कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।
karmaṇaiva hi sansiddhim āsthitā janakādayaḥ loka-saṅgraham evāpi sampaśhyan kartum arhasi
karmaṇā—by the performance of prescribed duties; eva—only; hi—certainly; sansiddhim—perfection; āsthitāḥ—attained; janaka-ādayaḥ—King Janak and other kings; loka-saṅgraham—for the welfare of the masses; eva api—only; sampaśhyan—considering; kartum—to perform; arhasi—you should;
Indeed, Janaka and others reached perfection through Karma Yoga alone. Even recognizing its necessity for guiding the world, you must perform action.
For Janaka and others strove to attain liberation through action itself. You should perform your duties, keeping in view the prevention of mankind from going astray.
Janaka and others attained perfection indeed through action alone; even with the intention of protecting the masses, you should perform action.
Janaka and others attained emancipation through action alone. Moreover, you should act with the intention of upholding the world.
King Janaka and others attained perfection through action alone. Even for the sake of enlightening the world, it is your duty to act.
।।3.20।। राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है।
।।3.20।। जनकादि (ज्ञानी जन) भी कर्म द्वारा ही संसिद्धि को प्राप्त हुये लोक संग्रह (लोक रक्षण) को भी देखते हुये; तुम कर्म करने योग्य हो।।
3.20 कर्मणा by action? एव only? हि verily? संसिद्धिम् perfection? आस्थिताः attained? जनकादयः Janaka and others? लोकसंग्रहम् protection of the masses? एवापि only? संपश्यन् having in view? कर्तुम् to perform? अर्हसि thou shouldst.Commentary Samsiddhi is Moksha (perfection or liberation). Janaka? (Asvapati) and others had perfect knowledge of the Self? and yet they performed actions in order to set an example to the masses. They worked for the guidance of men.
।।3.20।। व्याख्या--'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः'--'आदि' पद 'प्रभृति' (आरम्भ) तथा 'प्रकार' दोनोंका वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आये 'आदि' पदको 'प्रभृति' का वाचक माना जाय तो 'जनकादयः' पदका अर्थ होगा--जिनके आदि-(आरम्भ-) में राजा जनक हैं अर्थात् राजा जनक तथा उनके बादमें होनेवाले महापुरुष। परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनकसे पहले भी अनेक महापुरुष कर्मोंके द्वारा परमसिद्धिको प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता 4। 12)। इसलिये यहाँ 'आदि' पदको 'प्रकार' का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार 'जनकादयः'पदका अर्थ है--राजा जनक-जैसे गृहस्थाश्रममें रहकर निष्कामभावसे सब कर्म करते हुए परमसिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनकसे पहले तथा बादमें (आजतक) हो चुके हैं।कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं। अतः वर्तमानमें तथा भविष्यमें भी यदि कोई कर्मयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं-(शरीरादि-) को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तवमें वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही हैं। इस वास्तविकताको मानकर संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है--इसमें कोई सन्देह नहीं। यहाँ 'कर्मणा एव' पदोंका सम्बन्ध पूर्वश्लोकके 'असक्तो ह्याचरन्कर्म' पदोंसे अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है, केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है--'कर्मणा बध्यते जन्तुः' (महा0 शान्ति0 241। 7)।गीताकी यह शैली है कि भगवान् पीछेके श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको (जो साधकोंके लिये विशेष उपयोगी होती है) संक्षेपसे आगेके श्लोकमें पुनः कह देते हैं, जैसे पीछेके (उन्नीसवें) श्लोकमें आसक्तिरहित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देकर इस बीसवें श्लोकमें उसी बातको संक्षेपसे 'कर्मणा एव' पदोंसे कहते हैं। इसी प्रकार आगे बारहवें अध्यायके छठे श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको सातवें श्लोकमें संक्षेपसे 'मय्यावेशितचेतसाम्' (मुझमें चित्त लगानेवाले भक्त) पदसे पुनः कहेंगे।यहाँ भगवान् 'कर्मणा एव' के स्थानपर 'योगेन एव' भी कह सकते थे। परन्तु अर्जुनका आग्रह कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेका होने तथा (आसक्तिरहित होकर किये जानेवाले) कर्मका ही प्रसङ्ग चलनेके कारण 'कर्मणा एव' पदोंका प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ इन पदोंका अभिप्राय (पूर्वश्लोकके अनुसार) आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोगसे ही है।वास्तवमें चिन्मय परमात्माकी प्राप्ति जड कर्मोंसे नहीं होती। नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव होनेमें जो बाधाएँ हैं, वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्माका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्वके अनुभवमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेके कारण यहाँ कर्मके द्वारा परमसिद्धि(परमात्मतत्त्व) की प्राप्तिकी बात कही गयी है।
।।3.20।। प्राचीन काल में जनक और अश्वपति आदि ज्ञानी राजाओं ने भी कर्म द्वारा संसिद्धि प्राप्त की थी। कर्मयोग के द्वारा सम्यक् ज्ञानपूर्वक अनासक्ति और अर्पण की भावना से कर्म करते हुए वे बन्धनों से मुक्त हो गये। सेवा के पवित्र जीवन को जी कर जगत् के लिये उन्होंने एक आदर्श स्थापित किया।श्रीकृष्ण का कहना है कि अर्जुन पर भी जन्मजात राजकुमार होने के कारण प्रजा तथा धर्म के रक्षण का उत्तरदायित्व था जिसका निर्वाह करना उसका कर्तव्य था। प्रारब्धवशात् आसन्न युद्ध से पलायन न करके कर्तव्य का सम्मान करते हुए उसको कुशलतापूर्वक युद्ध करना चाहिए। उसकी बन्धनकारक वासनाओं के क्षय का एक मात्र यही उपाय था। राजपरिवार में जन्म लेने के कारण सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अर्जुन पर समाज रक्षण का उत्तरदायित्व अधिक था। इसलिए उस समय उसे युद्ध रूप कर्तव्य का निर्वाह करना अत्यावश्यक था।मरुस्थल में लता उत्पन्न नहीं होती। प्रकृति के नियमानुसार प्रत्येक प्राणी अपने लिए अनुकूल वातावरण में ही स्वयं को उपयुक्त पाता है। इस दृष्टि से अर्जुन का जन्म क्षत्रिय राज परिवार में हुआ तो स्वाभाविक है वही उसके लिये अनुकूल रहा होगा। संकटों और शत्रुओं का साहसपूर्वक सामना करने और समाज में शांति और विकास के लिये प्रयत्न करने के जीवन के लिए वह योग्य था।लोक संग्रह क्यों करना चाहिये इसका उत्तर है
।।3.20।।यद्यपि जितेन्द्रियोऽपि विवेकी श्रवणादिभिरजस्रं ब्रह्मणि निष्ठातुं शक्नोति तथापि क्षत्रियेण त्वया विहितं कर्म न त्याज्यमित्याह यस्माच्चेति। तस्मात्त्वमपि कर्म कर्तुमर्हसीति संबन्धः। इतोऽपि त्वया विहितं कर्म कर्तव्यमित्याह लोकेति। पूर्वार्धं विभजते कर्मणैवेति। कथं जनकादीनां कर्मणा संसिद्धिप्राप्तिरुच्यते कर्मत्यजां हि सम्यग्दर्शनवतां प्रसिद्धा संसिद्धिरिति। तत्र किं जनकादयोऽपि प्राप्तसम्यग्दर्शनाः स्युरुताप्राप्तसम्यग्दर्शना भवेयुरिति विकल्प्य प्रथमं प्रत्याह यदीति। लोकसंग्रहार्थं कर्मणा सहैव संसिद्धिमास्थिता इति संबन्धः। कर्मणा सहैवेत्येतद्व्याकरोति असंन्यस्यैव कर्मेति। तत्र हेतुमाह प्रारब्धेति। जनकादीनां सत्यपि ज्ञानित्वे प्रारब्धकर्मवशात्कर्मापरित्यज्यैव लोकसंग्रहार्थं प्रवर्तमानानां ज्ञानमाहात्म्यादुपपन्ना संसिद्धिरित्यर्थः। द्वितीयमनूद्य पूर्वार्धेनैवोत्तरमाह अथेत्यादिना। द्वितीयार्धव्यावर्त्यामाशङ्कामुत्थापयति अथेति। अज्ञेनाकृतार्थेन कृतं कर्मेत्येतावता ज्ञानवता कृतकृत्येन न तत्कर्तव्यमित्युक्तमङ्गीकरोति तथापीति। तर्हि मयापि ज्ञानवता कृतार्थेन कर्म न कर्तव्यमित्याशङ्क्यार्जुनस्य कर्तव्यमेव कर्मेत्युत्तरार्धव्याख्यानेन कथयति प्रारब्धेति।
।।3.20।। हि यस्माच्च जनकादयो जनकाश्चपतिप्रभृतयः पूर्वेणैव शुद्धसत्त्वाः सन्तः संसिद्धिं सम्यग्ज्ञानं प्राप्ता इत्यर्थः। यद्यपि त्वं सभ्यग्ज्ञानिनमेवात्मानं मन्यसे तथापि कर्माचरणं भद्रमेवेत्याह क्षत्रियाः कर्मणैव संसिद्धिं मोक्षं गन्तुमास्थिताः प्रवृत्ताः श्रवणादिसाध्यां ज्ञाननिष्ठां प्राप्ता इति वा। इदं व्याख्यानं परमाप्नोति पूरुष इति पूर्वोक्तानुगुणमत आचार्यैः परित्यक्तम्। यदि प्राप्तसम्यग्दर्शनास्तर्हि लोकसंग्रहार्थं प्रारब्धकर्मत्वात्कर्मणा सहैवासंन्यस्यैवाथाप्राप्तसम्यगदर्शनास्तदा कर्मणा चित्तशुद्धिसाधनभूतेन कर्मणेत्यर्थः। पूर्वैरप्यज्ञानद्भिरेव कर्तव्यं कर्मं कृतमतो नावश्यमन्येन तत्त्वज्ञेन कृतार्थेन कर्तव्यमिति चेत्तथापि प्रारब्धकर्माधीनस्त्वं लोकस्योन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणं लोकसंग्रहस्तमेवापि प्रयोजनं संपश्यन कर्तुमर्हसीत्यर्थः।
।।3.20।।आचारोऽप्यस्तीत्याह कर्मणैवेति। कर्मणा सह कर्म कुर्वन्त एवेत्यर्थः। कर्म कृत्वैव ततो ज्ञानं प्राप्य वा न तु ज्ञानं विना प्रसिद्धं हि तेषां ज्ञानित्वं भारतादिषु। तमेवं विद्वानमृत इह भवति नृ.पू.उ.1।6 इत्यादिश्रुतिभ्यश्च। अत्रापि कर्मणां ज्ञानसाधनत्वोक्तेश्च बुद्धियुक्ता इति। गत्यन्तरं च नान्यः पन्थाः श्वे.उ.3।8 इत्यस्त नास्ति इतरेषां ज्ञानद्वाराऽप्यविरोधः। यत्र च तीर्थाद्येव मुक्तिसाधनमुच्यतेब्रह्मज्ञानेन वा मुक्तिः प्रयागमरणेन वा। अथवा स्नानमात्रेण गोमत्यां कृष्णसन्निधौ इत्यादौ तत्र पापादिमुक्तिः स्तुतिपरता च। तत्रापि हि कुत्रचिद्ब्रह्मज्ञानसाधनत्वमेवोच्यते। अन्यथा मुक्तिं निषिध्यब्रह्मज्ञानं विना मुक्तिर्न कथञ्चिदपीष्यते। प्रयागादेस्तु या मुक्तिर्ज्ञानोपायत्वमेव हि इत्यादौ। न च तीर्थस्तुतिवाक्यानि तत्प्रस्तावेऽप्युक्तं ज्ञाननियमं घ्नन्ति। यथा कञ्चिद्दक्षं भृत्यं प्रत्युक्तानिअयमेव हि राजा किं राज्ञा इत्यादीनि। यथाऽऽह भगवान् यानि तीर्थादिवाक्यानि कर्मादिविषयाणि च। स्तावकान्येव तानि स्युरज्ञानां मोहकानि वा। भवेन्मोक्षस्तु मद्दृष्टेर्नान्यथा तु कथञ्चन इति नारदीये। अतोऽपरोक्षज्ञानादेव मोक्षः। कर्म तु तत्साधनमेव।
।।3.20 3.21।।अत्र शिष्टाचारं प्रमाणयति कर्मणेति। कर्मणैव सह संसिद्धिं श्रवणादिसाध्यां ज्ञाननिष्ठां गन्तुमास्थिताः प्रवृत्ता जनकादयस्त्वादृशाः क्षत्रियाः न तु संन्यासेन। ननु शुद्धचित्तस्य मम नास्ति कर्मापेक्षेत्याशङ्क्याह लोकेति। लोकस्य संग्रहः स्वधर्मे प्रवर्तनम्। ननु स्वप्रयोजनाभावेऽपि केवलं लोकसंग्रहार्थं चेत्कर्म कर्तव्यं तदा विदुषां ब्राह्मणानामपि संन्यासो न स्यात्। यतीनेव संन्यासधर्मान्ग्राहयितुं तेषां संन्यास इति चेत् अर्जुनेऽपि न तद्दंडवारितमस्ति। ननु क्षत्रियस्य संन्यासेऽधिकारो नास्तीति चेत् लिङ्गधारणेऽधिकाराभावेऽपि भरतऋषभादिवद्विक्षेपकर्मत्यागमात्रेऽधिकारात्। वार्तिकेसर्वाधिकारविच्छेदि ज्ञानं चेदभ्युपेयते। कुतोऽधिकारनियमो व्युत्थाने क्रियते बलात्। इति विद्वत्संन्यासे क्षत्रियादेरप्यधिकारस्य साधितत्वात्। अतो लोकसंग्रहो न मुख्यं कर्मप्रयोजनमिति चेत्सत्यम्।न मे पार्थास्ति कर्तव्यम् इति स्वदृष्टान्तेनाधिकारिकत्वादर्जुन एवैवं नियोज्यते न क्षत्रियमात्रमिति तुष्यतु भवान्।
।।3.20।।यतो ज्ञानयोगाधिकारिणः अपि कर्मयोग एव आत्मदर्शने श्रेयान् अत एव हि जनकादयो राजर्षयो ज्ञानिनाम् अग्रेसराः कर्मयोगेन एव संसिद्धिम् आस्थिताः आत्मानं प्राप्तवन्तः।एवं प्रथमं मुमुक्षोः ज्ञानयोगानर्हतया कर्मयोगाधिकारिणः कर्मयोग एव कार्यः इत्युक्त्वा ज्ञानयोगाधिकारिणः अपि ज्ञानयोगात् कर्मयोग एव श्रेयान् इति सहेतुकम् उक्तम्। इदानीं शिष्टतया व्यपदेश्यस्य सर्वथा कर्मयोग एव कार्य इति उच्यते लोकसंग्रहं पश्यन् अपि कर्म एव कर्तुम् अर्हसि।
।।3.20।। अत्र सदाचारं प्रमाणयति कर्मणैवेति। कर्मलोकसंग्रहमिति। लोकस्य संग्रहः स्वधर्मे प्रवर्तनं मया कर्मणि कृते जनः सर्वोऽपि करिष्यति अन्यथा ज्ञानिदृष्टान्तेनाज्ञः कर्म त्यजेदित्येवं लोकरक्षणमपि तावत्प्रयोजनं पश्यन्कर्म कर्तुमेवार्हसि नतु त्यक्तुमित्यर्थः।
।।3.20।।कर्मयोगस्य ज्यायस्त्वं शिष्टानुष्ठानेनोदाह्रियते कर्मणैवेति।हिशब्दसूचितं ज्ञानयोगाधिकारं दर्शयति राजर्षयो ज्ञानिनामग्रेसरा इति। राजानो हि विस्तीर्णागाधमनसः तत्रापि ऋषित्वादतीन्द्रियार्थद्रष्टारः तत्राप्यात्मविदः तत्रापि निसर्गनिगृहीतेन्द्रियत्वात् प्रकृष्टोत्पत्तिकसत्त्वादिना च तेषामग्रगण्या इत्यर्थः।कर्मणैव इत्येवकारो ज्ञानयोगशक्तस्यापि कर्मयोगानुपरतिपरः। संसिद्धिशब्दस्य परमाप्नोतीत्युक्तनिदर्शनपरत्वात्आत्मानं प्राप्तवन्त इत्युक्तम्। एवं च सति कर्मणैवेति पूर्वप्रसक्तज्ञानयोगनैरपेक्ष्यपरमवधारणमप्युपपन्नं भवति। उत्तरसङ्गत्यर्थमुक्तं सङ्ग्रहेणोद्गृह्णाति एवमिति।इदानीं इत्यनेनलोकसङ्ग्रहं इत्यादिकंविद्वान्युक्तः समाचरन् 3।26 इत्यन्तमविच्छिन्नम्।सर्वथेति। लोकरक्षार्थं लोकोपप्लवजनितस्वपापेन ज्ञानयोगादपि प्रच्यावकेनोभयभ्रष्टत्वपरिहारार्थं चेत्यर्थः।लोकसङ्ग्रहमपि इत्यन्वये लोकसङ्ग्रहस्याप्रधानता प्रतीयेत पश्यन्नपीत्युक्ते तु कर्मकर्तव्यतायां पूर्वोक्तहेतुभ्यो लोकसङ्ग्रहस्याधिक्यं द्योत्येतेत्ययमन्वय उक्तः। एवकारो ज्ञानयोगव्यवच्छेदाय कर्तुमेवार्हसीत्यन्वेतव्य इत्यभिप्रायेणोक्तं कर्मैव कर्तुमर्हसीति। यद्वालोकसङ्ग्रहमेव इत्येवकारो लोकसङ्ग्रहस्य नैरपेक्ष्यपरःकर्मैव इति तु प्रकरणापन्नमुक्तम्।अर्हसि इत्यनेन कर्मयोगैकानुष्ठानकारणमर्जुनस्य वैशिष्ट्यं द्योत्यते।श्रेष्ठ इति।प्रशस्यस्य श्रः अष्टा.4।3।60 इत्यनुशासनात्प्रशस्यतम इत्यर्थः। तच्चास्य प्रशस्यतमत्वमनुष्ठातृ़णामनुविधेयानुष्ठानत्वोपयोगीति मत्वातानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् 3।29 इति वक्ष्यमाणं चानुसन्धायकृत्स्नशास्त्रज्ञतयाऽनुष्ठातृतया च प्रथित इत्युक्तम्। अकृत्स्नविदोऽनुष्ठातुः कृत्स्नवित्त्वेऽप्यननुष्ठातुरुभयाकारवत्त्वेऽपि अप्रसिद्धस्यानुविधेयानुष्ठानता नास्तीति तद्व्यवच्छेदाय पदत्रयम्।स यत्प्रमाणं कुरुते इत्यत्रस यच्छास्त्रं प्रमाणीकरोति तदनुवर्तते लोकः इत्यस्मिन्नर्थे तदनुवर्तनस्यतदर्थानुष्ठानरूपत्वादर्थतः पुनरुक्तिः स्यात्। कुरुत इति चैतद्बुध्यत इत्यस्मिन्नर्थे नेतव्यम्।लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन् कर्तुमर्हसि इति पूर्ववाक्ये चकर्तुमर्हसि इत्येतावन्मात्रमुक्तम् श्रुतिस्मृत्यादिकमपि प्रमाणीकर्तुमर्हसीत्यनुपन्यस्तम् येन तदर्थमिदमुच्येतयद्यदाचरति इत्यङ्गिन्यनुष्ठेयस्वरूपे निर्दिष्टे तत्प्रकारे त्वपेक्षिते बुभुत्सा जायते अतस्तदभिधानमेवोचितमित्यभिप्रायेणयत्प्रमाणं यदङ्गयुक्तमित्युक्तम्। प्रमाणशब्दोऽत्रावधिपरः अनुष्ठेयकर्मस्वरूपस्य चावधिरङ्गान्येव अत एव हि विध्यन्तशब्देनेतिकर्तव्यतामुपचरन्ति। यत्प्रमाणंयथाभूतमितियादवप्रकाशभाष्यमप्येतत्परमेव। अस्मिन्नर्थेकुरुते इतिशब्दस्वारस्यप्रदर्शनायअनुतिष्ठतीत्युक्तम्। अन्यथाऽर्थान्तरे लक्षणा स्यादिति भावः। यत्प्रमाणमिति निर्दिष्टविशिष्टसिद्ध्यर्थं तच्छब्दार्थमाहतदङ्गयुक्तमिति। ननु यच्छब्देनाङ्गे निर्दिष्टे कथं तच्छब्देनाङ्गविशिष्टपरामर्शः इत्थं यदङ्गयुक्तमनुतिष्ठति तदाचरतीत्युक्ते तदङ्गमाचरतीत्येव शब्दवृत्तिः। अङ्गस्य चाङ्गिपृथग्भावायोगात् अर्थतस्तदङ्गविशिष्टमिति सिद्धम्। आभिप्रायिकौ करणाकरणयोरर्थानर्थौ प्रकाशयति अत इति। लोकानुविधेयानुष्ठानत्वादित्यर्थः।सर्वदेति यावदात्मप्राप्तीत्यर्थः। ननु स्वयं यदि ज्ञानयोगेन मुक्तो भवति किमस्य लोकेन सङ्गृहीतेनासङ्गृहीतेन वा इत्यत्राह अन्यथेति ज्ञानयोगाधिकार्यहमिति कृत्वा कर्मयोगपरित्यागे सतीत्यर्थः।ज्ञानयोगादपि इत्यपिशब्द उभयभ्रष्टतां द्योतयति।
।।3.20।।कर्मणैवेति। तदत्र कर्म कुर्वतामपि सिद्धौ जनकादयो दृष्टान्ताः।
।।3.20।।कर्मण एव मुक्तिसाधनत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायकर्मणैव हि इत्यस्य तात्पर्यं तावदाह आचारोऽपीति। विहितस्य कर्मणः कर्तव्यतायां प्रमाणमिति शेषः। अपिः पूर्वोक्तहेतुसमुच्चये। कर्मण एव मोक्षकारणत्वं तृतीययोच्यत इतिप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे कर्मणेति। नन्वेवं सहयोगे तृतीयायां व्याख्यायमानायां जनकादयः कर्मणा सहैव मुक्तिमास्थिता इति वाक्यार्थः स्यात्। न चायं युक्तःपुत्रेण सहैवागतः पिता इत्यत्र यथा पुत्रस्याप्यागमनान्वयः प्रतीयते तथा कर्मणोऽपि मुक्तिमास्थितत्वस्य प्रसङ्गादित्यत आह कर्मेति। यद्यपि श्रूयमाणक्रियायां सहयोगो नोपपद्यते तथाप्यध्याहृतावान्तरक्रियायामुपपद्यत एव। ततश्च यथासहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी इत्यत्र दशभिः पुत्रैः सहैव वर्तमानाऽप्येकैव भारं वहतीत्यर्थः तथाऽत्रापि कर्मणा सहैव वर्तमानाः कर्म कुर्वन्त एवेत्यर्थ उपपद्यत इति भावः। द्विधाऽपि सहयोगमभिप्रेत्य समासविधौ पाणिनिरविशेषमभाणीत्तेन सहेति तुल्ययोगे अष्टा.2।2।28 इति। कर्मसाहित्यं च मुक्तावानन्दवृद्ध्यर्थमिति ज्ञातव्यम्।उपपदविभक्तेःकारकविभक्तिर्बलीयसी इति चेत् सत्यम् वक्ष्यमाणबाधात्तत्परिग्रहोपपत्तेः। अस्तु वा करणे तृतीया तथापिलाङ्गलेन वयं जीवामः इतिवत्पारम्पर्येण कर्मणो मुक्तौ कारणत्वमित्याह कर्मेति। सिद्धिमास्थिता इति वेत्यर्थः। सिद्धिशब्दो ज्ञानार्थः वेत्यस्याप्युपलक्षणमेतत्। यथाप्रतीतार्थः किं न स्यात् इत्यत आह न त्विति। ज्ञाने विना केवलेन कर्मणा जनकादयः सिद्धिं गता इत्यर्थस्तु नेत्यर्थः। प्रसिद्धं हीति। हिशब्दो हेतौ। अस्तु तेषां ज्ञानित्वं मुक्तौ तु कर्मैव कारणमित्यत आह तमेवमिति। अत्रापि गीतायामपिकर्मजं बुद्धियुक्ता हि 2।51 इत्यादावित्यर्थः।प्राग्ज्ञानात् ज्ञानसाधनं पश्चान्मुक्तिसाधनं इति समुच्चयवादिनां मतं न तु केवलकर्मवादिनाम्। न चात्र प्रमाणमप्यस्ति। ननु यथा मोक्षस्य ज्ञानसाध्यत्वे तमेवं नृ.पू.उ.1।6तै.आ.3।1।3 इत्याद्यागमाः सन्ति। तथा कर्मसाध्यत्वेऽपि अपामसोममृता अभूम् ऋक्सं.6।4।11अ.शिर.उ.3 इत्यादयो विद्यन्ते तत्कथं निर्णय इत्यतः सावकाशत्वनिरवकाशत्वबलादित्याह गत्यन्तरं चेति। ज्ञानद्वारेति व्याख्यानेऽपीत्यर्थः।ननु कर्मवाक्यान्यपि ब्रह्मज्ञानेन वेत्यादीनि निरवकाशानि सन्ति तत्र ब्रह्मज्ञानसमानकक्ष्यतया तीर्थस्नानादेरुक्तत्वेनोक्तव्याख्यानायोगात्। अतः पुनरनिर्णय एवेत्याशङ्क्य तेषामपि सावकाशत्वमाह यत्रेति। तीर्थादीति तत्स्नानादीत्यर्थः। पापादिमुक्तिर्मुक्तिशब्दार्थ इत्यर्थः। न च सर्वत्र मुक्तिशब्द एवास्ति संसारमुक्तिरित्यादेरपि सम्भवात् अतो गत्यन्तरमप्याह स्तुतीति। प्रशस्तत्वोपलक्षणेत्यर्थः प्रशस्तत्वसादृश्येन गौणी वा। दुष्टजनव्यामोहनार्थत्वस्याप्युपलक्षणमेतत्। कुत एतत्कल्प्यते इत्यत आह तत्रापीति। यत्र तीर्थस्नानादिकं मुक्तिसाधनमुच्यते तत्रैव प्रस्तावे साधनत्वं तीर्थस्नानादीनाम्। अन्यथा ज्ञानं विना या मुक्तिर्यन्मुक्तिसाधनत्वं वाक्यताविशेषाद्ब्रह्मज्ञानेन वेत्यादिभिरेव ब्रह्मज्ञानं विनेत्यादीनां बाधः किं न स्यात् इत्यत आह न चेति। असाधारणसाधारणप्रसङ्गोक्तत्वादिनेति भावः। अत्र दृष्टान्तमाह यथेति। इत्यादीनि नायं राजा किन्तु भृत्य एवेत्यादीनि तत्प्रस्तावेऽप्युक्तानि। न निघ्नन्तीति शेषः। आगमसिद्धा चेयं व्यवस्थेत्याह यथेति। मद्दृष्टेरित्येतदर्थप्रतिपत्त्यर्थं भगवानित्युक्तम्। तीर्थादिवाक्यानीति तीर्थस्नानक्षेत्रवासादीनां मोक्षसाधनत्ववाक्यानीत्यर्थः। कर्मेति यज्ञादेर्ग्रहणम्। आदिपदेन ध्यानादेः सङ्ग्रहः। पूर्ववदर्थः। अज्ञानां सम्यग्ज्ञानायोग्यानाम्। उपसंहरति अत इति।
।।3.20।।ननु विविदिषोरपि ज्ञाननिष्ठाप्राप्त्यर्थं श्रवणमनननिदिध्यासनानुष्ठानाय सर्वकर्मत्यागलक्षणः संन्यासो विहितः। तथाच न केवलं ज्ञानिन एव कर्मानधिकारः किंतु ज्ञानार्थिनोऽपि विरक्तस्य। तथाच मयापि विरक्तेन ज्ञानार्थिना कर्माणि हेयान्येवेत्यर्जुनाशङ्कां क्षत्रियस्य संन्यासानधिकारप्रतिपादनेनापनुदति भगवान्। जनकादयो जनकाजातशत्रुप्रभृतयः श्रुतिस्मृतिपुराणप्रसिद्धाः क्षत्रिया विद्वांसोऽपि कर्मणैव सह नतु कर्मत्यागेन सह संसिद्धिं श्रवणादिसाध्यां ज्ञाननिष्ठामास्थिताः प्राप्ताः। हि यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि क्षत्रियो विविदिषुर्विद्वान्वा कर्म कर्तुमर्हसीत्यनुषङ्गः।ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति इति संन्यासविधायके वाक्ये ब्राह्मणत्वस्य विवक्षितत्वात्स्वाराज्यकामो राजा राजसूयेन यजेत इत्यत्र क्षत्रियत्ववत्चत्वार आश्रमा ब्राह्मणस्य त्रयो राजन्यस्य द्वौ वैश्यस्य इति च स्मृतेः। पुराणेऽपिमुखजानामयं धर्मो यद्विष्णोर्लिङगधारणम्। बाहुजातोरुजातानां नायं धर्मः प्रशस्यते।। इति क्षत्रियवैश्ययोः संन्यासाभाव उक्तः। तस्माद्युक्तमेवोक्तं भगवताकर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय इति।सर्वे राजाश्रिता धर्मा राजा धर्मस्य धारकः इत्यादिस्मृतेर्वर्णाश्रमधर्मप्रवर्तकत्वेनापि क्षत्रियोऽवश्यं कर्म कुर्यादित्याह लोकेति। लोकानां स्वे स्वे धर्मे प्रवर्तनमुन्मार्गान्निवर्तनं च लोकसंग्रहस्तं पश्यन्नपिशब्दाज्जनकादिशिष्टाचारमपि पश्यन्कर्म कर्तुमर्हस्येवेत्यन्वयः। क्षत्रियजन्मप्रापकेण कर्मणारब्धशरीरस्त्वं विद्वानपि जनकादिवत्प्रारब्धकर्मबलेन लोकसंग्रहार्थं कर्म कर्तुं योग्यो भवसि नतु त्युक्तं ब्राह्मणजन्मालाभादित्यभिप्रायः। एतादृशभगवदभिप्रायविदा भगवता भाष्यकृता ब्राह्मणस्यैव संन्यासो नान्यस्येति निर्णीतम्। वार्तिककृता तु प्रौढिवादमात्रेण क्षत्रियवैश्ययोरपि संन्यासोऽस्तीत्युक्तमिति द्रष्टव्यम्।
।।3.20।।एवमनासक्ताः कर्मकर्तारो मोक्षं प्राप्ताः इत्याह कर्मणैवेति। हीति निश्चयेन कर्मणा अनासक्तकर्मणा जनकादयः संसिद्धिं मुक्तिमास्थिताः प्राप्तवन्तः। जनकादयस्तु न साक्षात्त्वां प्रपन्ना इत्यनासक्त्यापि तेषां करणं युक्तम्। न तु मम त्वां प्रपन्नस्योचितमित्याशङ्क्याह लोकसङ्ग्रहमिति। लोकसङ्ग्रहमपि सम्पश्यन् कर्तुमेवार्हसि। अत्रायं भावः यद्यपि मद्भक्तस्य नावश्यकं तथापि मदाज्ञया लोकसङ्ग्राहार्थं कर्तुमेवार्हसि न तु तज्जनितसिद्ध्यर्थम्। अयमेवार्थ एवकारेण विविच्यते।
।।3.20।। कर्मणैव हि यस्मात् पूर्वे क्षत्रियाः विद्वांसः संसिद्धिं मोक्षं गन्तुम् आस्थिताः प्रवृत्ताः। के जनकादयः जनकाश्वपतिप्रभृतयः। यदि ते प्राप्तसम्यग्दर्शनाः ततः लोकसंग्रहार्थं प्रारब्धकर्मत्वात् कर्मणा सहैव असंन्यस्यैव कर्म संसिद्धिमास्थिता इत्यर्थः। अथ अप्राप्तसम्यग्दर्शनाः जनकादयः तदा कर्मणा सत्त्वशुद्धिसाधनभूतेन क्रमेण संसिद्धिमास्थिता इति व्याख्येयः श्लोकः। अथ मन्यसे पूर्वैरपि जनकादिभिः अजानद्भिरेव कर्तव्यं कर्म कृतम् तावता नावश्यमन्येन कर्तव्यं सम्यग्दर्शनवता कृतार्थेनेति तथापि प्रारब्धकर्मायत्तः त्वं लोकसंग्रहम् एव अपि लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणं लोकसंग्रहः तमेवापि प्रयोजनं संपश्यन् कर्तुम् अर्हसि।।लोकसंग्रहः किमर्थं कर्तव्य इत्युच्यते
।।3.20।।अत्र सदाचारं प्रमाणयति कर्मणैवेति। जनकादयः कर्मणैव जीवन्मुक्तदशामास्थिताः। संयोगपृथक्त्वन्यायेनोभयसाधकेन कर्मणा ज्ञानसंसिद्धिं वाऽऽस्थिता इति। तद्वत् सिद्धत्वाभिमानेऽपि तव कर्म कर्त्तंव्यमेवायाति। लोकसङ्ग्रहार्थमपि तं पश्यन् कर्त्तुंमर्हसि।
Chapter 3, Verse 20