Chapter 3, Verse 21

Text

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।

Transliteration

yad yad ācharati śhreṣhṭhas tat tad evetaro janaḥ sa yat pramāṇaṁ kurute lokas tad anuvartate

Word Meanings

yat yat—whatever; ācharati—does; śhreṣhṭhaḥ—the best; tat tat—that (alone); eva—certainly; itaraḥ—common; janaḥ—people; saḥ—they; yat—whichever; pramāṇam—standard; kurute—perform; lokaḥ—world; tat—that; anuvartate—pursues


Translations

In English by Swami Adidevananda

Whatever a great man does, others do too. Whatever standard he sets, the world follows it.

In English by Swami Gambirananda

Whatever a superior person does, another person does the same! Whatever they uphold as authority, an ordinary person follows that.

In English by Swami Sivananda

Whatever a great man does, others also do; whatever he establishes as the standard, the world follows.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whatever a great man does, others of lesser stature follow suit; whatever standard he sets, the world follows it.

In English by Shri Purohit Swami

For whatever a great man does, others imitate; people conform to the standard he has set.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.21।। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण  देता है,  दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.21।। श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं।।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.21 यद्यत् whatsoever? आचरति does? श्रेष्ठः the best? तत्तत् that? एव only? इतरः the other? जनः people? सः he (that great man)? यत् what? प्रमाणम् standard (authority? demonstration)? कुरुते does? लोकः the world (people)? तत् that? अनुवर्तते follows.Commentary Man is a social animal. He is an imitating animal too. He takes his ideas of right and wrong from those whom he regards as his moral superior. Whatever a great man follows? the same is considered as an authority by his followers. They try to follow him. They endeavour to walk in his footsteps.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 3.21।। व्याख्या--'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'-- श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो संसार-(शरीरादि पदार्थों-) को और 'स्वयं'-(अपने स्वरूप-) को तत्त्वसे जानता है। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, जमीन आदि पदार्थ संसारके हैं, अपने नहीं। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ पुरुष त्याग, वैराग्य, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण आदिको भी अपना नहीं मानता; क्योंकि उन्हें भी अपना माननेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता है, जो तत्त्वप्राप्तिमें बाधक है। 'मैं त्यागी हूँ', 'मैं वैरागी हूँ', 'मैं सेवक हूँ', 'मैं भक्त हूँ' आदि भाव भी व्यक्तित्वको पुष्ट करनेवाले होनेके कारण तत्त्वप्राप्तिमें बाधक होते हैं। श्रेष्ठ पुरुषमें (जडताके सम्बन्धसे होनेवाला) 'व्यष्टि अहंकार' तो होता ही नहीं, और 'समष्टि अहंकार' व्यवहारमात्रके लिये होता है, जो संसारकी सेवामें लगा रहता है; क्योंकि अहंकार भी संसारका ही है (गीता 7। 4 13। 5)। संसारसे मिले हुए शरीर, धन, परिवार, पद, योग्यता, अधिकार आदि सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात् दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले हैं; उपभोग करने अथवा अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। जो इन्हें अपना और अपने लिये मानकर इनका उपभोग करता है, उसको भगवान् चोर कहते हैं-- 'यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः' (गीता 3। 12)। ये सब पदार्थ समष्टिके ही हैं, व्यष्टिके कभी किसी प्रकार नहीं। वास्तवमें इन पदार्थोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रेष्ठ पुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ (संसारके होनेसे) स्वतः-स्वाभाविक संसारकी सेवामें लगते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। 'देने' के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और 'लेने' के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है। 'देने' का भाव उद्धार करनेवाला और 'लेने' का भाव पतन करनेवाला होता है। शरीरको 'मैं', 'मेरा' अथवा 'मेरे लिये' माननेसे ही 'लेने' का भाव उत्पन्न होता है। शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध न माननेके कारण श्रेष्ठ पुरुषमें 'लेने' का भाव किञ्चिन्मात्र भी नहीं होता। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली ही होती है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, चिन्तन आदिसे स्वतः लोगोंका हित होता है। इतना ही नहीं, उसके शरीरको स्पर्श करके बहनेवाली वायुतकसे लोगोंका हित होता है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.21।। मनुष्य मूलत अनुकरण करने वाला प्राणी है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इतिहास के किसी काल में भी समाज का नैतिक पुनरुत्थान हुआ है तो उस केवल राष्ट्र के नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों के आदर्शों के कारण। शिक्षकों के सद्व्यवहार से ही विद्यार्थियों को अनुशासित किया जा सकता है यदि किसी राष्ट्र का शासक भ्रष्ट और अत्याचारी हो तो निम्न पदों के अधिकारी सत्य और ईमानदार नहीं हो सकते। छोटे बालकों का व्यवहार पूर्णत उनके मातापिता के आचरण एवं संस्कृति द्वारा निर्भर और नियन्त्रित होता है।इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये भगवान् कर्माचरण के लिए अर्जुन के समक्ष एक और कारण प्रस्तुत करते हैं। यदि वह कर्म नहीं करता तो सम्भव है समाज के अधिकांश लोग भी स्वकर्तव्यपराङमुख हो जायेंगे और अन्त में परिणाम होगा जीवन में संस्कृति का ह्रास।अब आगे इस बात पर बल देने तथा अब तक दिये गये उपदेश का प्रभाव दृढ़ करने के लिए भगवान् स्वयं का ही उदाहरण देते हैं। यद्यपि भगवान् स्वयं नित्यमुक्त हैं तथापि तमोगुण और रजोगुण की बुराइयों में पड़ी तत्कालीन पीढ़ी को उसमें से बाहर निकालने के लिए वे स्वयं अनासक्त भाव से कुशलतापूर्वक कर्म करते हुये सभी के लिये एक आदर्श स्थापित करते हैं।अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह श्रीकृष्ण का सिद्धांत है। उनकी अहिंसा उस दिवास्वप्न देखने वाले कायर के समान नहीं थी जो अन्याय का प्रतिकार न करके संस्कृति का रक्षण करने में असमर्थ होता है। अब अर्जुन मन में कर्मयोग के विषय में कोई संदेह नहीं रह सकता था।यदि लोकसंग्रह के विषय में तुम्हें कोई शंका हो तो तुम मुझे क्यों नहीं देखते मेरे अनुसार तुम भी लोगों को अधर्म के मार्ग से निवृत्त कर उन्हें धर्म मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये अपना आदर्श क्यों नहीं स्थापित करते

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.21।।ज्ञानवता कृतार्थेन लोकसंग्रहार्थमपि न प्रवर्तितव्यमित्याशङ्कामुत्थाप्य परिहरति लोकेत्यादिना। श्रुताध्ययनसंपन्नत्वेनाभिमतो यद्यद्विहितं प्रतिषिद्धं वा कर्मानुतिष्ठति तत्तदेव प्राकृतो जनोऽनुवर्तते तेन विद्यावतापि लोकमर्यादास्थापनार्थं विहितं कर्तव्यमित्यर्थः। श्रेष्ठानुसारित्वमितरेषामाचारे दर्शयित्वा प्रतिपत्तावपि दर्शयति किञ्चेति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.21।। मयि कर्मणि प्रवृत्ते कथं लोकसंग्रहो भविष्यतीत्यत आह यदिति। यद्यत्कर्म श्रेष्ठः प्रधान आचरति तत्तदेव कर्मेतरोऽन्यो जनस्तदनुगत आचरति। किंच स प्रधान यल्लौकिकं वैदिकं वा प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते। तदेव प्रमाणीकुरुते इत्यर्थः। यत्कर्म शास्त्रं वा निवृत्तिशास्त्रं वेत्याचार्यैः संकोचे मानाभावमभिप्रेत्य न व्याख्यातम्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.21।।स यद्वाक्यादिकं प्रमाणीकुरुते यदुक्तप्रकारेण तिष्ठतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.20 3.21।।अत्र शिष्टाचारं प्रमाणयति कर्मणेति। कर्मणैव सह संसिद्धिं श्रवणादिसाध्यां ज्ञाननिष्ठां गन्तुमास्थिताः प्रवृत्ता जनकादयस्त्वादृशाः क्षत्रियाः न तु संन्यासेन। ननु शुद्धचित्तस्य मम नास्ति कर्मापेक्षेत्याशङ्क्याह लोकेति। लोकस्य संग्रहः स्वधर्मे प्रवर्तनम्। ननु स्वप्रयोजनाभावेऽपि केवलं लोकसंग्रहार्थं चेत्कर्म कर्तव्यं तदा विदुषां ब्राह्मणानामपि संन्यासो न स्यात्। यतीनेव संन्यासधर्मान्ग्राहयितुं तेषां संन्यास इति चेत् अर्जुनेऽपि न तद्दंडवारितमस्ति। ननु क्षत्रियस्य संन्यासेऽधिकारो नास्तीति चेत् लिङ्गधारणेऽधिकाराभावेऽपि भरतऋषभादिवद्विक्षेपकर्मत्यागमात्रेऽधिकारात्। वार्तिकेसर्वाधिकारविच्छेदि ज्ञानं चेदभ्युपेयते। कुतोऽधिकारनियमो व्युत्थाने क्रियते बलात्। इति विद्वत्संन्यासे क्षत्रियादेरप्यधिकारस्य साधितत्वात्। अतो लोकसंग्रहो न मुख्यं कर्मप्रयोजनमिति चेत्सत्यम्।न मे पार्थास्ति कर्तव्यम् इति स्वदृष्टान्तेनाधिकारिकत्वादर्जुन एवैवं नियोज्यते न क्षत्रियमात्रमिति तुष्यतु भवान्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.21।।श्रेष्ठः कृत्स्नशास्त्रज्ञातृतया अनुष्ठातृतया च प्रथितो यद् यद् आचरति तत् तद् एव अकृत्स्नविद् जनः अपि आचरति। अनुष्ठीयमानम् अपि कर्म श्रेष्ठो यत्प्रमाणं यदङ्गयुक्तम् अनुतिष्ठति तदङ्गयुक्तम् एव अकृत्स्नविद् लोकः अपि अनुतिष्ठति अतो लोकरक्षार्थं शिष्टतया प्रथितेन श्रेष्ठेन स्ववर्णाश्रमोचितं कर्म सकलं सर्वदा अनुष्ठेयम्। अन्यथा लोकनाशजनितं पापं ज्ञानयोगाद् अपि एनं प्रच्यावयेत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.21।।कर्मकरणे लोकसंग्रहो यथा स्यात्तथाह यदिति। इतरः प्राकृतो जनः तत्तदेवाचरति। स श्रेष्ठो जनः कर्मशास्त्रं निवृत्तिशास्त्रं वा यत्प्रमाणं मन्यते तदेव लोकोऽप्यनुसरति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।। 3.21 कर्मयोगस्य ज्यायस्त्वं शिष्टानुष्ठानेनोदाह्रियते कर्मणैवेति।हिशब्दसूचितं ज्ञानयोगाधिकारं दर्शयति राजर्षयो ज्ञानिनामग्रेसरा इति। राजानो हि विस्तीर्णागाधमनसः तत्रापि ऋषित्वादतीन्द्रियार्थद्रष्टारः तत्राप्यात्मविदः तत्रापि निसर्गनिगृहीतेन्द्रियत्वात् प्रकृष्टोत्पत्तिकसत्त्वादिना च तेषामग्रगण्या इत्यर्थः।कर्मणैव इत्येवकारो ज्ञानयोगशक्तस्यापि कर्मयोगानुपरतिपरः। संसिद्धिशब्दस्य परमाप्नोतीत्युक्तनिदर्शनपरत्वात्आत्मानं प्राप्तवन्त इत्युक्तम्। एवं च सति कर्मणैवेति पूर्वप्रसक्तज्ञानयोगनैरपेक्ष्यपरमवधारणमप्युपपन्नं भवति। उत्तरसङ्गत्यर्थमुक्तं सङ्ग्रहेणोद्गृह्णाति एवमिति।इदानीं इत्यनेनलोकसङ्ग्रहं इत्यादिकंविद्वान्युक्तः समाचरन् 3।26 इत्यन्तमविच्छिन्नम्।सर्वथेति। लोकरक्षार्थं लोकोपप्लवजनितस्वपापेन ज्ञानयोगादपि प्रच्यावकेनोभयभ्रष्टत्वपरिहारार्थं चेत्यर्थः।लोकसङ्ग्रहमपि इत्यन्वये लोकसङ्ग्रहस्याप्रधानता प्रतीयेत पश्यन्नपीत्युक्ते तु कर्मकर्तव्यतायां पूर्वोक्तहेतुभ्यो लोकसङ्ग्रहस्याधिक्यं द्योत्येतेत्ययमन्वय उक्तः। एवकारो ज्ञानयोगव्यवच्छेदाय कर्तुमेवार्हसीत्यन्वेतव्य इत्यभिप्रायेणोक्तं कर्मैव कर्तुमर्हसीति। यद्वालोकसङ्ग्रहमेव इत्येवकारो लोकसङ्ग्रहस्य नैरपेक्ष्यपरःकर्मैव इति तु प्रकरणापन्नमुक्तम्।अर्हसि इत्यनेन कर्मयोगैकानुष्ठानकारणमर्जुनस्य वैशिष्ट्यं द्योत्यते।श्रेष्ठ इति।प्रशस्यस्य श्रः अष्टा.4।3।60 इत्यनुशासनात्प्रशस्यतम इत्यर्थः। तच्चास्य प्रशस्यतमत्वमनुष्ठातृ़णामनुविधेयानुष्ठानत्वोपयोगीति मत्वातानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् 3।29 इति वक्ष्यमाणं चानुसन्धायकृत्स्नशास्त्रज्ञतयाऽनुष्ठातृतया च प्रथित इत्युक्तम्। अकृत्स्नविदोऽनुष्ठातुः कृत्स्नवित्त्वेऽप्यननुष्ठातुरुभयाकारवत्त्वेऽपि अप्रसिद्धस्यानुविधेयानुष्ठानता नास्तीति तद्व्यवच्छेदाय पदत्रयम्।स यत्प्रमाणं कुरुते इत्यत्रस यच्छास्त्रं प्रमाणीकरोति तदनुवर्तते लोकः इत्यस्मिन्नर्थे तदनुवर्तनस्य तदर्थानुष्ठानरूपत्वादर्थतः पुनरुक्तिः स्यात्। कुरुत इति चैतद्बुध्यत इत्यस्मिन्नर्थे नेतव्यम्।लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन् कर्तुमर्हसि इति पूर्ववाक्ये चकर्तुमर्हसि इत्येतावन्मात्रमुक्तम् श्रुतिस्मृत्यादिकमपि प्रमाणीकर्तुमर्हसीत्यनुपन्यस्तम् येन तदर्थमिदमुच्येतयद्यदाचरति इत्यङ्गिन्यनुष्ठेयस्वरूपे निर्दिष्टे तत्प्रकारे त्वपेक्षिते बुभुत्सा जायते अतस्तदभिधानमेवोचितमित्यभिप्रायेणयत्प्रमाणं यदङ्गयुक्तमित्युक्तम्। प्रमाणशब्दोऽत्रावधिपरः अनुष्ठेयकर्मस्वरूपस्य चावधिरङ्गान्येव अत एव हि विध्यन्तशब्देनेतिकर्तव्यतामुपचरन्ति। यत्प्रमाणंयथाभूतमितियादवप्रकाशभाष्यमप्येतत्परमेव। अस्मिन्नर्थेकुरुते इतिशब्दस्वारस्यप्रदर्शनायअनुतिष्ठतीत्युक्तम्। अन्यथाऽर्थान्तरे लक्षणा स्यादिति भावः। यत्प्रमाणमिति निर्दिष्टविशिष्टसिद्ध्यर्थं तच्छब्दार्थमाहतदङ्गयुक्तमिति। ननु यच्छब्देनाङ्गे निर्दिष्टे कथं तच्छब्देनाङ्गविशिष्टपरामर्शः इत्थं यदङ्गयुक्तमनुतिष्ठति तदाचरतीत्युक्ते तदङ्गमाचरतीत्येव शब्दवृत्तिः। अङ्गस्य चाङ्गिपृथग्भावायोगात् अर्थतस्तदङ्गविशिष्टमिति सिद्धम्। आभिप्रायिकौ करणाकरणयोरर्थानर्थौ प्रकाशयति अत इति। लोकानुविधेयानुष्ठानत्वादित्यर्थः।सर्वदेति यावदात्मप्राप्तीत्यर्थः। ननु स्वयं यदि ज्ञानयोगेन मुक्तो भवति किमस्य लोकेन सङ्गृहीतेनासङ्गृहीतेन वा इत्यत्राह अन्यथेति ज्ञानयोगाधिकार्यहमिति कृत्वा कर्मयोगपरित्यागे सतीत्यर्थः।ज्ञानयोगादपि इत्यपिशब्द उभयभ्रष्टतां द्योतयति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.21 3.22।।यद्यदाचरतीति। न मे इति। प्राप्तप्रापणीयस्य परिपूर्णमनसोऽपि कर्मप्रवृत्तौ लोकानुग्रहः प्रयोजनमित्यत्र श्रीभगवान् आत्मानमेव दृष्टान्तीकरोति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.21।।स यत्प्रमाणं कुरुते इत्यत्र यच्छब्देन प्रमाणमप्रमाणं वा विवक्षितम् आद्ये प्रमाणं कुरुत इत्ययुक्तम् स्थितस्य करणाभावात्। द्वितीयेऽप्येवमेव अशक्यत्वादित्यत आह स इति। प्रमाणमेव सत् यद्वाक्यादिकं लोकेन प्रमाणतयाऽनवगतम् तत्प्रमाणतया ज्ञापयतीत्यर्थः। यद्वैकमेवेदं पदं यत्प्रमाणकं लौकिकं वैदिकं वा कर्म कुरुत इत्यनेनाभिप्रायेण तात्पर्यमाह यदुक्तेति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.21।।ननु मया कर्मणि क्रियमाणेऽपि लोकः किमिति तत्संगृह्णीयादित्याशङ्क्य श्रेष्ठाचारानुविधायित्वादित्याह यद्यदिति। श्रेष्ठः प्रधानभूतो राजादिर्यद्यत्कर्माचरति शुभमशुभं वा तत्तदेवाचरतीतरः प्राकृतस्तदनुगतो जनः नत्वन्यत्स्वातन्त्र्येणेत्यर्थः। ननु शास्त्रमवलोक्याशास्त्रीयं श्रेष्ठाचारं परित्यज्य शास्त्रीयमेव कुतो नाचरति लोक इत्याशङ्क्य आचारवत्प्रतिपत्तावपि श्रेष्ठानुसारितामितरस्य दर्शयति स यदिति। स श्रेष्ठो यल्लौकिकं वैदिकं वा प्रमाणं कुरुते प्रमाणत्वेन मन्यते तदेव लोकोऽप्यनुवर्तते प्रमाणं कुरुते नतु स्वातन्त्र्येण किंचिदित्यर्थः। तथाच प्रधानभूतेन त्वया राज्ञा लोकसंरक्षणार्थं कर्म कर्तव्यमेवप्रधानानुयायिनो जनव्यवहारा भवन्ति इति न्यायादित्यभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.21।।ननु लोकसङ्ग्रहोऽपि भक्तानामनुचित एवेत्यत आह यद्यदिति। श्रेष्ठो मद्भक्तो यद्यदाचरतितदेवेतरो जन आचरति। स मद्भक्तो यदेव प्रमाणं कुरुते लोकस्तंदेवानुवर्तते प्रमाणत्वेनाङ्गीकुरुते। अयं भावः भक्तानां लोकसङ्ग्रहो मदाज्ञया कर्त्तव्यः यतस्तदाचरणं दृष्ट्वा लोकोऽपि तथैव कुर्यात् तत्स्वरूपाज्ञानेऽपि तदाऽनधिकारित्वात् फलं तु न स्यादेव फलदाने च मदिच्छा न। यतो भक्तिः परमकृपया कस्मैचिदेव दीयते न सर्वेभ्यः। सर्वेभ्यो दाने सृष्टिरेवोच्छिद्येत। अतस्तद्रोप()नेन सृष्टिप्रवृत्त्यर्थं बाह्यतः कापट्येन कर्म कर्तव्यमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.21।। यद्यत् कर्म आचरति करोति श्रेष्ठः प्रधानः तत्तदेव कर्म आचरति इतरः अन्यः जनः तदनुगतः। किञ्च सः श्रेष्ठः यत् प्रमाणं कुरुते लौकिकं वैदिकं वा लोकः तत् अनुवर्तते तदेव प्रमाणीकरोति इत्यर्थः।।यदि अत्र ते लोकसंग्रहकर्तव्यतायां विप्रतिपत्तिः तर्हि मां किं न पश्यसि

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.21।।यतः यद्यदिति।


Chapter 3, Verse 21