Chapter 3, Verse 10

Text

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।

Transliteration

saha-yajñāḥ prajāḥ sṛiṣhṭvā purovācha prajāpatiḥ anena prasaviṣhyadhvam eṣha vo ’stviṣhṭa-kāma-dhuk

Word Meanings

saha—along with; yajñāḥ—sacrifices; prajāḥ—humankind; sṛiṣhṭvā—created; purā—in beginning; uvācha—said; prajā-patiḥ—Brahma; anena—by this; prasaviṣhyadhvam—increase prosperity; eṣhaḥ—these; vaḥ—your; astu—shall be; iṣhṭa-kāma-dhuk—bestower of all wishes


Translations

In English by Swami Adidevananda

In the beginning, the Lord of all beings created man along with the sacrifice and said, "By this shall you prosper; this shall be the cow of plenty, granting all your desires."

In English by Swami Gambirananda

In days of yore, having created the beings together with the sacrifices, Prajapati said, "By this, you shall multiply. Let this be your yielder of coveted objects of desire."

In English by Swami Sivananda

The Creator, having in the beginning created mankind together with sacrifice, said, "By this shall you propagate; let this be the milch cow of your desires—the cow that yields all the desired objects."

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Having created creatures formerly [at the time of creation], together with the necessary action, the Lord of creatures declared: "By means of this, you shall propagate yourselves; and let this be your wish-fulfilling cow."

In English by Shri Purohit Swami

In the beginning, when God created all beings through the sacrifice of Himself, He said to them: "You can procreate through sacrifice, and it shall satisfy all your desires."

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.10 -- 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा-(मनुष्य आदि-) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्म-रूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.10।। प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.10 सहयज्ञाः together with sacrifice? प्रजाः mankind? सृष्ट्वा having created? पुरा in the beginning? उवाच said? प्रजापतिः Prajapati? अनेन by this? प्रसविष्यध्वम् shall ye propagate? एषः this? वः your? अस्तु let be? इष्टकामधुक् milch cow of desires.Commentary Prajapati is the Creator or Brahma. Kamadhuk is another name for the cow Kamadhenu. Kamadhenu is the cow of Indra from which everyone can milk whatever one desires. (Cf.VIII.4IX.2427X.25).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.10।। व्याख्या--'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः'--ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसलिये वे 'प्रजापति' कहलाते हैं। सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्य-कर्मोंकी योग्यता और विवेक-सहित मनुष्योंकी रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।सत्- असत् का विचार करनेमें पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.10।। स्वयं सृष्टिकर्त्ता प्रजापति पंचमहाभूतों की सृष्टि रचकर अन्य प्राणियों के साथ मनुष्य को भी कर्म करने और फल पाने के लिये उत्पन्न करते हैं। उस समय वे यज्ञ को भी बनाते हैं अर्थात् उसका उपदेश देते हैं। यज्ञ का अर्थ है समर्पण बुद्धि और सेवा भाव से किये हुये कर्म। प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ की भावना स्पष्ट दिखाई देती है। सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्रमा प्रगट होता है समुद्र स्पन्दित होता है पृथ्वी प्राणियों को धारण करती है ये सब मातृभाव से तथा यज्ञ की भावना से कर्म करते हैं जिनमें रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती।ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ और प्राकृतिक घटना चक्र अपने आप सब की सेवा में संलग्न रहता है। जगत् में जीवन के प्रादुर्भाव के पूर्व ही प्रकृति ने उसके लिये उचित क्षेत्र निर्माण कर रखा था। जब विभिन्न स्तरों पर जीवन का विकास होता है तब भी हम प्रकृति में सर्वत्र चल रहा यज्ञ कर्म देख सकते हैं जिसके कारण सबका अस्तित्व बना रहता है और विकास होता रहता है।उपर्युक्त सिद्धांत को काव्यात्मकभाषा में यह अर्थ गर्भित श्लोक प्रस्तुत करता है। सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा जी ने सेवा की भावना तथा यज्ञ करने की क्षमता के साथ जगत् की रचना की। मानो उन्होंने घोषणा की इस यज्ञ में तुम वृद्धि को प्राप्त हो यह तुम्हारे लिये कामधेनु सिद्ध हो। पौराणिक कथाओं के अनुसार कामधेनु नामक गाय वशिष्ट ऋषि के पास थी जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करती थी। इसलिये इस शब्द का अर्थ इतना ही है कि यदि मनुष्य सहयोग और अनुशासन में रह कर अनासक्ति और त्याग की भावना से कर्म करने में तत्पर रहे तो उसके लिये कोई लक्ष्य अप्राप्य नहीं हो सकता।यज्ञ से इसका कैसे सम्पादन किया जा सकता है

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.10।।नित्यस्य कर्मणो नैमित्तिकसहितस्याधिकृतेन कर्तव्यत्वे हेत्वन्तरपरत्वेनानन्तरश्लोकमवतारयति इतश्चेति। कथं पुनरनेन यज्ञेन वृद्धिरस्माभिः शक्या कर्तुमित्याशङ्क्याह एष इति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.10।।इतश्च हेतोरधिकृतेन कर्म कर्तव्यं प्रजापतिर्ब्रह्मा सर्गादौ यज्ञसहिताः त्रैवर्णिकाः प्रजाः सृष्ट्वोवाच। अनेन यज्ञेन कर्मणा प्रसविष्यध्वं वृद्धिं लभत्वं उत्पत्तिं कुरुध्वम्। वृद्य्धादिहेतुत्वमस्यास्तीत्याह। एष यज्ञो वो युष्माकमभिप्रेतभोगप्रदो भवतु।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.10 3.11।।अत्रार्थवादमाह सहयज्ञा इति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.10।।एतदेवार्थवादेन द्रढयति सहेति। यज्ञैः सहेति सहयज्ञाः।वोपसर्जनस्य इति पक्षे सादेशाभावः। कर्माधिकृता इति यावत्। प्रजास्त्रैवर्णिकाः। अनेन यज्ञेन प्रसविष्यध्वं प्रसवो वृद्धिस्तां लभध्वम्। एष यज्ञो वो युष्माकमिष्टकामधुगिष्टार्थपूरकोऽस्तु।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.10।।पतिं विश्वरस्य आत्मेश्वरम् (तै0 ना0 11।3) इत्यादिश्रुतेः निरुपाधिकः प्रजापतिशब्दः सर्वेश्वरं विश्वस्रष्टारं विश्वात्मानं परायणं नारायणम् आह पुरा सर्गकाले स भगवान् प्रजापतिः अनादिकालप्रवृत्ताचित्संसर्गविवशा उपसंहृतनामरूपविभागाः स्वस्मिन् प्रलीनाः सकलपुरुषार्थनर्हाः चेतनेतरकल्पाः प्रजाः समीक्ष्य परमकारुणिकः तदुज्जिजीवविषया स्वाराधनभूतयज्ञनिर्वृत्तये यज्ञैः सह ताः सृष्ट्वा एवम् उवाच अनेन यज्ञेन प्रसविष्यध्वम् आत्मनो वृद्धिं कुरुध्वम्। एष वो यज्ञः परमपुरुषार्थलक्षणमोक्षाख्यस्य कामस्य तदनुगुणानां च कामानां प्रपूरयिता भवतु।कथम्

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.10।। प्रजापतिवचनादपि कर्मकर्तैव श्रेष्ठ इत्याह सहयज्ञा इति चतुर्भिः। यज्ञेन सह वर्तन्ते इति सहयज्ञाः यज्ञाधिकृता ब्राह्मणाद्याः प्रजाः पुरा सर्गादौ सृष्ट्वा ब्रह्मेदमुवाच। अनेन यज्ञेन प्रसविष्यध्वं प्रसूयध्वम्। प्रसवो वृद्धिः। उत्तरोत्तरामभिवृद्धिं लभध्वमित्यर्थः। तत्र हेतुः। एष यज्ञो वो युष्माकमिष्टकामधुगिष्टान्काभान्दोग्धीति तथा। अभीष्टभोगप्रदोऽस्त्वित्यर्थः। अन्न च यज्ञग्रहणमावश्यककर्मोपलक्षणार्थम्। काम्यकर्म प्रशंसा तु प्रकरणेऽसंगतापि सामान्यतोऽकर्मणः कर्मश्रेष्ठमित्येतदर्थेत्यदोषः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.10।।उक्तमर्थद्वयंसह यज्ञैः इत्यारभ्यमोघं पार्थ स जीवति 3।16 इत्यन्तेन निन्दाप्रशंसादिभिर्द्रढयतीत्याह यज्ञशिष्टेनैवेति।सर्वपुरुषार्थसाधननिष्ठानामित्यनेनप्रजाः सृष्ट्वा इति सामान्यनिर्देशफलितमुक्तम्। अत्र प्रजापतिशब्दस्य हिरण्यगर्भादिविषयत्वव्युदासायाह पतिं विश्वस्येतीति। हिरण्यगर्भादेरपि न तु हिरण्यगर्भादिवदण्डाद्यवच्छिन्नस्येत्यर्थः। तत एवोक्तंनिरुपाधिक इति। श्रुतार्थस्वभावादपि स एव सर्वप्रजापतिरिति प्रदर्शनायसर्वेश्वरमित्यादिविशेषणोक्तिः।नारायणम् एतदखिलं नारायणशब्दवाच्यस्यैव हि नारायणानुवाकादिषु प्रतिपाद्यत इति भावः। उक्तं च जगत्पतित्वं स्रष्ट्टत्वादिकं च समुच्चित्य भगवता पराशरेणकलौ जगत्पतिं विष्णुं सर्वस्रष्टारमीश्वरम् वि.पु.6।1।50ब्र.पु.च.120।45 इति।अनुमानात्तदुद्धारं कर्तुकामः प्रजापतिः वि.पु.1।4।7 इति च वराहरूपे भगवति प्रजापतिशब्दः तेनप्रजापतिः तै.ना.1।1 इत्यादिश्रुत्यनुसारात्प्रयुक्तः। किञ्च स्वतन्त्रस्य कर्मपरतन्त्रान्प्रति नियोगो ह्ययम्। अतोऽत्रप्रजाः सृष्ट्वा इति प्रजाशब्दः सर्वान् ब्रह्मपर्यन्तान् जगदन्तर्व्यवस्थितान् कर्मजनितसंसारवशवर्तिनो यज्ञाद्यधिकारिणःप्राणिनः सङ्गृह्णाति। अतोऽत्र प्रजापतिशब्द उपक्रमस्थप्रजाशब्दानुरोधात् सङ्कोचेन तद्वैरूप्यायोगाच्च परित्यक्तरूढिरकर्मवश्यं नियोक्तारं सर्वेश्वरं नारायणमाह। तथा सृज्यसमस्तक्षेत्रज्ञविषयो ह्ययमनवच्छिन्नः प्रजाशब्दः।पुरेति प्रलयानन्तरकालाभिधानात्ततश्च सदेव सोम्येदमग्र आसीत् ৷৷. तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति छां.उ.6।2।13 सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः छां.उ.6।8।4 एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः इत्यारभ्य बुद्बुदात्र्यक्षः शूलपाणिः पुरुषो जायते ৷৷. तत्र ब्रह्मा चतुर्मुखोऽजायत महो.1।1सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः मनुः1।8 इत्यादिषु हिरण्यगर्भादेरपि प्रजात्वावगमान्नारायणस्य च तज्जनकत्वावगतेःप्रजाः सृष्ट्वा इत्यनवच्छेदेन निर्दिष्टो विश्वस्य स्रष्टा नारायण एवेति स एवात्र प्रजापतिः। किञ्च तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ऋक्सं.6।4।18।4यजुस्सं.31।7 सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः। नामानि कृत्वाऽभिवदन्यदास्ते इति यज्ञैः सह सर्वप्रजानां स्रष्ट्टतया निर्दिष्टोऽप्यधिकारपुरुषस्यापि स्रष्टा सहस्रशीर्षत्वादिविशिष्टः परमपुरुष एव। अतोऽपिसह यज्ञैः प्रजाः सृष्ट्वा इति निर्दिष्टः प्रजापतिः विश्वस्य स्रष्टा स एव। तथासृष्टिं ततः करिष्यामि त्वामाविश्य प्रजापते वि.ध.68।51 इत्यादिवचनबलाद्धिरण्यगर्भाख्यप्रजापतिमुखेनापि विश्वस्रष्टा सर्वभूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः सु.उ.7 इति श्रुतः स एव विश्वात्मा। किञ्चात्र निर्दिश्यमानं देवानां भावनादिकं परमात्मात्मकानामेवेतिअहं हि सर्वयज्ञानाम् 9।24 इत्यादौ व्यक्तं भविष्यति यस्मिन्निदं सञ्चविचैति श्वे.उ.4।11 प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः य.सं.31।19तै.ना.6।11 इत्यादिकंविश्वस्य स्रष्टारं विश्वात्मानमिति विशेषणाभ्यां सूचितम्। अतोऽप्यत्र विश्वात्मानं तमेवाह। तथा प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये छां.उ.8।14।1 इत्यत्र परमप्राप्यतया च प्रजापतिशब्दनिर्दिष्टोऽपि परमात्मैवेतिन च कार्ये प्रत्यभिसन्धिः ब्र.सू.4।3।14 इति सूत्रे प्रत्यपादि अतोऽपि परायणं तमेवाह। एवं सर्वेश्वरमित्यादिविशेषणैः तत्तत्प्रमाणसूचनं कृतम्। एवं श्यामैकरूपसप्तदशायातयामाज्यदैवतविष्णुविषयप्रजापतिशब्दश्रुतिरप्यनुसन्धेया।पुराशब्दस्य वचनान्वयं प्रतीतिव्युदासेन ब्रह्माद्यगोचरसृष्ट्यन्वयव्यक्त्यर्थमाह पुरा सर्गकाले इति। श्रुतिस्मृत्यादिषु सृष्टिप्रकरणप्रसिद्धिप्रकारमभिप्रैति स भगवानिति भगवच्छब्देन सृष्ट्यादिपञ्चकृत्योपयुक्तहेयप्रत्यनीककल्याणगुणविशिष्टत्वं दर्शितम्। तथा मानवे धर्मशास्त्रे प्रथमम्आसीदिदं तमोभूतम् 1।5 इति प्रलयमभिधायततः स्वयम्भूर्भगवान् 1।6 इति भगवच्छब्देन सर्वस्रष्टा निर्दिष्टः। अनन्तरं चता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः 1।10तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते 1।11 इति हिरण्यगर्भाख्यप्रजापतेः स्रष्टा नारायण इत्युक्तम्।अत्र प्रजापतिरुवाच इति पराक्तया निर्देशस्तु सारथिभूतस्य स्वस्य प्रजापतिशब्दप्रतिपन्नात् स्वस्माद्भेदोपचारेणेति मन्तव्यम्। एवमुत्तरत्रापि सर्वत्र पराक्त्वनिर्देशेषु यथार्हमनुसन्धेयम्।सर्वत्र सृष्टेः संहारपूर्वकत्वदर्शनादत्रापि तथा विवक्षन् संहारस्य प्रयोजनं सृष्टेर्हेतुं चाह अनादीति। अनवरतसुखदुःखोपभोगायासपरिश्रान्तानां विश्रमार्थं अश्रान्तापथप्रवृत्तिवासनाविच्छेदार्थं चोपसंहारः। अतो न संहारे नैर्घृण्यदोषः। तादृशसुखदुःखोपभोगप्रदाने च परमात्मनित्यसङ्कल्पसिद्धजीवस्वातन्त्र्यनिबन्धनानादिकर्मप्रवाहहेतुकाचित्संसर्ग एव हेतुरिति न तत्र वैषम्यनैर्घृण्ये। सूत्रितं चवैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयतिन कर्माविभागात् ब्र.सू.2।1।3435 इति चेन्नानादित्वादुपपद्यते चाप्युपलभ्यते चकृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः ब्र.सू.2।3।42 इति।उपसंहृतनामरूपविभागाः स्वस्मिन् प्रलीना इति। असद्व्यपदेश एकत्वव्यपदेशादिश्च निर्व्यूढः। नामरूपप्रहाणं स्वस्मिन् प्रलयश्च मोक्षवत्पुरुषार्थ एव स्यादित्याशङ्क्याह सकलेति। त्रिवर्गेऽप्यनर्हाः किं पुनरपवर्ग इति भावः। तत्र हेतुमाह चेतनेतरकल्पा इति। स्वप्रकाशत्वेऽप्यत्यन्तज्ञानसङ्कोचात्तत्कल्पत्वम् न तु ज्ञानविनाशात्।प्रजाः हिरण्यगर्भादिकाः समीक्ष्य सम्यगवलोक्य एतेनजायमानं हि पुरुषं यं पश्येन्मधुसूदनः म.भा.12।348।73नावेक्षसे यदि ततो भुवनान्यमूनि नालं प्रभो भवितुमेव कुतः प्रवृत्तिः। एवं निसर्गसुहृदि त्वयि सर्वजन्तोः स्वामिन्न चित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम् स्तो.र.10।।इत्यादिकमभिप्रेतम्। स एकाकी न रमते महो.1 इति श्रुतेःपरमकारुणिकः किल त्वम् इत्यादिस्मृतिसिद्धगुणविशेषे तात्पर्यमाह परमकारुणिक इति। अवाप्तसमस्तकामस्य जगद्व्यापारानुपपत्तिं परिहरति तदुज्जिजीवयिषयेति। कारुणिका हि स्वार्थनिरपेक्षा एव परोज्जिजीवयिषया प्रवर्तन्ते सैव प्रवृत्तिरस्य लीलाऽपीति न दोष इति भावः। यज्ञैः सहेति निर्देश उज्जीवनोपायविशेषनिष्पत्त्यर्थ इत्यभिप्रायेणाह स्वाराधनेति।यज्ञैरिति वैविध्यसूचनाय बहुवचननिर्देशे पूर्वं कृतेऽपिअनेन इत्येकवचनेन परामर्शो जात्येकत्वपर इत्यभिप्रायेणाह अनेन यज्ञेनेति।सहयज्ञाः इतिशङ्करयादवप्रकाशीयपाठस्त्वप्रासिद्धरनादृतः।प्रसविष्यध्वम् इत्यत्रषूञ् प्राणिप्रसवेषूङ् गर्भविमोचने इतिधातुद्व्येऽपि प्रजननमात्रप्रतीतिः स्यात् न च द्वादशाहादिवत् सर्वेषां यज्ञादीनां प्रजामात्रं फलम्। अतः सन्तत्युपलक्षिता स्वनिष्पाद्या समृद्धिरत्र विवक्षितेत्यभिप्रायेणाह आत्मनो वृद्धिं कुरुध्वमिति। यज्ञसाध्यः कामो निषिद्धेतरधर्माविरुद्धसमस्तकाम्यवर्गः तत्रापि मोक्षतत्साधनोपकारिषु तात्पर्यभूयस्त्वमित्यभिप्रायेण मोक्षतदनुगुणोपादानम्। रुचिवैचित्र्यज्ञापनाय इष्टशब्देन विशेषणम्। मोक्षस्येष्टकामशब्देन सङ्ग्रहायपरमपुरुषार्थलक्षणेत्युक्तम्। अवधीरितस्वर्गाय अर्जुनायोपदेशात्मा फलेषु 2।47श्रेयः परम्

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.10।।सहेति। प्रजापतिः परमात्मा प्रजाः सहैव कर्मभिः ससर्ज। उक्तं च (N omits उक्तं च) तेन प्रजानां कर्मभ्य एव प्रसवः सन्तानः। एतान्येव च इष्टं संसारं मोक्षं वा दास्यन्ति संगात्संसारं मुक्तसंगत्वान्मोक्षम् इति ।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.10 3.11।।सहयज्ञाः इत्यादेर्न प्रकृते सङ्गतिर्दृश्यते अत आह अत्रेति। वर्णाश्रमोचितस्य कर्मणः सर्वथा कर्तव्यत्वे स्तुतिर्निन्दा परकृतिः पुराकल्पोऽर्थवादः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.10।।प्रजापतिवचनादप्यधिकृतेन कर्म कर्तव्यमित्याह सहयज्ञा इत्यादिचतुर्भिः। सह यज्ञेन विहितकर्मकलापेन वर्तन्ते इति सहयज्ञाः। कर्माधिकृता इति यावत्।वोपसर्जनस्य इति पक्षे सादेशाभावः। प्रजाः त्रीन्वर्णान् पुरा कल्पादौ सृष्ट्वोवाच प्रजानां पतिः स्रष्टा। किमुवाचेत्याह अनेने यज्ञेन स्वाश्रमोचितधर्मेण प्रसविष्यध्वं प्रसूयध्वम्। प्रसवो वृद्धिः। उत्तरोत्तरामभिवृद्धिं लभध्वमित्यर्थः। कथमनेन वृद्धिः स्यादत आह एष यज्ञाख्यो धर्मो वो युष्माकं इष्टकामधुक्इष्टानभिमतान्कामान्काम्यानि फलानि दोग्धि प्रापयतीति तथा। अभीष्टभोगप्रदोऽस्त्वित्यर्थः। अत्र यद्यपि यज्ञग्रहणमावश्यककर्मोपलक्षणार्थं अकरणे प्रत्यवायस्याग्रे कथनात्। काम्यकर्मणां च प्रकृते प्रस्तावो नास्त्येवमा कर्मफलहेतुर्भूः इत्यनेन निराकृतत्वात् तथापि नित्यकर्मणामप्यानुषङ्गिकफलसद्भावात्एष वोऽस्त्विष्टकामधुक् इत्युपपद्यते। तथाचापस्तम्बः स्मरति तद्यथाम्रे फलार्थे निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मं चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नोचेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति इति। फलसद्भावेऽपि तदभिसंध्यनभिसंधिभ्यां काम्यनित्ययोर्विशेषः। अनभिसंहितस्यापि वस्तुस्वभावादुत्पत्तौ न विशेषः। विस्तरेण चाग्रे प्रतिपादयिष्यते।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.10।।ननु तादृशं कर्म त्याज्यमेव चेत्त्वन्मतं तदा केनोक्तं कथमाचरति लोकः इत्याशङ्क्यैतत्कर्म प्रवृत्तिपरं मदाज्ञया प्रवृत्तिप्रवर्त्तकब्रह्मणोक्तं लोकः समाचरतीत्याह सहयज्ञा इति। प्रजापतिर्ब्रह्मा सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा प्रवृत्तिधर्मसहिताः प्रजाः सृष्ट्वा पुरा मदवतारात् पूर्वमुवाच। मत्प्रादुर्भावानन्तरं तु मया भक्तिरेवोक्तेति ज्ञापनाय पुरेत्युक्तम्। तद्वाक्यमेवाह अनेनेति। अनेन यज्ञेन प्रसविष्वध्वं प्रकर्षेण वृद्धिं प्राप्स्यथ। किञ्च एष यज्ञः वो युष्माकं इष्टकामधुक् अभीष्टफलदोऽस्तु भगवदाज्ञया ब्रह्मवाक्यं न मृषा भवतीति वरमेव दत्तवान्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.10।। सहयज्ञाः यज्ञसहिताः प्रजाः त्रयो वर्णाः ताः सृष्ट्वा उत्पाद्य पुरा पूर्वं सर्गादौ उवाच उक्तवान् प्रजापतिः प्रजानां स्रष्टा अनेन यज्ञेन प्रसविष्यध्वं प्रसवः वृद्धिः उत्पत्तिः तं कुरुध्वम्। एष यज्ञः वः युष्माकम् अस्तु भवतु इष्टकामधुक् इष्टान् अभिप्रेतान् कामान् फलविशेषान् दोग्धीति इष्टकामधुक्।।कथम्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.10 3.11।।किञ्च श्रुतं च सर्गप्रकरणे यज्ञोपलक्षणकर्मसहितप्रजोत्पादनं ब्रह्मणेति कर्मणोऽवश्यकर्त्तव्यतामाह सहेति चतुर्भिः। यज्ञाधिकृताः ब्राह्मणाद्याः प्रजाः सहयज्ञाः सृष्ट्वोवाच एष यज्ञो व इष्टकामधुनिति। ज्ञानमोक्षादिहेतुत्वं प्रकारान्तरेण वरप्रदानं तदाह अस्त्विति। न चेयं काम्यकर्मप्रशंसा कामधुक्त्वेनेष्टमात्रसाधकत्वाद्यज्ञादेर्विहितस्य नियतकर्मणः अन्यथाऽक्रामितोऽपि मोक्षः स्यात् तेन सर्वपुरुषार्थहेतुत्वमुक्तं भवति तदेवाह देवानिति। अनेन यज्ञेन विष्ण्वादीन् देवान् भावयत्। तदा परं श्रेय आत्यन्तिकमवाप्स्यथेति भावः।


Chapter 3, Verse 10