Chapter 4, Verse 3

Text

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।

Transliteration

sa evāyaṁ mayā te ’dya yogaḥ proktaḥ purātanaḥ bhakto ’si me sakhā cheti rahasyaṁ hyetad uttamam

Word Meanings

saḥ—that; eva—certainly; ayam—this; mayā—by me; te—unto you; adya—today; yogaḥ—the science of Yog; proktaḥ—reveal; purātanaḥ—ancient; bhaktaḥ—devotee; asi—you are; me—my; sakhā—friend; cha—and; iti—therefore; rahasyam—secret; hi—certainly; etat—this; uttamam—supreme


Translations

In English by Swami Adidevananda

It is the same ancient Yoga that I am now teaching you, for you are My devotee and My friend. For, this is a supreme mystery.

In English by Swami Gambirananda

That ancient Yoga itself, which is this, has been taught to you by Me today, considering you to be My devotee and friend, for this Yoga is a profound secret.

In English by Swami Sivananda

That same ancient yoga has been today taught to you by me, for you are my devotee and my friend; it is the supreme secret.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The same ancient Yoga has now been taught to you by Me, on the grounds that you are both My devotee and friend. This is the highest secret.

In English by Shri Purohit Swami

It is the same ancient path that I have now revealed to you, for you are my devotee and my friend. It is the supreme secret.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।4.3।। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।4.3।। वह ही यह पुरातन योग आज मैंने तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह उत्तम रहस्य है।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

4.3 सः that? एव even? अयम् this? मया by Me? ते to thee? अद्य today? योगः Yoga? प्रोक्तः has been taught? पुरातनः ancient? भक्तः devotee? असि thou art? मे My? सखा friend? च and? इति thus? रहस्यम् secret? हि for? एतत् this? उत्तमम् best.Commentary This Yoga contains profound and subtle teachings. Hence it is the supreme secret which is revealed by the Lord.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 4.3।। व्याख्या-- 'भक्तोऽसि मे सखा चेति' अर्जुन भगवान्को अपना प्रिय सखा पहलेसे ही मानते थे (गीता 11। 41 42), पर भक्त अभी (गीता 2। 7 में) हुए हैं अर्थात् अर्जुन सखा भक्त तो पुराने हैं, पर दास्य भक्त नये हैं। आदेश या उपदेश दास अथवा शिष्यको ही दिया जाता है, सखाको नहीं। अर्जुन जब भगवान्के शरण हुए, तभी भगवान्का उपदेश आरम्भ हुआ।जो बात सखासे भी नहीं कही जाती, वह बात भी शरणागत शिष्यके सामने प्रकट कर दी जाती है। अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि 'मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए, मुझको शिक्षा दीजिये।' इसलिये भगवान् अर्जुनके सामने अपनेआपको प्रकट कर देते हैं, रहस्यको खोल देते हैं। अर्जुनका भगवान्के प्रति बहुत विशेष भाव था, तभी तो उन्होंने वैभव और अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित 'नारायणी सेना' का त्याग करके निःशस्त्र भगवान्को अपने 'सारथि' के रूपमें स्वीकार किया (टिप्पणी प0 211)।साधारण लोग भगवान्की दी हुई वस्तुओंको तो अपनी मानते हैं (जो अपनी हैं ही नहीं), पर भगवान्को अपना नहीं मानते (जो वास्तवमें अपने हैं)। वे लोग वैभवशाली भगवान्को न देखकर उनके वैभवको ही देखते हैं। वैभवको ही सच्चा माननेसे उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि वे भगवान्का अभाव ही मान लेते हैं अर्थात् भगवान्की तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। कुछ लोग वैभवकी प्राप्तिके लिये ही भगवान्का भजन करते हैं। भगवान्को चाहनेसे तो वैभव भी पीछे आ जाता है, पर वैभवको चाहनेसे भगवान् नहीं आ सकते। वैभव तो भक्तके चरणोंमें लोटता है; परन्तु सच्चे भक्त वैभवकी प्राप्तिके लिये भगवान्का भजन नहीं करते। वे वैभवको नहीं चाहते, अपितु भगवान्को ही चाहते हैं। वैभवको चाहनेवाले मनुष्य वैभवके भक्त (दास) होते हैं और भगवान्को चाहनेवाले मनुष्य भगवान्के भक्त होते हैं। अर्जुनने वैभव-(नारायणी सेना-) का त्याग करके केवल भगवान्को अपनाया, तो युद्धक्षेत्रमें भीष्म, द्रोण, युधिष्ठिर आदि महापुरुषोंके रहते हुए भी गीताका महान् दिव्य उपदेश केवल अर्जुनको ही प्राप्त हुआ और बादमें राज्य भी अर्जुनको मिल गया!

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।4.3।। यहाँ भगवान् अब तक के उपदिष्ट ज्ञान के प्राचीनता की घोषणा करके रूढ़िवादी विचारकों की शंका का निर्मूलन कर देते हैं।शिष्य के प्रति स्नेह भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् को यह विश्वास था कि उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा। गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था न हो कि तुम शुल्क दो और मैं पढ़ाऊँगा। प्रेम और स्वातन्त्र्य मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही मन और बुद्धि विकसित होकर खिल उठते हैं। आत्मानुभव का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस योग का ज्ञान उसे दिया।यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो फिर भी अनुभवी पुरुष के उपदेश के बिना वह आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। समस्त बुद्धि वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य की विवेक सार्मथ्य कभी भी नित्य अविकारी आत्मा को विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।किसी के मन में यह शंका न रह जाये कि भगवान् के वाक्यों में परस्पर विरोध है इसलिये अर्जुन मानो आक्षेप करता हुआ प्रश्न पूछता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।4.3।।किमिति वर्तमाने काले प्रकृतो योगः संप्रदायरहितोऽभूदित्याशङ्क्याधिकार्यभावादित्याह दुर्बलानिति। तदेव दौर्बल्यं प्रकृतोपयोगित्वेन व्याकरोति अजितेन्द्रियानिति। यद्यपि कामक्रोधादिप्रधानान्पुरुषान्प्रतिलभ्य कामक्रोधादिभिरभिभूयमानो योगो नष्टो विच्छिन्नसंप्रदायः संजातस्तथापि योगादृते पुरुषार्थो लोकस्य लभ्यते चेत् किमनेन योगोपदेशेनेत्याशङ्क्य यथोक्तयोगाभावे परमपुरुषार्थाप्राप्तेर्मैवमित्याह लोकं चेति। पूर्वो योगो विच्छिन्नसंप्रदायोऽधुना त्वन्यो योगो मदर्थमुच्यतेभगवतेत्याशङ्क्याह स एवेति। कस्मादन्यस्मै यस्मै कस्मैचित्पुरातनो योगो नोक्तो भगवतेत्याशङ्क्याह भक्तोऽसीति। उक्तमधिकारिणं प्रति योगस्य वक्तव्यत्वे हेतुमाह रहस्यं हीति। अनादिवेदमूलत्वाद्योगस्य पुरातनत्वम्। भक्तिः शरणबुद्ध्या प्रीतिस्तया युक्तो निजरूपमवेक्ष्य भक्तो विवक्षितः। समानवयाः स्निग्धः सहायः सखेत्युच्यते। एतदिति कथं योगो विशेष्यते तत्राह ज्ञानमिति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।4.3।।स आदित्यं प्रत्युक्त एव पुरातनोऽयं अध्यायद्वयनिरुपितस्ते तुभ्यं मया प्रोक्तो भक्तोऽसि मे सखा चासीति हेतोः। नन्वन्यस्मै कुतो नोच्यते इत्यत आह। रहस्यं गुह्यं हि यस्मादेतज्ज्ञानमुत्तमम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।4.1 4.3।।श्रीमदमलबोधाय नमः। हरिः ँ़। बुद्धेः परस्य माहात्म्यं कर्मभेदो ज्ञानमाहात्म्यं चोच्यतेऽस्मिन्नध्याये। पूर्वानुष्ठितश्चायं धर्म इत्याह इममिति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।4.3।।स इति। अद्य संप्रदायविच्छेदे सति। भक्तः शरणागतः सखा प्रीतिविषयः रहस्यं गोप्यमभक्तादिभ्यो न देयम्। अन्यथा निर्वीर्या विद्या भवेदित्यर्थः। तथा च मन्त्रवर्णःविद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायानृजवे अप्रयताय न मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् इति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।4.3।।स एव अयम् अस्खलितस्वरूपः पुरातनः योगः सख्येन अतिमात्रभक्त्या च माम् एव प्रपन्नाय ते मया प्रोक्तः सपरिकरः सविस्तरम् उक्त इत्यर्थः। मदन्येन केन अपि ज्ञातुं वक्तुं वा न शक्यम् यत इदं वेदान्तोदितम् उत्तमं रहस्यं ज्ञानम्।अस्मिन् प्रसङ्गे भगवदवतारयाथात्म्यं यथावद् ज्ञातुम् अर्जुन उवाच

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।4.3।। स एवायमिति। स एवायं योगोऽद्य विच्छिन्ने संप्रदाये सति पुनश्च मया ते तुभ्यमुक्तः। यतस्त्वं मम भक्तोऽसि सखा चेति। अन्यस्मै मया नोच्यते। हि यस्मादिदमुत्तमं रहस्यम्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।4.3।।स एवायमिति। सप्रत्यभिज्ञसावधारणनिर्देशफलितमुक्तंअस्खलितस्वरूप इति।पुरातनोऽद्य इति निर्देशाभ्यां कालभेदमात्रेणापि न स्वरूपे वा प्रकारे वा भेद इति सूचितम्। भक्तोऽसीति वर्तमाननिर्देशादनिवृत्ता भक्तिः सूचिता। अल्पीयसी तु भक्तिः कदाचिन्निवर्तेतापीत्यभिप्रायेणोक्तंअतिमात्रेति। भक्तोऽसि शास्त्रदृष्टमहत्त्वानुसन्धानेन प्रीतिमानसीत्यर्थः। सखा चासि अवतारदृष्टसौलभ्यविशेषेण प्रणयविस्रम्भवानसीत्यर्थः।ते मया इति शब्दावपिशाधि मां त्वां प्रपन्नम् 2।7 इति प्रागुक्तप्रपत्तृप्रपत्तव्ययोः प्रत्यभिज्ञापरावित्ययमपि प्रवचनहेतुरिति ज्ञापनायोक्तं मामेव प्रपन्नाय ते मया प्रोक्त इति।प्रोक्तः इत्यत्र सोपसर्गधात्वर्थं विवृणोति सपरिकरः सविस्तरमिति। परिकरोऽङ्गम् शब्दस्य प्रपञ्चो विस्तरः अङ्गोक्तिरप्यत्र सविस्तरेति भावः।अहं प्रोक्तवान्मयाऽद्य प्रोक्तः इत्याभ्यां सूचितमाह मदन्येनेति। प्रलयेन वा युगादिस्वभावेन वा सम्प्रदायविच्छेदे सति पुनरहमेव सम्प्रदायप्रवर्तकः स्याम् करणायत्तज्ञानेन मदन्येन हिरण्यगर्भादिनाऽपि मदुपदेशमन्तरेण ज्ञातुं वक्तुं चाशक्यमित्यर्थः। सख्यभक्तिप्रपत्त्यादिगुणपौष्कल्ययुक्तायोपदेश्यत्वे भगवद्व्यतिरिक्तेन ज्ञातुं वक्तुं चाशक्यत्वे हेतुपरं रहस्यमित्यादीति दर्शयति यत इति। हिशब्दोऽत्र हेतुपरः रहस्यत्वाद्योग्यायोपदेश्यम् उत्तमरहस्यत्वान्मदन्येन ज्ञातुं वक्तुं चाशक्यमिति विभागः। उत्तमरहस्यत्वे हेतुःवेदान्तोदितमिति। नपुंसकनिर्देशयोग्यं विशेष्यमुक्तंज्ञानमिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।4.1 4.3।।एवमित्यादि उत्तमम् इत्यन्तम्। एतच्च गुरुपरम्पराप्राप्तमपि (S परम्परायातमपि K परम्परया प्राप्तमपि) अद्यत्वे नष्टमित्यनेन (S N अद्यत्वे तन्नष्ट) भगवान् अस्य ज्ञानस्य दुर्लभतां गौरवं च प्रदर्शयति। भक्तोऽसि मे सखा चेति। त्वं भक्तः मत्परमः सखा च। चशब्देन अन्वाचय उच्यते। तेन यथा भिक्षाटने भिक्षायां प्राधान्यं गवानयने त्वप्राधान्यम् एवं भक्तिरत्र गुरुं प्रति प्रधानं न सखित्वमपीति तात्पर्यार्थं।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।4.1 4.3।।उक्तयोर्ज्ञानकर्मणोरुभयोर्विशेषविस्तारात्मकोऽयमध्याय इति पूर्वसङ्गताध्यायार्थस्थितौ इह प्रकरणभेदप्रतिपादनार्थमाह बुद्धेरिति।एवं ज्ञात्वा 4।15 32 इत्यतः प्राक्तेन ग्रन्थेन बुद्धेः परस्य विष्णोर्माहात्म्यमुच्यते। आद्यस्य प्रकरणस्य पूर्वेण सङ्गतिं सूचयितुंबुद्धेः परस्य इत्युक्तम्।श्रेयान् इत्यतः पूर्वेण कर्मभेदः। निवृत्तस्यकर्मणोऽन्यस्माद्भेदः। निवृत्त एव कर्मण्युपासनायज्ञादिरूपेण वा भेदः। ज्ञानमाहात्म्यं शेषेणेति।इमं विवस्वते योगं इत्युपदेशपरम्पराकथनं प्रकृतानुपयुक्तमित्यतस्तत्तात्पर्यमाह पूर्वेति। पूर्वैरनुष्ठितः।ये मे मतम् 3।31 इत्युक्तेन हेतुना सहास्य समुच्चयार्थश्चशब्दः। अयं धर्मोमयि सर्वाणि 3।30 इत्यनेनोक्तः। योगशब्दोऽप्यनेन व्याख्यातः। न केवलमुपदेशपरम्पराऽत्रोच्यते किन्तु तेषामनुष्ठानमप्युपलक्ष्यते। तच्चेतोऽपि त्वयाऽनुष्ठेयमिति प्रतिपादनार्थमिति भावः।कर्मणैव हि संसिद्धिं 3।20 इत्यनेनैतद्गतार्थमिति चेत् न गृहस्थकर्म त्वया न त्याज्यमित्यस्योपपादनायाचारस्य तत्रोक्तत्वात्। अत्र तु निवृत्तधर्मानुष्ठाने सदाचारस्योच्यमानत्वात्। अत एव तत्राचार इत्येवोक्तमिह त्वयं धर्म इति।लोकेऽस्मिन्द्विविधा 3।3 इत्यत्रोक्तस्यकर्मणैव इत्युदाहरणमुक्तमिति तत्रापि न दोषः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।4.3।।य एवं पुर्वमुपदिष्टोऽप्यधिकार्यभावाद्विच्छिन्नसंप्रदायोऽभूत् यं बिना च पुरुषार्थो न लभ्यते स एवायं पुरातनोऽनादिगुरुपरंपरागतो योगोऽद्य संप्रदायविच्छेदकाले मयाऽतिस्निग्धेन ते तुभ्यं प्रकर्षेणोक्तः नत्वन्यस्मै कस्मैचित्। कस्मात्। भक्तोऽसि मे सखाचेति। इतिशब्दो हेतौ। यस्मात्त्वं मम भक्तः शरणागतत्वे सत्यत्यन्तप्रीतिमान् सखा च समानवयाः स्निग्धसहायोऽसि सर्वदा भवसि अतस्तुभ्यमुक्त इत्यर्थः। अन्यस्मै कुतो नोच्यते तत्राहि हि यस्मादेतज्ज्ञानमुत्तमं रहस्यं अतिगोप्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।4.3।।स एवं पुरातनो योगोऽयमिति प्रत्यक्षं मत्सम्बन्धजनकस्ते तुभ्यं प्रोक्तः प्रकर्षेण मत्प्रीत्यात्मकफलयुक्त उक्तः। ननु योग एव फलसाधकश्चेद्भक्तिरस्मदादिभिः किमर्थं कर्तव्या इत्याशङ्क्याह भक्तोऽसीति। त्वं भक्तोऽसि सखा चासीति मे मदीयं रहस्यम्। एतदुत्तमं कर्मयोगादुत्तमम्। हीति निश्चयेन।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।4.3।। स एव अयं मया ते तुभ्यम् अद्य इदानीं योगः प्रोक्तः पुरातनः भक्तः असि मे सखा च असि इति। रहस्यं हि यस्मात् एतत् उत्तमं योगः ज्ञानम् इत्यर्थः।।भगवता विप्रतिषिद्धमुक्तमिति मा भूत् कस्यचित् बुद्धिः इति परिहारार्थं चोद्यमिव कुर्वन् अर्जुन उवाच अर्जुन उवाच

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।4.1 4.3।।योगिनः कर्म कर्त्तव्यमिति पूर्वं निरूपितम्। तुरीये तु ततोऽध्याये प्रतीत्यर्थं परम्परा।।1।।योगस्य रूप्यते विष्णुर्वक्ता यस्मादभूद्रविः। उपदेशपदं तस्मादुपदेशाश्रयो मनुः।।2।।इक्ष्वाकूणामपि तथा रामचन्द्रावतारभाक्। तस्य नित्यत्वविधया विधानमुपदिश्यते।।3।।ब्रह्मभावेन सर्वत्र फलादिभावत्यागतः। योगी तदाश्रयेणैव विद्ययाऽमृतमश्नुते।।4।।एवं तावदध्यायद्वयेन योगे स्वधर्मो मोक्षसाधनमुपदिष्टः तमेव ब्रह्मभावेन प्रपञ्चयिष्यन् प्रथमं तावत्परम्पराप्राप्तत्वेन स्तुवन् श्रीभगवानुवाच इममिति त्रिभिः। अव्ययफलत्वादव्ययमिमं योगं विवस्वते प्रोक्तवान् न चेमं तव युद्धप्रोत्साहनायैव केवलं वच्मि किन्तु मन्वन्तरादावेव निखिलजगदुद्धरणायेमं प्रोक्तवानस्मीति सम्प्रदायपूर्वकमाह स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः।


Chapter 4, Verse 3