Chapter 3, Verse 11

Text

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।

Transliteration

devān bhāvayatānena te devā bhāvayantu vaḥ parasparaṁ bhāvayantaḥ śhreyaḥ param avāpsyatha

Word Meanings

devān—celestial gods; bhāvayatā—will be pleased; anena—by these (sacrifices); te—those; devāḥ—celestial gods; bhāvayantu—will be pleased; vaḥ—you; parasparam—one another; bhāvayantaḥ—pleasing one another; śhreyaḥ—prosperity; param—the supreme; avāpsyatha—shall achieve


Translations

In English by Swami Adidevananda

By this, please the gods, and they will support you. Thus, nourishing each other, you may obtain the highest good.

In English by Swami Gambirananda

'You nourish the gods with this. Let those gods nourish you in return. By mutually nourishing each other, you shall attain the supreme Good.'

In English by Swami Sivananda

With this, nourish the gods, and may the gods nourish you; thus, nourishing each other, you shall attain the highest good.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

'You should gratify the devas with this, and let the devas gratify you; thus, mutually gratifying each other, you will attain the highest good.'

In English by Shri Purohit Swami

Worship the powers of Nature, and let them nourish you in return; thus, supporting each other, you shall attain your highest welfare.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.10 -- 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा-(मनुष्य आदि-) की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्म-रूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.11।। तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.11 देवान् the gods? भावयत nourish (ye)? अनेन with this? ते those? देवाः gods? भावयन्तु may nourish? वः you? परस्परम् one another? भावयन्तः nourishing? श्रेयः good? परम् the highest? अवाप्स्यथ shall attain.Commentary Deva literally means the shining one. By this sacrifice you nourish the gods such as Indra. The gods shall nourish you with rain? etc. the highest good is the attainment of the knowledge of the Self which frees one from the round of births and deaths. The highest good may mean the attainment of heaven also. The fruit depends upon the motive of the aspirant.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.11।। व्याख्या--'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः' ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसलिये वे 'प्रजापति' कहलाते हैं। सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्य-कर्मोंकी योग्यता और विवेक-सहित मनुष्योंकी रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल-परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।सत्-असत् विचार करनेमें पशु, पक्षी वृक्ष, आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं।देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, तथा अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सभी प्राणी प्रजा हैं। इनमें भी योग्यता, अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है। अतः यहाँ 'प्रजाः' पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है।कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'पुरातनः' पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्रायः लुप्त हो गया था, जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है। उसी बातको यहाँ भी 'पुरा' पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं कि 'मैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग(निःस्वार्थभावसे कर्तव्यकर्म करने) की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है।'

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.11।। वैदिक सिद्धार्न्त के अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर एक है। उसकी यह सर्वशक्ति प्रकृति में अनेक प्रकार से व्यक्त होकर सदैव कार्य करती है। विभिन्न प्रकार से व्यक्त परिच्छिन्न शक्तियों के विभिन्न नियामक हैं उन्हें देवता कहते हैं। इन सबके नाम भी वेदों में बताये हैं जैसे अग्नि वायु इन्द्र आदि।इस श्लोक के सर्वमान्य और सर्वत्र उपयुक्त होने के लिये देव शब्द का अर्थ यह समझना चाहिये कि वे किसी भी कर्म क्षेत्र का वह अधिष्ठाता देवता जो कर्म करने वाले कर्मचारी या कर्त्ता को फल प्रदान करता हो। वह देवता और कोई नहीं उस कर्म क्षेत्र की उत्पादन क्षमता ही होगी। जब हम किसी क्षेत्र विशेष में पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं तब उस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता प्रगट होकर हमें फल प्रदान करती है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है यदि हम समझने का प्रयत्न करें कि अपने देश को भारतमाता कहने का हमारा क्या तात्पर्य है। राष्ट्र की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों की उत्पादन क्षमता से ही होता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इन देवों को यज्ञ कर्म से प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस प्रकार परस्पर उन्नति कर मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त करेगा यह ब्रह्माजी का दिव्य उद्देश्य इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया।इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है इस सार्वभौमिक सेवाधर्मयज्ञ भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है।और

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.11।।कथं पुनरभीष्टफलविशेषहेतुत्वं यज्ञस्य विज्ञायते नहि देवताप्रसादादृते स्वर्गादिरभ्युदयो लभ्यते नापि सम्यग्दर्शनमन्तरेण निःश्रेयसं सेद्धुं पारयतीति शङ्कते कथमिति। तत्र श्लोकेनोत्तरमाह देवानिति। मुमुक्षुत्वबुभुक्षुत्वविभागेन श्रेयसि विकल्पः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.11।। कथमित्याकाङ्कक्षायामाह अनेनेति। अनेन यज्ञेन देवानिन्द्रादीन् वर्धयत्। ते वृत्त्यादिद्वाराऽन्नदानेन युष्मान् वर्धयन्तु। एवं परस्परं वर्धयन्तोऽभीष्टं परं परलोके स्वर्गादिकमवाप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.10 3.11।।अत्रार्थवादमाह सहयज्ञा इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.11।।इष्टार्थपूरकत्वमेवाह देवानिति। भावयत तर्पयत। अनेन देवतापूजात्मकेन यज्ञेन ते वो युष्मान्भावयन्तु वृष्ट्यादिदानेन। परस्परं भावयन्तो देवाश्च यूयं च श्रेयः परं प्राप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.11।।अनेन देवताराधनभूतेन देवान् मच्छरीरभूतान् मदात्मकान् आराधयतअहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च (गीता 9।24) इति वक्ष्यते। यज्ञेन आराधिताः ते देवा मदात्मकाः स्वाराधनापेक्षितान्नपानाद्यैः युष्मान् पुष्णन्तु। एवं परस्परं भावयन्तः परं श्रेयो मोक्षाख्यम् अवाप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.11।।कथमिष्टकामदोग्धा यज्ञो भवेदित्यत्राह देवानिति। अनेन यज्ञेन युयं देवान्भावयत हविर्भागैः संवर्धयत। ते च देवा वो यष्मान्संवर्धयन्तु वृष्ट्यादिनान्नोत्पत्तद्वारेण। एवमन्योन्यं संवर्धयन्तो देवाश्च यूयं च परस्परं श्रेयोऽभीष्टमर्थं प्राप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

3.11 इति पूर्वापरानुगुण्याच्चात्र मोक्षार्थतोक्तिर्युक्ता।प्रपूरयितेतिदुह प्रपूरणे इति हि धातुः। ननु प्रपूरणं हि पूरणाभावेऽनुशिष्टं प्रस्थानप्रस्मरणादिष्विवात्रापि प्रशब्दस्याभावविषयत्वात् अत एव हिगां दोग्धि इत्यादिप्रयोगः सत्यम् तथापिगां दोग्धि इत्यत्रापि गोरेव पयोरेचनं न तु पयसः स्वरूपवैकल्यम् तद्वदत्रापि गोस्थानीयाद्यज्ञतः क्षीरस्थानीयाः कामा लभ्यन्ते तैस्तस्य रेचनं स्यात् फलदातुः सकाशात् फलमादाय युष्मभ्यं ददात्वित्यर्थः तेन यज्ञाराधितोऽहं युष्मभ्यं कामान् ददामीत्युक्तं भवति।।।3.11।।यज्ञेनात्मनो वृद्धिः कथम् क्षणिकक्रियारूपश्च यज्ञः कथं कालान्तरभाविफलसाधनम् नान्यः पन्थाः श्वे.उ.3।86।15 इत्यादिना ज्ञानस्यैव मोक्षप्रदत्वे सिद्धे कथं स्वर्गादिसाधनतया निर्दिष्टो यज्ञो मोक्षसाधनम् स्मरन्ति चकर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते। तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः सं.उ.98म.भा.12।241।7 इति तथानैव धर्मी न चाधर्मी ज्ञानं सन्न्यासलक्षणम् ना.प.उ.3 इति च कथं च मोक्षबहिर्भूतानां विचित्रसांसारिककामानां तदनुगुणत्वं इति शङ्कास्तबकमभिप्रेत्याह कथमिति। तत्रदेवान् भावयत इति प्रथमस्योत्तरम् देवताराधनं ह्याराधकस्यातिशय एव अतः स एवात्मनो वृद्धिःयज देवपूजायाम् इति यज्ञपदप्रकृतिं धातुं स्मारयति देवताराधनभूतेनेति। यज्ञस्य मोक्षहेतुत्वानुपपत्तिपरिहारायमदात्मकानिति। परमात्मसमाराधनतया कृतं कर्मैव मोक्षसाधनज्ञानाङ्गतया स्थित्वा मोक्षं साधयतीति प्रागेवोक्तम्।मदात्मकान् इत्यस्यान्तर्यामिब्राह्मणादिसिद्धत्वसूचनायमच्छरीरभूतानित्युक्तम्। यज्ञेन देवानां भावनं हि सन्तोषवत्तया भावनमित्यभिप्रायेणोक्तंआराधयतेति। तदभिप्रायेण च ब्राह्मणं तस्मादितः प्रदानं देवा उपजीवन्ति यजुः3।2।9 इति।मदात्मकान् इत्यस्यात्रानुक्तस्य कथमुपादानं इत्यत्राह अहं हीति। क्षणिकस्य फलप्रदानानुपपत्तिपरिहाररूपं द्वितीयं पादं व्याख्याति यज्ञेनेत्यादिनापुष्णन्त्वित्यन्तेन। प्रस्तुताकारपरामर्शितच्छब्दार्थः यज्ञेनाराधिता इति। देवानां फलप्रदानशक्तिसिद्ध्यर्थं पुनःमदात्मका इत्युक्तम्। एवं च क्षणिकस्यापि देवताप्रीतिरूपापूर्वद्वारा फलसाधनत्वम् महाप्रलये त्विन्द्रादिलयेऽपि परदेवताप्रीतिद्वारा पुनः फलप्रदत्वमुपपन्नमित्युक्तं भवति। चतुर्थशङ्कापरिहारमभिप्रेत्याह स्वाराधनेति। देवैराराधकानां भावनं नामापेक्षितैः पोषणमित्यभिप्रायेणोक्तंपुष्णन्त्विति। उत्तरार्धमुक्तस्यैवार्थस्य मोक्षोपयोगित्वज्ञापकमित्यभिप्रायेणाह एवमिति। स्वर्गादिरूपश्रेयोव्यावृत्त्यर्थं परत्वविशेषणमित्यभिप्रायेणोक्तंमोक्षाख्यमिति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.11।।य(त)त्र येषां मोक्षप्राधान्यं तैरेव विषयाः सेव्या इत्युच्यते देवानिति। देवाः क्रीडाशीलाः (K क्रीडनशीलाः) इन्द्रियवृत्तयः करणेश्वर्यो देवता रहस्यशास्त्रप्रसिद्धाः ताः अनेन कर्मणा तर्पयत ययासंभवं विषयान् भक्षयतेत्यर्थः। तृप्ताश्च सत्यस्ता वो (S सत्यो वो) युष्मान् आत्मन एव स्वरूपमात्रोचितान् अपवर्गान् (S चितापवर्गान्) भावयन्तु स्वात्मस्थितियोगत्वात्। एवमनवरतं व्युत्थानसमाधिसमयपरम्परायाम् (S रतव्युत्थान ) इन्द्रियतर्पणदात्मासाद्भावलक्षणे ( सद्भाव ) परस्परभावने सति शीघ्रमेव परमं श्रेयः परस्परभेदविगलनलक्षणं ब्रह्म प्राप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.10 3.11।।सहयज्ञाः इत्यादेर्न प्रकृते सङ्गतिर्दृश्यते अत आह अत्रेति। वर्णाश्रमोचितस्य कर्मणः सर्वथा कर्तव्यत्वे स्तुतिर्निन्दा परकृतिः पुराकल्पोऽर्थवादः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.11।।कथमिष्टकामदोग्धृत्वं यज्ञस्येति तदाह अनेन यज्ञेन यूयं यजमाना देवानिन्द्रादीन्भावयत हविर्भागैः संवर्धयत। तर्पयतेत्यर्थः। ते देवा युष्माभिर्भाविताः सन्तो वो युष्मान्भावयन्तु वृष्ट्यादिनान्नोत्पत्तिद्वारेण संवर्धयन्तु। एवमन्योन्यं संवर्धयन्तो देवाश्च यूयं च परं श्रेयोऽभिमतमर्थं प्राप्स्यथ। देवास्तृप्तिं प्राप्स्यन्ति यूयं च स्वर्गाख्यं परं श्रेयः प्राप्स्यथेत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.11।।ननु कर्मणा जगतः कथमभीष्टम् इत्याशङ्क्याह देवानिति। अनेन यज्ञेन देवान् तत्तत्कर्माधिष्ठातृ़न् भावयत संवर्द्धयत। ते देवा वो युष्मान् भावयन्तु संवर्द्धयन्तु। अत्रायमर्थः हविर्भागैस्तेषु यूयं देवत्वं वर्द्धयन्तु ते च भवत्सु तत्कर्मसाधनानि वर्द्धयन्तु। एवं परस्परं भावयन्तः संवर्धयन्तो यूयं देवाश्च श्रेयः स्वाभीष्टमवाप्स्यथ।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.11।। देवान् इन्द्रादीन् भावयत वर्धयत अनेन यज्ञेन। ते देवा भावयन्तु आप्याययन्तु वृष्ट्यादिना वः युष्मान्। एवं परस्परम् अन्योन्यं भावयन्तः श्रेयः परं मोक्षलक्षणं ज्ञानप्राप्तिक्रमेण अवाप्स्यथ। स्वर्गं वा परं श्रेयः अवाप्स्यथ।।किञ्च

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.10 3.11।।किञ्च श्रुतं च सर्गप्रकरणे यज्ञोपलक्षणकर्मसहितप्रजोत्पादनं ब्रह्मणेति कर्मणोऽवश्यकर्त्तव्यतामाह सहेति चतुर्भिः। यज्ञाधिकृताः ब्राह्मणाद्याः प्रजाः सहयज्ञाः सृष्ट्वोवाच एष यज्ञो व इष्टकामधुनिति। ज्ञानमोक्षादिहेतुत्वं प्रकारान्तरेण वरप्रदानं तदाह अस्त्विति। न चेयं काम्यकर्मप्रशंसा कामधुक्त्वेनेष्टमात्रसाधकत्वाद्यज्ञादेर्विहितस्य नियतकर्मणः अन्यथाऽक्रामितोऽपि मोक्षः स्यात् तेन सर्वपुरुषार्थहेतुत्वमुक्तं भवति तदेवाह देवानिति। अनेन यज्ञेन विष्ण्वादीन् देवान् भावयत्। तदा परं श्रेय आत्यन्तिकमवाप्स्यथेति भावः।


Chapter 3, Verse 11