Chapter 3, Verse 16

Text

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।3.16।।

Transliteration

evaṁ pravartitaṁ chakraṁ nānuvartayatīha yaḥ aghāyur indriyārāmo moghaṁ pārtha sa jīvati

Word Meanings

evam—thus; pravartitam—set into motion; chakram—cycle; na—not; anuvartayati—follow; iha—in this life; yaḥ—who; agha-āyuḥ—sinful living; indriya-ārāmaḥ—for the delight of their senses; mogham—vainly; pārtha—Arjun, the son of Pritha; saḥ—they; jīvati—live


Translations

In English by Swami Adidevananda

He who does not follow the wheel thus set in motion here, lives in sin, satisfying the senses, O Arjuna; he lives in vain.

In English by Swami Gambirananda

O Partha, he who does not follow the wheel thus set in motion lives in vain, their life is sinful, and they indulge in the senses.

In English by Swami Sivananda

He who does not follow the wheel thus set in motion, who is of sinful life, rejoicing in the senses, lives in vain, O Arjuna.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Whoever does not keep the wheel of life rolling, which has been set in motion in this world, is a man of sinful life, rejoicing in the senses; and he lives in vain, O son of Prtha!

In English by Shri Purohit Swami

Thus, he who does not help the revolving wheel of sacrifice, but instead leads a sinful life, rejoicing in the gratification of his senses, O Arjuna, is breathing in vain.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.16।। हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.16।। जो पुरुष यहाँ इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र का अनुवर्तन नहीं करता हे पार्थ इंन्द्रियों में रमने वाला वह पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.16 एवम् thus? प्रवर्तितम् set revolving? चक्रम् wheel? न not? अनुवर्तयति follows? इह here? यः who? अघायुः living in sin? इन्द्रियारामः rejoicing in the senses? मोघम् in vain? पार्थ O Partha? सः he? जीवति lives.Commentary This is the wheel of action set in motion by the Creator on the basis of the Veda and sacrifice.He who does not follow the wheel by studying the Vedas and performing the sacrifices prescribed therein but who indulges only in sensual pleasures lives in vain. He is wasting his life. He is leading a worthless life indeed.One who does not live in accordance with this law and who is selfish commits sin. He violates the law of the Creator and that is the worst sin.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.16।। व्याख्या--'पार्थ'--नवें श्लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लिये पार्थ सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा(कुन्ती) के पुत्र हो जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था। अतः तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टिचक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टिचक्रके अनुसार न बरतना है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.16।। खनिज वनस्पति एवं पशु जगत् के समस्त सदस्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से ही यज्ञ भावना का पालन करते हुए प्रकृति में प्रवर्तित कर्मचक्र के निर्विघ्न चलने में अपना योगदान देते हैं। केवल मनुष्य को ही यह स्वतन्त्रता है कि चाहे तो वह इसका पालन करे अथवा विरोध। जब तक किसी पीढ़ी के अधिकसेअधिक लोग सामंजस्यकेनियम के अनुसार जीवन जीते हैं तब तक उतनी ही अधिक मात्रा में वे सुख समृद्धि से सम्पन्न होकर रहते हैं। ऐसे काल को ही सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का स्वर्ण युग कहा जाता है।परन्तु सभी मनुष्यों के लिये सदैव यह सम्भव नहीं होता कि वे इस सनातन नियम का दृढ़तापूर्वक पालन कर सकें। इतिहास के किसीकिसी काल में मनुष्य इस नियम के विरुद्ध खड़ा हो जाता है और तब जीवन में शांति और विकास का राज्य विखरता हुआ अन्त में मात्र खण्डहर रह जाता है। ऐसे तिमिराच्छन्न युग निराशा और अशांति युद्ध और महामारी बाढ़ और अकाल से प्रताड़ित और त्रस्त युग होते हैं।स्वाभाविक ही मन में यह प्रश्न उठता है कि सुख शान्ति का उज्ज्वल दिवस अस्त होकर जगत् में निराशा और अविवेक की अन्धकारपूर्ण रात्रि आने का क्या कारण है इसका उत्तर गीता में दिया गया हुआ है।व्यक्तियों से समाज बनता है। किसी समाज की उपलब्धियों के कारण हम उसे कितना ही गौरवान्वित करें फिर भी समाज के निर्माता व्यक्तियों के व्यक्तिगत योगदान की अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्तियों के योग्य होने पर समाज सरलता से आगे बढ़ता है। परन्तु इकाई रूप व्यक्तियों का त्रुटिपूर्णसंगठन होने पर सम्पूर्ण समाज रूपी महल ही ढह जाता है। मनुष्य का विनाशकारी जीवन प्रारम्भ होता है उसके अत्यधिक इन्द्रियों के विषय में रमने से देह को ही अपना स्वरूप समझकर उसके पोषण एवं सुखसुविधाओं का ध्यान रखने में ही वे व्यस्त हो जाते हैं। अत्यधिक देहासक्ति के कारण वे पशुवत विषयोपभोग के अतिरिक्त जीवन का अन्य श्रेष्ठ लक्ष्य ही नहीं जानते और इसलिये उच्च जीवन जीने के मार्ग के ज्ञान की भी उन्हे कोई आवश्यकता अनुभव नहीं होती।ऐसे युग में कोई भी व्यक्ति यज्ञ की भावना से कर्म करने में प्रवृत्त नहीं होता जिसके बिना उत्पादन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ (पर्जन्य) नहीं बनतीं जिससे कि उत्पादन क्षमता (देव) आनन्ददायक पोषक वस्तुओं (अन्न) के रूप में प्रगट हो सकें। विषयों के भोगियों को यहां इन्द्रिया रामा कहा गया जिनमें से प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही भोग की चिन्ता करता है और अनजाने ही विश्व के कर्मचक्र में घर्षण उत्पन्न करता है। इन लोगों का जीवन पापपूर्ण माना गया है और गीता का कथन है वे व्यर्थ ही जीते हैं।अब एक प्रश्न है क्या इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का पालन सबको अनिवार्य है अथवा केवल उसके लिये जिसे ज्ञानयोग में अभी निष्ठा प्राप्त नहीं हुई है उत्तर में भगवान् कहते हैं

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.16।।अधिकृतेनाध्ययनादिद्वारा जगच्चक्रमनुवर्तनीयमन्यथेश्वराज्ञातिलङ्घिनस्तस्य प्रत्यवायः स्यादित्याह एवमिति।न कर्मणामनारम्भात् इत्यादिनोक्तमुपसंहरति तस्मादिति। जगच्चक्रस्य प्रागुक्तप्रकारेणानुवर्तने वृथा जीवनमघसाधनं यस्मात्तस्माज्जीवता नियतं कर्म कर्तव्यमित्यर्थः। यद्यधिकृतेन कर्तव्यमेव कर्म तर्हि किमित्यज्ञेनेति विशिष्यते ज्ञाननिष्ठेनापि तत्कर्तव्यमेवाधिकृतत्वाविशेषादित्याशङ्क्य पूर्वोक्तमनुवदति प्रागिति। नहि ज्ञानकर्मणोर्विरोधाज्ज्ञाननिष्ठेन कर्म कर्तुं शक्यते तथा चानात्मज्ञेनैव चित्तशुद्ध्यादिपरंपरया ज्ञानार्थं कर्मानुष्ठेयमिति प्रतिपादितमित्यर्थः। तर्हि यज्ञार्थादित्यादि। किमर्थं नहि तत्र ज्ञाननिष्ठा प्रतिपाद्यते कर्मनिष्ठा तु पूर्वमेवोक्तत्वान्नात्र वक्तव्येत्याशङ्क्य वृत्तमर्थान्तरमनुवदति प्रतिपाद्येति। प्रासङ्गिकमज्ञस्य कर्मकर्तव्यतोक्तिप्रसङ्गागतमिति यावद् बहुकारणमीश्वरप्रसादो देवताप्रीतिश्चेत्यादि दोषसंकीर्तनंतैर्दत्तानप्रदाय इत्यादि।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.16।।फलितमाह। एवमीश्वरेण वेदयज्ञपूर्वकं जगच्चकं प्रवर्तितं य इहलोके कर्माधिकृतो नानुवर्तयति नानुतिष्ठति स अधायुरघं पापमायुर्जीवनं यस्य स इन्द्रियैरारमणं विषयसेवनं यस्य सः व्यर्थं जीवति। त्वया तु जगच्चक्रप्रवर्तकस्य ममानुसरणमवश्यं कर्तव्यमिति द्योतयन्नाह पार्थेति। तस्मादज्ञेनाधिकृतेन कर्म कर्तव्यमेवेति प्रकरणार्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.16।।तानि चाक्षराणि भूताभिव्यङ्ग्यानीति चक्रम्। तदेतज्जगच्चक्रं यो नानुवर्तयति स तद्विनाशकत्वादघायुः पापनिमित्तमेव यस्यायुः सोऽघायुः।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.16।।भवत्वेवं ततः किं फलितमित्यत आह एवमिति। भूतानामादौ वेदाधिगमस्ततः कर्मानुष्ठानं ततो देवानां तृप्तिस्ततो वृष्टिस्ततोऽन्नं ततो भूतानि तेषां वेदाधिगम इत्येवंरूपं चक्रमिव चक्रं निरन्तरमावर्तमानं जगद्यात्रानिर्वाहक नानुवर्तयति नानुतिष्ठति सोऽघायुः पापजीवनः इन्द्रियारामो न तु धर्माराम आत्मारामो वा मोघं व्यर्थं दंशमशकादिवज्जीवति। यस्त्वेतदनुवर्तयति स जगदुपकारको धन्य इति भावः। तथा च श्रुतिःअथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते तेन देवानां लोकोऽथ यदनुब्रूते तेन ऋषीणामथ यत्पितृभ्यो निपृणाति यत्प्रजामिच्छति तेन पितृ़णामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदो वयांस्यापिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोकः इति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.16।।एवं परमपुरुषेण प्रवर्तितम् इदं चक्रम्अन्नाद् भवन्ति भूतानि इत्यत्र भूतशब्दनिर्दिष्टानि सजीवानि शरीराणि। पर्जन्यादन्नम् यज्ञात् पर्जन्यः यज्ञश्च कर्तृव्यापारानुरूपात् कर्मणः कर्म च सजीवात् शरीरात् सजीवं शरीरं च पुनरन्नाद् इति अन्योन्यकार्यकारणभावेन चक्रवत् परिवर्तमानम् इह साधने वर्तमानो यः कर्मयोगाधिकारी ज्ञानयोगाधिकारी वा न अनुवर्तयति न प्रवर्तयति यज्ञशिष्टेन देहधारणम् अकुर्वन् सः अघायुः भवति अघारम्भाय एव अस्य आयुः अघपरिणतं वा उभयरूपं वा सः अघायुः।अत एव इन्द्रियारामो भवति न आत्मारामः इन्द्रियाणि एव अस्य उद्यानानि भवन्ति अयज्ञशिष्टवर्द्धितदेहमनस्त्वेन उद्रिक्तरजस्तमस्कः आत्मावलोकनविमुखतया विषयभोगैकरतिः भवति अतो ज्ञानयोगादौ यतमानः अति निष्फलप्रयत्नतया मोघं पार्थ स जीवति।असाधनायत्तात्मदर्शनस्य मुक्तस्य एव महायज्ञादिवर्णाश्रमोचितकर्मानारम्भ इत्याह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.16।।यस्मादेवं परमेश्वरेणैव भूतानां पुरुषार्थसिद्धये कर्मादिचक्रं प्रवर्तितं तस्मात्तदुकुर्वतो वृथैव जीवितमित्याह एवमिति। परमेश्वरवाक्यभूताद्वेदाख्याद्ब्रह्मणः पुरुषाणां कर्मणि प्रवृत्तिः ततः कर्मनिष्पत्तिः ततः पर्जन्यः ततोऽन्नम् ततो भूतानि भूतानां च पुनस्तथैव कर्मणि प्रवृत्तिरित्येवं प्रवर्तितं चक्रं यो नानुवर्तयति नानुतिष्ठति सोऽघायुः अघं पापरुपमायुर्यस्य सः। यत इन्द्रियैर्विषयेष्वेव रमति न तु ईश्वराराधनार्थे कर्मणि। अतो मोघं व्यर्थ स जीवति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.16।।प्रवर्तितमित्यस्य प्रवर्तकापेक्षायांसह यज्ञैः 2।10 इत्यादिना प्रकृतोदेवान् भावयत 3।11 इत्यादिना यज्ञेषु प्रजाः प्रवर्तयन् प्रजापतिरेवासौ भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणोक्तं परमपुरुषेणेति। लोकदृष्टिशास्त्रदृष्टिभ्यां सिद्धमन्याशक्यत्वमपरोक्षयतेवोक्तंइदमिति।अन्नात् इत्यादिना पुनरपिअन्नात् इत्यन्तेन चक्रत्वं व्यज्यते। न तावदत्र भूतशब्देन भवनक्रियायोगिमात्रं निर्दिश्यते महदादेः कार्यस्यान्नजन्यत्वाभावात् अत एव न महाभूतानि नापि वेतालादिसहपठितभूतजातिः तत्कथनस्यात्रानुपयुक्तत्वात् अन्नजन्यत्वे विशेषाभावाच्च। नापि शरीरमात्रं केवलस्य शरीरस्यानुत्पत्तेः शरीरलक्षणाक्रान्तस्य सर्वस्यान्नजन्यत्वाभावाच्च नापि केवलजीवः तत्स्वरूपनित्यत्वादेरुक्तत्वात्। अतः परिशेषाद्भूतशब्दोऽत्र जीवविशिष्टाचित्परिणामविशेषपर इत्यभिप्रायेणोक्तंसजीवानि शरीराणीति।कर्म ब्रह्मोद्भवंब्रह्माक्षरसमुद्भवम् इत्याभ्यां फलितं समुच्चित्य चक्रत्वसिद्ध्यर्थं निर्दिशतिकर्म सजीवाच्छरीरादिति।अन्योन्यकार्यकारणभावेनेति यथासम्भवं साक्षात्परम्परया च सिद्धमुक्तम् न हि साक्षात् सर्वेषामन्योन्यकार्यत्वं कारणत्वं वा अन्योन्याश्रयग्रस्तत्वात् यद्वा कस्यचित्कार्यत्वं कस्यचित्कारणत्वं च सङ्कलय्यान्योन्यकार्यकारणभाव उक्तः। चक्रशब्दोपचारनिमित्तं व्यनक्ति चक्रवत्परिवर्तमानमिति।इह लोके वर्तमानो यः पुरुष इति अधिकरणाधिकर्तव्ययोः सामान्यनिर्देशादपि इह साधने वर्तमानो योऽधिकारिविशेष इति विशेषपरामर्श एवोचितः इदं शब्दादेः सन्निहितपरामर्शप्रावण्यात् अनपेक्षिताभिधानादपि अपेक्षिताभिधानौचित्याच्च इतिसाधने वर्तमाने इत्यादेर्भावः। अनुवर्तयतीत्यत्रानुमन्तृत्वादिमात्रव्यवच्छेदार्थं पुरुषव्यापारप्राधान्यद्योतनार्थं चप्रवर्तयतीति व्याख्यातम्। श्लोके चानुशब्दप्रयोगः परमपुरुषप्रवर्तितानुप्रवर्तनरूपत्वात् प्रवाहरूपत्वाद्वा। अघायुरित्यादीनां त्रयाणां पृथक्पृथग्दोषत्वव्यक्त्यर्थं पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरहेतुत्वज्ञापनार्थं च भवतीति पृथग्वाक्यकरणम्। अघकारणत्वादपकार्यत्वात् उभयसङ्ग्राहकाघसम्बन्धित्वमात्राद्वाऽत्राघशब्देनायुषो लक्षणेत्यभिप्रायेण अघारम्भायैवेत्यादि निर्वाहत्रयमुक्तम् अत एवेति। उक्तप्रकारेणाघायुष्ट्वादेवेत्यर्थः।इन्द्रियारामः इत्यस्याभिप्रेतं व्यवच्छेद्यमाह नात्माराम इति। विशेषणत्वादिसिद्धव्यवच्छेदाभिप्रायसिद्ध्यर्थं समासतदंशयोरर्थमाह इन्द्रियाण्येवेति। इन्द्रियाणां कथमारामत्वमिति शङ्कायांएवं प्रवर्तितम् इत्यादिनाइन्द्रियारामः इत्यन्तेन फलितमाह अयज्ञशिष्टेति।अत इति विषयभोगैकरतित्वादित्यर्थः। स इति निर्देशस्य पूर्वव्याख्यातप्रकारयच्छब्दार्थविषयत्वात्। मोघशब्दस्य निष्फलप्रयत्नताविषयस्य प्रतिहन्तव्यप्रयत्नसाकाङ्क्षत्वाच्चाह ज्ञानयोगादौ यतमानोऽपीति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.16।।एवमिति। यस्तु एवं नाङ्गीकरोति स पापमयः। यतः (N अतः) स इन्द्रियेष्वेव रमते नात्मनि।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.16।।नन्वत्र कार्यकारणपरम्परैवोक्ता न चक्रं तत्कथं उच्यतेएवं प्रवर्तितं चक्रम् इति तत्राह तानि चेति। तानि वेदाख्यानि। चक्राप्रवृत्तौ कथमघायुष्ट्वादिकं इत्यतो व्याचष्टे तदेतदिति। आयुषोऽघत्वाभावात् कथमघायुः इत्यत आह पापेति। तादर्थ्यात्ताच्छब्द्यमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.16।।भवत्वेवं ततः किं फलितमित्याह आदौ परमेश्वरात्सर्वावभासकनित्यनिर्दोषवेदाविर्भावः ततः कर्मपरिज्ञानंततोऽनुष्ठानाद्धर्मोत्पादः ततः पर्जन्यस्ततोऽन्नं ततो भूतानि पुनस्तथैव भूतानां कर्मप्रवृत्तिरित्येवं परमेश्वरेण प्रवर्तितं चक्रं सर्वजगन्निर्वाहकं यो नानुवर्तयति नानुतिष्ठति सोऽघायुः पापजीवनो मोघं व्यर्थमेव जीवति। हे पार्थ तस्य जीवनान्मरणमेव वरम्। जन्मान्तरे धर्मानुष्ठानसंभवादित्यर्थः। तथाच श्रुतिःअथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते तेन देवानां लोकोऽथ यदनुब्रूते तेन ऋषीणामथ यत्पितृभ्यो निपृणाति यत्प्रजामिच्छते तेन पितृ़णामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयांस्यापिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोकः इति। ब्रह्मविदं व्यावर्तयति इन्द्रियाराम इति। यत इन्द्रियैर्विषयेष्वारमति अतः कर्माधिकारी संस्तदकरणात्पापमेवाविचिन्वन्व्यर्थमेव जीवतीत्यभिप्रायः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.16।।एवं भगवदात्मकं कर्म यो न करोति तस्य व्यर्थं जीवनमित्याह एवमिति। एवं प्रकारेण प्रवर्तितं चक्रं स्वतःप्रवृत्तं मदिच्छया मत्क्रीडार्थं प्रवृत्तं यो नानुवर्तयति नानुतिष्ठति स अघायुः पापायुः पापमेवायुर्यस्य तादृशः। इन्द्रियारामः इन्द्रियेष्वेव इन्द्रियार्थं वा आरमति न तु मदर्थं मयि वा अतो मोघं व्यर्थं स जीवति। पार्थेति सम्बोधनात् स्वभक्तत्वात्तव तथा ज्ञानमनुचितमिति ज्ञापितम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.16।। एवम् इत्थम् ईश्वरेण वेदयज्ञपूर्वक जगच्चक्रं प्रवर्तितं न अनुवर्तयति इह लोके यः कर्मणि अधिकृतः सन् अघायुः अघं पापम् आयुः जीवनं यस्य सः अघायुः पापजीवनः इति यावत्। इन्द्रियारामः इन्द्रियैः आरामः आरमणम् आक्रीडा विषयेषु यस्य सः इन्द्रियारामः मोघं वृथा हे पार्थ स जीवति।।तस्मात् अज्ञेन अधिकृतेन कर्तव्यमेव कर्मेति प्रकरणार्थः। प्राक् आत्मज्ञाननिष्ठायोग्यताप्राप्तेः तादर्थ्येन कर्मयोगानुष्ठानम् अधिकृतेन अनात्मज्ञेन कर्तव्यमेवेत्येतत् न कर्मणामनारम्भात् इत्यत आरभ्य शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः इत्येवमन्तेन प्रतिपाद्य यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र इत्यादिना मोघं पार्थ स जीवति इत्येवमन्तेनापि ग्रन्थेन प्रासङ्गिकम् अधिकृतस्य अनात्मविदः कर्मानुष्ठाने बहु कारणमुक्तम्। तदकरणे च दोषसंकीर्तनं कृतम्।।एवं स्थिते किमेवं प्रवर्तितं चक्रं सर्वेणानुवर्तनीयम् आहोस्वित् पूर्वोक्तकर्मयोगानुष्ठानोपायप्राप्याम् अनात्मविदः ज्ञानयोगेनैव निष्ठाम् आत्मविद्भिः सांख्यैः अनुष्ठेयामप्राप्तेनैव इत्येवमर्थम् अर्जुनस्य प्रश्नमाशङ्क्य स्वयमेव वा शास्त्रार्थस्य विवेकप्रतिपत्त्यर्थम् एतं वै तमात्मानं विदित्वा निवृत्तमिथ्याज्ञानाः सन्तः ब्राह्मणाः मिथ्याज्ञानवद्भिः अवश्यं कर्तव्येभ्यः पुत्रैषणादिभ्यो व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं शरीरस्थितिमात्रप्रयुक्तं चरन्ति न तेषामात्मज्ञाननिष्ठाव्यतिरेकेण अन्यत् कार्यमस्ति इत्येवं श्रुत्यर्थमिह गीताशास्त्रे प्रतिपिपादयिषितमाविष्कुर्वन् आह भगवान्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.16।।यस्मादेवं प्रजापतिना कृतोपदेशेनैव भूतानां पुरुषार्थसिद्ध्यर्थं कर्माज्ञप्तं प्रवर्त्तितम् तस्मात्तदननुवर्त्तयतो वृथैव जीवितमित्याह एवं प्रवर्त्तित्तमिति। कर्मचक्रं कर्मणोऽनुशासनं वा यो नर इन्द्रियारामो नानुसरति।


Chapter 3, Verse 16