Chapter 3, Verse 28

Text

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।

Transliteration

tattva-vit tu mahā-bāho guṇa-karma-vibhāgayoḥ guṇā guṇeṣhu vartanta iti matvā na sajjate

Word Meanings

tattva-vit—the knower of the Truth; tu—but; mahā-bāho—mighty-armed one; guṇa-karma—from guṇas and karma; vibhāgayoḥ—distinguish; guṇāḥ—modes of material nature in the shape of the senses, mind, etc; guṇeṣhu—modes of material nature in the shape of objects of perception; vartante—are engaged; iti—thus; matvā—knowing; na—never; sajjate—becomes attached


Translations

In English by Swami Adidevananda

But he who knows the truth about the division of the Gunas and works, O mighty-armed one, through his knowledge that the Gunas 'operate on their own products,' is not attached.

In English by Swami Gambirananda

But, O mighty-armed one, the one who is a knower of the facts about the varieties of the gunas and actions does not become attached, thinking thus: 'The organs act on the objects of the organs.'

In English by Swami Sivananda

But he who knows the Truth, O mighty-armed Arjuna, about the divisions of the qualities and their functions, knowing that the Gunas, as senses, move amidst the Gunas, as the sense-objects, is not attached.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

But, O mighty-armed one, the one who knows the true nature of the strands and their respective divisions of work, realizes: 'The strands are in their respective purposes.' And thus, he is not attached.

In English by Shri Purohit Swami

But he, O Mighty One, who correctly understands the relationship between the Qualities and action, is not attached to the act, for he perceives that it is merely the action and reaction of the Qualities among themselves.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.28।।  हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं' --  ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.28।। परन्तु हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग के सत्य (तत्त्व)को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि "गुण गुणों में बर्तते हैं" (कर्म में) आसक्त नहीं होता।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.28 तत्त्ववित् the knower of the Truth? तु but? महाबाहो O mightyarmed? गुणकर्मविभागयोः of the divisions of alities and functions? गुणाः the alities (in the shape of senses)? गुणेषु amidst the alities (in the shape of objects)? वर्तन्ते remain? इति thus? मत्वा knowing? न not? सज्जते is attached.Commentary He who knows the truth that the Self is entirely distinct from the three Gunas and actions does not become attached to the actions. He who knows the truth about the classification of the Gunas and their respective functions understands that the alities as senseorgans move amidst the alities as senseobjects. Therefore he is not attached to the actions. He knows? I am Akarta -- I am not the doer. (Cf.XIV.23).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.28।। व्याख्या--'तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः'-- पूर्वश्लोकमें वर्णित 'अहंकारविमूढात्मा' (अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाले पुरुष) से तत्त्वज्ञ महापुरुषको सर्वथा भिन्न और विलक्षण बतानेके लिये यहाँ 'तु' पदका प्रयोग हुआ है।सत्त्व, रज और तम--ये तीनों गुण प्रकृतिजन्य हैं। इन तीनों गुणोंका कार्य होनेसे सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। अतः शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं। यही 'गुण-विभाग' कहलाता है। इन (शरीरादि) से होनेवाली क्रिया 'कर्मविभाग' कहलाती है।गुण और कर्म अर्थात् पदार्थ और क्रियाएँ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा क्रियाएँ आरम्भ और समाप्त होनेवाली हैं। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही गुण और कर्म-विभागको तत्त्वसे जानना है। चेतन (स्वरूप) में कभी क्रिया नहीं होती। वह सदा निर्लिप्त ,निर्विकार रहता है अर्थात् उसका किसी भी प्राकृत पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध नहीं होता। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही चेतनको तत्त्वसे जानना है।अज्ञानी पुरुष जब इन गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बँध जाता है। शास्त्रीय दृष्टिसे तो इस बन्धनका मुख्य कारण 'अज्ञान' है, पर साधककी दृष्टिसे 'राग' ही मुख्य कारण है। राग 'अविवेक' से होता है। विवेक जाग्रत् होनेपर राग नष्ट हो जाता है। यह विवेक मनुष्यमें विशेषरूपसे है। आवश्यकता केवल इस विवेकको महत्त्व देकर जाग्रत् करनेकी है। अतः साधकको (विवेक जाग्रत् करके) विशेषरूपसे रागको ही मिटाना चाहिये।तत्त्वको जाननेकी इच्छा रखनेवाला साधक भी अगर गुण (पदार्थ) और कर्म-(क्रिया-) से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता, तो वह भी गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जान लेता है। चाहे गुणविभाग और कर्मविभागको तत्त्वसे जाने, चाहे 'स्वयं'-(चेतन-स्वरूप-) को तत्त्वसे जाने, दोनोंका परिणाम एक ही होगा।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.28।। पूर्व श्लोक में अज्ञानी का जो लक्षण बताया गया है उसकी तुलना में ज्ञानी पुरुष की उससे ठीक विपरीत दृष्टि यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं। ज्ञानी के कर्मों में आसक्ति का कोई स्थान नहीं रहता क्योंकि वह जानता है कि मन ही बाह्यजगत् में कर्मरूप में व्यक्त होता है। यह विवेक उसमें सदा जागृत रहता हैं। एक बार इस सत्य को सम्यक् रूप से जान लेने पर ज्ञानी पुरुष यह समझ लेता है कि राग और द्वेष प्रवृत्ति या निवृत्ति सफलता और विफलता ये सब मन के लिए हैं। अत उसे फल में आसक्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता। इस प्रकार बन्धनों से मुक्त हुआ ज्ञानी पुरुष एक सच्चे खिलाड़ी के समान कार्य करता है जिसका आनन्द केवल खेल में ही हैं अंक जीतने में नहीं।इस स्थान पर श्रीकृष्ण का अर्जुन को महाबाहो कहकर सम्बोधित करना अर्थपूर्ण है। इस सम्बोधन से हमें धनुर्धारी के रूप में अर्जुन की अनेक उपलब्धियों का स्मरण होता है। यहाँ महाबाहो शब्द सूचित करता है कि सच्चा और वीर पुरुष वह नहीं जो किसी युद्ध में केवल कुछ शत्रुओं का ही वध करे बल्कि जो निरन्तर मन में चल रहे युद्ध का अथक सामना करते हुये आसक्तियों के ऊपर पूर्ण विजय प्राप्त करता है वही पुरुष वास्तविक वीर है। कर्म के युद्धक्षेत्र में परिस्थितियों पर आधिपत्य स्थापित करते हुये समस्त दिशाओं से आने वाले आसक्तियों के बाणों के समक्ष आत्मसमर्पण न करते हुये जोे कर्म करता है वही अपराजेय अमर वीर है। तत्पश्चात् वह निशस्त्र होकर र्मत्य वीरों के रथ में बैठकर प्रत्येक कुरुक्षेत्र में अनेक सेनाओं का मार्गदर्शन कर सकता है ऐसा ही पुरुष जो सत्य का ज्ञाता है तत्त्ववित कहलाता है।अब

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.28।।अज्ञस्य कर्मसु शक्तिमुक्त्वा विदुषस्तदभावमभिदधाति यः पुनरिति। तत्त्वं याथार्थ्यं वेत्तीति व्युत्पत्त्या तत्त्वविदिति तुशब्देनाज्ञाद्विशिष्टे निर्दिष्टप्रश्नपूर्वकं द्वितीयपादमवतार्य व्याचष्टे कस्येत्यादिना। गुणानामेव गुणेषु वर्तमानत्वमयुक्तं निर्गुणत्वात्तेषामित्याशङ्क्य विभजते गुणा इति। कार्यकरणानामेव विषयेषु प्रवृत्तिरात्मनस्तु कूटस्थत्वान्मैवमिति ज्ञात्वा तत्त्ववित्कर्मसु दृढतरं कर्तव्याभिमानं न करोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.28।।तत्त्ववित्तु। तुशब्दोऽज्ञाद्वैलक्षण्यद्योतनार्थः। कस्य तत्त्वविदित्यतआह। गुणकर्मविभागयोः गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्वविदित्यर्थ इति भाष्यम्। अस्यायमर्थः। नाहं कार्यकरणसंघातात्मेति गुणेभ्य आत्मनो विभागः न मे कर्माणीत्यात्मनस्तेभ्यो विभागः गुणकर्मभ्यां विभक्तात्मसाक्षात्कारवान्। तथाच नायमहंकारविमूढात्मा नापि कर्मण्यासक्तो येनाहंकर्तेति मन्येत। विभागपदाभावे त्वयमर्थो न लभ्यते। विग्रहस्तु विभागश्च विभागश्च विभागौ गुणकर्मभ्यो विभागौ गुणकर्मविभागौ तयोर्गुणकर्मविभागयोरिति बोध्यः। एतेन गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्वविदिति वा। अस्मिन्पक्षे गुणकर्मणोरित्येतावतैव निर्वाहे विभागपदस्य प्रयोजनं चिन्त्यमित्याक्षेपः प्रत्युक्तः। यत्त्वाक्षेप्त्रा स्वव्याख्यानं प्रदर्शितं गुणानि देहेन्द्रियान्तःकरणान्यहंकारास्पदानि कर्माणि च तेषां व्यापारभूतानि ममकारास्पदानीति। गुणकर्मेति द्वन्द्वैकवद्भावः। विभज्यते सर्वेषां जडानां विकारिणां भासकत्वेन यथा भवतीति विभागः स्वप्रकाशज्ञानरुपोऽसङ्ग आत्मा गुणकर्म च विभागश्चेति द्वन्द्वः तयोर्गुणकर्मविभागयोर्भास्यभासकयोर्जडचैतन्ययोर्विकारीनिर्विकारयोस्तत्त्वं याथात्म्यं यो वेत्तीति तच्चिन्त्यम्। गुणकर्मेत्यस्यैकपदत्वेऽल्पाच्त्वाद्भ्यर्हितत्वाच्च विभागपदस्य पूर्वनिपातापत्तेश्छान्दसत्वनिपातप्रकरणानित्यत्वयोराश्रयणस्य भाष्योक्तरीत्या सत्यां गतावनुचितत्वात्। विभागपदस्य प्रसिद्धमर्थं परित्यज्याप्रसिद्धार्थकल्पनायाः क्लिष्टकल्पनायाश्चान्याय्यत्वादितिदिक्। यदप्यन्ते यस्तत्त्ववित्सः गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा गुणविभागे कर्मविभागे च न सज्जत इति योजना। गुणानां सत्त्वरजस्तमसां विभागः बुद्य्धहंकारज्ञानेन्द्रियविषयरुपेण विभज्यावस्थानं तस्मिन्न सज्जते इदमहमिति न मन्यते। एतेन कर्मविभागोऽप्यावश्यकत्वेन व्याख्यातः। अन्यथा चिदात्मन्येवादानादिकर्तृव्यं दुःखादिमत्त्वं चापतति तथाचात्मानात्मनोर्याथात्म्यज्ञः व्यापृतेष्वहंकारादिषु तत्कर्मसु चाभिमानादिषु कुसुमेषु सूत्रमिवानुवर्तमानमात्मानं तेभ्यः पृथग्भूतं जानन् गुणा धीचक्षुरादयो गुणेषु दुःखरुपादिषु वर्तन्ते न त्वात्मेति मत्वा न सज्जतेऽहमेव हस्तादिसंघातरूपो ममैवेदमादानादिकं कर्मेति न सक्तो भवतीत्यर्थ इति तदपि विचार्यम्। गुणाकर्मणोर्न सज्जत इत्येतावतैव निर्वाहे विभागपदवैयर्थ्यापत्तेः तथाचेत्यादिग्रन्थस्य स्वव्याख्यानाननुरुपत्वाच्चेति दिक्। गुणाः करणात्मकाः गुणेषु विषयेषु प्रवर्तन्ते नात्मेति मत्वा न सज्जते सक्तिं कर्तृत्वाभिनिवेशं न करोति। महान्तौ बाहू शत्रुहनने प्रवर्तेते नाहमिति मत्वा त्वमपि कर्तृत्वाभिनिवेशं कर्तुं नार्हसीति ध्वनयन्नाह हे माहबाहो इति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.28।।कर्मभेदस्य गुणभेदस्य च तत्त्ववित्। गुणा इन्द्रियादीनि गुणेषु विषयेषु।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.28।।एवं सक्तस्य कर्माचरणं प्रदर्श्यासक्तस्य तत्प्रदर्शयति तत्त्वविदिति। गुणकर्मविभागयोः गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्वविदिति भाष्यम्। नाहं गुणात्मक इति गुणेभ्य आत्मनो विभागः नाहं कर्मात्मक इति कर्मभ्यश्चात्मनो विभागः तयोर्गुणकर्मविभागयोस्तत्त्वं वेत्तीति श्रीधरः। मधुसूदनस्तु गुणाः देहेन्द्रियान्तःकरणान्यहंकारास्पदानि। कर्माणि च तेषां व्यापारभूतानि ममकारास्पदानि। गुणकर्मेति द्वन्द्वैकवद्भावः। विभज्यते सर्वेषां जडानां भासकत्वेन पृथग्भवतीति विभागः स्वप्रकाशज्ञानरूपोऽसङ्ग आत्मा। गुणकर्म च विभागश्चेति द्वन्द्वः। तयोर्जडाजडयोस्तत्त्वं यो वेत्ति सः गुणाः करणात्मकाः गुणेषु विषयेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते। कर्तृत्वाभिनिवेशं न करोतीत्यर्थः। गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्वविदिति पक्षे गुणकर्मणोरित्येव सिद्धे विभागपदं व्यर्थमिति। यद्वा यस्तत्त्ववित् स गुणाः गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा गुणविभागे कर्मविभागे च न सज्जते इति योजना। गुणानां सत्त्वरजस्तमसां विभागो बुद्ध्यहंकारज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियविषयरूपेण विभज्यावस्थानं तस्मिन्न सज्जते इदमहमिति न मन्यते। तथाहि शरीरे गौरेऽहं गौरोऽस्मि हस्ताभ्यामात्ते मयेदमात्तमिति चक्षुषा दृष्टे मयेदं दृष्टमित्यहंकारेणाभिमते ममेदमित्यभिमन्यते। बुद्धौ विक्रियमाणायामहं सुखीति च सर्वेषु बुद्ध्यादिषु विभज्य गृह्यमाणेष्वपि प्रत्येकं प्रत्यक्त्वमध्यस्याहमिदमिति ममेदं कर्मेति च मन्यते। एतेन कर्मविभागोऽप्यावश्यकत्वेन व्याख्यातः। अन्यथा चिदात्मन्येवादनादिकर्तृत्वं दुःखादिमत्त्वं चापतति। अयं च कर्मविभागः श्रुत्यापि दर्शितःअन्धो मणिमविन्दत्। तमनङ्गुलिरावयत्। अग्रीवः प्रत्यमुञ्चत्। तमजिह्वो असश्चत् इति। अन्धः स्वयं प्रकाशहीनोऽपि चक्षुरादिर्मणिं रूपादिकं विषयमविन्दत्प्रकाशयति। अनङ्गुलिः काष्ठलोष्ठादिवज्जडत्वात् स्वयं कर्म कर्तुमशक्तोऽपि पाण्यादिः आवयदासीव्यत् विषयमुपादत्ते। अग्रीवः छिन्नशिरस्कवन्निर्जीवोऽहंकारस्तं प्रत्यमुञ्चत् ग्रीवायां धारयति मयेदं लब्धमिति मन्यते। अजिह्वो धीधातुः जडत्वात्स्वयं स्वगतसुखदुःखयोः पट इव स्वगतरूपादेः प्रकाशनेऽसमर्थोऽप्यहं सुखी दुःखीति चानुभवति। तथाचात्मानात्मनोर्याथात्म्यज्ञो व्यावृत्तेष्वहंकारादिषु तत्कर्मसु चाभिमानादिषु कुसुमेषु सूत्रमिवानुवर्तमानमात्मानं तेभ्यः पृथग्भूतं जानन् गुणा धीचक्षुरादयो गुणेषु दुःखरूपादिषु वर्तन्ते न त्वात्मेति मत्वा न सज्जतेऽहमेव हस्तादिसंघातरूपो ममैवेदमादानादिकं कर्मेति न सक्तो भवतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.28।।गुणकर्मविभागयोः सत्त्वादिगुणविभागे तत्तत्कर्मविभागे च तत्त्ववित् गुणाः सत्त्वादयः स्वगुणेषु स्वेषु कार्येषु वर्तन्ते इति मत्वा गुणकर्मसु अहं कर्ता इति न सज्जते।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.28।।विद्वांस्तु तथा न मन्यत इत्याह तत्त्वविदिति। नाहं गुणात्मक इति गुणेभ्य आत्मनो विभागः। न मे कर्माणीति कर्मभ्योऽप्यात्मनो विभागस्तयोर्गुणकर्मविभागयोर्यस्तत्त्वं वेत्ति स तु न सज्जते कर्तृत्वाभिनिवेशं न करोति। तत्र हेतुः। गुणा इन्द्रियाणि गुणेषु विषयेषु वर्तन्ते नाहमिति मत्वा।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 3.28 लोकस्य सङ्ग्रहणमेकीकृत्य स्वीकरणं स्वानुष्ठाने समानाभिप्रायतया सयूथ्यतापादनमित्यर्थः। कर्मवासना उत्तरोत्तरपुण्यपापारम्भकपूर्वपूर्वपुण्यपापांशविशेषः उत्तरोत्तरशरीरप्रेरणसमर्थस्मृतिहेतुः पूर्वपूर्वशरीरप्रेरणानुभवविशेषजनितसंस्कारो वा वादित्रवादनादिसंस्कारवत्। बुद्धिभेदो बुद्धेरन्यथाकरणम् तच्च प्रकृतविषयं दर्शयति कर्मयोगादन्यदित्यादिना।युक्तः इत्यनेन लोकसङ्ग्रहार्थं कुर्वतः स्वापेक्षितविलम्बाभावाय प्रागुक्तनिरपेक्षत्वबुद्धियोगो विवक्षित इतिबुद्ध्या युक्त इत्युक्तम्।जोषयेत् इत्यस्यार्थ प्रीतिं जनयेदिति।जुषी प्रीतिसेवनयोः इति धातुः। कर्मसङ्गिनः पुरुषान् सर्वकर्माणि जोषयेदित्यन्वयः।।प्रकृतेः इत्यादिश्लोकचतुष्टयस्यार्थमाह कर्मयोगमिति।विदुषोऽविदुषश्चेति व्युत्क्रमेण श्लोकद्वयार्थः। तृतीये त्वेतद्विशदीकरणमुखेनाविचालनमुक्तम्।कर्मयोगापेक्षितं कर्मयोगेति कर्तव्यताभूतमित्यर्थः।प्रकृतेर्गुणैः इत्युक्ते प्रसिद्धिप्रकर्षादिसिद्धं विशेषं प्रस्तुतानुपयुक्तशब्दादिप्राकृतगुणव्यवच्छेदायाहसत्त्वादिभिरिति। वक्ष्यमाणसात्विकादिकर्मविभागंसर्वशः इति प्रकारवाचिपदसूचितमाह स्वानुरूपमिति।कर्ता इति तृजन्तयोगात् षष्ठीप्राप्तिः स्यादिति तत्परिहाराय कर्मसु कर्तृत्वाहन्त्वोक्तिभ्रमव्युदासाय चकर्माणि प्रतीत्युक्तम्। तृन्नन्तत्वविवक्षायां त्वियं फलितोक्तिः।अहङ्कारविमूढात्मेति समानांशत्रयस्य बह्वर्थपरस्य अत्रार्थं विवक्षन् विगृह्णातिअहङ्कारेणेति। नात्राहम्भावमात्रमुच्यते तस्यात्मस्वभावान्तर्गतत्वात् नापि अहङ्काराख्यमचिद्द्रव्यं तस्यापि देहात्मभ्रमं द्वारीकृत्य कार्यकरत्वे सति अव्यवहितस्यैव वक्तुमुचितत्वात् नापि गर्वः उत्कृष्टपरिभवादिहेतुत्वेनानिर्देशात्। अतोऽहङ्कार इति देहात्मभ्रम एवात्र विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह अहङ्कारो नाम अनहमर्थे प्रकृतावहमभिमान इति। एतेनाहङ्कारशब्दस्याभूततद्भावे च्विप्रत्ययेन व्युप्तत्तिर्दर्शिता।अज्ञातात्मस्वरूप इति। विमूढ आत्मा स्वरूपं यस्य स विमूढात्मादिशो विमुह्येयुः इतिवद्विमूढशब्दोऽत्र मोहविषयसमानाधिकरण इति भावः।गुणकर्मविभागयोः इत्यत्र उपसर्जनान्वयिषष्ठीत्वादपि विषयसप्तमीत्वमुचितमिति मत्वोक्तं सत्त्वादिगुणविभागे तत्तत्कर्मविभागे चेति। विभागशब्दो द्वन्द्वात्परत्वात् प्रत्येकमन्वितः। गुणानां साक्षाद्गुणेषु वृत्त्यभावात् परोक्तप्रक्रिययेन्द्रियतद्विषयादिविवक्षायां पदद्वयोपचारात् सप्तम्यन्तो गुणशब्दो गुणकार्येष्वौपचारिक इत्यभिप्रायेणोक्तंस्वगुणेषु स्वेषु कार्येष्विति। गुणकार्याणि च विभजिष्यन्ते। यद्वा कारणस्य प्राधान्यात्कार्यस्य च तदपेक्षया गुणत्वादेवमुक्तम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.28।।तत्त्ववित्त्विति। गुणकर्मविभागवित्तु प्रकृतिः करोति मम किमायातम् इत्यात्मानं मोचयति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.27 3.28।।प्रकृतेः क्रियमाणानि इति श्लोकद्वयस्यास्फुटत्वात्तात्पर्यमाह विद्वदिति। यथायोगं सम्बन्धः न यथाक्रमम्। कर्मभेदं कर्मवैलक्षण्यं आह प्रपञ्चयतीत्यर्थः।सक्ताः कर्मणि 3।25 इत्यादिनोक्तत्वात्। व्यवहितत्वादन्वयं दर्शयन् गुणशब्दस्यानेकार्थत्वात् विवक्षितमर्थमाह प्रकृतेरिति।आदिपदेन शरीरमनसोर्ग्रहणम्। कथमिन्द्रियादीनां द्रव्याणां प्रकृतिगुणत्वमित्यत आह प्रकृतिमिति। गुणभूतान्यप्रधानानि। प्रकारान्तरेण व्याचष्टे तदिति। प्रकृतिकार्याणि चेत्यर्थः। गुणशब्दः कार्यार्थ इत्युक्तं भवति। ननु जीवस्यापि कर्तृत्वात्अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते इति कथमुच्यते इत्यत आह न हीति। स्वातन्त्र्येणेति शेषः।।गुणानां कर्मणां चान्योन्यं यो विभागस्तस्मिन्वक्तव्ये एकवचनेनालं कथं द्विवचनं केन वाऽस्यान्वयः इति शङ्काविभागशब्दस्यार्थं वदन्परिहरति कर्मेति। जीवेश्वरप्रकृतिलक्षणसम्बन्धिभेदात् कर्मणामिन्द्रियादीनां च भेदोऽत्र विवक्षितो ग्रन्थान्तरादवगन्तव्यः। गुणा गुणेष्विति पदद्वयस्य विवक्षितमर्थमाह गुणा इति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.28।।विद्वांस्तु तथा न मन्यत इत्याह तत्त्वं याथात्म्यं वेत्तीति तत्त्ववित्। तुशब्देन तस्याज्ञाद्वैशिष्ट्यमाह। कस्य तत्त्वमित्यतआह गुणकर्मविभागयोः गुणा देहेन्द्रियान्तःकरणान्यहंकारास्पदानि कर्माणि च तेषां व्यापारभूतानि ममकारास्पदानीति गुणकर्मेति द्वन्द्वैकद्भावः। विभज्यते सर्वेषां जडानां विकारिणां भासकत्वेन पृथग्भवतीति विभागः स्वप्रकाशज्ञानरूपोऽसङ्ग आत्मा। गुणकर्म च विभागश्चेति द्वन्द्वः। तयोर्गुणकर्मविभागयोर्भास्यभासकयोर्जडचैतन्ययोर्विकारिनिर्विकारयोस्तत्त्वं याथात्म्यं यो वेत्ति स गुणाः करणात्मका गुणेषु विषयेषु प्रवर्तन्ते विकारित्वान्नतु निर्विकार आत्मेति मत्वा न सज्जते सक्तिं कर्तृत्वाभिनिवेशमतत्त्वविदिव न करोति। हे महाबाहो इति संबोधयन्सामुद्रिकोक्तसत्पुरुषलक्षणयोगित्वान्न पृथग्जनसाधारण्येन त्वमविवेकी भवितुमर्हसीति सूचयति। गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्वविदिति वा। अस्मिन्पक्षे गुणकर्मणोरित्येतावतैव निर्वाहे विभागपदस्य प्रयोजनं चिन्त्यम्।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.28।।एवमविदुषः स्वरूपमुक्त्वा विद्वत्स्वरूपमाह तत्त्वविदिति। हे महाबाहो ज्ञात्वा क्रियाकरणसमर्थ क्रियावान् गुणकर्मविभागयोस्तत्त्ववित्गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा कर्मसु न सज्जते। अत्रायं भावः गुणास्तु भगवता सात्त्विकादिभावभिन्नविचित्रस्वरसभोगार्थं प्रकटीकृताः। अत एव व्रजविलासिनीषु सात्त्विकादिगुणा निरूपिताः श्रीभागवते। कर्म तु लोकसङ्ग्राहार्थं कार्यते। तथा चैतद्विभागतत्त्ववित् गुणा जीवस्था गुणेषु भगवद्गु৷৷৷৷৷৷৷৷.णेषु वर्त्तन्ते प्रभुः स्वरसभोगार्थं गुणभावैस्तदुपयोगिकर्माणि कारयति। अन्यानिकर्माणि तु लोकार्थं कारयतीति मत्वा मूढवदेवाहमेव कर्ता तत्फलं मम भविष्यतीति न सज्जत इति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.28।। तत्त्ववित् तु महाबाहो। कस्य तत्त्ववित् गुणकर्मविभागयोः गुणविभागस्य कर्मविभागस्य च तत्त्ववित् इत्यर्थः। गुणाः करणात्मकाः गुणेषु विषयात्मकेषु वर्तन्ते न आत्मा इति मत्वा न सज्जते सक्तिं न करोति।।ये पुनः

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.27 3.28।।कर्म कुर्वतोर्विद्वदविदुषोर्विशेषं स्पष्टं सन्दर्शयति प्रकृतेरिति द्वाभ्याम्। प्रकृते योगे साङ्खयरीत्या विशेषदर्शनमिति नाप्रकृतप्रसङ्गः। तथाहि ब्रह्मवादिसाङ्ख्ये जगतः कर्त्ता भोक्ता सर्वधर्माश्रयः पुरुषोत्तम एवांशतोऽक्षरः कालः प्रकृतिः पुरुष आत्मा भवति स (इममेव) आत्मानं द्वेधापातयत् (ततः) पतिश्च पत्नी चाभवत् बृ.उ.1।4।3 इति श्रुतेः। तत्र कर्त्री प्रकृतिस्तत्संसृष्टतया पुरुषश्च भोक्ता। वस्तुतः पुष्करपलाशवत्प्राकृतधर्मैरवशस्तथापि तद्गुणैः परिणतगुणैरिन्द्रियैरिन्द्रियनिष्ठैर्वा गुणैः क्रियमाणानि कर्मामि कर्त्ताऽहं पुरुष इति मन्यते विपरीतमतिः। गुणेः कर्माणि क्रियन्ते न केवलेनात्मनेति। विभागतत्त्ववित्तु न सज्जते। इन्द्रियनिष्ठा गुणा विषयगुणेषु वर्तन्ते इति मननात्साङ्ख्ययोगयोरेक एवार्थः।


Chapter 3, Verse 28