादम् इत्यादिश्रुतितात्पर्यसिद्धः परमात्मा सएव तद्विग्रहः। स च विग्रहः किं साकार उत निराकारः। आद्ये निर्गुणस्य परिणाम उत विवर्तः। नाद्यः। निर्विकारस्य विकाररुपपरिणामायोगात्। अन्यथा तस्यानित्यत्वं स्यात्। द्वितीये मायाया विवर्तसाधिकाया आवश्यकत्वेन न मायिक इत्युक्तिरनुपपन्ना। न द्वितीयः। सर्वाकारशून्यः पुनश्च विशेषाकारेण गृह्यत इति विग्रह इति वदतो व्याघातात्। किंच स विग्रहः किं हस्तपादादिमान् उत तद्रहितः। आद्ये हस्तादयोऽपि किं दृश्या उतादृश्याः। आद्ये विग्रहस्य भूतकार्यत्वाभावान्मायिकत्वमवश्यमभ्युपेयम्। न द्वितीयाः। भक्तानां तद्दर्शनाद्यनापत्तेः। नन्वदृश्या अपि मायया दृश्या इति चेत्तर्हि किं परमाण्वादिवददृश्या उत ब्रह्मरुपेण। आद्ये योगिनामक्षगोचराः स्युः। द्वितीये हस्तादयोऽवयवास्तद्वान्विग्रह इति कृतमुक्तिमात्रेण स्वशिष्यबन्धनेन। न द्वतीयः। तद्रहितो विग्रहश्चेति व्याघातात्। एतेन एतत्पक्षानुसारेण क्लिष्टकल्पनया श्लोकयोजनापि प्रत्युक्ता। उदाहृतवचनद्वयमपि भाष्यकृतामतएव सभ्यगुपपद्यते। तस्मात्सच्चिदानन्दस्वरुपः मायावच्छिन्नःयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्तियतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे। यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षयेजन्माद्यस्य यतः इत्यादिश्रुतिस्मृतिन्यायैर्जगत्कारणत्वेन प्रतिपादितः शुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः अशरीरी परमात्मा सर्वेश्वरो मायानियन्ता साधकानुग्रहार्थं स्वमायया लीलाविग्रहं गृहीत्वा जात इव विग्रहवानिव भातीति श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणाद्यनुग्रहीतं सर्वज्ञानां भाष्यकृतां मतं शरणीकरणीयमिति दिक्। अन्येतु न कर्मफलं भगवतः शरीरभतएव न भौतिकम्। तस्माद्युक्तमजोऽपि सन्निति। ननु तर्हि भगवच्छरीरस्य किमुपादानम्। अविद्येतिचेन्न। परमेश्वरे तदभावात्। जीवाविद्येति चेन्न। शुक्तिरजतादिवत्तुच्छत्वापत्तेः। चिन्मात्रं चेन्न। चितः साकारत्वायोगात्। तथात्वे वा तस्यातीन्द्रियत्वापत्तिः। तस्मात्किमालम्बोऽयं भगवद्देहो देवकीगर्भप्रवेशजननबाल्यकौमारपौगण्डयौवनादिप्रतीतिविषय इतिचेत् श्रुणु। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममाययेति। अयमर्थः जीवात्मनो हि अनात्मभूतां प्रकृतिं तेजोबन्नात्मिकां पञ्चभूतात्मिकां वाऽधिष्ठाय संभवन्ति जन्मादींल्लभन्ते। अहं तु स्वां प्रत्यगनन्यां प्रकृतिं प्रत्यक्चैतन्यमित्यर्थः। तदेवाधिष्ठाय नतूपादानान्तरम्। आत्ममायया स्वीयमायया संभवामि। यथा कश्चिन्मायावी स्वयं स्वस्थानादप्रच्युतस्वभावोऽप्यदृश्यो भूत्वा स्थूलसूक्ष्मभूतान्युपादायैव केवलया मायया द्वितीयं मायाविनं स्वसदृशमेव सूत्रमार्गेण गगनमारोहन्तं सृजति एवमहं कूटस्थचिन्मात्रोऽग्राह्यः स्वमायया चिन्मयमात्मनः शरीरं सृजामि तस्य बालाद्यवस्थाश्च सूत्रारोहणवद्दर्शयाभीति। एतावांस्तु विशेषः लौकिकमायावी मायामुपसंहरन् द्वितीयं मायाविनमप्युपसंहरति अहं तु तामनुपसंहरन्त्स्वविग्रहमपि नोपसंहरामीति। एंवहि सति हिरण्यमश्रुत्वादिलक्षणविग्रहयोगिनश्चेतनस्यअन्तस्तद्धर्मोपदेशात् इत्यादिन्यायसिद्धं वियदाद्युपादानलक्षणं सर्वेश्वरत्वं युज्यते नान्यथेति। तस्मात्सिद्धं परमेश्वरस्य मायामयं शरीरं नित्यमिति। एकेनैव हिरण्यश्मश्रुत्वादिलक्षणेन देहेन विवस्वन्तमुपदिश्य त्वामुदिशामीत्यादिवर्णयन्ति। अत्रेदं वक्तव्यम् नियम्यदेहातिरिक्तनियामकदेहाभावादेकेनैवत्यादि नोपपद्यते। किंच हिरण्यश्मश्रुत्वादिविशिष्ट आदित्यान्तर्यामिदेह एव यदि कृष्णादिदेहः स्यात्तर्हि तथैव प्रतीयेत नतु मेघश्यामत्वादिलक्षणः। ननु मायया तथेति चेद्वरं परमेश्वरस्याशरीरस्यैव साधकानुग्रहायादित्यान्तर्यामिरुपेण कृष्णादिदेहात्मना च भाययावस्थानवर्णनम् कृष्णादिविग्रहाणां परंपरया मायिकत्वकल्पनाया भाष्यविरुद्धाया हिरण्यश्मश्रुत्वादिविशिष्टस्यापि सविशेषत्वेन मायिकत्वात्। यदपि यथा कश्चिदित्यादि तदपि न। भगवता वासुदेवेनैवादौ चतुर्भुजं विग्रहं प्रदर्श्य पुनर्द्विभुजं रुपं प्रदर्शितम्। तदपि तिरोधाय पुनस्तदपि प्रकटितमिति प्रसिद्धेः। अन्यथा परमेश्वरदेहानां मोहिन्यादिरुपाणामनन्तानां युगपत्प्रतीत्यापत्तेः। तस्मादीश्वरो भक्तार्थं तत्तद्विग्रहमाविर्भावयति तिरोभावयति चेत्यवश्यमभ्युपेयम्। एतेनाहमित्याद्यपि प्रत्युक्तम्। अजोऽपीत्यादिविशेषणैर्भाष्योष्योक्तव्याख्यानेन च जीवाद्वैलक्षण्यस्य सम्यक्प्रतीतेः। क्लिष्टाप्रसिद्धकल्पनाया भाष्यविरुद्धाया अनौचित्यात्। अतएवेश्वरदेहाभिप्रायेणैवायमर्जुनस्य प्रश्न इति पूर्वोक्तं प्रत्युक्तम्। परमात्मनो वास्तवदेहस्याभावात्। तस्मात्त्वमपि कश्चिदसर्वज्ञोऽनीश्वरो जीवएव तस्य तवादित्यं प्रत्युपदेष्टृत्वं विरुद्धमिति मूर्खाणामभिप्रायेणार्जुनस्य शङ्काऽहं जीववद्धर्माधर्मादिपारतन्त्र्याभावादजोऽव्ययात्मा भूतानामीश्वर एतादृशोऽपि सन् प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय स्वमायया संभवामीत्यनेन योऽहमीश्वरः सर्वज्ञः सर्गादावुपदेशाय योग्यं विग्रहमुपादाय सूर्यं प्रति योगमुक्तवान् सएवाहमिदानीमुक्तवानित्युक्तरमित्यलं विस्तरेण।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.6।।न तर्ह्यनादिर्भवानित्यत आह अजोऽपीति। अव्यय आत्मा देहोऽपीत्यव्ययात्मा।अनन्तं विश्वतोमुखम् 11।11 इति रूपविशेषणमुत्तरत्रएतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् भागं.1।3।5 इति चजगृहे भाग.1।3।1 इति तु व्यक्तिः। युक्तयस्तूक्ताः मा.भा.2।24पृ139 आत्माऽनादित्वं तु सर्वसमम्। कथमनादिनित्यस्य जनिः प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय प्रकृत्या जातेषु वसुदेवादिषु तथैव तेषां जात इव प्रतीये इत्यर्थः। न तु स्वतन्त्रामधिष्ठायेत्याह स्वामिति।द्रव्यं कर्म च भाग.2।10।142 इति ह्युक्तम्। सा हि तत्रोक्ता। ततः सर्वसृष्टेः। आत्ममायया आत्मज्ञानेन प्रकृतेः पृथगभिधानात्।केतुः केतश्चितिश्चित्तं मतिः क्रतुर्मनीषा माया इति ह्यभिधानम्। सृष्टिकारणया तेषां शरीरादि सृष्ट्वा विमोहिकया। अजात एव जात इव प्रतीये वा। उक्तं च महदादेश्च माता या श्रीर्भूमिरिति कल्पिता। विमोहिका च दुर्गाख्या ताभिर्विष्णुरजोऽपि हि। जातवत्प्रथते ह्यात्मचिद्बलान्मूढचेतसाम् इति। ईश्वर ईशेभ्योऽपि वरः। तच्चोक्तम् ईशेभ्यो ब्रह्मरुद्रश्रीशेषादिभ्यो यतो भवान्। वरोऽत ईश्वराख्या ते मुख्या नान्यस्य कस्यचित् इति ब्रह्मवैवर्ते।समर्थ ईश इत्युक्तस्तद्वरत्वात्त्वमीश्वरः इति च।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.6।।किं तर्हि योगिनां सर्वज्ञत्वप्रसिद्धेस्त्वं जातिस्मरो जीवोऽसीत्याशङ्क्याह अज इति। देहान्निष्कृष्टस्याजत्वाव्ययत्वेनत्वेवाहं जातु नासं इत्यत्र साधिते इह तु देहविशिष्टस्यैव ते उच्येते। ईश्वरोऽपीत्यनेन देहान्निष्कृष्टस्यास्मदादेरपीश्वरत्वंतत्त्वमसिअहं ब्रह्मास्मि इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धमतो देहविशिष्टस्यैवाजत्वनित्यत्वे दृढीक्रियेतेऽन्यथानीश्वरत्वप्रसङ्गात्। नह्यादित्यान्तर्यामिणः परमेश्वरस्य हिरण्यश्मश्रुत्वादिविशिष्टो देहो जन्मव्ययवानिति वक्तुं शक्यम्। अकर्मजत्वात्। कर्मफलस्य हि परा काष्ठा हैरण्यगर्भशरीरप्राप्तिः। न चपुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत अत्यतिष्ठेयं सर्वाणि भूतानि अहमेवेदं सर्वं स्यामिति स एतं पुरुषमेधं पञ्चरात्रं यज्ञक्रतुमपश्यत् इत्यादिना शतपथे नारायणाख्यस्य परमात्मनःसहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् इतिपादोऽस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि इति च पुरुषसूक्तप्रतिपाद्यस्य सर्वाणि भूतान्यतिक्रम्य स्थितस्येश्रस्यापि शरीरं पञ्चरात्राख्यकर्मविशेषफलमिति श्रूयत इति वाच्यम्। तत्र नारायणशब्देन हिरण्यगर्भस्यैव विवक्षितत्वात्। नहि परमेश्वरस्य पूर्णकामस्य सर्वानतिक्रम्य स्थितस्य पुनरत्यतिष्ठेयं सर्वाणि भूतानीति कामना भवति। ननु परमेश्वरेऽपि कामना दृष्टासोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति इतिचेच्छ्लाघनीयप्रज्ञो देवानांप्रियः यतआप्तकामस्य का स्पृहा इति श्रुतेःलोकवत्तु लीलाकैवल्यम् इति न्यायाच्च निस्पृहस्य लीलयैव ब्रह्माण्डकोटीः सृजतो भगवतो राजगोपालस्य कर्मकिंकरेण कर्मणा सार्वात्म्यं प्रार्थयता साम्यमापादयति। तस्मान्न कर्मफलं भगवतः शरीरम्। अतएव न भौतिकम्। विराट्सूत्रात्मातिरिक्तस्य भौतिकस्याभावात्। तस्माद्युक्तमजोऽपि सन्निति। ननु तर्हि भगवच्छरीरस्य किमुपादानम्। अविद्येतिचेन्न। परमेश्वरे तदभावात्। जीवाविद्याचेन्न। शुक्तिरजतादेरिव तुच्छत्वापत्तेः। चिन्मात्रं चेन्न। चितः साकारत्वायोगात्। तथात्वे वा तस्यातीन्द्रियत्वापत्तिः। तस्मात्किमालम्बो भगवद्देहो देवकीगर्भप्रववेशजननबाल्यकौमारपौगण्डयौवनादिप्रतीतिविषय इति चेच्छृणु। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममाययेति। अयमर्थः जीवात्मनो ह्यनात्मभूतां प्रकृतिं तेजोबन्नात्मिकां पञ्चभूतात्मिकां वाधिष्ठायसंभवन्ति जन्मादींल्लभन्ते अहं तु स्वां प्रत्यगनन्यां प्रकृतिं प्रत्यक्चैतन्यमेवेत्यर्थः। तदेवाधिष्ठाय नतूपादानान्तरम्। आत्ममायया स्वीयमायया संभवामि। यथा कश्चिन्मायावी स्वयं स्वस्थानादप्रच्युतस्वभावोऽप्यदृश्यो भूत्वा स्थूलसूक्ष्मभूतान्यनुपादायैव केवलया मायया द्वितीयं मायाविनं स्वसदृशमेव सूत्रमार्गेण गगनमारोहन्तं सृजति एवमहं कूटस्थचिन्मात्रोऽग्राह्यः स्वमायया चिन्मयमात्मनः शरीरं सृजामि तस्य बाल्याद्यवस्थाश्च सूत्रारोहणवद्दर्शयामि। एतावांस्तु विशेषः लौकिकमायावी मायामुपसंहरन् द्वितीयं मायाविनमप्युपसंहरति अहं तु तामनुपसंहरन् स्वविग्रहमपि नोपसंहरामीति। एवं हि सति हिरण्यश्मश्रुत्वादिलक्षणविग्रहयोगिनश्चैतन्यस्यअन्तस्तद्धर्मोपदेशात् इत्यादिन्यायसिद्धं वियदाद्युपादानत्वलक्षणं सर्वेश्वरत्वं युज्यते नान्यथेति। तस्मात्सिद्धं परमेश्वरस्य मायामयं शरीरं नित्यमिति एकेनैव देहेन विवस्वन्तमुपदिश्य त्वामप्युपदिशामीति। अन्यत्रापिनित्यैव सा जगन्मूर्तिः इति सावधारणं प्रतिज्ञायतेदेवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा। उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते इति। नित्याया अप्याविर्भावापेक्षया सूर्यस्येव बाल्यादिकमुत्पत्त्याद्युपगम्यते। भाष्ये तु स्वां प्रकृतिं वैष्णवीं त्रिगुणात्मिकां मायामधिष्ठाय वशीकृत्य आत्ममायया संभवामि देहवान् जात इवात्मनो मायया न परमार्थतो लोकवदिति व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.6।।अजत्वाव्ययत्वसर्वेश्वरत्वादिसर्वं पारमेश्वरं प्रकारम् अजहद् एव स्वां प्रकृतिम् अधिष्ठाय आत्ममायया संभवामि प्रकृतिः स्वभावः स्वम् एव स्वभावम् अधिष्ठाय स्वेन एव रूपेण स्वेच्छया संभवामि इत्यर्थः।स्वरूपं तु आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। (यजुर्वे0 31।18)क्षयन्तमस्य रजसः पराके। (साम0 17।1।4।2)य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषः (छा0 उ0 1।6।6) तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयोऽमृतो हिरण्मयः। (तै0 उ0 1।6।1)सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि। (यजुर्वे0 32।2)भारूपः सत्यसंकल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः। (छा0 उ0 3।14।2)माहारजनं वासः (बृ0 उ0 2।3।6) इत्यादिश्रुतिसिद्धम्।आत्ममायया आत्मीयया मायया।माया वयुनं ज्ञानम् (वे0 नि0 ध0 व0 22) इति ज्ञानपर्यायः अत्र मायाशब्दः। तथा च अभियुक्तप्रयोगः मायया सततं वेत्ति प्राणिनां च शुभाशुभम् इति। आत्मीयेन ज्ञानेन आत्मसंकल्पेन इत्यर्थः।अतः अपहतपाप्मत्वादिसमस्तकल्याणगुणात्मकत्वं सर्वम् ऐश्वरं स्वभावम् अजहद् एव स्वम् एव रूपं देवमनुष्यादिसजातीयस्थानं कुर्वन् आत्मसंकल्पेन देवादिरूपः संभवामि।तद् इदम् आह अजायमानो बहुधा विजायते (यजुर्वेद 31।19) इति श्रुतिः। इतरपुरुषसाधारणं जन्म अकुर्वन् देवादिरूपेण स्वसंकल्पेन उक्तप्रक्रियया जायत इत्यर्थः।बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि (गीता 4।5)तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (गीता 4।7)जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। (गीता 4।9) इति पूर्वापराविरोधाच्च।जन्मकालम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.6।। नन्वनादेस्तव कुतो जन्म अविनाशिनश्च कथं पुनर्जन्म येन बहूनि मे व्यतीतानीत्युच्यते ईश्व रस्य तव पुण्यपापविहीनस्य कथं जीववज्जन्मेत्यत आह अजोऽपीति। सत्यमेवं तथाप्यजोऽपि सन्नहं तथाव्ययात्माप्यनश्व रस्वभावोऽपि सन् तथा ईश्व रोऽपि कर्मपारतन्त्र्यरहितोऽपि सन्स्वमायया संभवामि सम्यगप्रच्युतज्ञानबलवीर्यादिशक्त्यैव भवामि। ननु तथापि षोडशकलात्मकलिङ्गदेहशून्यस्य तव कुतो जन्मेत्यत उक्तम्। स्वां शुद्धसत्त्वात्मिकां प्रकृतिमधिष्ठायं स्वीकृत्य विशुद्धोर्जितसत्त्व मूर्त्या स्वेच्छयावतरामीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.6।।अथ प्रकारादिप्रश्नत्रयोत्तरमनन्तरश्लोक इत्याह अवतारेति। अजाव्ययशब्दाभ्यां प्रकृतिपुरुषयोरिव स्वरूपतो धर्मतश्च विकारा न सन्तीत्युच्यते अजाव्ययशब्दौ कर्मकृतजन्ममरणनिवृत्तिपरौ वा तेन हेयप्रत्यनीकत्वमुक्तं भवति।भूतानामीश्वरोऽपि इति कल्याणगुणाकरत्वाप्रच्युतिरुपलक्ष्यते। यद्वा अजशब्देन स्वरूपतः शरीरद्वारा च जन्मयुक्ताचित्क्षेत्रज्ञाभ्यां व्यावर्तनम्।अव्ययात्मा इत्यात्मशब्दस्य स्वभावपरतया नञोत्ऽयन्ताभावपरतया च कदाचिज्ज्ञानसङ्कोचादिमतो मुक्ताद्व्यावृत्तिः।ईश्वरशब्देन नित्यासङ्कुचितज्ञानेभ्यो नित्यमुक्तेभ्यो व्यवच्छेदः।अव्ययात्मा इत्यत्रापि पूर्वोत्तरवत्अपि सन् इत्यनुषञ्जनीयम्। अत्र च पूर्वार्धेन तृतीयचतुर्थपादाभ्यां च प्रश्नत्रयस्य क्रमात्परिहारः। आदिशब्देनेश्वरत्वोपलक्षितसर्वज्ञत्वसत्यसङ्कल्पत्वावाप्तसमस्तकामत्वादीनि गृह्यन्ते।सर्वमिति न कस्यचिदपि स्वभावलेशस्य हानिरिति भावः। परमेश्वरसम्बन्धि पारमेश्वरं परमेश्वरत्वप्रयुक्तमित्यर्थः।अपि सत् इत्यस्य वर्तमाननिर्देशस्य तात्पर्यमाह अजहदेवेति। एतेन तत्तदवतारेषु तासु तास्ववस्थासु च पारमेश्वरस्वभावस्य सत एव स्वेच्छाया तिरोधानमात्रमिति सूचितम् तथा चाहुःगुणैः षड्भिस्त्वेतैः प्रथमतरमूर्तिस्तव बभौ ततस्तिस्रस्तेषां त्रियुगयुगलैर्हि त्रिभिरभुः। व्यवस्था या चैषा ननु वरद साऽऽविष्कृतिवशात् भवान् सर्वत्रैव त्वगणितमहामङ्गलगुणः।।वरदराजस्तवे16 इति। अवतारेषु हि परमेश्वरत्वं व्यपदिश्यते।ईशन्नपि महायोगी म.भा.5।68।14कृष्ण एव हि लोकानां म.भा.2।38।23व्यक्तमेष महायोगी परमात्मा वा.रा.6।1।11 इत्यादिभिः। नात्र प्रकृतिशब्देनप्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि 9।8 इत्यादिष्विव त्रिगुणा प्रकृतिरुच्यते अवतारेष्वपि तद्विग्रहस्य त्रिगुणोपादानत्वाभावात्। यथोक्तंन भूतसङ्घसंस्थानो देहोऽस्य परमात्मनः म.भा.न तस्य प्राकृता मूर्तिर्मांसमेदोस्थिसम्भवा वा.पु.पू.34।40व.पु.14।41। इति। अतोऽत्रावतारोपयुक्तान्या प्रकृतिरुच्यत इत्यभिप्रायेणाह प्रकृतिः स्वभाव इति।प्रकृतिः पञ्चभूतेषु स्वभावे मूलकारणे इति नैघण्टुकाः। विग्रहस्यापिनित्यालिङ्गा स्वभावसंसिद्धिः र.ब्रा. इत्येकायनश्रुत्यनुसारेण निरुपाधिकस्वासाधारणविशेषणत्वात् स्वभावशब्देनोपादानम्। गोबलीवर्दन्यायाच्चात्र विग्रहाख्यस्वभावविशेषपरता स्वभावपर्यायप्रकृतिशब्देनापृथक्सिद्धिलाभेऽपिस्वां इति निर्देशो जीवसाधारणत्रिगुणप्रकृतिव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणोक्तं स्वमेवेति।अन्तरधिकरणभाष्येऽप्येतद्व्याख्यातंस्वमेव स्वभावमास्थाय न संसारिणां स्वभावमित्यर्थः इति। प्रकृतिशब्दस्यात्र विग्रहपरत्वंअधिष्ठाय इत्यनेनसूचितं स्वातन्त्र्यं च दर्शयति स्वेनैव रूपेणेति। यद्वास्वमेव स्वभावं इत्याद्येकवाक्यं सङ्कलितार्थपरम् तदधिष्ठायेत्येतदन्तं पूर्वार्धस्यार्थःस्वेनैव रूपेण इति तु तृतीयपादस्यस्वेच्छया इति चतुर्थपादस्य। अस्यां योजनायां प्रकृतिशब्दोऽवतारोपादान भूतदिव्यविग्रहमेवाह।अवतारविग्रहोपादानभूतप्रकृतेर्बहुश्रुतिसिद्धतामाह स्वस्वरूपमिति।स्वरूपं ब्रह्मणोऽपरम् इति प्रयोगात् स्वरूपशब्दोऽत्र विग्रहपरः। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् इत्यनेनाप्राकृतत्वं स्वासाधारणनिरतिशयदीप्तियुक्तत्वं च सिद्धम्। तत्प्रकरणे च देशविशेषवर्तित्वनित्यसूरिसेव्यत्वलक्ष्मीपतित्वादिकमपि भाव्यम्।क्षयन्तम् इत्यत्र रजश्शब्दो मूलप्रकृतिविषयः न तु लोकविषयःतमसः परस्तात् इत्यनेन तुल्यार्थत्वात्। रजोगुणकत्वाच्च रजश्शब्देनोपादानम्। व्याप्तस्य देशविशेषेक्षयन्तम् इति निवासवचनाद्विग्रहवत्त्वं सिद्धम्। एवं परमपदनिलयनित्यविग्रहसद्भावः श्रुतिद्वयेन दर्शितः। तस्यैव विग्रहस्यावतारदशां दर्शयति य एष इति।आदित्यवर्णंहिरण्मयः इति च एक एव वर्णः प्रतियोगिभेदाधीनप्रातिकूल्यानुकूल्याभ्यां मुखभेदेन निर्दिश्यते। यथाहुर्द्रमिडाचार्याःहिरण्मय इति रूपसामान्याच्चन्द्रमुखवत् इति। यद्वा हिरण्यविकारत्वव्यवच्छेदार्थं द्रमिडभाष्यम्। तत्रमयूरकण्ठच्छविशुद्धहेम इति शिल्पशास्त्रानुसाराच्छ्यामत्वसिद्धिः। अथवा स्वेच्छया तत्र तत्र रूपभेदेऽपि न दोषः युगादिभेदे पर्यायतः सितरक्तादिविकल्पितवासुदेवादिव्यूहरूपभेदवत्। तस्यैव हृदयान्तर्वर्तित्वे श्रुतिमुदाहरति तस्मिन्निति।मनोमय इति विशुद्धेन मनसा प्रचुरः ग्राह्य इत्यर्थः। आभ्यां श्रुतिभ्यामुपासनस्थानविशेषस्थितिर्दर्शिता। कारणवाक्येऽपि तस्य सद्भावं दर्शयति सर्व इति।विद्युत इतिपदं विद्युद्वर्णादित्यन्यत्र व्याख्यातम्। शान्त उपासीत छां.उ.3।14।1 इति पूर्वोक्तमुपासनंस क्रतुं कुर्वीत इत्यनूद्य तच्छेषतया विधीयमानेषु पारमार्थिकेषु गुणेषु विग्रहस्य सहपाठं दर्शयति भारूप इति। भास्वररूप इत्यर्थः। माहारजनं वासः इत्येषा श्रुतिः शारीरके व्याख्याता तस्य ह वा एतस्य पुरुषस्य रूपं यथा माहाराजनं वासः बृ.उ.2।3।6 इत्यादिनाऽऽकारविशेषं चाभिधाय इति। सर्वासु चासु श्रुतिषु विलक्षणस्थानविशिष्टत्ववर्णविशेषपुरुषशब्दादिभिः पूर्वोपात्तपुरुषसूक्तवाक्यैकार्थत्वं सिद्धम्। षष्ठीसमासे स्वस्वामित्वलक्षणः सम्बन्धोऽत्र विवक्षित इत्याह आत्मीययेति।माया वयुनं ज्ञानम् इति निघण्टूपादानम्। स्वेच्छावतरणप्रकरणे स एवार्थ उचित इति भावः। निघण्टुसिद्धमर्थं तन्मूलभूताभियुक्तप्रयोगेण द्रढयति तथा चेति।मायया वेत्ति इति निर्देशादियं माया निघण्टुसिद्धं ज्ञानमेव परप्रसिद्धमायायास्तत्त्वार्थप्रकाशकत्वाभावादिति भावः। एतेन प्रकृतिशब्दस्यात्र त्रिगुणात्मकप्रकृतिविषयत्वं मायाशब्दस्य मिथ्यार्थपरत्वं चशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्।आत्ममायया इत्यस्य न परमार्थतो लोकवदिति व्यवच्छेदश्चायुक्तः अन्येषामपि जन्मनस्तन्मते मिथ्यात्वाद्यविशेषात्। फलितं वक्तुमाह आत्मीयेन ज्ञानेनेति। ज्ञानमात्रस्य कथमवतारहेतुत्वम् तथा सति सर्वदावतारप्रसङ्गादित्यत्राह आत्मसङ्कल्पेनेत्यर्थ इति।श्लोकस्य पिण्डितार्थं विशदयति अत इति।अपहतपाप्मत्वादीत्यनेन दहरविद्यासुबालोपनिषत्प्रभृतिषु निर्दोषत्वमङ्गलगुणाकरत्वप्रतिपादकानां वाक्यानां स्मारणम्।समस्तकल्याणगुणात्मकत्वमित्यादिनासमस्तकल्याणगुणात्मकोऽसौ स्वशक्तिलेशाद्धृतभूतसर्गः। इच्छागृहीताभिमतोरुदेहः संसाधिताशेषजगद्धितोऽसौ वि.पु.6।5।84 इत्यादि स्मारितम्। ईश्वरस्वभावः सर्वोऽप्युभयलिङ्गत्वेन सङ्गृह्यत इत्यभिप्रायेणोक्तंसर्वमैशं स्वभावमिति। स्वमेव रूपमित्यादिनासमस्तशक्तिरूपाणि तत्करोति जनेश्वरः। देवतिर्यङ्मनुष्यादिचेष्टावन्ति स्वलीलया वि.पु.6।7।70 इत्यादि भगवत्पराशरवचनं स्मारितम्। अजत्वश्रुत्या स्मृतिरियं बाध्येतेत्यत्राह तदिदमाहेति। अजायमानत्वजायमानत्वोक्त्या व्याहतत्वादन्यपरेयं श्रुतिरित्यत्राह इतरेति।अजायमानः इति सामान्यनिषेधोबहुधा विजायते इति विशेषविधानसन्निधानात्सङ्कुचितविषयः। अतो विरोधे शान्ते तात्पर्यान्तरं न कल्प्यम्। न चेदं बहु स्याम् छां.उ.6।2।3तै.आ.6।2 इतिवज्जगद्रूपेण बहुभवनम् तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम् इत्यनन्तरवाक्यैर्मुमुक्षूणामत्यन्तोपकारकावताररहस्यज्ञानस्यैव वक्तुमुचितत्वात् अस्य च तदैकार्थ्यादिति भावः। सत्यमिथ्यात्वाभ्यां विरोधपरिहारशङ्कां प्रतिक्षेप्तुंप्रकृतिं स्वामधिष्ठाय इत्यस्य विग्रहपरत्वे मायाशब्दस्य ज्ञानपरत्वे च हेत्वन्तरमाहबहूनीति।वेद सृजामिदिव्यम् इति शब्दैर्जन्मनो बुद्धिपूर्वत्वेच्छामात्रकृतत्वदिव्यत्वादीनि प्रतीयन्ते। मायादिशब्दस्याविद्यादिपरत्वे तु तदखिलं विरुध्येत। नह्यत्र जन्मशब्दो जन्मप्रतिभासवाची न च प्रध्वस्तपर्यायो व्यतीतशब्दो बाधपरः न च मायागृहीतस्य सर्ववेदित्वम्नापि मिथ्याभूते सृष्टिशब्दः न च त्रिगुणप्रसूतस्य दिव्यत्वमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.5 4.9।।बहूनि इत्यादि अर्जुन इत्यन्तम्। श्रीभगवान् किल पूर्णषाड्गुण्यत्वात् शरीरसंपर्कमात्ररहितोऽपि स्थितिकारित्वात् कारुणिकतया आत्मांशं सृजति। आत्मा पूर्णषाड्गुण्यः अंशः उपकारकत्वेन अप्रधानभूतो ( N omit अ) यत्र तत् आत्मांशं शरीरं गृह्णाति इत्यर्थः। अत एवास्य जन्म दिव्यम् यत आत्ममायया योगप्रज्ञया स्वस्वातन्त्रयशक्त्या ( omits स्व) आरब्धम् न कर्मभिः। कर्मापि दिव्यम् फलदानासमर्थत्वात्। यश्चैवमेतत्तत्त्वं वेत्ति आत्मन्यप्येवमेव मन्यते सोऽवश्यं भगवद्वासुदेवतत्त्वं जानाति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.6।।प्रश्नस्य परिहृतत्वात्अजोऽपि इति किमर्थं इत्यत आह न तर्हीति। यदि जन्मानि व्यतीतानि तर्हीत्यर्थः। अनादिर्देहतोऽपि। उपलक्षणं चैतत्। मरणरहितः सर्वभूतानां ईश्वरश्चेत्यपि द्रष्टव्यम्। तथा चोक्तविरोध इति भावः ननु देहतोऽप्यनादित्वादेराक्षेपेऽजत्वादिमात्रं कथमुच्यते इत्यतोअव्ययात्मा इत्येतावता देहतोऽप्यविनाशमाचष्टे। तत्साहचर्यात्अजोऽपि इत्येतदपि तथैव व्याख्येयमिति भावेनाह अव्यय इति। अपिपदात्परं अस्येत्यध्याहार्यम्। स्यादेवं व्याख्यानं यदि भगवद्विग्रहस्याप्यव्ययत्वं गीताचार्याभिमतं स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह अनन्तमिति। इति च रूपविशेषणमिति वर्तते। एवं तर्हि कथं तत्रैवजगृहे पौरुषं रूपं भाग.1।3।9 इति ग्रहणमुच्यते गृहीतस्य च त्यागो नियत एवेत्यत आह जगृह इति।व्यक्तिः इत्युच्यत इति शेषः। कुत एवं कल्प्यते इत्यत आह युक्तय इति। युज्यत एभिरिति युक्तयः प्रमाणानि असम्भावनापरिहारार्था अचिन्त्यशक्तित्वाद्या युक्तयो वा। उक्ता द्वितीये। अस्तु भगवद्विग्रहस्याप्यव्ययत्वम् अत्र तु स्वरूपस्यैवोच्यत इति किं न स्यात् इत्यत आह आत्मेति। आत्मनः स्वरूपस्य देहस्याप्यव्ययत्वोपपादनेनाजत्वमपि साहचर्यात्तस्यैवेति योऽभिप्रायस्तं प्रकटयितुमव्ययत्वमुपक्रम्यानादित्वमित्युक्तम्। सर्वसमं जीवानामप्यस्ति अतस्तद्विषयो नाक्षेपः परिहारो वा सम्भवतीति भावः। आत्मशब्दोऽप्यन्यथा व्यर्थः। अस्मत्पक्षे स्वरूपदेहयोरुपादानार्थः। अत एवदेहोऽपि भाग.11।13।17 इत्युक्तम्। एवं तर्हिप्रकृतिं स्वामधिष्ठाय इति कथमुक्तं इत्यतस्तदन्यथा व्याख्यातुमाह कथमिति। स्वरूपतो देहतश्चानादिनित्यस्यसम्भवामि इति जनिः कथमुच्यते व्याहतत्वादित्यत आहेतिशेषः।अधिष्ठाय इत्यतः परमितिशब्दश्च। कथमनेन परिहारः इत्यतो व्याचष्टे प्रकृत्येति। वसुदेवादिषु प्रादुर्भूतत्वादिति शेषः। अनेन जन्मभ्रान्तेर्निमित्तमुक्तम्। यथोक्तं स्त्रीपुम्प्रसङ्गादित्यादि। भ्रान्तेरुपादानमाह तयैवेति। तमोरूपया यदि मातापितृसम्बन्धोऽङ्गीकृतस्तर्हि तन्निमित्तं दुःखादिकमपि प्रसज्जत इत्याशङ्कानिरासायस्वां इतिपदं व्याख्याति न त्विति। प्रकृतेर्भगवदधीनत्वं कुतः इत्यत आह द्रव्यमिति। अत्र वाक्ये प्रकृतिर्न श्रूयत इत्यत आह सा हीति। द्रव्यपदेनेति शेषः।तस्याप्रकृतिवाचित्वं कुतः इत्यत आह तत इति। सर्वसृष्टिकारणानि ह्यत्र निर्दिश्यन्ते। तच्च प्रकृतेरेव सम्भवति। न पृथिव्यादेरित्यर्थः। आत्ममाययाऽऽत्माविद्ययेति प्रतीतिनिरासायाह आत्मेति। कुतो हेतोरेवं जीवविलक्षणं ते जन्म इत्याशङ्कानिरासार्थमेतत्। अन्यथाप्रतीतिरप्यनेन परिहृता सर्वज्ञस्याविद्यायोगात्। प्रकृतिरत्र माया किं न स्यात् इत्यत आह प्रकृतेरिति। मायाशब्दस्य ज्ञानवाचित्वं कुतः इत्यत आह केतुरिति इति प्रज्ञायाः नामधेयानीति वाक्यशेषात्। प्राक्प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय इत्यनेनैव भ्रमनिमित्तत्वमुपादानत्वं च प्रकृतेरुक्तमिति मायाशब्दो न प्रकृतिवाची पुनरुक्तिप्रसङ्गादित्युक्तम् इदानीं तस्य निमित्तमात्रपरत्वे मायाशब्दस्य प्रकृत्यर्थतायामपि न दोषः उपादानप्रतिपादनार्थत्वादिति भावेनाह सृष्टीति प्रकृत्येति शेषः। तेषां वसुदेवादीनां सृष्ट्वा तत्र प्रादुर्भूतः विमोहिकया मायाख्यया। अत्रागमसम्मतिमाह उक्तं चेति। आत्मचिद्बलादजात एव। नन्वीशनशीलानामपि ब्रह्मादीनामुत्पत्तिमरणदर्शनेन विरोधाभावादीश्वरोऽपिसम्भवामि इति कथमुच्यतेस्थेशभासपिसकसो वरच् अष्टा.3।2।175 इत्येतद्विहायान्यथा व्याचष्टे ईश्वर इति। कुत एतदित्यत आह ईशेभ्य इति। एतदागमवलादेव समासाकारलोपावनुमन्तव्यौ। अजत्वादेः सम्भवेन शाब्दो व्याघातः अस्य तु व्याप्त्येति ज्ञापनाय क्रममुल्लङ्घ्य व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.6।।नन्वतीतानेकजन्मवत्त्वमात्मनः स्मरसि चेत्तर्हि जातिस्मरो जीवस्त्वं परजन्मज्ञानमपि योगिनः सार्वात्म्याभिमानेनशास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् इति न्यायेन संभवति। तथाचाह वामदेवो जीवोऽपिअहं मनुरभंव सूर्यश्चाहं कक्षीवानृषिरस्मि विप्रः इत्यादि दाशतय्याम्। अतएव न मुख्यः सर्वज्ञस्त्वम्। तथाच कथमादित्यं सर्वज्ञमुपदिष्टवानस्यनीश्वरःसन्। नहि जीवस्य मुख्यं सार्वज्ञ्यं संभवति व्यष्ट्युपाधेः परिच्छिन्नत्वेन सर्वसंबन्धित्वाभावात्। समष्ट्युपाधेरपि विराजः स्थूलभूतोपाधित्वेन सूक्ष्मभूतपरिणामविषयं मायापरिणामविषयं च ज्ञानं न संभवति। एवं सूक्ष्मभूतोपाधेरपि हिरण्यगर्भस्य तत्कारणमायापरिणामाकाशादिसर्गक्रमादिविषयज्ञानाभावः सिद्ध एव। तस्मादीश्वर एवकारणोपाधित्वादतीतानागतवर्तमानसर्वार्थविषयज्ञानवान्मुख्यः सर्वज्ञः। अतीतानागतवर्तमानविषयं मायावृत्तित्रयमेकैव वा सर्वविषया मायावृत्तिरित्यन्यत्। तस्य च नित्येश्वरस्य सर्वज्ञस्य धर्माधर्माद्यभावेन जन्मैवानुपपन्नम्। अतीतानेकजन्मवत्त्वं तु दूरोत्सारितमेव। तथाच जीवत्वे सार्वज्ञ्यानुपपत्तिरीश्वरत्वे च देहग्रहणानुपपत्तिरिति शङ्काद्वयं परिहरन्ननित्यत्वपक्षस्यापि परिहारमाह अपूर्वदेहेन्द्रियादिग्रहणं जन्म पूर्वगृहीतदेहेन्द्रियादिवियोगो व्ययः। यदुभयं तार्किकैः प्रेत्यभाव इत्युच्यते। तदुक्तम्जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्धुवं जन्म मृतस्य च इति। तदुभयं च धर्माधर्मवशाद्भवति। धर्माधर्मवशत्वं चाज्ञस्य जीवस्य देहाभिमानिनः कर्माधिकारित्वाद्भवति। तत्र यदुच्यते सर्वज्ञेश्वरस्य सर्वकारणस्येदृग्देहग्रहणं नोपपद्यत इति तत्तथैव कथम्। यदि तस्य शरीरं स्थूलभूतकार्यं स्यात्तदा व्यष्टिरूपत्वे जाग्रदवस्थाऽस्मदादितुल्यत्वं समष्टिरूपत्वे च विराट्जीवत्वम्। तस्य तदुपाधित्वात्। अथ सूक्ष्मभूतकार्यं तदा व्यष्टिरूपत्वे स्वप्नावस्थाऽस्मदादितुल्यत्वं समष्टिरूपत्वे च हिरण्यगर्भजीवत्वम्। तस्य तदुपाधित्वात्। तथाच भौतिकं शरीरं जीवानाविष्टं परमेश्वरस्य न संभवत्येवेति सिद्धम्। नच जीवाविष्ट एव तादृशे शरीरे तस्य भूतावेशवत्प्रवेश इति वाच्यम्। तच्छरीरावच्छेदेन तज्जीवस्य भोगाभ्युपगमेऽन्तर्यामिरूपेण सर्वशरीरप्रवेशस्य विद्यमानत्वेन शरीरविशेषाभ्युपगमवैयर्थ्यात्। भोगाभावे च जीवशरीरत्वानुपपत्तेः। अतो न भौतिकं शरीरमीश्वरस्येति पूर्वार्धेनाङ्गीकरोति अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्निति। अजोऽपि सन्नित्यपूर्वदेहग्रहणं अव्ययात्मापि सन्निति पूर्वदेहविच्छेदं भूतानां भवनधर्माणां सर्वेषां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामीश्वरोऽपि सन्निति धर्माधर्मवशत्वं निवारयति। कथं तर्हि देहग्रहणमित्युत्तरार्धेनाह प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवामि प्रकृर्तिं मायाख्यां विचित्रानेकशक्तिमघटमानघटनापटीयसीं स्वां स्वोपाधिभूतामधिष्ठाय चिदाभासेन वशीकृत्य संभवामि। तत्परिणामविशेषैरेव देहवानिव जातइव च भवामि। अनादिमायैव मदुपाधिभूता यावत्कालस्थायित्वेन च नित्या जगत्कारणत्वसंपादिका मदिच्छयैव प्रवर्तमाना विशुद्धसत्त्वमयत्वेन मम मूर्तिः। तद्विशिष्टस्य चाजत्वमव्ययत्वमीश्वरत्वं चोपपन्नम्। अतोऽनेन नित्येनैव देहेन विवस्वन्तं च त्वां च प्रति इमं योगमुपदिष्टवानहमित्युपपन्नम्। तथाच श्रुतिःआकाशशरीरं ब्रह्मेति आकाशोऽत्राव्याकृतं आकाशएव तदोतं च प्रोतं च इत्यादौ तथा दर्शनात्आकाशस्तल्लिङ्गात् इति न्यायाच्च। आकाश इति होवाच इत्याकाशशब्दः परमात्मा। कुतः। तस्य परमात्मनो लिङ्गं सर्वाणि भूतानीत्यादि तस्मात्। तर्हि भौतिकविग्रहाभावात्तद्धर्ममनुष्यत्वादिप्रतीतिः कथमिति चेत् तत्राह आत्ममाययेति। मन्माययैव मयि मनुष्यत्वादि प्रतीतिर्लोकानुग्रहाय न वस्तुवृत्त्येतिभावः। तथाचोक्तं मोक्षधर्मेमाया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नतु मां द्रष्टुमर्हसि।। इति। सर्वभूतगुणैर्युक्तं कारणोपाधिं मां चर्मचक्षुषा द्रष्टुं नार्हसीत्यर्थः। उक्तंच भगवता भाष्यकारेण। सच भगवान् ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः सदा संपन्नस्त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं स्वां मायां प्रकृतिं वशीकृत्याजोऽव्ययो भूतानामीश्वरो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वाभावोऽपि सन् स्वमायया देहवानिव जातइव च लोकानुग्रहं कुर्वँल्लँक्ष्यते स्वप्रयोजनाभावेऽपि भूतानुजिघृक्षयेति। व्याख्यातृभिश्चोक्तं स्वेच्छाविनिर्मितेन मायामयेन दिव्येन रूपेण संबभूवेति।नित्यो यः कारणोपाधिर्मायाख्योऽनेकशक्तिमान्। सएव भगवद्देह इति भाष्यकृतां मतम्।। अन्येतु परमेश्वरे देहदेहिभावं न मन्यन्ते किंतु यश्च नित्यो विभुः सच्चिदानन्दघनो भगवान्वासुदेवः परिपूर्णो निर्गुणः परमात्मा स एव तद्विग्रहो नान्यः कश्चिद्भौतिको मायिको वेति अस्मिन्पक्षे योजना।आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःअविनाशी वा अरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा इत्यादिश्रुतेः।असंभवस्तु सतोऽनुपपत्तेः तुशब्दो ब्रह्मण उत्पत्तिशङ्कानिराकरणार्थः। सतो ब्रह्मण उत्पत्तेरसंभवः। कुतःनचास्य कश्चिज्जनिता इति श्रुतेः। युक्तितश्च तत्कारणानुपपत्तेः।नात्माश्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः इत्यादिन्यायाच्च। नैवायमात्मा आकाशादिवज्जायते। कुतः। तद्वदस्योत्पत्तेरश्रुतेः। बुद्ध्याद्युत्पत्तिवदस्त्वनुमेयमित्यत आह। नित्यत्वाञ्चशब्दादजन्यत्वादिभ्यश्च। नित्यत्वादिकमेव कुत इत्यत आह। ताभ्यः ताः श्रुत्यःन जीवो म्रियतेस वा एष महानज आत्मा इत्याद्याः वस्तुगत्या जन्मविनाशरहितः सर्वभासकः सर्वकारणमायाधिष्ठानत्वेन सर्वभूतेश्वरोऽपि सन्नहं प्रकृतिं स्वभावं सच्चिदानन्दघनैकरसम्। मायां व्यावर्तयति निजस्वरुपमित्यर्थः।स भगवः कस्मिन्प्रतिष्ठितः स्वे महिम्नि इति श्रुतेः। स्वस्वरूपमधिष्ठाय स्वरूपावस्थित एव सन् संभवामि देहदेहिभावमन्तरेणैव देहिवद्व्यवहरामि। कथं तर्ह्यदेहे सच्चिदानन्दघने देहत्वप्रतीतिरत आह निर्गणे शुद्धे सच्चिदानन्दरसघने मयि भगवति वासुदेवे देहदेहिभावशून्ये तद्रूपेण प्रतीतिर्मायामात्रमित्यर्थः। तदुक्तंकृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्। जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया।। इति।अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्। यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।। इतिच। केचित्तु नित्यस्य निरवयवस्य निर्विकारस्यापि परमानन्दस्यावयवावयविभावं वास्तवमेवेच्छन्ति तेनिर्युक्तिकं ब्रुवाणस्तु नास्माभिर्विनिवार्यते इति न्यायेन नापवाद्याः। यदि संभवेत्तथैवास्तु किमतिपल्लवितेनेत्युपरम्यते।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.6।।ज्ञानार्थमेवाह अजोऽपीति। अहं भूतानामव्ययात्माऽपि सन् विनाशरहितात्मरूपः सन्नपि ईश्वरोऽपि सन् सर्वकरणसमर्थोऽपि सन् स्वां प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकामधिष्ठाय अजजीवरूपेण सम्भवामि आत्ममायया अन्तरङ्गया अजीवरूपेण अव्ययात्मा लीलायोग्यदेहेन सम्भवामि। अत्रायं भावः यत्र धर्मरक्षार्थमाविर्भवामि तत्सामयिकजीवेषु कर्मयोगादिजीवेषु लीलार्थप्रकटीकृतस्वरूपेण रसात्मकभक्तिमेव कथयामि।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.6।। अजोऽपि जन्मरहितोऽपि सन् तथा अव्ययात्मा अक्षीणज्ञानशक्तिस्वभावोऽपि सन् तथा भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानाम् ईश्वरः ईशनशीलोऽपि सन् प्रकृतिं स्वां मम वैष्णवीं मायां त्रिगुणात्मिकाम् यस्या वशे सर्वं जगत् वर्तते यया मोहितं सत् स्वमात्मानं वासुदेवं न जानाति तां प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय वशीकृत्य संभवामि देहवानिव भवामि जात इव आत्ममायया आत्मनः मायया न परमार्थतो लोकवत्।।तच्च जन्म कदा किमर्थं च इत्युच्यते

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.6।।नन्वनादेरविनाशिनस्तव जीववत्कथं जन्मोक्तं इत्यत आह अजोऽपीति। सत्यमेवं तथाप्यजोऽपि सन्नव्ययात्माऽपि सन् कर्मपारतन्त्र्यरहितोऽपि सन् स्वमायया सम्भवामि। स्वतन्त्रमायानिबन्धनं मम जन्मेति। मायाशब्दः क्वचिच्छास्त्रे हरिसामर्थ्यवाचकः।क्वाप्यविद्या मृषावाचिकृपाकपटवित्तवाक्। इति निरूपणादत्रात्मनां भक्तानामुपरि कृपयाऽऽत्मनो वा कृपयाऽऽविर्भवामि।मया सह वर्त्तमानमाया इति तृतीयस्कन्धसुबोधिनीव्याख्यातया वाऽप्रच्युतज्ञानबलैश्वर्यादिशक्त्यैव सर्वभवनसामर्थ्यरूपमायया सम्भवामि।विजातीयनिवारणायात्मपदम्। मायात्वोक्तिःशक्तिर्मे मोहिनी त्वतः एवेति वयमवोचाम्। ननु तथापि स्वरूपवैपरीत्यं जन्मभावेन जीवस्यैव तवायातमित्याशङ्क्याह प्रकृतिमिति। प्रकृतिं स्वामसाधारणस्वरूपं स्वभावं वा सच्चिदानन्दमात्रं नित्यसिद्धज्ञानक्रियाशक्त्याश्रयं षड्गुणाश्रयमधिष्ठाय अपरित्यज्य सन्नेव प्रादुर्भवामि न तु जीववत्स्वरूपादपि प्रच्युतः। जीवस्तु व्युच्चरणानन्तरं मायया पराभिध्यानात्तिरोहितानन्दषड्गुणः संसरतीति जन्ममरणपर्यावर्त्तमनुभवति अहं तु न तथा जन्मादिमान् अजत्वश्रुतेरव्ययत्वाच्च। एतेनैव षड्भावविकारा निराकृताः। यद्यपि जीवात्मनि न विकाराः षट् किन्तु प्रकृतिपरिणामभूते देहे एव तथापिआविर्भावतिरोभावजन्मनाशविकल्पवत् शरीरं जगज्जीवात्मनि प्रत्याययति विकारान् संसृतिं च करोति प्राकृतत्वात्। अत एवोक्तं सूत्रकारेण पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ ब्र.सू.3।2।5 इति। अत्र भाष्यकारः अस्य जीवस्यैश्वर्यादि तिरोहितं तत्र हेतुः पराभिध्यानात् परस्य भगवतोऽभिध्यानं स्वस्यैतस्य च सर्वतो भोगेच्छा तस्मादीश्वरेच्छया जीवस्य व्युच्चरितस्य भगवद्धर्मतिरोभावः। ऐश्वर्यतिरोभावाद्दीनत्वं पराधीनत्वं च। वीर्यतिरोभावात् सर्वदुःखसहनम्। यशस्तिरोभावात् सर्वहीनत्वम्। श्रीतिरोभावाज्जन्मादिसर्वापद्विषयत्वम्। ज्ञानतिरोभावाद्देहादिष्वहम्बुद्धिः। सर्वविपरीतज्ञानं च अपस्मारसहितस्येव। वैराग्यतिरोभावाद्विषयासक्तिः। बन्धश्चतुर्णां कार्यो विपर्ययो द्वयोस्तिरोभावादेव। नान्यथा हि युक्तोऽयमर्थः। एकस्यैकांशप्राकट्येऽपि तथाभावात् आनन्दांशस्तु पूर्वमेव तिरोहितः येन जीवभावः अत एव काममयः अकामरूपत्वादानन्दस्य। निद्रा च सुतरां तिरोभावकर्त्री भगवच्छक्तिः। अतोऽस्मिन् प्रस्तावे जीवस्य धर्मतिरोभाव उक्तः। अन्यथा भगवत ऐश्वर्यादिलीला निर्विषया स्यात्। तस्माज्जीवरूपपर्यालोचनया न किञ्चिदाशङ्कनीयम् इति। जीवस्य देहिनो जन्मनाशावुक्तौ ब्रह्मणो भगवत आविर्भावतिरोभावाविन्याशयेनैव नित्यापरिच्छिन्नतनौ प्राकट्यमिति सम्भव उक्तः। अनेन योऽहमिह दृश्यमानः पुरुषोत्तमोऽवतारी स एवान्यत्र प्रादुर्भवामि स्वत इत्युक्तं तथा चाजोऽपि जन्मवान् बालोऽपि किशोरः एकोऽप्यनेक इत्यादि विरुद्धधर्मा श्रयत्वान्नानुपपत्तिः। विशेषस्तु भाष्यादेरवगन्तव्यः।


Chapter 4, Verse 6