Chapter 3, Verse 35

Text

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।

Transliteration

śhreyān swa-dharmo viguṇaḥ para-dharmāt sv-anuṣhṭhitāt swa-dharme nidhanaṁ śhreyaḥ para-dharmo bhayāvahaḥ

Word Meanings

śhreyān—better; swa-dharmaḥ—personal duty; viguṇaḥ—tinged with faults; para-dharmāt—than another’s prescribed duties; su-anuṣhṭhitāt—perfectly done; swa-dharme—in one’s personal duties; nidhanam—death; śhreyaḥ—better; para-dharmaḥ—duties prescribed for others; bhaya-āvahaḥ—fraught with fear


Translations

In English by Swami Adidevananda

Better is one's own duty, even if done poorly, than the duty of another done well. It is better to die while performing one's own duty; the duty of another is full of fear.

In English by Swami Gambirananda

One's own duty, though defective, is superior to another's duty well-performed. Death is better while engaged in one's own duty; another's duty is full of fear.

In English by Swami Sivananda

Better is one's own duty, though devoid of merit, than the duty of another well discharged. Better is death in one's own duty; the duty of another is fraught with fear.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Better is one's own duty, even if it lacks merit, than the well-performed duty of another; it is better to suffer ruin in one's own duty than to gain success in another's.

In English by Shri Purohit Swami

It is better to do one's own duty, however lacking in merit, than to do that of another, even though efficiently. It is better to die doing one's own duty, for doing the duty of another is fraught with danger.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.35।। अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.35।। सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है;  स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.35 श्रेयान् better? स्वधर्मः ones own duty? विगुणः devoid of merit? परधर्मात् than the duty of another? स्वनुष्ठितात् than well discharged? स्वधर्मे in ones own duty? निधनम् death? श्रेयः better? परधर्मः anothers duty? भयावहः fraught with fear.Commentary It is indeed better for man to die discharging his own duty though destitute of merit than for him to live doing the duty of another though performed in a perfect manner. For the duty of another has its pitfalls. The duty of a Kshatriya is to fight in a righteous battle. Arjuna must fight. This is his duty. Even if he dies in the discharge of his own duty? it is better for him. He will go to heaven. He should not do the duty of another man. This will bring him peril. He should not stop from fighting and enter the path of renunciation. (Cf.XVIII.47).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 3.35।। व्याख्या--'श्रेयान् (टिप्पणी प0 182) स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्'--अन्य वर्ण, आश्रम आदिका धर्म (कर्तव्य) बाहरसे देखनेमें गुणसम्पन्न हो, उसके पालनमें भी सुगमता हो, पालन करनेमें मन भी लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी मिलती हो और जीवनभर सुख-आरामसे भी रह सकते हों, तो भी उस परधर्मका पालन अपने लिये विहित न होनेसे परिणाममें भय-(दुःख-) को देनेवाला है।इसके विपरीत अपने वर्ण, आश्रम आदिका धर्म बाहरसे देखनेमें गुणोंकी कमीवाला हो उसके पालनमें भी कठिनाई हो, पालन करनेमें मन भी न लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी न मिलती हो और उसका पालन करनेमें जीवन-भर कष्ट भी सहना पड़ता हो, तो भी उस स्वधर्मका निष्कामभावसे पालन करना परिणाममें कल्याण करनेवाला है। इसलिये मनुष्यको किसी भी स्थितिमें अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर स्वधर्मका ही पालन करना चाहिये।मनुष्यके लिये स्वधर्मका पालन स्वाभाविक है, सहज है। मनुष्यका 'जन्म' कर्मोंके अनुसार होता है और जन्मके अनुसार भगवान्ने 'कर्म' नियत किये हैं, (गीता 18। 41)। अतः अपने-अपने नियत कर्मोंका पालन करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। अतः दोषयुक्त दीखनेपर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्मका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18। 48)। अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षाका अन्न खाकर जीवननिर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझते हैं (गीता 2। 5)। परंतु यहाँ भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि भिक्षाके अन्नसे जीवननिर्वाह करना भिक्षुकके लिये स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है; क्योंकि तू गृहस्थ क्षत्रिय है, भिक्षुक नहीं। पहले अध्यायमें भी जब अर्जुनने कहा कि युद्ध करनेसे पाप ही लगेगा--'पापमेवाश्रयेत्' (1। 36) तब भी भगवान्ने कहा कि धर्ममय युद्ध न करनेसे तू स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा (2। 33)। फिर भगवान्ने बताया कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर युद्ध करनेसे अर्थात् राग-द्वेषसे रहित होकर अपने कर्तव्य-(स्वधर्म-) का पालन करनेसे पाप नहीं लगता। (2। 38) आगे अठारहवें अध्यायमें भी भगवान्ने यही बात कही है कि स्वभावनियत स्वधर्मरूप कर्तव्यको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। (18। 47) तात्पर्य यह है कि स्वधर्मके पालनमें राग-द्वेष रहनेसे ही पाप लगता है, अन्यथा नहीं। राग-द्वेषसे रहित होकर स्वधर्मका भलीभाँति आचरण करनेसे 'समता'-(योग-) का अनुभव होता है और समताका अनुभव होनेपर दुःखोंका नाश हो जाता है (गीता 6। 23)। इसलिये भगवान् बार-बार अर्जुनको राग-द्वेषसे रहित होकर युद्धरूप स्वधर्मका पालन करनेपर जोर देते हैं।भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि क्षत्रिय-कुलमें जन्म होनेके कारण क्षात्रधर्मके नाते युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म (कर्तव्य) है; अतः युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान देखना है; और युद्धरूप क्रियाका सम्बन्ध अपने साथ नहीं है-- ऐसा समझकर केवल कर्मोंकी आसक्ति मिटानेके लिये कर्म करना है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे पालन करना ही 'स्वधर्म' है। आस्तिकजन जिसे 'धर्म' कहते हैं, उसीका नाम कर्तव्य' है। स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक ही बात है। कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्तव्यकी प्राप्ति अवश्य होती है। धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है। यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है--'धर्म तें बिरति' ৷৷. (मानस 3। 16। 1)। केवल कर्तव्यमात्र समझकर धर्मका पालन करनेसे कर्मोंका प्रवाह प्रकृतिमें चला जाता है और इस तरह अपने साथ कर्मोंका सम्बन्ध नहीं रहता।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार सभी मनुष्योंका अपना-अपना कर्तव्य (स्वधर्म) कल्याणप्रद है। परन्तु दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका कर्तव्य देखनेसे अपना कर्तव्य अपेक्षाकृत कम गुणोंवाला दीखता है; जैसे--ब्राह्मणके कर्तव्य--(शम, दम, तप, क्षमा आदि-) की अपेक्षा क्षत्रियके कर्तव्य-(युद्ध करना आदि-) में अहिंसादि गुणोंकी कमी दीखती है। इसलिये यहाँ 'विगुणः' पद देनेका भाव यह है कि दूसरोंके कर्तव्यसे अपने कर्तव्यमें गुणोंकीकमी दीखनेपर भी अपना कर्तव्य ही कल्याण करनेवाला है। अतः किसी भी अवस्थामें अपने कर्तव्यका त्यगा नहीं करना चाहिये।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार बाहरसे तो कर्म अलग-अलग (घोर या सौम्य) प्रतीत होते हैं, पर परमात्मप्राप्तिरूप उद्देश्य एक ही होता है। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य न रहनेसे तथा अन्तःकरणमें प्राकृत पदार्थोंका महत्त्व रहनेसे ही कर्म घोर या सौम्य प्रतीत होते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.35।। धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। धार्मिकता सद्व्यवहार कर्तव्य सद्गुण आदि विभिन्न अर्थों में इसका प्रयोग किया गया है। धर्म की परिभाषा हम देख चुके हैं कि जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है।एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। अत मनसंयम के इस प्रकरण में धर्म से तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति की वासनाओं से है।स्वधर्म और परधर्म यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक वासनाओं के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है। अत परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते।गीता में अर्जुन के स्वभाव को देखते हुये भगवान् उसे युद्ध करने का स्पष्ट उपदेश देते हैं। जन्मजात राजकुमार अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। प्रथम अध्याय से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का अर्थात् ब्राह्मण का जीवन उसके जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये युद्धभूमि पलायन से गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है। दूसरे व्यक्ति के श्रेष्ठ और दिव्य जीवन की अनुकृति मात्र से अर्जुन को लाभ नहीं होगा।यद्यपि समस्त अनर्थों का मूल कारण पहले बताया जा चुका है तथापि उसके और अधिक स्पष्टीकरण के लिए

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.35।।रागद्वेषयोः श्रेयोमार्गप्रतिपक्षत्वं प्रकटयितुं परमतोपन्यासद्वारा समनन्तरश्लोकमवतारयति तत्रेत्यादिना। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। शास्त्रार्थस्यान्यथा प्रतिपत्तिमेव प्रत्याययति परधर्मोऽपीति। स्वधर्मवदित्यपेरर्थः। अनुमानं दूषयन्नुत्तरत्वेन श्लोकमुत्थापयति सदसदिति। क्षत्रधर्माद् युद्धाद् दुरनुष्ठानात्परिव्राड्धर्मस्य भिक्षाशनादिलक्षणस्य स्वानुष्ठेयतयापि कर्तव्यत्वं प्राप्तमित्याशङ्क्य व्याचष्टे श्रेयानिति। उक्तेऽर्थे प्रश्नपूर्वकं हेतुमाह कस्मादित्यादिना। स्वधर्ममवधूय परधर्ममनुतिष्ठतः स्वधर्मातिक्रमकृतदोषस्य दुष्परिहरत्वान्न तत्त्यागः साधीयानित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.35।।ननु शास्त्रीयमेव कर्म कर्तव्यं चेत्तर्हि परधर्मोऽपि सुकरो धर्मत्वात् कुतो नानुष्ठेय इति चेत्तत्राह श्रेयानिति। परधर्मात्साद्गुण्येन संपादितादपि स्वकीयो धर्मो विगतगुणोऽप्यनुष्ठीयमानः प्रशस्यतरः। स्वधर्मे स्थितस्य मरणमपि श्रेयः। इह लोके कीर्त्यावहममुत्र स्वर्गप्रापकम्। परधर्मस्तु तद्विपर्ययेण भयप्रदः। यद्वा तत्तदिन्द्रियविषये स्थितयो रागद्वेषयोरात्मप्रापक आत्मधर्मे विघ्नकर्तृत्वेऽपीन्द्रियधर्मे प्रावृत्तिके विषयसुखजनके तयोस्तत्त्वाभावादिन्द्रियधर्म एवानुष्ठेयः। किमात्मधर्मानुष्ठानेन विघ्नकर्तृयुक्तेनेतिचेत्तत्राह श्रेयानिति। परेषामिन्द्रियाणां धर्मात्प्रावृत्तिकात्स्वनुष्ठितात्सुगमत्वेनानुष्ठातुं शक्यादपि स्वधर्म आत्मधर्म अध्यात्मावगतिरुपः विगुणः प्राकृतगुणवियुक्तः मुक्तिहेतुत्वात्प्रशस्यतरः। तत्र निधनं श्रेयः अपुनर्भवत्वात्। परधर्मोभयावहः अविद्यारुपतया संसारपातहेतुत्वात्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.35।।तथाप्युग्रं युद्धकर्मेत्यत आह श्रेयानिति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.35।।यस्मादेवं तस्माच्छ्रेयान्प्रशस्यतरः स्वधर्मः स्वस्य वर्णाश्रमानुरूप्येण ईश्वरेण विहितत्वात्। विगुणो हिंसादिमिश्रोऽपि किंचिदङ्गहीनोऽपि परधर्माद्धिंसादिदोषरहितपरधर्मापेक्षया स्वनुष्ठितात्सर्वाङ्गोपसंहारेण सम्यगनुष्ठितादपि स एव श्रेयान्। स्वधर्मे युद्धादौ निधनं मरणमपि श्रेयः। विहितत्वात्। परस्य धर्मो भैक्षचर्यादिर्भयावहः। क्षत्रियस्य तव निषिद्धत्वात्। तस्मात्स्वतन्त्रेण त्वया स्वधर्म एवानुष्ठेय इति भावः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.35।।अतः सुशकतया स्वधर्मभूतः कर्मयोगो विगुणः अपि अप्रमादगर्भः प्रकृतिसंसृष्टस्य दुःशकतयापरधर्मभूतात् ज्ञानयोगात् सगुणाद् अपि किञ्चित्कालम् अनुष्ठितात् सप्रमादात् श्रेयान्।स्वेन एव उपादातुं योग्यतया स्वधर्मभूते कर्मयोगे वर्तमानस्य एकस्मिन् जन्मनि अप्राप्तफलतया निधनम् अपि श्रेयः अनन्तरायहततया अनन्तरजन्मनि अपि अव्याकुलकर्मयोगारम्भसंभवात्। प्रकृतिसंसृष्टस्य स्वेन एव उपादातुम् अशक्यतया परधर्मभूतो ज्ञानयोगः प्रमादगर्भतया भयावहः।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.35।।तदेवं स्वाभाविकीं पश्वादिसदृशीं प्रकृतिं त्यक्त्वा स्वधर्मे प्रवर्तितव्यमित्युक्तं तर्हि स्वधर्मस्य युद्धोदेर्दुःखरूपस्य यथावत्कर्तुमशक्यत्वात्परधर्मस्य चाहिंसादेः सुकरत्वाद्धर्मत्वाविशेषाच्च तत्र प्रवर्तितुमिच्छन्तं प्रत्याह श्रेयानिति। किंचिदङ्गहीनोऽपि स्वधर्मः श्रेयान्प्रशस्यतरः। स्वनुष्ठितात्सर्वाङ्गपूर्त्या कृतादपि परधर्मात्सकाशात्। तत्र हेतुः। स्वधर्मे युद्धादौ प्रवर्तमानस्य निधनं मरणमपि श्रेष्ठम्। स्वर्गादिप्रापकत्वात्। परधर्मस्तु स्वस्य भयावहः। निषिद्धत्वेन नरकप्रापकत्वात्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.35।।श्रेयान् इत्यत्र श्लोकेस्वधर्मपरधर्मशब्दौ न तावद्वर्णाश्रमाद्यपेक्षया प्रयुज्येते परवर्णाश्रमादिधर्मानुष्ठानस्य दूरतो निस्सत्त्वेन तन्निषेधायोगात् अत्र च तत्प्रसङ्गाभावात्परधर्मात्स्वनुष्ठितात्स्वधर्मो विगुणः श्रेयान् इति चोक्ते श्रेयश्शब्दस्य प्रशस्यतरवाचित्वात् स्वनुष्ठितपरधर्मस्य प्रशस्यत्वमात्रं प्रसज्जेत न च तदुपपद्यते स्वनुष्ठितस्य दुरनुष्ठितस्य वा परधर्मस्याधर्मत्वेन गर्हणीयत्वात्। अथ क्षत्त्रधर्मभूतयुद्धपरित्यागाभिलाषिणोऽर्जुनस्य स्वधर्मभूतयुद्धप्रशंसा ब्राह्मणादिधर्मभूततत्परित्यागनिन्दा च क्रियत इति चेत् अस्त्वेतावताऽपि निषेध्यस्य प्रसङ्गः तस्य प्रशस्यत्वमात्रप्रसङ्गचोद्यं तु न परिहृतम् न चात्रस्वधर्मं परित्यज्य परधर्मं कुर्यां इत्यर्जुनस्याभिसन्धिः अत्रैव ह्यस्येदानीं स्वधर्मत्वबुद्धिः स्वधर्मतया भ्राम्यतः परधर्मत्वमत्र ज्ञाप्यत इति चेत् तन्न स्वनुष्ठितात् परधर्मादित्यनुवादरूपत्वानुपपत्तेः परधर्मतया सम्प्रतिपन्नत्वे ह्येवं व्यपदेश उपपद्यते तत्र च परधर्मत्वज्ञापनं निष्प्रयोजनम् अधर्मत्वमात्रस्यैव ज्ञाप्यत्वात् अतोऽत्र स्वधर्मपरधर्मशब्दौ प्रशस्यतयाऽनादरणीयतया च प्रकृतकर्मयोगज्ञानयोगविषयौ एवं च सति ज्ञानयोगस्य प्रशस्यत्वमात्रप्रसङ्गोऽपि न दूषणम् पूर्वश्लोकद्वयप्रकृतवासनानुवर्तित्वेन सङ्गतिश्च स्यात्अथ केन इत्युत्तरश्लोकस्थप्रश्नोऽप्येवमेवोपपद्यते अत्र ह्यनिच्छतोऽपि पापाचरणहेतुः क इति प्रश्नः स च ज्ञानयोगदुष्करत्वकथनेनैव सङ्गच्छेत अनिच्छतोऽपि मे क्षत्त्र धर्मत्यागः केनेति प्रश्नार्थ इति चेत् न अस्यानिच्छत्वाभात्काम एष क्रोध एषः 3।37 इत्याद्युत्तरानुपपत्तेश्च न हि कामक्रोधाभ्यामर्जुनो युद्धं परित्यजति किन्तु कारुण्यादिनेत्युपक्रमेऽप्युक्तम् अतः स्वधर्मपरधर्मशब्दौ स्वशक्यपरशक्यधर्मविषयौ तदेतदखिलमभिप्रेत्याह अतः सुशकतयेति। अतः श्लोकद्वयोक्तवासनानुवर्तित्ववशादित्यर्थः।विगुणोऽपि अङ्गवैकल्ययुक्तोऽपीत्यर्थः। विगुणस्य कथं श्रेयस्त्वमित्यत्रोक्तंअप्रमादगर्भ इति। वैगुण्यमात्रं स्वरूपविच्छेदाद्वरमिति भावः। स्वनुष्ठितादित्यस्य वैगुण्यप्रतियोग्याकारपरतया सुशब्दः साद्गुण्यपर इत्याह सगुणादपीति। अनुष्ठितशब्दस्यभूतार्थप्रत्ययान्तत्वाद्भूतत्वस्य चातिक्रान्ततारूपत्वात् प्रागनुष्ठानं पश्चाद्विच्छेदश्च सूचित इत्यभिप्रायेणोक्तंकञ्चित्कालमनुष्ठितात्सप्रमादिति। एवं विच्छेदाविवक्षायां स्वनुष्ठितात् ज्ञानयोगाद्विगुणः कर्मयोगः श्रेयानित्येतदसङ्गतं स्यात् सगुणस्याविच्छिन्नस्य फलाविनाभावादिति भावः।सुशकतयेत्युक्तहेतुविवरणमुखेन स्वधर्मशब्दार्थं च विवृण्वन् विगुणस्य कर्मणः फलाविनाभावात् कथं श्रेयस्त्वं इतिशङ्कापरिहारतया तृतीयं पादं व्याख्याति स्वेनैवेति। स्वेनैव प्रकृतिसंसृष्टतया व्याप्रियमाणेन्द्रियेणैवेत्यर्थः। यद्वा स्वेच्छयैवेति भावः।एकस्मिन् जन्मन्यप्राप्तफलतयेति।अयमभिप्रायः यद्यप्यात्मसाक्षात्कारादिफलार्थतया विहितत्वात् कर्मयोगः काम्यकर्मैव तथाप्यस्य काम्यकर्मणोऽयं विशेषः यद्विगुणानुष्ठितमपि जन्मान्तरेऽपि सगुणानुष्ठानद्वारा फलं साधयति इति। वैगुण्यं त्वस्य फलविलम्बमात्रप्रयोजकम्। काम्यकर्मान्तरवन्न फलाभावप्रयोजकमित्येकस्मिन् जन्मनीत्यभिप्रेतं विवृण्वन् जन्मान्तरेऽपि विगुणस्य कथं फलसाधनत्वं इत्यत्राह अनन्तरायहततयेति इन्द्रियाणामनुभूतसजातीयविषयसमर्पणेन कर्मयोगस्वरूपस्यात्यन्तविच्छेदाभावादित्यर्थः। अव्याकुलत्वमत्राविकलत्वम्। एतच्च सर्वंनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति 2।40 इति पूर्वं सङ्ग्रहेणोक्तम्।पार्थ नैवेह नामुत्र 6।40 इत्यादिना प्रपञ्चयिष्यते च। अव्यवहितानन्तरजन्मनि पौष्कल्यनिर्णयाभावेनसम्भवादित्युक्तम्। अनन्तरे ततोऽनन्तरे वा फलं तावत्सिद्धमिति भावः। यदि विगुणस्य कर्मयोगस्य जन्मान्तरस्थं फलमभिप्रेत्य श्रेयस्त्वमुच्यते तर्हि ज्ञानयोगस्यापि तथा किं न स्यात् इत्यत्र चतुर्थं पादं व्याख्याति प्रकृतीति। जन्मान्तरेऽपि फलं न सम्भवतीत्यभिप्रायेणभयावहः इत्युच्यते। स्वरूपेण विच्छिन्नस्य कथं जन्मान्तरेऽपि फलम् अविच्छिन्नस्य विगुणस्य फलं विलम्बितमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.34 3.35।।कथं तर्हि बन्धः इत्थमित्युच्यते (N omits इत्थम् K omits इति)।इन्द्रियस्येति। श्रेयानिति। संसारी च प्रतिविषयं रागं द्वेषं च गृह्णाति यतः कर्माणि आत्मकर्तृकाण्येव विमूढत्वादभिमन्यते इति सममपि भोजनादिव्यवहारं कुर्वतोः ज्ञानिसंसारिणोरस्त्ययं विशेषः। अयं नः सिद्धान्तः सर्वथा मुक्तसंगस्य स्वधर्मचारिणो नास्ति कश्चित् पुण्यपापात्मको बन्धः। स्वधर्मो हि हृदयादनपायी स्वरसनिरूढ ( N K निगूढः) एव न तेन कश्चिदपि रिक्तो जन्तुर्जायते इत्यत्याज्यः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.35।।श्रेयान् इत्यस्य सङ्गतिमाह तथापीति।ज्यायसी चेत् 3।1 इत्यत्र द्वावाक्षेपावर्जुनेन कृतौ तत्राद्यःलोकेऽस्मिन् 3।3 इत्यादिना परिहृतः इदानींयुद्ध्यस्व विगतज्वरः 3।30तयोर्न वशमागच्छेत् 3।34 इत्युक्त्या स्मारितं द्वितीयमाक्षेपमाशङ्क्य परिहरतीत्यर्थः। यद्यपि कर्म कर्तव्यं तथापि उग्रमवर्जनीयरागद्वेषं न कुर्यामिति शेषः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.35।।ननु स्वाभाविकरागद्वेषप्रयुक्तपश्वादिसाधारणप्रवृत्तिप्रहाणेन शास्त्रीयमेव कर्म कर्तव्यं चेत्तर्हि यत्सुकरं भिक्षाशनादि तदेव क्रियतां किमतिदुःखावहेन युद्धेनेत्यतआह श्रेयानिति। श्रेयान् प्रशस्यतरः स्वधर्मः यं वर्णमाश्रमं प्रति वा यो विहितः स तस्य स्वधर्मः विगुणोऽपि सर्वाङ्गोपसंहारमन्तरेण कृतोऽपि परधर्मात् स्वं प्रत्यविहितात् स्वनुष्ठितात् सर्वाङ्गोपसंहारेण संपादितादपि। नहि वेदातिरिक्तमानगम्यो धर्मः येन परधर्मोऽप्यनुष्ठेयः धर्मत्वात् स्वधर्मवदित्यनुमानं तत्र मानं स्यात्।चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः इतिन्यायात्। अतः स्वधर्मे किंचिदङ्गहीनेऽपि स्थितस्य निधनं मरणमपि श्रेयः प्रशस्यतरं परधर्मस्य जीवितादपि। स्वधर्मस्थस्य निधनं हीह लोके कीर्त्यावहं परलोके च स्वर्गादिप्रापकं। परधर्मस्तु इहाकीर्तिकरत्वेन परत्र नरकप्रदत्वेन च भयावहो यतः अतो रागद्वेषादिप्रयुक्तस्वाभाविकप्रवृत्तिवत्परधर्मोऽपि हेय एवेत्यर्थः। एवं तावद्भगवन्मताङ्गीकारिणां श्रेयःप्राप्तिस्तदनङ्गीकारिणां च श्रेयोमार्गभ्रष्टत्वमुक्तं। श्रेयोमार्गभ्रंशेन फलाभिसंधिपूर्वककाम्यकर्माचरणे च केवलपापमात्राचरणे च बहूनि कारणानि कथितानि ये त्वेतदभ्यसूयन्त इत्यादिना। तत्राकं संग्रहश्लोकःश्रद्धाहानिस्तथाऽसूया दुष्टचित्तत्वमूढते। प्रकृतेर्वशवर्तित्वं रागद्वेषौ च पुष्कलौ। परधर्मरुचित्वं चेत्युक्ता दुर्मार्गवाहकाः इति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.35।।ननु सर्वप्रकारेण भवदुक्तधर्मस्य कठिनत्वेन कथं सिद्धिः इत्याशङ्क्याहुः श्रेयानिति। स्वधर्मो भगवद्धर्मः विगुणः अङ्गादिभावरहितः परधर्मात् मोहकधर्मात् स्वनुष्ठितात् सुष्ठुप्रकारेणानुष्ठितात् सम्पादितात् श्रेयान् उत्तमः। यतः पूर्वं विगुणोऽपि भगवद्धर्मो मरणसमये भगवत्स्मारकत्वेनोपयुक्तो भवति तस्मात् स्वधर्मे सति निधनं मरणं श्रेयः मोक्षप्रापकमित्यर्थः। परधर्मो मरणसमये पूर्वानुष्ठितः स्वविषयस्मारको भवत्येव स तत्क्षणे यमदूतादिदर्शकत्वेनाऽग्रे च नरकादियातनायां तत्साधकत्वेन च भयावहः भयकर्तेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.35।। श्रेयान् प्रशस्यतरः स्वो धर्मः स्वधर्मः विगुणः अपि विगतगुणोऽपि अनुष्ठीयमानः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् साद्गुण्येन संपादितादपि। स्वधर्मे स्थितस्य निधनं मरणमपि श्रेयः परधर्मे स्थितस्य जीवितात्। कस्मात् परधर्मः भयावहः नरकादिलक्षणं भयमावहति यतः।।यद्यपि अनर्थमूलम् ध्यायतो विषयान्पुंसः (गीता 2.62) इति रागद्वेषौ ह्यस्य परिपन्थिनौ इति च उक्तम् विक्षिप्तम् अनवधारितं च तदुक्तम्। तत् संक्षिप्तं निश्चितं च इदमेवेति ज्ञातुमिच्छन् अर्जुनः उवाच ज्ञाते हि तस्मिन् तदुच्छेदाय यत्नं कुर्याम् इति अर्जुन उवाच

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.35।।तदेवं रागद्वेषवशेन कस्यापि नोक्तधर्मे प्रवृत्तिः प्राकृतत्वादित्युक्तं ततस्तौ विहाय प्राकृतेनापि स्वधर्मस्तु न हेयः परधर्मोऽपि नोपादेयः इति बोधयन्नाह श्रेयानिति। विगुणोऽङ्गहीनोऽपि स्वनुष्ठितात्सङ्गात्।


Chapter 3, Verse 35