Chapter 3, Verse 37

Text

श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।

Transliteration

śhrī bhagavān uvācha kāma eṣha krodha eṣha rajo-guṇa-samudbhavaḥ mahāśhano mahā-pāpmā viddhyenam iha vairiṇam

Word Meanings

śhri-bhagavān uvācha—the Supreme Lord said; kāmaḥ—desire; eṣhaḥ—this; krodhaḥ—wrath; eṣhaḥ—this; rajaḥ-guṇa—the mode of passion; samudbhavaḥ—born of; mahā-aśhanaḥ—all-devouring; mahā-pāpmā—greatly sinful; viddhi—know; enam—this; iha—in the material world; vairiṇam—the enemy


Translations

In English by Swami Adidevananda

The Lord said, "It is desire, it is wrath, born of the guna of rajas; it is a great devourer, an impeller of sin. Know this to be the enemy here."

In English by Swami Gambirananda

The Blessed Lord said, "This desire, this anger, born of the quality of rajas, is a great devourer, a great source of sin. Know this to be the enemy here."

In English by Swami Sivananda

The Blessed Lord said, "It is desire and it is anger, both of the quality of Rajas, all-devouring and all-sinful; know this as the foe here in this world."

In English by Dr. S. Sankaranarayan

The Bhagavat said, "This desire, this wrath, born of the Rajas-strand, is a swallower of festivity and a mighty bestower of sins. Know this to be the enemy here."

In English by Shri Purohit Swami

Lord Shri Krishna: It is desire, it is aversion, born of passion. Desire consumes and corrupts all things. It is the greatest enemy of man.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.37।। श्रीभगवान् बोले - रजोगुणसे उत्पन्न हुआ  यह काम ही क्रोध  है। यह बहुत खानेवाला और महापापी है। इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.37।। श्रीभगवान् ने कहा -- रजोगुण में उत्पन्न हुई यह 'कामना' है,  यही क्रोध है; यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.37 कामः desire? एषः this? क्रोधः anger? एषः this? रजोगुणसमुद्भवः born of the Rajoguna? महाशनः alldevouring? महापाप्मा allsinful? विद्धि know? एनम् this? इह here? वैरिणम् the foe.Commentary Bhagavan Bhaga means the six attributes? viz.? Jnana (knowledge)? Vairagya (dispassion)? Kirti (fame)? Aishvarya (divine manifestations and excellences)? Sri (wealth)? and Bala (might). He who possesses these six attributes and who has a perfect knowledge of the origin and the end of the universe is Bhagavan or the Lord.The cause of all sin and wrong action in this world is desire. Anger is desire itself. When a desire is not gratified? the man becomes angry against those who stand as obstacles on the path of fulfilment.The desire is born of the ality of Rajas. When desire arises? it generates Rajas and urges the man to work in order to possess the object. Therefore? know that this desire is mans foe on this earth. (Cf.XVI.21).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 3.37।। व्याख्या--'रजोगुणसमुद्भवः'-- आगे चौदहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान् कहेंगे कि तृष्णा (कामना) और आसक्तिसे रजोगुण उत्पन्न होता है और यहाँ यह कहते हैं कि रजोगुणसे काम उत्पन्न होता है। इससे यह समझना चाहिये कि रागसे काम उत्पन्न होता है और कामसे राग बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि सांसारिक पदार्थोंको सुखदायी माननेसे राग उत्पन्न होता है, जिससे अन्तःकरणमें उनका महत्त्व दृढ़ हो जाता है। फिर उन्हीं पदार्थोंका संग्रह करने और उनसे सुख लेनेकी कामना उत्पन्न होती है। पुनः कामनासे पदार्थोंमें राग बढ़ता है। यह क्रम जबतक चलता है, तबतक पाप-कर्मसे सर्वथा निवृत्ति नहीं होती। 'काम एष क्रोध एषः'-- मेरी मनचाही हो-- यही काम है (टिप्पणी प0 188.1)। उत्पत्ति-विनाशशील जड-पदार्थोंके संग्रहकी इच्छा, संयोगजन्य सुखकी इच्छा, सुखकी आसक्ति--ये सब कामके ही रूप हैं। पाप-कर्म कहीं तो 'काम' के वशीभूत होकर और कहीं 'क्रोध' के वशीभूत होकर किया गया दीखता है। दोनोंसे अलग-अलग पाप होते हैं। इसलिये दोनों पद दिये। वास्तवमें काम अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना, प्रियता, आकर्षण ही समस्त पापोंका मूल है (टिप्पणी प0 188.2)। कामनामें बाधा लगनेपर काम ही क्रोधमें परिणत हो जाता है। इसलिये भगवान्ने एक कामनाको ही पापोंका मूल बतानेके लिये उपर्युक्त पदोंमें एकवचनका प्रयोग किया है। कामनाकी पूर्ति होनेपर 'लोभ' उत्पन्न होता होता है (टिप्पणी प0 188.3) और कामनामें बाधा पहुँचानेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर)क्रोध उत्पन्न होता है। यदि बाधा पहुँचानेवाला अपनेसे अधिक बलवान् हो तो 'क्रोध' उत्पन्न न होकर 'भय' उत्पन्न होता है। इसलिये गीतामें कहीं-कहीं कामना और क्रोधके साथ-साथ भय की भी बात आयी है; जैसे-- 'वीतरागभयक्रोधाः' (4। 10) और 'विगतेच्छाभयक्रोधः' (5। 28)।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.37।। यह काम यह क्रोध काम अर्थात् इच्छा ही मनुष्य के ह्रदय में स्थित राक्षस है। आत्म अज्ञान ही बुद्धि में इच्छा रूप में व्यक्त होता है। इस श्लोक में काम और क्रोध इन दोनों को भिन्न नहीं समझना चाहिये। किसी परिस्थिति विशेष में काम ही क्रोध का रूप ले लेता है। मन का वह विक्षेप जो किसी वस्तु को प्राप्त करने की अत्यन्त अधीरता के रूप में व्यक्त होता है काम कहलाता है। सामान्यत इच्छा अपने से भिन्न किसी अप्राप्त वस्तु के लिये ही होती हैं। जगत् में असंख्य व्यक्तियों और परिस्थितियों के मध्य सदैव इच्छा का पूर्ण होना सम्भव नहीं होता और इस प्रकार हमारे और इच्छित वस्तु के बीच कोई विघ्न आता है तो प्रतिहत इच्छा ही क्रोध का रूप ले लेती है।इस प्रकार काम अथवा क्रोध ही वह राक्षस है जो हमें परिस्थितियों के साथ समझौता करने को विवश कर देता है। आदर्शों को भुलाकर हमें पापाचरण में प्रवृत्त करता है। हमारी निम्न कोटि की इच्छायें जितनी प्रबल होगी उतना ही पापपूर्णं हमारा जीवन होगा। कामनाएं हमारे विवेक को आच्छादित कर देती हैं। काम के उत्पन्न होने पर उससे ही असंख्य प्रकार की दुखदायक वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। इन सब के वश में होना अज्ञान और उनके ऊपर शासन करना ज्ञान है।अब भगवान् दृष्टांतों के द्वारा समझाते हैं कि किस प्रकार हमारा शत्रु यह काम हमारे विवेक को आच्छादित करता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.37।।संप्रति प्रतिवचनं प्रस्तौति शृण्विति। तस्य वैरित्वं स्फोरयति सर्वेति। अप्रस्तुतं किमिति प्रस्तूयते तत्राह यं त्वमिति। भगवच्छब्दार्थं निर्धारयितुं पौराणिकं वचनमुदाहरति ऐश्वर्यस्येति। समग्रस्येत्येतत्प्रत्येकं विशेषणैः संबध्यते अथशब्दस्तथाशब्दपर्यायः समुच्चयार्थः। मोक्षशब्देन तदुपायो ज्ञानं विवक्ष्यते। उदाहृतवचसस्तात्पर्यमाह ऐश्वर्यादीति। स वाच्यो भगवानिति संबन्धः। तत्रैव पौराणिकं वाक्यान्तरं पठति उत्पत्तिमिति। भूतानामिति प्रत्येकमुत्पत्त्यादिभिः संबध्यते। कारणार्थौ चोत्पतिप्रलयशब्दौ क्रियामात्रस्य पुरुषान्तरगोचरत्वसंभवात्। आगतिर्गतिश्चेत्यागामिन्यौ संपदापदौ सूच्येते। वाक्यान्तरस्यापि तात्पर्यमाह उत्पत्त्यादीति। वेत्तीत्युक्तः साक्षात्कारो विज्ञानमित्युच्यते समग्रैश्वर्यादिसंपत्तिसमुच्चयार्थश्चकारः। उक्तलक्षणो भगवान्किमुक्तवानिति तदाह काम इति। कामस्य सर्वलोकशत्रुत्वं विशदयति यन्निमित्तेति। तथापि कथं तस्यैव क्रोधत्वं तदाह स एष इति। कामक्रोधयोरेव हेयत्वद्योतनार्थं कारणं कथयति रजोगुणेति। कारणद्वारा कामादेरेव हेयत्वमुक्त्वा कार्यद्वारापि तस्य हेयत्वं सूचयति रजोगुणस्येति। कामस्य पुरुषप्रवर्तकत्वमेव न रजोगुणजनकत्वमित्याशङ्क्याह कामो हीति। तत्रैवानुभवानुसारिणीं लोकप्रसिद्धिं प्रमाणयति तृष्णया हीति। तस्य योग्यायोग्यविभागमन्तरेण बहुविषयत्वं दर्शयति महाशन इति। बहुविषयत्वप्रयुक्तं कर्म निर्दिशति अत इति। सर्वविषयत्वेऽपि कुतोऽस्य पापत्वमित्याशङ्क्याह कामेनेति। कामस्योक्तविशेषणवत्त्वे फलितमाह अत इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.37।।एवं पृष्टः श्रीभगवान्ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा इत्युक्तं समग्रमैश्वर्यादिषट्कं नित्यमप्रतिबन्धेन यस्मिन्वासुदेवे वर्ततेउत्पत्तिं निधनं चैव भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति। इत्युत्पत्त्यादिविषयं च विज्ञानं यस्य स वासुदेवो भगवानितिशब्दवाच्य उवाचोत्तरमुक्तवान् काम इति। यस्त्वया वैरी पृष्टः एष कामः शत्रुर्यन्निमित्ता सर्वानर्थप्राप्तिर्लोकस्य। ननु क्रोधोऽप्यनर्थहेतुर्लोके दृश्यते इत्यत आह। स एव कामः कुतश्चिन्निमित्तात्प्रतिहितः क्रोधत्वेन परिणमतेऽहः क्रोधोऽप्येष एव शत्रोः पुत्रत्वादप्ययं शत्रुरित्याह। रजोगुणः समुद्भवो यस्य सः। यद्वा कथं शत्रुतां करोतीत्यह आह। रजोगुणस्य समुद्भवः कारणं कामो रजः प्रवर्तयन्पुरुषं प्रवर्तयति। ननु विषयभोगेन तृप्तिं नीतः शत्रुत्वं जिहास्यतीति चेत् तत्राह। महदशनमस्य सः। तदुक्तम् न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाभ्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत् इति। ननु लोके यथा स्वेनापराधिनः कश्चिच्छत्रुत्वं भजति तथायमप्यतोऽपराधं तस्य न करिष्यामीतिचेत्तत्राह। महाशनत्वान्महापाप्माऽत्युग्रो विनैवापराधं स्वेनोपकृतश्च नाशयतीत्यर्थः। अतः काममेव परमं वैरिणं विद्धि। ज्ञात्वा च तत्परिहाराय यतस्वेति भावः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.37।।यस्तु बलवान् प्रवर्तकः स एष कामः। क्रोधोऽप्येष एव तज्जन्यत्वात्।कामात्क्रोधोऽभिजायते 2।62 इति ह्युक्तम्। यत्रापि गुरुनिन्दादिनिमित्तः क्रोधः तत्रापि भक्तिनिमित्तानिन्दाकामनिमित्त एव। ये त्वन्यथा वदन्ति ते सङ्गरान्न सूक्ष्मं जानन्ति। उक्तं चऋते कामं न कोपाद्या जायन्ते च कथञ्चन इति। महाशनः महद्धि कामभोग्यम्। महाब्रह्महत्यादिकारणत्वात् महापाप्मा। सर्वपुरुषार्थविरोधित्वाद्वैरीं।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.37।।अत्रोत्तरंकाममय एवायं पुरुष इत्यादिश्रुतिसिद्धं भगवानुवाच काम एष इति। एष प्रसिद्धः कामःसोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वीयेति श्रुतेरिदं मे भूयादिदं मे भूयात् इति तीव्राभिलाषहेतुभूतश्चेतसोऽनवस्थितत्वापादको वृत्तिविशेषः। स च चेतोरूप एव।कामः संकल्पः इत्युपक्रम्यएतत्सर्वं मनः इत्युपसंहारात् स एष कामः केनचिन्निमित्तेन प्रतिहतः क्रोधरूपेण परिणमतेऽतः क्रोधोऽभिज्वलनात्माप्येष एव तमेनमिह शरीरेऽन्तःस्थितं वैरिणं विद्धि। कुतो वैरी। यतः रजोगुणसमुद्भवः रजो रञ्जनात्मकः प्राकृतो गुणः तस्य गुणौ कार्यभूतौ तृष्णासङ्गौ तावेवोद्भवो यस्य सः। रजःकार्यत्वात् दुःखैकफलोऽयमतो वैरी। यद्वा रजोगुणस्य लोभप्रवृत्त्यादिलक्षणस्य समुद्भवो यस्मात्। ननु विषयाभिलाषात्मकः कामो विषयार्पणेन शाम्यति। विषयस्य दौर्लभ्यनिश्चये स्वत एव वा निवर्तते अन्ध इव रूपदर्शनाभिलाषादित्याशङ्क्याह महाशनो महापाप्मेति। महद्दातुमपारणीयमशनमस्य स तथा। यथोक्तंन जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते इति।यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत् इति। तथा महापाप्मात्युग्रः। स हि सहस्रशः प्रबोधितोऽपि न निवर्तते तद्वदयमपि दुश्चिकित्स्यः। महाशनत्वान्नायं वैरी दानसाध्यः। नापि सामभेदसाध्यः। अत्युग्रत्वात्। अतो हन्तव्य एवेति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.37।।श्रीभगवानुवाच अस्य उद्भवाभिभवरूपेण वर्तमानगुणमयप्रकृतिसंसृष्टस्य प्रारब्धज्ञानयोगस्य रजोगुणसमुद्भवः प्राचीनवासनाजनितः शब्दादिविषयः अयं कामो महाशनः शत्रुः सर्वविषयेषु एनम् आकर्षति। एष एव प्रतिहतगतिः प्रतिहननहेतुभूतचेतनान् प्रति क्रोधरूपेण परिणतो महापाप्मा परहिंसादिषु प्रवर्तयति एनं रजोगुणसमुद्भवं सहजं ज्ञानयोगविरोधिनं वैरिणं विद्धि।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.37।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच काम एष इति। यस्त्वया पृष्टो हेतुरेष काम एव। ननु क्रोधोऽपि पूर्वं त्वयोक्तःइन्द्रियस्येन्द्रियस्य इत्यत्र। सत्यम्। नासौ ततः पृथक् किंतु क्रोधोऽप्येष एव काम एव केनचित्प्रतिहतः क्रोधात्मना परिणमते। अतः पूर्वं पृथक्त्वेनोक्तोऽपि क्रोधः कामज एवेत्यभिप्रायेण कामेनैकीकृत्योच्यते। रजोगुणात्समुद्भवतीति तथा। अनेन सत्त्ववृद्ध्या रजसि क्षयं नीते सति कामोऽपि क्षीयत इति सूचितम्। एनं काममिह मोक्षमार्गे वैरिणं विद्धि। अयं च वक्ष्यमाणक्रमेण हन्तव्य एव। यतो नासौ दानेन संधातुं शक्य इत्याह। महाशनः महदशनं यस्य। दुष्पूर इत्यर्थः। न च साम्ना संधातुं शक्यः यतो महापाप्मा अत्युग्रः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.37।।अथइन्द्रियस्य इत्यादिना सङ्ग्रहेणोक्तमेवार्थं प्रश्नस्योत्तरतया प्रपञ्चयन् भगवानुवाच काम एष इति। विषयानुभववासनाबीजानां कामक्रोधाद्यङ्कुरोत्पादने रजोगुणः सलिलसेकः कामादिर्ह्यस्मिन्मते ज्ञानविशेषरूप आत्मधर्मः रजस्तु प्रकृतिगुणः अन्यधर्मस्य कथमन्यत्र कार्यकरत्वमित्यत्रोक्तंगुणमयप्रकृतिसंसृष्टस्येति। औष्ण्याश्रयदहनसंयोगाद्यथा करतलादौ स्फोटादिः तथा गुणाश्रयप्रकृतिसंसर्गादात्मनि कामादिरिति भावः। तर्हि गुणत्रयमयप्रकृतिसंसर्गात् सत्त्वादिकार्यज्ञानादिरपि युगपदेव किं न स्यात् इत्यत्रोक्तं उद्भवाभिभवादिरूपेण वर्तमानेति। पूर्वश्लोकोक्तायंशब्दस्यात्रापेक्षयाऽस्येति विपरिणत्याऽनुषङ्गः। रजोगुणप्रचुरस्यास्य कथं ज्ञानयोगप्रारम्भमात्रत्वमपीति चोद्यमुद्भवाभिभवक्रमेण मात्रया मध्ये कदाचित्सत्त्वोन्मेषसम्भावनया निरस्तमित्यभिप्रेत्यज्ञानयोगारब्धस्येत्युक्तम्। आरब्ध इतिभुक्ता ब्राह्मणाः इतिवत्कर्तरि क्तः।एषः इति पदेन पापाचरणे प्रयोजकः प्रश्नविषयः परामृश्यते। तेनैवसदृशं चेष्टते 3।33इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे 3।34 इति श्लोकद्वयोक्तार्थोऽप्यत्र स्मारित इत्यभिप्रेत्यप्राचीनेत्यादिविशेषणद्वयमुक्तम्। पूर्वोक्तरागद्वेषाववस्थान्तरापन्नावत्र कामक्रोधशब्देन व्यपदिश्येते इति भावः। महाशनत्वविवरणंविषयेष्वेनमाकर्षतीति महदशनं भोग्यं यस्य स महाशनः।एषः इति निर्देशस्यावृत्त्या वाक्यभेदः। तत्र च वाक्यद्वयस्यैकमेव मुखभेदेन प्रतिपाद्यम्। अन्यथा कः पापाचरणे प्रयोजकः इति प्रश्नेकाम एष क्रोधश्चइत्यादिप्रकारेण निर्देष्टव्यम्। अनन्तरं चविद्ध्येताविह वैरिणौ इति वक्तव्यम्। उत्तरत्र च षट्स्वपि श्लोकेषुतेन एतेन कामरूपेण अस्य एनं यः कामरूपम् इति सर्वत्रैकवचननिर्देशः काममात्रनिर्देशश्च क्रियते न तु कामात्क्रोधस्य पृथक्त्वेनाभिधानम्। ततश्च काम एवावस्थाभेदेन क्रोधतयाऽत्र विवक्षितः तदवस्थाद्वयविषयतया च वाक्यभेद उचितः।महाशनो महापाप्मा इति पदद्वयमपि बाहुल्यानुसारेणौचित्यात् क्रमेण तदुभयविषयमित्येतदखिलमभिप्रेत्याहएष एवेति।प्रतिहतगतिः इति क्रोधाख्ये परिणामे हेतुरुक्तः। एकस्यैव शब्दादिविषयकामावस्थातः क्रोधावस्थाया विषयतो भेदप्रदर्शनार्थमतिप्रसङ्गपरिहारार्थं चोक्तंप्रतिहतेत्यादि। महापाप्मतां विवृणोतिपरहिंसादिषु प्रवर्तयतीति। महान् पाप्मा कार्यतया यस्यास्तीति स महापाप्मा।क्रुद्धो हन्याद्गुरूनपि इति हि प्रसिद्धम्। एतच्छ्लोकोक्तं रजोगुणाख्यं पूर्वोक्तप्रकृतिशब्दव्यपदेशार्हं वासनाख्यं कारणं चोपस्थाप्य तदुभयकार्यताविशिष्टंएनं इत्यन्वादेशः परामृशतीत्यभिप्रायेणरजोगुणसमुद्भवं सहजमिति पदद्वयमुक्तम्।इह वैरिणं इत्यत्र इहशब्दः प्रमादवत्तया बुभुत्सितज्ञानयोगविषय इत्यभिप्रायेणोक्तं ज्ञानयोगविरोधिनमिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.37।।अत्र उत्तरं सत्यपि धर्मे हृदिस्थे आगन्तुकावरणकृतोऽयं (N काचरणकृ ) विप्लवो न तु तदभवकृतः (N तदभावप्लुतः) इत्याशयेन।काम एष इति। द्वाभ्यामेतच्छब्दाभ्यामनयोरत्यन्तावैषम्यं (S अत्यन्तवैषम्यम्) सूच्यते। एतौ च कामक्रोधौ नित्यसंबन्धिनौ अन्योन्याविनाभावेन वर्तेते इत्येकरुपतयैव व्याचष्टे। एष च महस्य सुखस्य अशनः ग्रासकारकः महतः पापस्य हेतुत्त्वाच्च क्रोध एव पापदायी। एनं च वैरिणं प्राज्ञो जानीयात्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.37।।बलवद्विषयश्चेत् प्रश्नः तर्हि परिहारो न सङ्गच्छत इत्यतः परिहारं व्याचष्टे यस्त्विति। प्रवर्तकः पापेषु पुरुषः त्वया पृष्ट इति शेषः। एवं योजनायां क्रोधस्यापि कामसाम्यं स्यात् तथा चोत्तरत्र कामस्यैवानुवृत्तिर्विरुद्ध्येतेत्यतःक्रोध एषः इत्येतदन्यथा व्याचष्टे क्रोधोऽपीति। किं काम एव मुख्यया वृत्त्यैवमुच्यते नेति ब्रूमः किन्तूपचारेण इति भावेनाह तदिति। तदेव कुतः इत्यत आह कामादिति। नायमस्ति नियमः यदा गुरुनिन्दादिश्रवणे निन्दकाय क्रुद्ध्यति तदा कामाभावेऽपि क्रोधोदयदर्शनात् इत्यत आह यत्रापीति। भक्तिनिमित्तश्चासावनिन्दाकामश्चेति विग्रहः।सङ्गात्सञ्जायते कामः 2।62 इत्येतद्दर्शयितुं भक्तिनिमित्तेत्युक्तम्।काम एव (एषः) केनचित् प्रतिहतः क्रोधत्वेन परिणमते इति परेषां (शङ्करादीनां) व्याख्यानं दूषयति ये त्विति। एकान्तःकरणोपादानत्वलक्षणादानन्तर्यलक्षणाच्च सङ्करात्सूक्ष्मं कामक्रोधयोरत्यन्तभेदम्। न हि गुणो गुणस्योपादानं किन्तु निमित्तमेव प्रागन्वये प्रमाणमुक्तं इदानीं व्यतिरेकेऽप्याह उक्तं चेति। महाशन इति कामे दुर्घटत्वाद्गौणमित्याह महाशन इति। भोग्यं विषयः। यस्मात्कामभोग्यं महत्तस्मादसौ महाशन इत्यर्थः।काम एषः इति पापकारणत्वेनोक्त्वा कथं महापाप्मेत्युच्यते इत्यतो न कर्मधारयोऽयम् किन्तु महान्पाप्मा यस्मादिति बहुव्रीहिरिति भावेनाह महाब्रह्मेति। महच्छब्दात्परतः पापशब्दोऽध्याहार्यः। वधादिकर्तृत्वाभावात्कथं वैरित्वं इत्यत आह सर्वेति सर्वः सम्पूर्णः पुरुषार्थो मोक्षः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.37।।एवमर्जुनेनः पृष्टेअथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुषः इतिआत्मैवेदमग्र आसीदेक एव सोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वीय इत्यादिश्रुतिसिद्धमुत्तरं श्रीभगवानुवाच। यस्त्वया पृष्टो हेतुर्बलादनर्थमार्गे प्रवर्तकः स एष कामएव महान् शत्रुः यन्निमित्ता सर्वानर्थप्राप्तिः प्राणिनाम्। ननु क्रोधोऽप्यभिचारादौ प्रवर्तको दृष्ट इत्यत आह क्रोध एषः। काम एव केनचिद्धेतुना प्रतिहतः क्रोधत्वेन परिणमते अतः क्रोधोऽप्येष काम एव। एतस्मिन्नेव महावैरिणि निवारिते सर्वपुरुषार्थप्राप्तिनित्यर्थः। तन्निवारणोपायज्ञानाय तत्कारणमाह रजोगुणसमुद्भवः दुःखप्रवृत्तिबलात्मको रजोगुण एव समुद्भवः कारणं यस्य। अतः कारणानुविधायित्वात्कार्यस्य सोऽपि तथा। यद्यपि तमोगुणोऽपि तस्य कारणं तथापि दुःखे प्रवृत्तो च रजसएव प्राधान्यात्तस्यैव निर्देशः। एतेन सात्विक्या वृत्त्या रजसि क्षीणे सोऽपि क्षीयत इत्युक्तम्। अथवा तस्य कथमनर्थमार्गे प्रवर्तकत्वमित्यत आह रजोगुणस्य प्रवृत्त्यादिलक्षणस्य समुद्भवो यस्मात्। कामो हि विषयाभिलाषात्मकः स्वयमुद्भूतो रजः प्रवर्तयन्पुरुषं दुःखात्मके कर्मणि प्रवर्तयति तेनायमवश्यं हन्तव्य इत्यभिप्रायः। ननु सामदानभेदण्डाश्चत्वार उपायस्तत्र प्रथमत्रिकस्यासंभवे चतुर्थो दण्डः प्रयोक्तव्यो नतु हठादेवेत्याशङ्क्य त्रयाणामसंभवं वक्तुं विशिनष्टि महाशनो महापाप्मेति। महदशनमस्येति महाशनःयत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्।। इति स्मृतेः। अतो न दानेन संधातुं शक्यः। नापि सामभेदाभ्याम्। यतो महापाप्माऽत्युग्रः। तेन हि बलात्प्रेरितोऽनिष्टफलमपि जानन्पापं करोति। अतो विद्धि जानीहि एनं काममिह संसारे वैरिणम्। तदेतत्सर्वं विवृतं वार्तिककारैरात्मैवेदमग्र आसीदिति श्रुतिव्याख्यानेप्रवृत्तौ च निवृत्तौ च यथोक्तस्याधिकारिणः। स्वातन्त्र्ये सति संसारसृतौ कस्मात्प्रवर्तते।।नतु निःशेषविध्वस्तसंसारानर्थवर्त्मनि। निवृत्तिलक्षणे वाच्यं केनायं प्रेर्यतेऽवशः।।अनर्थपरिपाकत्वमपि जानन्प्रवर्तते। पारतन्त्र्यमृते दृष्टा प्रवृत्तिर्नेदृशी क्वचित्।।तस्माच्छ्रेयोर्थिनः पुंसः प्रेरकोऽनिष्टकर्मणि। वक्तव्यस्तन्निरासार्थमित्यर्था स्यात्परा श्रुतिः।।अनाप्तपुरुषार्थोऽयं निःशेषानर्थसंकुलः। इत्यकामयतानाप्तान्पुमर्थान्साधनैर्जडः। जिहासति तथानर्थानविद्वानात्मनि श्रितान्। अविद्योद्भूतकामः सन्नथो खल्विति च श्रुतिः। अकामतः क्रियाः काश्चिद्दृश्यन्ते नेह कस्यचित्। यद्यद्धि कुरुते जन्तुस्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्।।काम एष क्रोध एष इत्यादिवचनं स्मृतेः। प्रवर्तको नापरोऽतः कामादन्यः प्रतीयते इतिअकामतः इति मनुवचनम्। अन्यत्स्पष्टम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.37।।एतत्प्रश्नोत्तरमाह भगवान् प्रपञ्चवैचित्र्यार्थप्रकटितत्रिगुणमध्यस्थविक्षिप्तकरणैकस्वभावरजोगुणात्मकभगवदंशमोहितस्तत्र प्रवर्त्तते तस्मात्तद्गुणकृतविक्षेपकर्माणि तत्स्वरूपज्ञानपूर्वकं त्यजेदित्याह काम एष इति। एष इति लौकिकः कामः। रजोगुणसमुद्भवः रजोगुणादुत्पत्तिर्यस्य सः। सर्वेषां द्वेषी शत्रुः। एष एव कामोऽवस्थान्तरापन्नः क्रोधो भवति सोऽपि रजोगुणसमुद्भवः। स महाशनो दुरापूरः। अत एव श्रीभागवते उक्तं 9।19।14 न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।।किं पुनर्महापाप्मा महापापरूपो भगवद्भजनप्रतिबन्धकः। इह संसारे देहग्रहणानन्तरमेनं वैरिणं विद्धि।इह इतिपदादेतद्देहावसाने सति अलौकिकेऽयमेव कार्याय भविष्यतीति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.37।। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीरणा (विष्णु पु0 6।5।74) ऐश्वर्यादिषट्कं यस्मिन् वासुदेवे नित्यमप्रतिबद्धत्वेन सामस्त्येन च वर्तते उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति (विष्णु प0 6।5।78) उत्पत्त्यादिविषयं च विज्ञानं यस्य स वासुदेवः वाच्यः भगवान् इति।।काम एषः सर्वलोकशत्रुः यन्निमित्ता सर्वानर्थप्राप्तिः प्राणिनाम्। स एष कामः प्रतिहतः केनचित् क्रोधत्वेन परिणमते। अतः क्रोधः अपि एष एव रजोगुणसमुद्भवः रजश्च तत् गुणश्च रजोगुणः सः समुद्भवः यस्य सः कामः रजोगुणसमुद्भवः रजोगुणस्य वा समुद्भवः। कामो हि उद्भूतः रजः प्रवर्तयन् पुरुषं प्रवर्तयति तृष्णया हि अहं कारितः इति दुःखिनां रजःकार्ये सेवादौ प्रवृत्तानां प्रलापः श्रूयते। महाशनः महत् अशनं अस्येति महाशनः अत एव महापाप्मा कामेन हि प्रेरितः जन्तुः पापं करोति। अतः विद्धि एनं कामम् इह संसारे वैरिणम्।।कथं वैरी इति दृष्टान्तैः प्रत्याययति

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.37।।तत्रोत्तरम् काम एष इति। रागपूर्वावतारः कामः तत्तदिच्छास्वरूप एवात्र हेतुः प्रवर्त्तकः द्वेषपूर्वावतारश्च तत्परिणामभूतः क्रोध एवाऽवसेयः। रजोगुणसमुद्भवः काम एव क्रोधस्तमोगुणसमुद्भव इति यद्यपि युक्तं वक्तुं तथापि परिणामे तमसो हेतुत्वादेवं नोक्तं अतएव कामानुज इत्युच्यते। कामश्च तदग्रजो बुद्धिनाशनो दुष्पूरो महापाप इति तेन बलादेव नियोजितः सर्वकर्मकारीति प्रायो राजसं तामसं रागं द्वेषं तद्धेतुकं पापं वैरिणमित्युत्तरपक्षार्थः। अत्र क्रोधस्याप्युपक्रमे यत्कामस्यैव वैरित्वकथनं तत्पार्थस्य युद्धोपस्थितौ तत्तद्बन्धुजीवनादिकामत्वाभिप्रायेणेति बोध्यम्।


Chapter 3, Verse 37