Chapter 3, Verse 31

Text

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।3.31।।

Transliteration

ye me matam idaṁ nityam anutiṣhṭhanti mānavāḥ śhraddhāvanto ’nasūyanto muchyante te ’pi karmabhiḥ

Word Meanings

ye—who; me—my; matam—teachings; idam—these; nityam—constantly; anutiṣhṭhanti—abide by; mānavāḥ—human beings; śhraddhā-vantaḥ—with profound faith; anasūyantaḥ—free from cavilling; muchyante—become free; te—those; api—also; karmabhiḥ—from the bondage of karma


Translations

In English by Swami Adidevananda

Those men who, full of faith, ever practice this teaching of Mine and those who receive it without cavil—even they are released from karma.

In English by Swami Gambirananda

Those who faithfully follow this teaching of Mine without cavil, they too become freed from their actions.

In English by Swami Sivananda

Those who constantly practice this teaching of Mine with faith and without caviling, they too are freed from actions.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Those who constantly follow this doctrine of Mine, with faith and without finding fault, are freed from the results of all actions.

In English by Shri Purohit Swami

Those who always act in accordance with My precepts, firmly in faith and without caviling, they too are freed from the bondage of action.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.31।। जो मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.31।। जो मनुष्य दोष बुद्धि से रहित (अनसूयन्त:) और श्रद्धा से युक्त हुए सदा मेरे इस मत (उपदेश) का अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं, वे कर्मों से (बन्धन से) मुक्त हो जाते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.31 ये those who? मे My? मतम् teaching? इदम् this? नित्यम् constantly? अनुतिष्ठन्ति practise? मानवाः men? श्रद्धावन्तः full of faith? अनसूयन्तः not cavilling? मुच्यन्ते are freed? ते they? अपि also? कर्मभिः from actions.Commentary Sraddha is a mental attitude. It means faith. It is faith in ones own Self? in the scriptures and in the teachings of the spiritual preceptor. It is compund of the higher emotion of faith? reverence and humility.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.31।। व्याख्या--'ये मे मतमिदं ৷৷. श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो'-- किसी भी वर्ण, आश्रम, धर्म, सम्प्रदाय आदिका कोई भी मनुष्य यदि कर्म-बन्धनसे मुक्त होना चाहता है, तो उसे इस सिद्धान्तको मानकर इसका अनुसरण करना चाहिये। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, कर्म आदि कुछ भी अपना नहीं है-- इस वास्तविकताको जान लेनेवाले सभी मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाते हैं। भगवान् और उनके मतमें प्रत्यक्षकी तरह निःसन्देह दृढ़ विश्वास और पूज्यभावसे युक्त मनुष्यको 'श्रद्धावन्तः' पदसे कहा गया है।शरीरादि जड पदार्थोंको अपने और अपने लिये न माननेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है--इस वास्तविकतापर श्रद्धा होनेसे जडताके माने हुए सम्बन्धका त्याग करना सुगम हो जाता है।श्रद्धावान् साधक ही सत्- शास्त्र, सत्-चर्चा और सत्सङ्गकी बातें सुनता है और उनको आचरणोंमें लाता है।मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः परमात्माको ही प्राप्त करनेकी एकमात्र उत्कट अभिलाषा होनेपर साधकमें श्रद्धा, तत्परता, संयतेन्द्रियता आदि स्वतः आ जाते हैं। अतः साधकको मुख्यरूपसेपरमात्मप्राप्तिकी अभिलाषा ही तीव्र बनाना चाहिये।पीछेके (तीसवें) श्लोकमें भगवान्ने अपना जो मत बताया है, उसमें दोष-दृष्टि न करनेके लिये यहाँ 'अन-सूयन्तः' पद दिया गया है। गुणोंमें दोष देखनेको 'असूया' कहते हैं। असूया-(दोषदृष्टि-) से रहित मनुष्योंको यहाँ अनसूयन्तः कहा गया है। जहाँ श्रद्धा रहती है, वहाँ भी किसी अंशमें दोषदृष्टि रह सकती है। इसलिये भगवान्ने 'श्रद्धावन्तः' पदके साथ 'अनसूयन्तः' पद भी देकर मनुष्यको दोषदृष्टिसे सर्वथा रहित (पूर्ण श्रद्धावान्) होनेके लिये कहा है। इसी प्रकार गीता-श्रवणका माहात्म्य बताते हुए भी भगवान्ने श्रद्धावाननसूयश्च (गीता 18। 71) पद देकर श्रोताके लिये श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित होनेकी बात कही है। 'भगवान्का मत तो उत्तम है, पर भगवान् कितनी आत्मश्लाघा, अभिमानकी बात कहते हैं कि सब कुछ मेरे ही अर्पण कर दो' अथवा 'यह मत तो अच्छा है, पर कर्मोंके द्वारा भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है? कर्म तो जड और बाँधनेवाले होते हैं' आदि-आदि भाव आना ही भगवान्के मतमें दोष-दृष्टि करना है। साधकको भगवान् और उनके मत दोनोंमें ही दोष-दृष्टि नहीं करनी चाहिये।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.31।। कर्मयोग के सिद्धान्त का मात्र ज्ञान होने से नहीं किन्तु उसके अनुसार आचरण करने पर ही वह हमारा कल्याण कर सकेगा। यह श्रीकृष्ण का मत है। अध्यात्म ज्ञान तो एक ही है परन्तु आचार्यों सम्प्रदाय संस्थापकों एवं भिन्नभिन्न धर्म प्रथाओं के मतों में अनेक भेद हैं जिसका कारण यह है कि वे सभी तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अपनी पीढ़ी का मार्ग दर्शन करना चाहते थे जिससे सभी साधक परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकें।बैलगाड़ी हांकने वाले चालक के चाबुक के नीचे काम करने वाले पशु के समान ही मनुष्य को बोझ उठाते हुये जीवन नहीं जीना चाहिये। परिश्रम केवल शरीर को सुदृढ़ बनाता है कर्म हमारे चरित्र की वक्रता को दूर कर आन्तरिक व्यक्तित्व को आभा प्रदान करते हैं। यदि हम अपने परिश्रमपूर्वक किये गये कर्मों में अपने मन और मस्तिष्क का भी पूर्ण उपयोग करें। असूया (गुणों में दोष दर्शन) का त्याग करके एवं श्रद्धापूर्वक कर्मयोग का पालन करने से ही यह संभव हो सकेगा।श्रद्धा संस्कृत में श्रद्धा का भाव गम्भीर है जिसे अंग्रेजी भाषा के किसी एक शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता।श्रीशंकराचार्य श्रद्धा को पारिभाषित करते हुए कहते हैं कि शास्त्र और गुरु के वाक्यों में वह विश्वास जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है श्रद्धा कहलाता है।यहाँ किसी प्रकार के अन्धविश्वास को श्रद्धा नहीं कहा गया है वरन् उसे बुद्धि की वह सार्मथ्य बताया गया है जिससे सत्य का ज्ञान होता है। बिना विश्वास के किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती तथा विचारों की परिपक्वता के बिना विश्वास में दृढ़ता नहीं आती है।अनसूयन्त (गुणों में दोष को नहीं देखने वाले) सामान्यत जगत् में हम जो कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं उसे समझने के लिये उसकी आलोचना भी की जाती है उसके विरुद्ध तर्क दिये जाते हैं। परन्तु यहाँ भगवान् अर्जुन को सावधान करते हैं कि केवल उग्र वादविवाद अथवा गहन अध्ययन मात्र में ही इस ज्ञान का उपयोग नहीं है। वास्तविक जीवन में उतारने से ही इस ज्ञान की सत्यता का अनुभव किया जा सकता है।वे भी कर्म से मुक्त होते हैं ऐसे वाक्यों को पढ़कर अनेक विद्यार्थी स्तब्ध रह जाते हैं। अब तक भगवान् कुशलतापूर्वक कर्म करने का उपदेश दे रहे थे और अब अचानक कहते हैं कि वे भी कर्म से मुक्त हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि जो पुरुष शास्त्रीय शब्दों के अर्थों को नहीं जानता उसे इन वाक्यों में विरोधाभास दिखाई देता है।नैर्ष्कम्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते समय हमने देखा कि आत्मअज्ञान ही इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत आनन्दस्वरूप आत्मा को पहचानने पर अविद्याजनित इच्छायें और कर्मों का अभाव हो जाता है। इसलिये यहाँ बताई हुई कर्मों से मुक्ति का वास्तविक तात्पर्य है अज्ञान के परे स्थित आत्मस्वरूप की प्राप्ति।केवल कर्मों के द्वारा परमात्मस्वरूप में स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती। संसदमार्ग स्वयं संसद नहीं है किन्तु वहाँ तक पहुँचने पर संसद भवन दूर नहीं रह जाता। इसी प्रकार यहाँ कर्मयोग को ही परमार्थ प्राप्ति का मार्ग कहकर उसकी प्रशंसा की गई है क्योंकि उसके पालन से अन्तकरण शुद्ध होकर साधक नित्यमुक्त स्वरूप का ध्यान करने योग्य बन जाता है।परन्तु इसके विपरीत

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.31।।प्रकृतं भगवतो मतमुक्तप्रकारमनुसृत्यैवानुतिष्ठतां क्रममुक्तिफलं कथयति यदेतदिति। शास्त्राचार्योपदिष्टेऽदृष्टार्थे विश्वासवत्त्वं श्रद्दधानत्वं गुणेषु दोषाविष्करणमसूया अपिर्यथोक्ताया मुक्तेरमुख्यत्वद्योतनार्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.31।।येऽन्येऽपि मानवाः मम परमेश्वरस्य मतं फलाभिसंधिराहित्येन चित्तशोधकं कर्मानुष्ठेयमित्येवंरुपं सप्रमाणमुक्तमीश्वरेण सर्वज्ञेनाप्ततमेनोक्तं यत्तत्तथ्यमेवेति निश्चयः श्रद्धा तद्युक्ता अतएवानुसूयन्तो मयि परम गुरौ वासुदेवेऽसूयादुःखात्मके कर्मण्यस्मान् प्रेरयतीति सुखसाधने तस्मिन्दोषारोपणमकुर्वन्तोऽनुतिष्ठन्ति अनुवर्तन्ते तेऽप्येवंभूताः सत्त्वशुद्धद्धिद्वारा ज्ञानप्राप्त्या धर्माधर्माख्यैः कर्मभिर्मुच्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.31 3.32।।फलमाह ये म इति। ये त्वेवं निवृत्तकर्मिणस्तेऽपि मुच्यन्ते ज्ञानद्वारा किम्वपरोक्षज्ञानिनः न तु साधनान्तरमुच्यते।निवृत्तादीनि कर्माणि ह्यपरोक्षेशदृष्टये। अपरोक्षेशदृष्टिस्तु मुक्तौ किञ्चिन्न मार्गते। सर्वं तदन्तराऽधाय मुक्तये साधनं भवेत्। न किञ्चिदन्तराधाय निर्वाणायापरोक्षदृक् इति ह्युक्तं नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अत एव समुच्चयनिमयो निराकृतः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.31।।ये म इति। येऽन्येऽपि त्वादृशाः मे मम मतमसक्त्या कर्मानुष्ठानं अनुतिष्ठन्त्यनुवर्तन्ते मानवाः श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः अत्र दोषमपश्यन्तः तेऽपि स्वकर्मभिर्धर्माधर्माख्यैर्मुच्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.31।।ये मानवाः आत्मनिष्ठशास्त्राधिकारिणःअयम् एव शास्त्रार्थः इत्येतत् मे मतं निश्चित्य तथा अनुतिष्ठन्ति ये च अननुतिष्ठन्तः अपि अस्मिन् शास्त्रार्थे श्रद्दधाना भवन्ति ये च अश्रद्दधाना अपिएवं शास्त्रार्थो न संभवति इति न अभ्यसूयन्ति अस्मिन् महागुणे शास्त्रार्थे दोषदर्शिनो न भवन्ति इत्यर्थः ते सर्वे बन्धहेतुभिः अनादिकालप्रारब्धैः कर्मभिः मुच्यन्ते। ते अपि कर्मभिः इति अपिशब्दाद् एषां पृथक्करणम्। इदानीम् अननुतिष्ठन्तः अपि अस्मिन् शास्त्रार्थे श्रद्दधाना अनभ्यसूयवः च श्रद्धया च अनसूयया च क्षीणपापा अचिरेण इमम् एव शास्त्रार्थम् अनुष्ठाय मुच्यन्ते इत्यर्थः।भगवदभिमतम् औपनिषद्म् अर्थम् अननुतिष्ठताम् अश्रद्दधानानाम् अभ्यसूयतां च दोषम् आह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.31।।एवं कर्मानुष्ठाने गुणमाह ये मे मतमिति। मद्वाक्ये श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः दुःखात्मके कर्मणि प्रवर्तयतीति दोषदृष्टिमकुर्वन्तश्च। ये मे मदीयमिदं मतमनुतिष्ठन्ति तेऽपि शनैः कर्मकुर्वाणाः सम्यग्ज्ञानिवत्कर्मभिर्मुच्यन्ते।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.31।।ये मे मतम् इति श्लोके मे मतभित्यौपनिषदपुरुषस्य सिद्धान्ताभिमानप्रदर्शनान्मोक्षसाधनत्वोपदेशमात्रस्य कृतकरत्वाच्च तत्प्राशस्त्यपरोऽयं श्लोक इत्यभिप्रायेणाह अयमेव साक्षादिति। ज्ञानयोगनिरपेक्ष इत्यर्थः। सारभूतः प्रधानभूतःसारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीबं वरे त्रिषु अमरः33।170 इति नैघण्टुकाः। प्राधान्यं चात्र मोक्षसाधने ज्यायस्त्वम्। मानवशब्दस्यात्रानधिकृतशूद्रादिसङ्ग्राहकत्वादधिकृतदेवादिप्रतिक्षेपकत्वाच्च तदुभयपरिहारायय इति प्रमाणसिद्धानुवादेनाधिकारिमात्रोपलक्षकोऽयं शब्द इत्यभिप्रायेणोक्तंये मानवा आत्मनिष्ठशास्त्राधिकारिण इति।नित्यमनुतिष्ठन्ति इत्युक्तं नित्यमनुष्ठानं निर्णयपूर्वकमेव प्रामाणिकत्वनिश्चयशून्यस्यानुष्ठानंकदाचिद्भज्येतापीत्यभिप्रायेणोक्तम्अयमेव शास्त्रार्थ इत्यादि। एतत् अयमेवेत्युक्तम् यद्वा एतन्मे मतं शास्त्रार्थ इति निश्चित्येत्यन्वयः शासितुर्मतमेव हि शास्त्रार्थ इति भावः।श्रद्धावन्तः इति पदमनुष्ठानात् पूर्वावस्थापरमित्याह ये चाननुतिष्ठन्तोऽपीति। ततोऽप्यर्वाचीनावस्थानसूयेत्याह ये चाश्रद्दधाना इति। गुणेषु दोषाविष्करणमसूयेत्यसूयालक्षणाभिप्रायेणाह अपन्निति। अपिशब्दो वर्गत्रयसमुच्चयपर इतिते सर्व इत्युक्तम्। ननु सम्भवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेदश्च नेष्यते श्रद्धावन्त इत्यादौ चभवन्ति इत्यध्याहारश्चानुचितः यच्छब्दस्य चैकत्र प्रयुक्तस्यावृत्तिरनुपपन्नेत्यत्राहतेऽपीति।एषामिति अधिकारिणां बुद्धिस्थानां वाक्यानां वा।अयमभिप्रायः नात्रैकवाक्यत्वं सम्भवति अपिशब्दानन्वयात् अपिशब्दो ह्यत्रानुष्ठातृभिः सहाधिकार्यन्तरसमुच्चयपरो वा अनुष्ठातृ़णामपकर्षपरो वा स्यात्। तत्र ज्ञानयोगिनां समुच्चयः सम्भवन्नप्यत्रानपेक्षितः कर्मयोगप्रशंसाप्रकरणानुचितश्च। ज्ञानयोगिभ्यः कर्मयोगिनामपकर्षसूचनं त्वत्रात्यन्तविरुद्धम्। नित्यमनुष्ठातृ़णां श्रद्धावन्तोऽनसूयन्त इति विशेषणाभिधानं च निरर्थकम्। न हि नित्यमनुतिष्ठन्तोऽश्रद्दधाना असूयन्तश्च भवेयुः। अवस्थात्रयविषयत्वे तु समुच्चयपरतया वा अर्वाचीनावस्थापकर्षपरतया वा शक्यमपिशब्दो नेतुमिति।अनुष्ठातृ़णां श्रद्धानसूयामात्रवतां च तुल्यफलत्वेऽनुष्ठानविधायकशास्त्रवैयर्थ्यं स्यादित्याशङ्क्याह इदानीमिति। श्रद्धानसूययोः पापनिर्हरणहेतुत्वं चधर्मः श्रुतो वा दृष्टो वा स्मृतो वा कथितोऽपि वा। अनुमोदितो वा राजेन्द्र पुनाति पुरुषं सदा म.भा.14।94।29 इत्यादिसिद्धम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.31 3.32।।ये म इति। ये त्वेतदिति। एतच्च मतमाश्रित्य यः कश्चित् यत्किंचित् करोति तत्तस्य न बन्धकम्। एतस्मिंस्तु ज्ञाने ये न श्रद्धालवः ( श्रद्धालवाः) ते विनष्टाः अविरतं जन्ममरणादि ( S omitsआदि) भयभावितत्त्वात्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.31 3.32।।अन्यथाप्रतीतिं निराकर्तुं तावदुत्तरश्लोकद्वयप्रतिपाद्यमाह फलमिति। केचिद्विद्वांसः कुर्वन्तीत्येतावता मया कार्यं न वा इत्याशङ्क्य स्वोक्तकरणाकरणयोः फलमाहेत्यर्थः।मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः इत्यपिशब्देन ज्ञानमिव निवृत्तं कर्मापि मोक्षसाधनमुच्यते इत्यन्यथा प्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे ये त्विति। कैमुत्यद्योतनार्थोऽपिशब्दो न समुच्चयार्थ इत्यर्थः। प्रासङ्गिकं चैतत्। समुच्चये यद्यपिशब्दः स च द्वेधा ज्ञानमिव कर्मापि पृथक्साधनं ज्ञानकर्मसमुच्चय एवेति। तत्राद्यपक्षं निराकरोति न त्विति।निष्कामत्वादिनाऽनुष्ठितानि यज्ञादीनि निवृत्तानि। आदिपदेन नित्यनैमित्तिकानां ग्रहणम्। अपरोक्षा च सा ईशदृष्टिश्च तादर्थ्ये चतुर्थी। मुक्तौ मुक्तिसाधने किञ्चित्सहकारि कर्मापि मुक्तिसाधनमुच्यत इत्यत उक्तंसर्वमिति। तत्सर्वं निवृत्तादिकम्। अन्तरा मध्ये। ज्ञानमाधाय। मुक्तये मुक्तेः। अहल्यायै जारेति यथा। साक्षात् साधनत्वेन श्रुतमपि कर्म यथा व्यवहितं जातं किमपि ज्ञानं तथा नेत्युक्तम् न किञ्चिदिति। द्वितीयमपि प्रकारमतिदेशेन निराचष्टे अत एवेति।अपरोक्षेशदृष्टिस्तु मुक्तौ किञ्चिन्न मार्गते इत्युक्तत्वादेवेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.31।।फलाभिसंधिराहित्येन भगवदर्पणबुद्ध्या विहितकर्मानुष्ठानं सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण मुक्तिफलमित्याह। इदं फलाभिसंधिराहित्येन विहितकर्माचरणरूपं मम मतं नित्यं नित्यवेदबोधितत्वेनानादिपंरपरागतं आवश्यकमिति वा सर्वदेति वा मानवा मनुष्याः ये केचित् मनुष्याधिकारित्वात्कर्मणां श्रद्धावन्तः शास्त्राचार्योपदिष्टेर्थेऽननुभूतेऽप्येवमेवैतदिति विश्वासः श्रद्धा तद्वन्तः। अनसूयन्तः गुणेषु दोषाविष्करणसूया सा च दुःखात्मके कर्मणि मां प्रवर्तयन्नकारुणिकोऽयमित्येवंरूपा। प्रकृते प्रसक्तां तामसूंयामपि गुरौ वासुदेवे सर्वसुहृद्यकुर्वन्तो येऽनुतिष्ठन्ति तेऽपि सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण सम्यक् ज्ञानिवन्मुच्यन्ते कर्मभिर्धर्माधर्माख्यैः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.31।।अर्जुनार्थं चेद्भगवतोक्तं स्यात्तदाऽर्जुनस्य तत्रैवासक्तिः स्यात्तदाऽग्रे पुष्टिरूपसर्वत्यागोपदेशोऽनुपपन्नः स्यात् अर्जुनस्याप्यन्यत्रानधिकाराद्भगवदुक्तेषु धर्मेष्वपि न प्रवृत्तिः स्वयोग्योपदेशार्थं पुनः पुनः प्रश्नानेव कृतवान्। ननु तदर्थं नोक्तं चेत्किमर्थम् तदर्जुनद्वारा सकलसन्मार्गप्रवृत्त्यर्थमुक्तम्। तदेवाह परं योऽन्योऽप्येवं कुर्यात्तस्यापि कर्मजो बन्धो न स्यादित्याहुः ये मे मतमिति। ये मानवाः सद्धर्मोत्पन्ना मे मतमिदं पूर्वोक्तं श्रद्धावन्तो मदुक्तत्वादनसूयन्तोऽसहिष्णुताहीना अनुतिष्ठन्ति तेऽपि कर्मभिस्तज्जन्यफलभोगैर्मुच्यन्ते। मदाज्ञया कृतत्वान्मदुक्तिविश्वासतोऽन्यकर्माण्यपि मोक्षसाधकान्येव भवन्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.31।। ये मे मदीयम् इदं मतं नित्यम् अनुतिष्ठन्ति अनुवर्तन्ते मानवाः मनुष्याः श्रद्धावन्तः श्रद्दधानाः अनसूयन्तः असूयां च मयि परमगुरौ वासुदेवे अकुर्वन्तः मुच्यन्ते तेऽपि एवंभूताः कर्मभिः धर्माधर्माख्यैः।।

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.31।।एवं कर्मानुष्ठाने गुणमाह ये मे मतमिति। तेऽपि कर्मभिरेव कृत्वा कर्मतो वा मुक्तिं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।


Chapter 3, Verse 31