Chapter 3, Verse 17

Text

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।

Transliteration

yas tvātma-ratir eva syād ātma-tṛiptaśh cha mānavaḥ ātmanyeva cha santuṣhṭas tasya kāryaṁ na vidyate

Word Meanings

yaḥ—who; tu—but; ātma-ratiḥ—rejoice in the self; eva—certainly; syāt—is; ātma-tṛiptaḥ—self-satisfied; cha—and; mānavaḥ—human being; ātmani—in the self; eva—certainly; cha—and; santuṣhṭaḥ—satisfied; tasya—his; kāryam—duty; na—not; vidyate—exist


Translations

In English by Swami Adidevananda

But the man whose delight is only in the Self, who is satisfied with the Self, who rejoices in the Self, for him nothing remains to be accomplished.

In English by Swami Gambirananda

But that man who rejoices only in the Self, is satisfied with the Self, and is content only in the Self—for him there is no duty to perform.

In English by Swami Sivananda

But for that man who rejoices only in the Self, who is satisfied with the Self and is content in the Self alone, indeed there is nothing to do.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

But the man who simply rejoices in the Self, is satisfied in the Self, and delights in the Self alone—there exists no action for him to be performed.

In English by Shri Purohit Swami

On the other hand, the soul who meditates on the Self is content to serve the Self and rests satisfied in the Self; there is nothing more for them to accomplish.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.17।।  जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.17।। परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.17 यः who? तु but? आत्मरतिः who rejoices in the Self? एव only? स्यात् may be? आत्मतृप्तः satisfied in the Self? च and? मानवः the man? आत्मनि in the Self? एव only? च and? सन्तुष्टः contented? तस्य his? कार्यम् work to be done? न not? विद्यते is.Commentary The sage does not depend on external objects for his happiness. He is ite satisfied with the Self. He finds his joy? bliss and contentment within his own Self. For such a sage who has knowledge of the Self? there is nothing to do. He has already done all actions. He has satisfied all his desires. He has complete satisfaction. (Cf.II.55).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.17।। व्याख्या--'यस्त्वात्मरतिरेव ৷৷. च संतुष्टस्तस्य'--यहाँ 'तु' पद पूर्वश्लोकमें वर्णित अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यसे कर्तव्यकर्मके द्वारा सिद्धिको प्राप्त महापुरुषकी विलक्षणता बतानेके लिये प्रयुक्त हुआ है।जबतक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है, तबतक वह अपनी 'रति' (प्रीति) इन्द्रियोंके भोगोंसे एवं स्त्री, पुत्र, परिवार आदिसे, 'तृप्ति' भोजन (अन्न-जल) से तथा 'सन्तुष्टि' धनसे मानता है। परन्तु इसमें उसकी प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील, जड और नाशवान् है तथा 'स्वयं' सदा एकरस रहनेवाला, चेतन और अविनाशी है। तात्पर्य है कि 'स्वयं' का संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। अतः 'स्वयं' की प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि संसारसे कैसे हो सकती है?किसी भी मनुष्यकी प्रीति संसारमें सदा नहीं रहती--यह सभीका अनुभव है। विवाहके समय स्त्री और पुरुषमें परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है, वह एकदो सन्तान होनेके बाद नहीं रहता। कहींकहीं तो स्त्रियाँ अपने वृद्ध पतिके लिये यहाँतक कह देती हैं कि बुड्ढा मर जाय तो अच्छा है भोजन करनेसे प्राप्त तृप्ति भी कुछ ही समयके लिये प्रतीत होती है मनुष्यको धनप्राप्तिमें जो सन्तुष्टि प्रतीत होती है वह भी क्षणिक होती है क्योंकि धनकी लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। इसलिये कमी निरन्तर बनी रहती है। तात्पर्य यही है कि संसारमें प्रीति तृप्ति और संतुष्टि कभी स्थायी नहीं रह सकती। मनुष्यको सांसारिक वस्तुओंमें प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिकी केवल प्रतीति होती है, वास्तवमें होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्ति एवं असन्तुष्टि नहीं होती। स्वरूपसे प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि स्वतःसिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत्में कभी कोई अभाव नहीं होता--'नाभावो विद्यते सतः'(गीता 2। 16) और अभावके बिना कोई कामना पैदा नहीं होती। इसलिये स्वरूपमें निष्कामता स्वतःसिद्ध है। परन्तु जब जीव भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिको संसारमें ढूँढ़ने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है। कामना करनेके बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है, तब मनमें स्थित कामनाके निकलनेके बाद (दूसरी कामनाके पैदा होनेसे पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामताका उसे सुख होता है; परन्तु उस सुखको मनुष्य भूलसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिसे उत्पन्न हुआ मान लेता है तथा उस सुखको ही प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिके नामसे कहता है। अगर वस्तुकी प्राप्तिसे वह सुख होता, तो उसके मिलनेके बाद उस वस्तुके रहते हुए सदा सुख रहता, दुःखकभी न होता और पुनः वस्तुकी कामना उत्पन्न न होती। परन्तु सांसारिक वस्तुओंसे कभी भी पूर्ण (सदाके लिये) प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि प्राप्त न हो सकनेके कारण तथा संसारसे ममताका सम्बन्ध बना रहनेके कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है। कामना उत्पन्न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है। अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है।यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि साधक तो उस सुखका मूल कारण निष्कामताको मानते हैं और दुःखोंका कारण कामनाको मानते हैं, परन्तु संसारमें आसक्त मनुष्य वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख मानते हैं और वस्तुओंकी अप्राप्तिसे दुःख मानते हैं। यदि आसक्त मनुष्य भी साधकके समान ही यथार्थ दृष्टिसे देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामताका अनुभव हो सकता है। सकाम मनुष्योंको कर्मयोगका अधिकारी कहा गया है-- 

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.17।। कर्म के चक्र का पालन अधिकतर साधकों के लिए करणीय है क्योंकि यज्ञ भावना से कर्म के आचरण द्वारा उनका व्यक्तित्व संगठित होता है और उनमें जीवन के श्रेष्ठ कार्य ध्यान की योग्यता आती है। निस्वार्थ कर्म के द्वारा प्राप्त अन्तकरण की शुद्धि एवं एकाग्रता का उपयोग जब निदिध्यासन में किया जाता है तब साधक अहंकार के परे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। पूर्णत्व प्राप्त ऐसे सिद्ध पुरुष के लिये कर्म की चित्तशुद्धि के साधन के रूप में कोई आवश्यता नहीं रहती वरन् कर्म तो उसके ईश्वर साक्षात्कार की अभिव्यक्ति मात्र होते हैं।यह एक सुविदित तथ्य है कि तृप्ति एवं सन्तोष के लिये ही हम कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। तृप्ति और सन्तोष मानो जीवनरथ के दो चक्र हैं। इन दोनों की प्राप्ति के लिये ही हम धन का अर्जन रक्षण परिग्रह और व्यय करने में व्यस्त रहते हैं। परन्तु आत्मानुभवी पुरुष अपने अनन्त आनन्द स्वरूप में उस तृप्ति और सन्तोष का अनुभव करता है कि उसे फिर बाह्य वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।जहाँ तृप्ति और सन्तोष है वहाँ सुख प्राप्ति की इच्छाओं की उत्पत्ति कहाँ इच्छाओं के अभाव में कर्म का अस्तित्व कहाँ इस प्रकार आत्म अज्ञान के कार्य इच्छा विक्षेप और कर्म का उसमें सर्वथा अभाव होता है। स्वाभाविक है ऐसे पुरुष के लिये कोई अनिवार्य कर्तव्य नहीं रह जाता। सभी कर्मों का प्रयोजन उसमें पूर्ण हो जाता है। अत जगत् के सामान्य नियमों में उसे बांधा नहीं जा सकता। वह ईश्वरीय पुरुष बनकर पृथ्वी पर विचरण करता है।और

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.17।।वृत्तमर्थमेवं विभज्यानूद्यानन्तरश्लोकमाशङ्क्योत्तरत्वेनावतारयति एवमिति। अर्जुनस्य प्रश्नमित्येवमर्थमाशङ्क्याह भगवानिति संबन्धः। नन्वेषाशङ्का नावकाशमासादयत्यनात्मज्ञेन कर्तव्यं कर्मेति बहुशो विशेषितत्वादित्याशङ्क्याह स्वयमेवेति। किमर्थं श्रुत्यर्थं स्वयमेव भगवानत्र प्रतिपादयतीत्याशङ्क्याह शास्त्रार्थस्येति। गीताशास्त्रस्य ससंन्यासं ज्ञानमेव मुक्तिसाधनमर्थो नार्थान्तरमिति विवेकार्थमिह श्रुत्यर्थं कीर्तयतीत्यर्थः। तमेव श्रुत्यर्थं संक्षिपति एवमिति। सिद्धं चेदात्मवेदनमनर्थकं तर्हि व्युत्थानादीत्याशङ्क्यापातिकविज्ञानफलमाह निवृत्तेति। ब्राह्मणग्रहणं तेषामेव व्युत्थाने मुख्यमधिकारित्वमिति ज्ञापनार्थम्। क्लेशात्मकत्वादेषणानां ताभ्यो व्युत्थानं सर्वेषां स्वाभाविकत्वादविधित्सितमित्याशङ्क्याह मिथ्येति। भिक्षाचर्यं चरन्तीति वचनं व्युत्थानविरुद्धमित्याशङ्क्याह शरीरेति। तर्हि तद्वदेव तेषामग्निहोत्राद्यपि कर्तव्यमापद्येतेत्याशङ्क्य व्युत्थायिनामाश्रमधर्मवदग्निहोत्रादेरनुष्ठापकाभावान्मैवमित्याह न तेषामिति। यथोक्तं श्रुत्यर्थमस्मिन् गीताशास्त्रे पौर्वापर्येण पर्यालोच्यमाने प्रतिपादयितुमिष्टं प्रकटीकुर्वन्कर्तव्यमेव कर्म जीवतेति नियमेज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इति कथमुक्तमिति परिचोद्य परिहारमुपदर्शयतीत्याह इत्येवमिति। आत्मनिष्ठस्य विषयसङ्गराहित्यं दृष्टं तदनात्मज्ञेन जिज्ञासुना कर्तव्यमिति मत्वाह यस्तु सांख्य इति। किंचात्मज्ञस्य ज्ञानेनात्मनैव परितृप्तत्वान्नान्नपानादिना साध्या तृप्तिरिष्टा तेन विद्यार्थिना संन्यासिनापि नान्नरसादावासक्तिर्युक्ता कर्तुमित्याह आत्मतृप्त इति। किंचात्मविदः सर्वतो वैतृष्ण्यं दृष्टं तदनात्मविदा विद्यार्थिना कर्तव्यमित्याह आत्मन्येवेति। रतितृप्तिसंतोषाणां मोदप्रमोदानन्दवदवान्तरभेदः अथवा रतिर्विषयासक्तिः तृप्तिर्विषयविशेषसंपर्कजं सुखं संतोषोऽभीष्टविषयमात्रलाभाधीनं सुखसामान्यमिति भेदः। नन्वात्मरतेरात्मतृप्तस्यात्मयेव संतुष्टस्यापि किंचित्कर्तव्यं मुक्तये भविष्यतीति नेत्याह य ईदृश इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.17।।न कर्मणामित्यारभ्य शरीरयात्रापीत्यन्तेन ग्रन्थेनात्मज्ञाननिष्ठायोग्यताप्राप्त्यर्थं फलाभिसंधिरहितं कर्मानुष्ठेयमिति प्रतिपाद्य यज्ञार्थादित्यादिना मोघमित्यन्तेन प्रासाङ्गिकमनात्मविदोऽधिकृतस्य कर्मानुष्ठाने बहु कारणमुक्तं तदकरणे च दोषसंकीर्तनं कृतमेवंस्थिते किमेवं प्रवर्तितं चक्रं सर्वेणानुवर्तनीयमुतानात्मज्ञेनाशुद्धान्तःकरणेन ज्ञानप्राप्त्यर्थमित्यर्जुनसंशयमालक्ष्य स्वयमेव वा शास्त्रस्य विवेकप्रतिपत्त्यर्थं तत्त्वविदस्तन्निषेधति यस्त्विति। यस्तु मानव आत्मज्ञाननिष्ठ आत्मन्येव रतिर्न विषयेषु यस्य सः आत्मनैव नान्नरसादिना तृप्तश्च भवेत्। आत्मन्येव तुष्टो न बाह्येष्वर्थेषु विगततृष्ण इत्यर्थः। तस्य कर्तव्यं नास्ति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.17।।तर्ह्यतीव मनस्समाधानमपि न कार्यमित्यत आह यस्त्विति। रमणं परदर्शनादिनिमित्तं सुखम्। तृप्तिरन्यत्रालम्बुद्धिः। सन्तोषस्तज्जनकं सुखम्।सन्तोषस्तृप्तिकारणम् इत्यभिधानात्। परमात्मदर्शनादिनिमित्तं सुखं प्राप्तः। अन्यत्र सर्वात्मनाऽलम्बुद्धिः। महच्च तत्सुखं च तेनैवान्यत्रालम्बुद्धिरिति दर्शयति आत्मन्येव च सन्तुष्ट इति। तत्स्थ एव सन्सन्तुष्ट इत्यर्थः। नान्यत्किमपि सन्तोषकारणमित्यवधारणम्। आत्मना तृप्तः। न ह्यात्मन्यलम्बुद्धिर्युक्ता। तद्वाचित्वं चवयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमैः भाग.1।1।19 इति प्रयोगात्सिद्धम्। अध्याहारस्त्वगतिका गतिः।आत्मरतिरैव इत्यवधारणादसम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्यैव कार्यं न विद्यते।स्थितप्रज्ञस्यापि कार्यो देहादिर्दृश्यते। यद्वास्वधर्मो मम तुष्ट्यर्थः सा हि सर्वैरपेक्षिता इति वचनाच्च पञ्चरात्रे। अन्यदाऽन्यरतिरपीषत्सर्वस्य भवति। न च तत्रालम्बुद्धिमात्रमुक्तम् आत्मतृप्त इति पृथगभिधानात्। कर्तृशब्दः कालावच्छेदेऽपि चायं प्रसिद्धःयो भुङ्क्ते स तु न ब्रूयात् इत्यादौ अतोऽसम्प्रज्ञातसमाधावेवैतत्।मानव इति ज्ञानिन एवासम्प्रज्ञातसमाधिर्भवतीति दर्शयति मनु अवबोधन इति धातोः। परमात्मरतिश्चात्र विवक्षिता।विष्णावेव रतिर्यस्य क्रिया तस्यैव नास्ति हि इति वचनात्।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.17।।एवमीश्वरेण वेदयज्ञपूर्वकं जगच्चक्रं प्रवर्तितमज्ञैरधिकृतैरनुवर्तितव्यमित्युक्तम्। अस्यानुवर्तने च महान्प्रत्यवाय उक्तः। स ब्रह्मविदमपि स्पृशेदिति संभावितामाशङ्कां परिहरति यस्त्विति। आत्मन्येव रतिः प्रीतिर्यस्य नतु स्त्र्यादौ स तथा। नन्वात्मनि प्रीतिः प्राणिमात्रस्यानौपाधिक्यस्ति प्रत्युत तदर्थत्वेनैव स्त्र्यादिष्वपिप्रीतिर्भवतीत्यत उक्तम् आत्मतृप्त इति। आत्मनैव परमानन्दरूपेण तृप्तो न मिष्टान्नादिना। ननु मन्दाग्निरपि स्त्र्यादौ न रमते नापि मिष्टान्नेन तृप्यत्यत उक्तं आत्मन्नेव च संतुष्ट इति। मन्दाग्निर्हि धातुवृद्धिं जाठरोद्दीपनं च कामयमान औषधाद्यर्थमितस्ततो धावति नत्वात्मन्येव तुष्यति विद्वांस्तु रतितृप्तितुष्टीरात्मनैवानुभवति न स्त्र्यन्नधनादिभिरिति तस्य कार्यं कर्तव्यं किमपि नास्ति। क्रियाप्राप्यस्य कस्यचिदप्यर्थस्याभावात्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.17।।यः तु ज्ञानयोगकर्मयोगसाधननिरपेक्षः स्वत एव आत्मरतिः आत्माभिमुखः आत्मना एव तृप्तः न अन्नपानादिभिः आत्मव्यतिरिक्तैः आत्मनि एव च सन्तुष्टः न उद्यानस्रक्चन्दनगीतवादित्रनृत्यादौ धारणपोषणभोग्यादिकं सर्वम् आत्मा एव यस्य तस्य आत्मदर्शनाय कर्तव्यं न विद्यते स्वत एव सर्वदा दृष्टात्मस्वरूपत्वात्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.17।।तदेवंन कर्मणाभनारम्भान्नैष्कर्म्यं इत्यादिनाऽज्ञस्यान्तःकरणशुद्ध्यर्थ कर्मयोगमुक्त्वा ज्ञानिनः कर्मानुपयोगमाह यस्त्वति द्वाभ्याम्। आत्मन्येव रतिः प्रीतियस्य। ततश्चात्मन्येव तृप्तः स्वानन्दानुभवेन निर्वृतः। अतएवात्मन्येव संतुष्टो भोगापेक्षारहितो यस्तस्य कर्तव्यं नास्ति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.17।।एवं ज्ञानयोगाद्यधिकारिणोऽपि कर्मकर्तव्यताया उक्तत्वात्तस्मादसक्तः 3।19 इत्यादिना वक्ष्यमाणत्वाच्च तन्मध्येयस्त्वात्मरतिः इत्यादिश्लोकौ न ज्ञानयोगाद्यधिकारिविषयौ किन्तु फलदशाविषयावित्यभिप्रायेणाह असाधनायत्तेति। एतेनअभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इत्याद्युक्तसन्न्यासाश्रमिपरत्वेन परव्याख्यानं निरस्तम् तस्यापि हि स्वाश्रमधर्मनिष्ठस्य सर्वकर्मनिवृत्त्यभावात्। वर्णाश्रमविशिष्टस्यैव हि वर्णाश्रमधर्मारम्भः न पुनर्वर्णाश्रमाधीननामरूपविनिर्मुक्तस्येति मुक्तशब्दस्य भावः।यस्त्वितितुशब्दः साधननिष्ठव्यावृत्त्यर्थ इत्यभिप्रायेणज्ञानयोगकर्मयोगसाधननिरपेक्ष इत्युक्तम्। कथं तर्हि साधनाभावे साद्ध्यसिद्धिः इत्यत्राह स्वत एवेति। प्रतिबन्धकं हि तन्निवृत्त्यर्थम् आत्माभिमुखत्वं तु स्वतः प्राप्तमिति भावः। रतिशब्दोऽत्राभिमुख्यविषयः तृप्त्यादेः पृथङ्निर्देशात्।आत्मरतिरेवआत्मन्येव इति पूर्वापरवत्आत्मतृप्तः इत्यत्राप्यवधारणं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह आत्मनैवेति। तृप्तितुष्टिशब्दौ हि पोषकभोग्यजन्यप्रीतिविषयतया प्रसिद्धावित्यभिप्रेत्य तत्तदुचितं व्यवच्छेद्यमाह नान्नपानादिभिरितिनोद्यानेत्यादि च।आत्मरतिः इत्यादेर्व्यवच्छेद्यत्रयं सङ्कलय्य सूचयन्वाक्यार्थमाह धारणेति। आदिशब्देन भोगस्थानादि विवक्षितम् यस्य तु ज्ञानयोगनिष्ठस्यापि धारणादिकमन्नपानादिभिरेव तस्य कर्तव्यं विद्यते एवेति भावः। ननुतस्य कार्यं न विद्यते इत्ययुक्तं मुक्तस्यापि जक्षन् क्रीडन् छां.उ.8।12।3 इत्यादिकार्यश्रवणात्। न चात्र कार्यमिति न तस्य कार्यं करणं च विद्यते श्वे.उ.6।7 इतिवच्छरीरादि निर्दिश्यते तन्निषेधस्येदानीमनुपयुक्तत्वात् तदत्यन्तनिषेधस्य चद्वादशाहवदुभयविधं ब्र.सू.4।3।12इत्यादिसूत्रतद्विषयश्रुतिभिर्विरुद्धत्वादित्याशङ्क्योक्तंआत्मदर्शनाय कर्तव्यं न विद्यते इति।यस्त्वात्मरतिः इत्यादिनाभिप्रेतं हेतुं व्यनक्ति स्वत एवेति।स्वत एव सर्वदा इत्युभाभ्यां उत्पत्त्यर्थं विनाशपरिहारार्थं च साधनापेक्षा नास्तीति ज्ञापितम्।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.17 3.19।।यश्चेत्यादि पूरुष इत्यन्तम्। आत्मरतेस्तु कर्म इन्द्रियव्यापारतयैव कुर्वतः करणाकरणेषु समता। अत एव नासौ भूतेषु किंचिदात्मप्रयोजनमपेक्ष्य निग्रहानुग्रहौ करोति अपि तु करणीयमिदम् इत्येतावता। तस्मादसक्त एव करणीयं कर्म कुर्यात्।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.17।।एवमज्ञानिनः कर्म कर्तव्यमित्युक्तम् इदानीं ज्ञानिनः कर्तव्याभावमाहेति परव्याख्यानमसदिति भावेन सङ्गतिमाह तर्हीति यद्येवं कर्माकरणे हानिस्तत्करणे च लाभस्तर्हीत्यर्थः। परमेश्वरेऽतीव मनस्समाधानमसम्प्रज्ञातसमाधिरित्यर्थः। न कार्यं प्रसज्येतेति शब्दः। तत्र कर्मलोपस्यावश्यम्भावादिति भावः। अत्र रतितृप्तिसन्तोषशब्दांस्तावद्व्याचष्टे रमणमिति। परेति स्वरूपकथनं न शब्दार्थान्तर्भूतम्। तथा च पञ्चमेऽभिधानं वक्ष्यते। तथात्वे जीवनिराकरणं च व्यर्थं स्यात् यद्दर्शनादिनिमित्तं सुखं ततोऽन्यत्र। तज्जनकं तृप्तेर्जनकम्। तृप्तिकारणं सुखमिति शेषः। इदानीमात्मशब्दस्य जीवविषयत्वप्रतीतिनिरासार्थमात्मरतिरिति समस्तं पदं व्याख्याति परमात्मेति। प्राप्त आत्मरतिरिति शेषः। अनेनात्मनि रतिर्यस्येति विग्रहः सूचितः। आत्मनो रतिर्यस्येति वा। एवमुत्तरावप्यात्मशब्दौ परमात्मार्थौ ज्ञातव्यौ। न चैवं सति तृप्तशब्दस्य परमात्मनोऽन्यत्रालम्बुद्धिरर्थः स्यात्। ततश्चेदं न वक्तव्यम्। आत्मरतिरेवेत्यवधारणेनान्यरतिनिरासेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गादित्यत आह अन्यत्रेति। अलम्बुद्धित्वं प्राप्तस्तृप्तशब्देनोक्त इति शेषः। अलम्बुद्धिरिति पाठे तृप्तशब्दार्थ इति शेषः। अवधारणेनैवान्यत्र रत्यभावे लब्धेऽपि सर्वात्मनाऽन्यत्रालम्बुद्धिं वक्तुं तृप्त इति पुनर्वचनम्। अवधारणस्यान्यत्रालम्बुद्धिमात्रद्योतनेन चरितार्थस्यसर्वात्मना इत्यत्राप्रवृत्तेरिति भावः। ननुसन्तुष्टः इत्यनेनालम्बुद्धिजनकं सुखं प्राप्त इत्युच्यत इत्युक्तम् तत्किं विषयजन्यम् उतात्मरत्याख्यम् नाद्यः विरोधात्। न द्वितीयः तस्यात्मरतिशब्देनोक्ततया पुनरुक्तिप्रसङ्गात्। कथं चतस्यान्यत्रालम्बुद्धिजनकत्वं इत्यत आह महच्चेति। चशब्दो हेतौ। तदात्मरत्याख्यं प्रागुक्तमेव सुखं पुनरन्यत्रालम्बुद्धिकारणत्वेनोच्यतेऽतो न दोषः तस्य च महत्त्वं संशब्देनोक्तमतस्तत्कारणत्वं चोपपन्नमित्यर्थः। आत्मरतिः सन्तोषशब्देन गृह्यते चेत् पुनरात्मनीति व्यर्थमित्यत आह तत्स्थ एवेति। सन्तोषाख्यात्मरतिः केनास्य जाता इत्यपेक्षायामसम्प्रज्ञातसमाधिलक्षणया परमात्मनि स्थित्येति ज्ञापयितुं आत्मनीत्युक्तमित्यर्थः। अवधारणस्य प्रयोजनमाह नान्यदिति। अन्यदसम्प्रज्ञातसमाधिरूपात्तत्स्थत्वात् एतेनात्मरतिरेवेत्यवधारणेनास्य पुनरुक्तता परिहृता। नन्वात्मतृप्त इति कोऽयं समासः इत्यत आह आत्मनेति न केवलमात्मरत्याख्येन सुखेनं किन्तु प्रसन्नेन परमात्मनैवेत्यर्थः। पञ्चमीसमासः कथं न स्यात् इति चेत् न असामर्थ्यात्।अन्यत्र इत्यनेन ह्यस्य सामर्थ्यं न तु तृप्तशब्दार्थेन तृप्तशब्दार्थ एवान्यत्रार्थान्तरभूतोऽस्तीति चेत् न तस्य प्रकरणलब्धस्य तदन्तर्भावाभावात्। अन्यथावयं तु न वितृप्यामः इत्यत्र ततोऽन्यत्रालम्बुद्धिं न प्राप्नुम इत्यर्थप्रसङ्गात्। अस्तु तर्हि सप्तमीसमास इति नेत्याह न हीति। पूर्वविशेषणविरोधात् प्रमाणान्तरविरोधाच्चेति भावः। स्यादयं दोषो यदि तृप्तशब्दस्यालम्बुद्धिवाचित्वं स्यात्। तदेव कुतः इत्यत आह तद्वाचित्वं चेति। नन्वत्र तृप्तिशब्दः प्रीत्यर्थः न चैवं सत्यर्थानुपपत्तिः उत्तमश्लोकविक्रमैः श्रूयमाणैर्निमित्तैरन्यत्र प्रीतिं न प्राप्नुम इत्यध्याहारेणोपपत्तेरित्यत आह अध्याहारस्त्विति। गत्यन्तररहितागमनिका। अध्याहारो ह्यश्रुतशब्दकल्पनम्। तच्च कल्पकसद्भावे न दोषः अन्यथा तु दोष एव। कल्पकं च गत्यन्तरराहित्यम्। अन्यथाऽनुपपत्तिरिति यावत्। अत्र त्वलम्बुद्ध्यर्थत्वे गृहीते विनाऽप्यध्याहारेण वाक्यार्थोपपत्तेरयुक्तोऽसाविति भावः। षष्ठीसमासस्तुपूरणगुणसुहितार्थ अष्टा.2।2।11 इति प्रतिषिद्धः। अपव्याख्यानं निराचष्टे आत्मरतिरेवेति। न ज्ञानिमात्रस्येत्येवार्थः।इतोऽपि न ज्ञानिमात्रस्य कार्याभाव इत्याह स्थितप्रज्ञस्यापीति। स्वधर्मः कार्य इति सम्बन्धः। आत्मरतिरेवेत्यवधारणेऽपि कुतो न ज्ञानिमात्रविषयमेतत् इत्यत आह अन्यदेति। अवधारणेन ह्यनात्मरतिर्व्यावर्त्यते। असम्प्रज्ञातसमाधिकालादन्यदा सर्वस्य ज्ञानिनोऽपीषदन्यरतिर्भवतीत्युपपादितम् अतोऽसम्प्रज्ञातसमाधिस्थव्यतिरिक्तानां ज्ञानिनामप्यवधारणेन व्यावर्तितत्वान्न तद्विषयमेतदिति भावः। ननु ज्ञानिनामन्यरतौ विद्यमानायामपि तत्रालम्बुद्धिरप्यस्तीत्यात्मरतिरेवेत्यवधारणमुपपद्यत इत्यत आह न चेति। तत्र श्लोके तत्र कार्याभावे प्रयोजकत्वेनात्मनोऽन्यत्रालम्बुद्धिमात्रमल्पालम्बुद्धिः रतिसहचरितालम्बुद्धिरिति यावत् नोक्ता किं तर्हि सर्वात्मनाऽलम्बुद्धिः कुतः इत्यत आह आत्मेति। अवधारणेनान्यत्रालम्बुद्धौ लब्धायामपि यत्पृथगात्मतृप्त इत्यभिधत्ते तेन सर्वात्मनाऽलम्बुद्धिरवधारणेनाभिप्रेतेति ज्ञायत इति प्रागुक्तम्। अतो ज्ञानिमात्रे नेदमुपपद्यत इत्यर्थः। यस्त्वात्मरतिरेवेत्येतदसम्प्रज्ञातसमाधिस्थ एव सम्भवि तथापि यत्पतति तद्गुर्वितिवत् य एवंविधः कदाचित्तस्य सर्वदा कार्यं न विद्यत इत्येवं व्याख्याने ज्ञानिमात्रस्य कार्याभावः सेत्स्यति। न ह्यत्र यदैवं तदेति कालावच्छेदकशब्दोऽस्ति। आत्मरतिरिति समासस्तु रतेः कर्तारमेवाचष्ट इत्यत आह कर्तृशब्द इति। अयं च यदा तदेति रहितोऽपीत्यर्थः। आदिग्रहणेन यो दारान् परिगृह्णाति स गृहीत्यादेः परिग्रहः। अयं भावः तस्य कार्यं न विद्यते इत्युक्तेऽतिप्रसक्तौ सत्यामन्यव्यावर्तकंयस्त्वात्मरतिरेव स्यात् इत्यनेनोक्तम्। व्यावर्तकं च द्विविधं भवति विशेषणमुपलक्षणं चेति। तत्र व्यवच्छेद्यसमानकालं विशेषणम् यथा सिद्धान्त्युदाहृतं भाजनम्। अन्यथा तूपलक्षणं यथा पूर्वपक्ष्युदाहृतं पतनम् तत्र विशेषणं मुख्य विशेषज्ञानहेतुत्वात्। अन्यदमुख्यं वैपरीत्यात्।मुख्यामुख्ययोश्च मुख्ये कार्यसम्प्रत्ययः। न चात्र विशेषणत्वग्रहणे बाधकमस्ति येनोपलक्षणमेतदिति प्रतीम इति। कर्तृशब्द इत्युक्तस्य फलमाह अत इति। एतत्कार्यराहित्यम्।समाधावेव इत्युक्त्या समानकालतां सूचयति।न चासम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्य कार्याभावे व्याख्यायमाने कदाचिदपरोक्षज्ञानरहितस्यापि असम्प्रज्ञातसमाधिसम्भवात् कार्याभावप्रसङ्ग इति चेत् न अपरोक्षज्ञानिन एव असम्प्रज्ञातसमाधिर्भवति नान्यस्येत्यस्यार्थस्यमानवं इति पदेन भगवतैव दर्शितत्वादित्याह मानव इति।मानवः इति कथं ज्ञानिनो वाचकं इत्यत आह मन्विति। धातोर्व्याख्यानादिति शेषः। अस्माद्धातोर्भावे उप्रत्ययः। ततो मनुरवबोधोऽस्यास्तीत्यस्मिन्नर्थे मनोरयमाश्रय इत्यर्थे वाऽण्प्रत्ययः। यद्वा धातोरेव वाण्प्रत्ययः। मनुष्य इतिव्याख्यायामृष्यादिव्यावृत्तिर्वैयर्थ्यं चापद्येत। आत्मशब्दस्याप्यन्यथाव्याख्यां निराकरोति परमात्मेति।चशब्दोऽवधारणे। न स्वात्मरतिरित्यर्थः।तस्यैव इत्यवधारणादिति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.17।।यस्त्विन्द्रियारामो न भवति परमार्थदर्शी स एवं जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुभूतं कर्माननुतिष्ठन्नपि न प्रत्यवैति कृतकृत्यत्वादित्याह द्वाभ्याम् इन्द्रियारामो हि स्रक्चन्दनवनितादिषु रतिमनुभवति मनोज्ञान्नपानादिषु तृप्तिम् पशुपुत्रहिरण्यादिलाभेन रोगाद्यभावेन च तुष्टिं उक्तविषयाभावे रागिणामरत्यतृप्त्यतुष्टिदर्शनात्। रतितृप्तितुष्टयो मनोवृत्तिविशेषाः साक्षिसिद्धाः। लब्धपरमात्मानन्दस्तु द्वैतदर्शनाभावादतिफल्गुत्वाच्च विषयसुखं न कामयत इत्युक्तंयावानर्थ उदपाने इत्यत्र। अतो नात्मविषयकरतितृप्तितुष्ट्यभावादात्मानं परमानन्दमद्वयं साक्षात्कुर्वन्नुपचारादेवमुच्यते आत्मरतिरात्मतृप्त आत्मसंतुष्ट इति। तथाच श्रुतिःआत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः इति। आत्मतृप्तश्चेति चकार एवकारानुकर्षणार्थः। मानव इति यः कश्चिदपि मनुष्य एवंभूतः स एव कृतकृत्यो नतु ब्राह्मणत्वादिप्रकर्षेणेति कथयितुम्। आत्मन्येव च संतुष्ट इत्यत्र चकारः समुच्चयार्थः। य एवंभूतस्तस्याधिकारहेत्वभावात्किमपि कार्यं वैदिकं लौकिकं वा न विद्यते।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.17।।नन्वेवं चेत्तदा सर्व एव त्वद्भक्ताः कथं न कुर्वन्ति इत्यत आह द्वयेन यस्त्वात्मरतिरेवेति। यस्तु आत्मरतिरेव आत्मनिमय्येव रतिर्यस्य तादृशः स्यात् यश्च आत्मतृप्तश्च भगवदानन्देन तृप्तः सुखितः आत्मन्येव भगवत्येव सन्तुष्टः स्वभोगापेक्षारहितः तस्य कार्यं कर्त्तव्यं न विद्यते नास्तीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.17।। यस्तु सांख्यः आत्मज्ञाननिष्ठः आत्मरतिः आत्मन्येव रतिः न विषयेषु यस्य सः आत्मरतिरेव स्यात् भवेत् आत्मतृप्तश्च आत्मनैव तृप्तः न अन्नरसादिना सः मानवः मनुष्यः संन्यासी आत्मन्येव च संतुष्टः। संतोषो हि बाह्यार्थलाभे सर्वस्य भवति तमनपेक्ष्य आत्मन्येव च संतुष्टः सर्वतो वीततृष्ण इत्येतत्। यः ईदृशः आत्मवित् तस्य कार्यं करणीयं न विद्यते नास्ति इत्यर्थः।।किञ्च

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.17।।तदेवंन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते 3।4 इति योगमार्गीयपुरुषार्थसिद्ध्यर्थं कर्म विहितं विधेयमित्युक्तम् साङ्क्यमार्गीयस्य तु ज्ञानमेव नानात्मभूतं कर्मोपयुक्तमित्याह द्वाभ्याम् यस्त्विति। तुः पूर्वं प्रकृतेभेदार्थकः। आत्मन्येवेति। तृप्तिर्तुष्टिर्यस्य नानात्मनि इत्यात्मैवकारलिङ्गेन साङ्ख्यमार्गीयो मुनिरुक्तः। तत्र हेतुमाह।


Chapter 3, Verse 17